देवी पार्वतीने पूछा—- कल्याणकारी पतिदेव ! हिमालयपर्वत, मन्दर, गन्धमादन, कैलास, निषध, देदीप्यमान सुमेरुपीठ, मनोहर त्रिशिखर पर्वत एवं अतिशय विशाल मानस पर्वत, रमणीय देव-उद्यान, नन्दनवन, देवस्थानों, मुख्य तीथों और मन्दिरों-इन सभी स्थानोंको छोड़कर आपका अविमुक्तक्षेत्रमें इतना अधिक प्रेम क्यों है? यहाँ अतिशय गोपनीय कौन-सा बहुत बड़ा पुण्य है, जिससे आप प्रमथोंके साथ यहाँ नित्य रमण करते हैं। उस क्षेत्रकी तथा वहाँके निवासियोंकी जो श्रेष्ठता है और उन लोगोंपर आपका जो अपूर्व अनुग्रह है-वे सभी बातें मुझे बतलाइये ॥ 1-5 ॥
शिवजी बोले- भामिनि ! तुम जो प्रश्न कर रही हो यह अतिशय अद्भुत है। मैं यह सब स्पष्टरूपसे कह रहा हूँ, सुनो। प्रिये! सिद्धों और गन्धर्वोंसे सेवित त्रिपथगामिनी पुण्यशीला नदी श्रीगङ्गाजी मेरे उस क्षेत्र वाराणसीमें प्रविष्ट होती है। सुन्दरि कृत्तिवासलिङ्गपर | मेरा अपार प्रेम है, इसीलिये वह स्थान सभी स्थानोंसेश्रेष्ठ है। सुश्रोणि। इसी कारण मेरा उस स्थानपर अधिक राग है तथा सुरेश्वरि उस लिङ्गमें मेरा सदा निवास रहता है सभी गुणवानों श्रेष्ठ देवि! अब मैं क्षेत्रके गुणोंका वर्णन करता हूँ जिन्हें सुनकर मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है, इसमें संदेह नहीं है। पापी, दुष्ट अथवा अधार्मिक मनुष्य भी यदि अविमुक्त (काशी) में चला जाय तो वह सभी पापोंसे छूट जाता है। सभी प्राणियोंके स्थावर एवं जंगमसे व्याप्त लोकके प्रलयकालमें भी मैं सैकड़ों विशिष्ट गणोंके साथ रहकर उस स्थानको नहीं छोड़ता। महाभागे ! जहाँ देवता, गन्धर्व, यक्ष, नाग, राक्षस सभी युगके नाशके समय मेरे मुखमें प्रवेश कर जाते हैं। | पार्वति ! उनकी पूजाको मैं साक्षात् रूपसे ग्रहण करता हूँ। यह शुभदायक अतिशय रहस्यमय स्थान मुझे परम प्रिय है। सुश्रोणि! वहाँ निवास करनेवाले मेरे भक्त द्विजातिगण धन्य हैं। सदा मेरी भक्तिमें तत्पर जो मेरे भक्त हैं वे वहाँ अपने शरीरका त्याग कर परम गतिको प्राप्त होते हैं। जो मनुष्य अविमुक्त क्षेत्र (काशी) में निवास करता है, वह सदा रुद्रसूक्तसे पूजा करता है, सदा दान देता है और सदा तपस्यामें रत रहता है। प्रिये जो मेरी नित्य पूजा करता है उससे मैं प्रसन्न रहता हूँ। जो सभी प्रकारका दान करता है, सभी तरहके यज्ञोंमें दीक्षित होता है और सभी तीर्थोके जलोंके अभिषेकसे सम्पन्न है वही यहाँ मुझे प्राप्त करता है। देवि! जो सदा सुनिश्चित रूपसे अविमुक्त क्षेत्रमें जाते रहते हैं तथा यहाँ निवास करते हैं वे स्वर्गमें भी मेरे भक्त बने रहते हैं। शुभलोचने देवि मेरी कृपासे वे देदीप्यमान रहते हैं तथा किसीसे पराजित न होनेवाले, पराक्रमशाली और संतापरहित होते हैं। स्थिर निश्चयवाले मेरे भक्त शुभप्रद अविमुक्तको प्राप्तकर पापरहित, निर्मल और उद्वेगशून्य हो जाते हैं॥ 6-21 ॥
