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मत्स्य पुराण (मत्स्यपुराण)

Matsya Purana (Matsyapurana )

अध्याय 183 - Adhyaya 183

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अविमुक्तमाहात्म्यके प्रसङ्गमें शिव-पार्वतीका प्रश्नोत्तर

देवी पार्वतीने पूछा—- कल्याणकारी पतिदेव ! हिमालयपर्वत, मन्दर, गन्धमादन, कैलास, निषध, देदीप्यमान सुमेरुपीठ, मनोहर त्रिशिखर पर्वत एवं अतिशय विशाल मानस पर्वत, रमणीय देव-उद्यान, नन्दनवन, देवस्थानों, मुख्य तीथों और मन्दिरों-इन सभी स्थानोंको छोड़कर आपका अविमुक्तक्षेत्रमें इतना अधिक प्रेम क्यों है? यहाँ अतिशय गोपनीय कौन-सा बहुत बड़ा पुण्य है, जिससे आप प्रमथोंके साथ यहाँ नित्य रमण करते हैं। उस क्षेत्रकी तथा वहाँके निवासियोंकी जो श्रेष्ठता है और उन लोगोंपर आपका जो अपूर्व अनुग्रह है-वे सभी बातें मुझे बतलाइये ॥ 1-5 ॥

शिवजी बोले- भामिनि ! तुम जो प्रश्न कर रही हो यह अतिशय अद्भुत है। मैं यह सब स्पष्टरूपसे कह रहा हूँ, सुनो। प्रिये! सिद्धों और गन्धर्वोंसे सेवित त्रिपथगामिनी पुण्यशीला नदी श्रीगङ्गाजी मेरे उस क्षेत्र वाराणसीमें प्रविष्ट होती है। सुन्दरि कृत्तिवासलिङ्गपर | मेरा अपार प्रेम है, इसीलिये वह स्थान सभी स्थानोंसेश्रेष्ठ है। सुश्रोणि। इसी कारण मेरा उस स्थानपर अधिक राग है तथा सुरेश्वरि उस लिङ्गमें मेरा सदा निवास रहता है सभी गुणवानों श्रेष्ठ देवि! अब मैं क्षेत्रके गुणोंका वर्णन करता हूँ जिन्हें सुनकर मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है, इसमें संदेह नहीं है। पापी, दुष्ट अथवा अधार्मिक मनुष्य भी यदि अविमुक्त (काशी) में चला जाय तो वह सभी पापोंसे छूट जाता है। सभी प्राणियोंके स्थावर एवं जंगमसे व्याप्त लोकके प्रलयकालमें भी मैं सैकड़ों विशिष्ट गणोंके साथ रहकर उस स्थानको नहीं छोड़ता। महाभागे ! जहाँ देवता, गन्धर्व, यक्ष, नाग, राक्षस सभी युगके नाशके समय मेरे मुखमें प्रवेश कर जाते हैं। | पार्वति ! उनकी पूजाको मैं साक्षात् रूपसे ग्रहण करता हूँ। यह शुभदायक अतिशय रहस्यमय स्थान मुझे परम प्रिय है। सुश्रोणि! वहाँ निवास करनेवाले मेरे भक्त द्विजातिगण धन्य हैं। सदा मेरी भक्तिमें तत्पर जो मेरे भक्त हैं वे वहाँ अपने शरीरका त्याग कर परम गतिको प्राप्त होते हैं। जो मनुष्य अविमुक्त क्षेत्र (काशी) में निवास करता है, वह सदा रुद्रसूक्तसे पूजा करता है, सदा दान देता है और सदा तपस्यामें रत रहता है। प्रिये जो मेरी नित्य पूजा करता है उससे मैं प्रसन्न रहता हूँ। जो सभी प्रकारका दान करता है, सभी तरहके यज्ञोंमें दीक्षित होता है और सभी तीर्थोके जलोंके अभिषेकसे सम्पन्न है वही यहाँ मुझे प्राप्त करता है। देवि! जो सदा सुनिश्चित रूपसे अविमुक्त क्षेत्रमें जाते रहते हैं तथा यहाँ निवास करते हैं वे स्वर्गमें भी मेरे भक्त बने रहते हैं। शुभलोचने देवि मेरी कृपासे वे देदीप्यमान रहते हैं तथा किसीसे पराजित न होनेवाले, पराक्रमशाली और संतापरहित होते हैं। स्थिर निश्चयवाले मेरे भक्त शुभप्रद अविमुक्तको प्राप्तकर पापरहित, निर्मल और उद्वेगशून्य हो जाते हैं॥ 6-21 ॥

पार्वतीने कहा- देव! आपने मेरा प्रिय करनेके लिये दक्ष यज्ञको विनष्ट किया था, किंतु अविमुलके गुणोंको सुननेसे मुझे यहाँ संतोष नहीं हो रहा है ॥ 22 ॥ ईश्वर बोले- महाभागे तुम्हें प्रसन्न करनेके लिये मैंने क्रोधवश दक्ष यज्ञका विनाश किया था; क्योंकि वरानने! तुम तो मेरी अतिशय प्रियतमा हो, इसीलिये उस यज्ञको नट किया था जो मेरे भक अविमुरुक्षेत्र नियपूर्वक यह करते हैं उनका सैकड़ों करोड़ कल्पों भी पुनः संसारमें आगमन नहीं होता ।। 23-24 ॥देवीने पूछा- देव आपने अविमुक्तक्षेत्रके जिन दुर्लभ गुणोंका वर्णन किया है, महेश्वर! आप उन सभी गुणोंका रहस्यपूर्वक मुझसे वर्णन कीजिये। महादेव! मेरे हृदयमें परम आश्चर्य हो रहा है, अतः परमेश्वर ! उन सभी विषयोंको मुझे रहस्यपूर्वक बतलाइये ll 25-26 ll

ईश्वर बोले सुन्दर जो अविमुक्तक्षेत्र निवास करते हैं वे मेरी कृपासे विदेह, अक्षय और अमर हो जाते हैं तथा अन्तमें निश्चय ही मुझमें लीन हो जाते हैं। विशालनेत्रे! कहो, कहो, तुम और क्या सुनना चाहती हो ? ।। 27-28 ।।

देवीने पूछा- देव! अविमुक्त नामक विशाल क्षेत्रका आश्चर्यजनक पुण्य है एवं आश्चर्यजनक गुण हैं, इनके सुननेसे मुझे तृप्ति नहीं हो रही है, अतः पुनः उन गुणोंका वर्णन कीजिये ॥ 29 ॥

ईश्वरने कहा- महेश्वरि तुम तो परम सुन्दरी एवं मेरी प्रिया हो, अतः अविमुक्तक्षेत्रमें जो गुण हैं, उन्हें तथा उनके अतिरिक्त अन्यान्य गुणोंको भी सुनो। जो शाक एवं पत्तोंपर जीवन निर्वाह करनेवाले, संयमी, भलीभाँति स्नानसे निर्मल सूर्य किरणोंका पान करनेवाले, दाँतरूपी ओखलीसे निर्वाह करनेवाले पत्थरपर कूटकर भोजन करनेवाले, प्रतिमास कुशके अग्रभागसे जलका आस्वादन करनेवाले, वृक्षकी जड़में निवास करनेवाले, पत्थरपर शयन करनेवाले, आदित्य के समान तेजस्वी शरीरधारी, क्रोधविजयी और जितेन्द्रिय हैं, तथा इसी तरह अनेक प्रकारके धर्मोसे अन्य स्थानोंमें व्रतका आचरण करनेवाले हैं अथवा तपस्यामें संलग्न हैं, वे सभी तीनों कालोंमें भोजन करनेवाले अविमुक्तनिवासी व्यक्तिकी सोलहवीं कलाको बराबरी नहीं कर सकते। जो अविमुक्तक्षेत्रमें निवास कर रहे हैं, वे मानो स्वर्गमें ही निवास कर रहे हैं । ll 30-34 ॥

विश्वमें मेरे समान न कोई दूसरा पुरुष है, न तुम्हारे समान कोई स्त्री है और न अविमुक्तके समान कोई अन्य तीर्थस्थान हुआ है, न होगा। अविमुक्तमें परम योग, अविमुक्तमें श्रेष्ठ गति, अविमुक्तमें परम मोक्ष प्राप्त होता है, इसके समान अन्य कोई भी क्षेत्र नहीं है। शोभने महाक्षेत्र अविमुतके विषयमें मैंने जो पूर्वमें कहा है, उस परम रहस्यको मैं यथार्थरूपसे कह रहा हूँ ।देवि! करोड़ों जन्मोंके पश्चात् मोक्षकी प्राप्ति होती है या नहीं, इसमें भी संदेह है, परंतु यदि कहीं सैकड़ों जन्मोंके बाद ऐसा योग उपलब्ध हो जाय तो दृढ़ निश्चयवाला मेरा भक्त अविमुक्तक्षेत्रमें एक ही जन्ममें योग और मोक्षको प्राप्त कर लेता है। देवि! जो दृढ़ निश्चयसे सम्पन्न पुरुष अविमुक्तक्षेत्रमें जाते हैं ये परम दुर्लभ श्रेष्ठ मोक्षपदको प्राप्त करते हैं। प्रिये! पृथ्वीमें ऐसा क्षेत्र न हुआ है और न होगा। चार मूर्तिवालाधर्म इस क्षेत्रमें सदा निवास करता है। यहाँ चारों वर्णोंकी परम गति कही गयी है । ll 35-41 ॥