पार्वतीने कहा- देव! आपने मेरा प्रिय करनेके लिये दक्ष यज्ञको विनष्ट किया था, किंतु अविमुलके गुणोंको सुननेसे मुझे यहाँ संतोष नहीं हो रहा है ॥ 22 ॥ ईश्वर बोले- महाभागे तुम्हें प्रसन्न करनेके लिये मैंने क्रोधवश दक्ष यज्ञका विनाश किया था; क्योंकि वरानने! तुम तो मेरी अतिशय प्रियतमा हो, इसीलिये उस यज्ञको नट किया था जो मेरे भक अविमुरुक्षेत्र नियपूर्वक यह करते हैं उनका सैकड़ों करोड़ कल्पों भी पुनः संसारमें आगमन नहीं होता ।। 23-24 ॥देवीने पूछा- देव आपने अविमुक्तक्षेत्रके जिन दुर्लभ गुणोंका वर्णन किया है, महेश्वर! आप उन सभी गुणोंका रहस्यपूर्वक मुझसे वर्णन कीजिये। महादेव! मेरे हृदयमें परम आश्चर्य हो रहा है, अतः परमेश्वर ! उन सभी विषयोंको मुझे रहस्यपूर्वक बतलाइये ll 25-26 ll
ईश्वर बोले सुन्दर जो अविमुक्तक्षेत्र निवास करते हैं वे मेरी कृपासे विदेह, अक्षय और अमर हो जाते हैं तथा अन्तमें निश्चय ही मुझमें लीन हो जाते हैं। विशालनेत्रे! कहो, कहो, तुम और क्या सुनना चाहती हो ? ।। 27-28 ।।
देवीने पूछा- देव! अविमुक्त नामक विशाल क्षेत्रका आश्चर्यजनक पुण्य है एवं आश्चर्यजनक गुण हैं, इनके सुननेसे मुझे तृप्ति नहीं हो रही है, अतः पुनः उन गुणोंका वर्णन कीजिये ॥ 29 ॥
ईश्वरने कहा- महेश्वरि तुम तो परम सुन्दरी एवं मेरी प्रिया हो, अतः अविमुक्तक्षेत्रमें जो गुण हैं, उन्हें तथा उनके अतिरिक्त अन्यान्य गुणोंको भी सुनो। जो शाक एवं पत्तोंपर जीवन निर्वाह करनेवाले, संयमी, भलीभाँति स्नानसे निर्मल सूर्य किरणोंका पान करनेवाले, दाँतरूपी ओखलीसे निर्वाह करनेवाले पत्थरपर कूटकर भोजन करनेवाले, प्रतिमास कुशके अग्रभागसे जलका आस्वादन करनेवाले, वृक्षकी जड़में निवास करनेवाले, पत्थरपर शयन करनेवाले, आदित्य के समान तेजस्वी शरीरधारी, क्रोधविजयी और जितेन्द्रिय हैं, तथा इसी तरह अनेक प्रकारके धर्मोसे अन्य स्थानोंमें व्रतका आचरण करनेवाले हैं अथवा तपस्यामें संलग्न हैं, वे सभी तीनों कालोंमें भोजन करनेवाले अविमुक्तनिवासी व्यक्तिकी सोलहवीं कलाको बराबरी नहीं कर सकते। जो अविमुक्तक्षेत्रमें निवास कर रहे हैं, वे मानो स्वर्गमें ही निवास कर रहे हैं । ll 30-34 ॥
विश्वमें मेरे समान न कोई दूसरा पुरुष है, न तुम्हारे समान कोई स्त्री है और न अविमुक्तके समान कोई अन्य तीर्थस्थान हुआ है, न होगा। अविमुक्तमें परम योग, अविमुक्तमें श्रेष्ठ गति, अविमुक्तमें परम मोक्ष प्राप्त होता है, इसके समान अन्य कोई भी क्षेत्र नहीं है। शोभने महाक्षेत्र अविमुतके विषयमें मैंने जो पूर्वमें कहा है, उस परम रहस्यको मैं यथार्थरूपसे कह रहा हूँ ।