देवीने पूछा—प्रभो! आपके क्षेत्रके लौकिक और पारलौकिक गुणोंको मैंने सुन लिया। अब यह बतलाइये कि पृथ्वीपर जो श्रेष्ठ विप्रवृन्द हैं वे यज्ञोंद्वारा किसका यजन करते हैं? ॥ 42 ॥

ईश्वरने कहा जो यज्ञ और मन्त्रद्वारा मेरा ही यजन करते हैं उन लोगोंको कोई भय नहीं रह जाता; क्योंकि वे भव और रुद्रकी आराधना करनेवाले हैं। देवि मन्त्ररहित और मन्त्रसहित दोनों प्रकारकी विधियों कही गयी हैं। इसी प्रकार सांख्य और योगके भेदसे योग भी दो प्रकारका कहा गया है। जो सजातीय, विजातीय एवं स्वगत भेदोंसे शून्य हो सबको एक मानकर सभी प्राणियोंमें स्थित मेरी आराधना करता है वह योगी सदा अपने स्वरूपमें रहता हुआ भी मुझमें ही स्थित रहता है। जो सर्वत्र सबको आत्मसदृश मुझमें अवस्थित देखता है, उससे न तो मैं वियुक्त होता हूँ और न वह मुझसे अलग होता है। भूतलपर निर्गुण और सगुण-दो प्रकारके योग कहे गये हैं। उनमें सगुण योग ही ज्ञानके द्वारा जाना जा सकता है, निर्गुण योग मनसे परे है। देवि जो तुमने मुझसे पूछा है, वह मैंने तुम्हें बतला दिया ll 43-48 ॥

देवीने पूछा- आपने भक्तोंकी जो तीन प्रकारकी भक्ति अनेक बार कही है उसे मैं सुनना चाहती हूँ। आप उसका यथार्थरूपमें मुझसे वर्णन कीजिये ll 49 ॥

ईश्वर (शिव) ने कहा- भलोंके प्रति वात्सल्य भाव रखनेवाली देवेश्वरी पार्वती सुनो जो सांख्य और योगको प्राप्तकर दुःखका सर्वथा विनाश कर लेता है,सदा भिक्षासे जौवन-यापन करता है और उसीसे प्रसन्न रहता है तथा इस प्रकार प्रसन्नताके कारण उसीमें तन्मय होकर लीन हो जाता है, यह भक्तिमान् कहलाता है। वरारोहे! जो शास्त्रोंके अनेकों कारणोंपर विचार करनेवाले हैं, वे ज्ञानवाक्योंमें विवाद करनेवाले लोग मेरा दर्शन नहीं कर पाते। देवि जो परमार्थ ज्ञानसम्पन्न योगी हैं तथा जो द्विजातिवृन्द योगके ज्ञानसे आत्मज्ञानको प्राप्त कर चुके हैं, वे ही मुझे जान पाते हैं। जिसका आत्मा प्रत्याहारके द्वारा विशुद्ध हो गया है, जो परम संतोष, उत्कृष्ट योग और मोक्षको पाकर अन्यथा विचार नहीं करते और तीनों गुणोंसे सम्पन्न हैं, ऐसे ज्ञानी इस अविमुक्तक्षेत्रमें मेरा साक्षात्कार कर पाते हैं। देवि! यह तो मैंने तुमसे कह दिया, अब तुम और क्या सुनना चाहती हो? उत्तम पातिव्रत धारण करनेवाली सुन्दरि मैं पुनः उसका वर्णन करूंगा। प्रिये। जो गोपनीय, पावन अथवा हृदयमें वर्तमान है, वह सब मैं कहूँगा, तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो ll 50-56 ।।

देवीने पूछा- देव! योगसिद्धिसम्पन्न योगिगण आपके कैसे स्वरूपका दर्शन करते हैं? देवश्रेष्ठ मैं आपको नमस्कार करती हूँ, आप मेरे इस संदेहपर प्रकाश डालिये ll 57 ll

श्रीभगवान्ने कहा- मेरा वह ज्योति: स्वरूप अमूर्त और मूर्त-दो प्रकारका कहा गया है। विद्वान् पुरुषको उसे प्राप्त करनेकी अभिलाषासे प्रयत्न करना चाहिये। जो प्राणी गुणोंसे रहित है, वह इस प्रकार इसका वर्णन नहीं कर सकता। यदि करना चाहे तो सैकड़ों दिव्य वर्षोंमें कर सकता है या नहीं इसमें भी संदेह है ।। 58-59॥

देवीने पूछा- जहाँ देवाधिदेव महादेव अपने गणों के साथ नित्य स्थित रहते हैं, वह क्षेत्र चारों ओर सभी दिशाओं में कितनी दूरतक विस्तृत है ? ll 60 ll

भगवान् शङ्करने कहा- वह क्षेत्र पूर्वसे पश्चिमतक दो योजन और दक्षिणसे उत्तरतक आधा योजन विस्तृत बतलाया जाता है। जहाँतक वरुणा और असी नदियाँ हैं, वहाँतक | भीष्मचण्डिकसे लेकर पर्वतेश्वरके समीपतक शुक्लनदी है।जहाँ कूष्माण्ड, गजतुण्ड, जयन्त उत्कट पराक्रमी विनायकगण भलीत नियुक्त होकर विराजमान रहते हैं। उनमें कुछ सिंह एवं बाघके से मुखवाले, कुछ भयंकर, कुबड़े और वामन (बोने) हैं। जहाँ नन्दी, महाकाल, चण्डघण्ट, महेश्वर, दण्डचण्डेश्वर, महाबली घण्टाकर्णये एवं अन्य अनेक गणसमूह और गणेश्वरवृन्द विद्यमान रहते हैं। देवि ये सभी विशाल उदरवाले एवं विशालकाय हैं तथा हाथमें वज्र और शक्ति धारण करके इस अविमुक्त तपोवनकी सदा रक्षा करते हैं। ये सभी हाथमें शूल और मुद्रर धारण कर प्रत्येक द्वारपर स्थित रहते हैं ॥ 61-66 ll

वरारोहे जो स्वर्णजटित सींगोंवाली, चाँदीसे युक्त खुरोंवाली सुन्दर वस्त्र और मृगचर्मसे सुशोभित, दूध देनेवाली, कांसदोहनीसे युक्त सवत्सा गौका वाराणसीमें वेदपारङ्गत ब्राह्मणको दान करता है, वह अपनी सात | पीढ़ियोंको तार देता है इसमें संदेह नहीं है। वरानने। जो उस क्षेत्रमें थोड़ा अथवा अधिक मात्रामें सुवर्ण, रजत, वस्त्र, अत्र आदि ब्राह्मणको दान करता है, सुलोचने! | उसका वह दान अक्षय एवं अविनाशी हो जाता है। महाभागे इस तीर्थको वास्तविक विभूति और विशिष्ट फलको सुनो। वहाँ स्नान कर मनुष्य रोगरहित हो जाते हैं। वरानने! दस अश्वमेध याग करनेसे मनुष्य जो फल प्राप्त करता है, वह उस धर्मात्मा व्यक्तिको वहाँ स्नान करनेसे ही प्राप्त हो जाता है। जो वेदके पारङ्गत ब्राह्मणको अधिक या स्वल्प- जो भी अपनी शक्तिके अनुसार दान देता है, उस दानसे उसे शुभ गति प्राप्त होती है और वह अग्निके समान तेजस्वी हो जाता है। जो संसारमें प्रसिद्ध वरुणा असी और गङ्गा संगमपर विधानपूर्वक अत्रका दान देता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता। देवि! मैंने इस तीर्थका यह उत्तम फल तुम्हें बतला दिया ॥67–74 ॥

अब मैं पुनः इस तीर्थका अन्य उत्तम फल बतला रहा हूँ। जो मनुष्य इस तीर्थमें उपवासपूर्वक विप्रोंको भलीभाँति तृप्त करता है, वह मानव सौत्रामणि नामक यज्ञका फल प्राप्त करता है। वरानने! जो वहाँ एक मासतक एक समय भोजन कर जीवन व्यतीत करता है, | उसका जीवनपर्यन्त किया हुआ पाप अनायास ही नष्ट होजाता है। वरानने। जो इस अविमुक्तक्षेत्रमें विधानपूर्वक अग्निमें प्रवेश कर जाते हैं, वे निश्चय ही मेरे मुखमें प्रवेश करते हैं, जो मेरे भक्त यहाँ दृढ़ निश्चयपूर्वक निराहार रहते हैं उनका सैकड़ों करोड़ कल्पोंमें भी पुन: संसारमें आगमन नहीं होता। देवि! जो इस अविमुक्त तपोवनमें मेरी पूजा करता है, उसका धर्म बतला रहा हूँ, जो उस मनुष्यको प्राप्त होता है। वह निःसंदेह दस अश्वमेध यागके फलको प्राप्त करता है। जो इस अविमुक्तमें दस सुवर्णनिर्मित पुष्पका दान करता है तथा वहाँ धूप दान करता है, उसे अग्निहोत्रका फल प्राप्त होता है। अब गन्धदानका फल सुनो। भूमिदानके समान ही गन्ध-दानका फल कहा गया है। भलीभाँति स्नान करनेपर पाँच सौ चन्दन लगानेसे एक हजार, माला समर्पण करनेसे एक लाख और गाने-बजानेसे अनन्त अग्निहोत्रके फलकी प्राप्ति होती है।। 75-82 ।।