देवि! करोड़ों जन्मोंके पश्चात् मोक्षकी प्राप्ति होती है या नहीं, इसमें भी संदेह है, परंतु यदि कहीं सैकड़ों जन्मोंके बाद ऐसा योग उपलब्ध हो जाय तो दृढ़ निश्चयवाला मेरा भक्त अविमुक्तक्षेत्रमें एक ही जन्ममें योग और मोक्षको प्राप्त कर लेता है। देवि! जो दृढ़ निश्चयसे सम्पन्न पुरुष अविमुक्तक्षेत्रमें जाते हैं ये परम दुर्लभ श्रेष्ठ मोक्षपदको प्राप्त करते हैं। प्रिये! पृथ्वीमें ऐसा क्षेत्र न हुआ है और न होगा। चार मूर्तिवालाधर्म इस क्षेत्रमें सदा निवास करता है। यहाँ चारों वर्णोंकी परम गति कही गयी है । ll 35-41 ॥
देवीने पूछा—प्रभो! आपके क्षेत्रके लौकिक और पारलौकिक गुणोंको मैंने सुन लिया। अब यह बतलाइये कि पृथ्वीपर जो श्रेष्ठ विप्रवृन्द हैं वे यज्ञोंद्वारा किसका यजन करते हैं? ॥ 42 ॥
ईश्वरने कहा जो यज्ञ और मन्त्रद्वारा मेरा ही यजन करते हैं उन लोगोंको कोई भय नहीं रह जाता; क्योंकि वे भव और रुद्रकी आराधना करनेवाले हैं। देवि मन्त्ररहित और मन्त्रसहित दोनों प्रकारकी विधियों कही गयी हैं। इसी प्रकार सांख्य और योगके भेदसे योग भी दो प्रकारका कहा गया है। जो सजातीय, विजातीय एवं स्वगत भेदोंसे शून्य हो सबको एक मानकर सभी प्राणियोंमें स्थित मेरी आराधना करता है वह योगी सदा अपने स्वरूपमें रहता हुआ भी मुझमें ही स्थित रहता है। जो सर्वत्र सबको आत्मसदृश मुझमें अवस्थित देखता है, उससे न तो मैं वियुक्त होता हूँ और न वह मुझसे अलग होता है। भूतलपर निर्गुण और सगुण-दो प्रकारके योग कहे गये हैं। उनमें सगुण योग ही ज्ञानके द्वारा जाना जा सकता है, निर्गुण योग मनसे परे है। देवि जो तुमने मुझसे पूछा है, वह मैंने तुम्हें बतला दिया ll 43-48 ॥
देवीने पूछा- आपने भक्तोंकी जो तीन प्रकारकी भक्ति अनेक बार कही है उसे मैं सुनना चाहती हूँ। आप उसका यथार्थरूपमें मुझसे वर्णन कीजिये ll 49 ॥
ईश्वर (शिव) ने कहा- भलोंके प्रति वात्सल्य भाव रखनेवाली देवेश्वरी पार्वती सुनो जो सांख्य और योगको प्राप्तकर दुःखका सर्वथा विनाश कर लेता है,सदा भिक्षासे जौवन-यापन करता है और उसीसे प्रसन्न रहता है तथा इस प्रकार प्रसन्नताके कारण उसीमें तन्मय होकर लीन हो जाता है, यह भक्तिमान् कहलाता है। वरारोहे! जो शास्त्रोंके अनेकों कारणोंपर विचार करनेवाले हैं, वे ज्ञानवाक्योंमें विवाद करनेवाले लोग मेरा दर्शन नहीं कर पाते। देवि जो परमार्थ ज्ञानसम्पन्न योगी हैं तथा जो द्विजातिवृन्द योगके ज्ञानसे आत्मज्ञानको प्राप्त कर चुके हैं, वे ही मुझे जान पाते हैं। जिसका आत्मा प्रत्याहारके द्वारा विशुद्ध हो गया है, जो परम संतोष, उत्कृष्ट योग और मोक्षको पाकर अन्यथा विचार नहीं करते और तीनों गुणोंसे सम्पन्न हैं, ऐसे ज्ञानी इस अविमुक्तक्षेत्रमें मेरा साक्षात्कार कर पाते हैं। देवि! यह तो मैंने तुमसे कह दिया, अब तुम और क्या सुनना चाहती हो? उत्तम पातिव्रत धारण करनेवाली सुन्दरि मैं पुनः उसका वर्णन करूंगा। प्रिये। जो गोपनीय, पावन अथवा हृदयमें वर्तमान है, वह सब मैं कहूँगा, तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो ll 50-56 ।।
देवीने पूछा- देव! योगसिद्धिसम्पन्न योगिगण आपके कैसे स्वरूपका दर्शन करते हैं? देवश्रेष्ठ मैं आपको नमस्कार करती हूँ, आप मेरे इस संदेहपर प्रकाश डालिये ll 57 ll
श्रीभगवान्ने कहा- मेरा वह ज्योति: स्वरूप अमूर्त और मूर्त-दो प्रकारका कहा गया है। विद्वान् पुरुषको उसे प्राप्त करनेकी अभिलाषासे प्रयत्न करना चाहिये। जो प्राणी गुणोंसे रहित है, वह इस प्रकार इसका वर्णन नहीं कर सकता। यदि करना चाहे तो सैकड़ों दिव्य वर्षोंमें कर सकता है या नहीं इसमें भी संदेह है ।। 58-59॥
देवीने पूछा- जहाँ देवाधिदेव महादेव अपने गणों के साथ नित्य स्थित रहते हैं, वह क्षेत्र चारों ओर सभी दिशाओं में कितनी दूरतक विस्तृत है ? ll 60 ll
भगवान् शङ्करने कहा- वह क्षेत्र पूर्वसे पश्चिमतक दो योजन और दक्षिणसे उत्तरतक आधा योजन विस्तृत बतलाया जाता है। जहाँतक वरुणा और असी नदियाँ हैं, वहाँतक | भीष्मचण्डिकसे लेकर पर्वतेश्वरके समीपतक शुक्लनदी है।जहाँ कूष्माण्ड, गजतुण्ड, जयन्त उत्कट पराक्रमी विनायकगण भलीत नियुक्त होकर विराजमान रहते हैं। उनमें कुछ सिंह एवं बाघके से मुखवाले, कुछ भयंकर, कुबड़े और वामन (बोने) हैं। जहाँ नन्दी, महाकाल, चण्डघण्ट, महेश्वर, दण्डचण्डेश्वर, महाबली घण्टाकर्णये एवं अन्य अनेक गणसमूह और गणेश्वरवृन्द विद्यमान रहते हैं। देवि ये सभी विशाल उदरवाले एवं विशालकाय हैं तथा हाथमें वज्र और शक्ति धारण करके इस अविमुक्त तपोवनकी सदा रक्षा करते हैं। ये सभी हाथमें शूल और मुद्रर धारण कर प्रत्येक द्वारपर स्थित रहते हैं ॥ 61-66 ll
वरारोहे जो स्वर्णजटित सींगोंवाली, चाँदीसे युक्त खुरोंवाली सुन्दर वस्त्र और मृगचर्मसे सुशोभित, दूध देनेवाली, कांसदोहनीसे युक्त सवत्सा गौका वाराणसीमें वेदपारङ्गत ब्राह्मणको दान करता है, वह अपनी सात | पीढ़ियोंको तार देता है इसमें संदेह नहीं है। वरानने। जो उस क्षेत्रमें थोड़ा अथवा अधिक मात्रामें सुवर्ण, रजत, वस्त्र, अत्र आदि ब्राह्मणको दान करता है, सुलोचने! | उसका वह दान अक्षय एवं अविनाशी हो जाता है। महाभागे इस तीर्थको वास्तविक विभूति और विशिष्ट फलको सुनो। वहाँ स्नान कर मनुष्य रोगरहित हो जाते हैं। वरानने! दस अश्वमेध याग करनेसे मनुष्य जो फल प्राप्त करता है, वह उस धर्मात्मा व्यक्तिको वहाँ स्नान करनेसे ही प्राप्त हो जाता है। जो वेदके पारङ्गत ब्राह्मणको अधिक या स्वल्प- जो भी अपनी शक्तिके अनुसार दान देता है, उस दानसे उसे शुभ गति प्राप्त होती है और वह अग्निके समान तेजस्वी हो जाता है। जो संसारमें प्रसिद्ध वरुणा असी और गङ्गा संगमपर विधानपूर्वक अत्रका दान देता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता। देवि! मैंने इस तीर्थका यह उत्तम फल तुम्हें बतला दिया ॥67–74 ॥
अब मैं पुनः इस तीर्थका अन्य उत्तम फल बतला रहा हूँ। जो मनुष्य इस तीर्थमें उपवासपूर्वक विप्रोंको भलीभाँति तृप्त करता है, वह मानव सौत्रामणि नामक यज्ञका फल प्राप्त करता है। वरानने! जो वहाँ एक मासतक एक समय भोजन कर जीवन व्यतीत करता है, | उसका जीवनपर्यन्त किया हुआ पाप अनायास ही नष्ट होजाता है। वरानने। जो इस अविमुक्तक्षेत्रमें विधानपूर्वक अग्निमें प्रवेश कर जाते हैं, वे निश्चय ही मेरे मुखमें प्रवेश करते हैं, जो मेरे भक्त यहाँ दृढ़ निश्चयपूर्वक निराहार रहते हैं उनका सैकड़ों करोड़ कल्पोंमें भी पुन: संसारमें आगमन नहीं होता। देवि! जो इस अविमुक्त तपोवनमें मेरी पूजा करता है, उसका धर्म बतला रहा हूँ, जो उस मनुष्यको प्राप्त होता है। वह निःसंदेह दस अश्वमेध यागके फलको प्राप्त करता है। जो इस अविमुक्तमें दस सुवर्णनिर्मित पुष्पका दान करता है तथा वहाँ धूप दान करता है, उसे अग्निहोत्रका फल प्राप्त होता है। अब गन्धदानका फल सुनो। भूमिदानके समान ही गन्ध-दानका फल कहा गया है। भलीभाँति स्नान करनेपर पाँच सौ चन्दन लगानेसे एक हजार, माला समर्पण करनेसे एक लाख और गाने-बजानेसे अनन्त अग्निहोत्रके फलकी प्राप्ति होती है।। 75-82 ।।
देवीने पूछा- देव! जैसा आपने बतलाया है, सचमुच ही यह स्थान अतिशय अद्भुत है। अब मैं उस रहस्यको सुनना चाहती हूँ, जिसके कारण आप इस स्थानको नहीं छोड़ते ॥ 83 ॥
ईश्वरने कहा- सुन्दर कटिभागवाली वरारोहे ! सुनो। प्राचीनकालमें ब्रह्माका सुवर्णके समान कान्तिमान् पाँचवाँ सुन्दर सिर उत्पन्न हुआ। देवि! उस महात्माके उत्पन्न हुए उस पाँचवें देदीप्यमान मुखने इस प्रकार कहा कि मैं तुम्हारा जन्म जानता हूँ। यह सुनकर मैं क्रोधसे परिव्यात हो गया और मेरी आँखें लाल हो गर्यो तब मैंने बायें ठेके नखके अग्रभागसे उनके सिरको काट दिया ॥ 84-86 ।।
ब्रह्मा बोले- आपने बिना अपराधके ही मेरा सिर काट दिया है, अतः आप भी शापसे युक्त हो कपाली हो जायेंगे साथ ही आप ब्रह्महत्यासे व्याकुल होकर भूतलपर तीथोंमें भ्रमण कीजिये देवि तब मैं हिमालय पर्वतपर चला गया और वहाँ मैंने श्रीमान् नारायणसे भिक्षाकी याचना की। इसके बाद उन्होंने नखके अग्रभागसे अपने पार्श्वभागको विदीर्ण कर दिया, तब उससे रक्तकी विपुल धारा प्रवाहित हुई। वह धारा बहती हुई पचास योजनतक परिव्याप्त हो गयी, किंतु | भयंकर दीखनेवाला अद्भुत कपाल उससे नहीं भरा।इस प्रकार वह धारा हजार दिव्य वर्षोंतक अनवरत प्रवाहित होती रही। तब भगवान् विष्णुने पूछा कि ऐसा अद्भुत कपाल आपको कहाँसे प्राप्त हुआ है? देवेश ! मेरे हृदयमें संदेह हो रहा है। देव! यह कहाँसे उत्पन्न हुआ ? मुझ प्रश्नकर्ताको सभी बातें बतलाइये ' ॥ 87–92 ॥
(ब) देवाधिदेव शंकर बोले- देव! आप इस कपालकी उत्पत्तिका विवरण सुनिये। ब्रह्माने सौ हजार वर्षोंतक अतिशय घोर तपस्या कर दिव्य रोमाञ्चकारी अद्भुत शरीरकी रचना की। उन महात्मा ब्रह्माके शरीरमें तपस्याके प्रभावसे सुवर्णके समान देदीप्यमान पाँचवाँ सिर उत्पन्न हुआ। देव! मैंने उसे काट दिया। यह वही दुर्जय कपाल है। अब देखिये, मैं जहाँ जहाँ जाता हूँ, वहाँ यह कपाल भी मेरे पीछे लगा रहता है। (इस प्रकार) ऐसा कहे जानेपर पुरुषोत्तमभगवान्ने तब कहा ॥ 93-96 ॥
श्रीभगवान् बोले जाइये, आप अपने स्थानको लौट जाइये और ब्रह्माको प्रसन्न कीजिये। उनके तेजसे आपका यह श्रेष्ठ कपाल वहीं स्थित हो जायगा। पृथुल श्रोणि! इसके बाद मैं सभी तीर्थों और पुण्य क्षेत्रोंमें गया, परंतु यह कहीं भी ठहर न सका। तत्पश्चात् मैं अतिशय | प्रभावशाली अविमुक्तक्षेत्रमें पहुँचा। वह वहाँ अपने स्थानपर स्थित हो गया और मेरा शाप समाप्त हो गया। सुश्रोणि ! विष्णुकी कृपासे वह कपाल स्वप्नमें प्राप्त हुए धनके समान हजारों टुकड़ोंमें टूट-फूट गया। देवि! मैंने इस तीर्थको ब्रह्महत्याको दूर करनेवाला बना दिया। यह भूतलपर देवताओंके लिये कपालमोचनतीर्थके नामसे प्रसिद्ध हुआ मैं कालके रूपमें उत्पन्न होकर सम्पूर्ण विश्वका संहार और सृजन करता हूँ। इस प्रकार वह कपाल इस क्षेत्रमें गिरा और मेरा शाप नष्ट हुआ। इसी कारण यह कपालमोचनतीर्थ ब्रह्महत्याका विनाशक हुआ। सुरेश्वरि! मैं वहीं स्थित हूँ और सम्पूर्ण विश्वका कल्याण करता हूँ। देवेशि! सभी गुप्त स्थानों में यह अविमुक्तक्षेत्र मेरे लिये प्रियतर है। देवि! वहाँ मेरे भक्त, विष्णुभक्त और जो लोकनाथ प्रभाशाली सूर्यके भक्त हैं, वे सभी जाते हैं। जो वहाँ रहकर शरीरका त्याग करता है, वह मुझमें ही प्रविष्ट हो जाता है ॥ 97-105 ॥देवीने कहा- महाकान्तिशाली देव! ब्रह्माद्वारा कथित | यह विषय अत्यद्भुत है। त्रिपुरका विनाश करनेवाले शिवजीका यह प्रिय गुप्त स्थान है। अन्य जितने उत्तम तीर्थस्थान हैं, वे सभी उस स्थानकी सोलहवीं कलाकी समता नहीं कर सकते। जहाँ देवेश भगवान् शंकर निवास करते हैं तथा जिससे हजारों तीर्थोंसे श्रेष्ठ गङ्गाकी तुलना नहीं हो सकती, वह भी यहीं स्थित है। देवेश ! आप ही (ज्ञानात्मिका) भक्ति हैं और आप ही उत्तम गति हैं। देव! आपने ब्रह्मा आदिकी जो सनातनी गति बतलायी है, जिसे भक्त एवं द्विजातिगण सुनते हैं, वह सब भी आपकी ही अनुकम्पा है ॥ 106 - 109 ll