देवीने पूछा- देव! जैसा आपने बतलाया है, सचमुच ही यह स्थान अतिशय अद्भुत है। अब मैं उस रहस्यको सुनना चाहती हूँ, जिसके कारण आप इस स्थानको नहीं छोड़ते ॥ 83 ॥

ईश्वरने कहा- सुन्दर कटिभागवाली वरारोहे ! सुनो। प्राचीनकालमें ब्रह्माका सुवर्णके समान कान्तिमान् पाँचवाँ सुन्दर सिर उत्पन्न हुआ। देवि! उस महात्माके उत्पन्न हुए उस पाँचवें देदीप्यमान मुखने इस प्रकार कहा कि मैं तुम्हारा जन्म जानता हूँ। यह सुनकर मैं क्रोधसे परिव्यात हो गया और मेरी आँखें लाल हो गर्यो तब मैंने बायें ठेके नखके अग्रभागसे उनके सिरको काट दिया ॥ 84-86 ।।

ब्रह्मा बोले- आपने बिना अपराधके ही मेरा सिर काट दिया है, अतः आप भी शापसे युक्त हो कपाली हो जायेंगे साथ ही आप ब्रह्महत्यासे व्याकुल होकर भूतलपर तीथोंमें भ्रमण कीजिये देवि तब मैं हिमालय पर्वतपर चला गया और वहाँ मैंने श्रीमान् नारायणसे भिक्षाकी याचना की। इसके बाद उन्होंने नखके अग्रभागसे अपने पार्श्वभागको विदीर्ण कर दिया, तब उससे रक्तकी विपुल धारा प्रवाहित हुई। वह धारा बहती हुई पचास योजनतक परिव्याप्त हो गयी, किंतु | भयंकर दीखनेवाला अद्भुत कपाल उससे नहीं भरा।इस प्रकार वह धारा हजार दिव्य वर्षोंतक अनवरत प्रवाहित होती रही। तब भगवान् विष्णुने पूछा कि ऐसा अद्भुत कपाल आपको कहाँसे प्राप्त हुआ है? देवेश ! मेरे हृदयमें संदेह हो रहा है। देव! यह कहाँसे उत्पन्न हुआ ? मुझ प्रश्नकर्ताको सभी बातें बतलाइये ' ॥ 87–92 ॥

(ब) देवाधिदेव शंकर बोले- देव! आप इस कपालकी उत्पत्तिका विवरण सुनिये। ब्रह्माने सौ हजार वर्षोंतक अतिशय घोर तपस्या कर दिव्य रोमाञ्चकारी अद्भुत शरीरकी रचना की। उन महात्मा ब्रह्माके शरीरमें तपस्याके प्रभावसे सुवर्णके समान देदीप्यमान पाँचवाँ सिर उत्पन्न हुआ। देव! मैंने उसे काट दिया। यह वही दुर्जय कपाल है। अब देखिये, मैं जहाँ जहाँ जाता हूँ, वहाँ यह कपाल भी मेरे पीछे लगा रहता है। (इस प्रकार) ऐसा कहे जानेपर पुरुषोत्तमभगवान्ने तब कहा ॥ 93-96 ॥

श्रीभगवान् बोले जाइये, आप अपने स्थानको लौट जाइये और ब्रह्माको प्रसन्न कीजिये। उनके तेजसे आपका यह श्रेष्ठ कपाल वहीं स्थित हो जायगा। पृथुल श्रोणि! इसके बाद मैं सभी तीर्थों और पुण्य क्षेत्रोंमें गया, परंतु यह कहीं भी ठहर न सका। तत्पश्चात् मैं अतिशय | प्रभावशाली अविमुक्तक्षेत्रमें पहुँचा। वह वहाँ अपने स्थानपर स्थित हो गया और मेरा शाप समाप्त हो गया। सुश्रोणि ! विष्णुकी कृपासे वह कपाल स्वप्नमें प्राप्त हुए धनके समान हजारों टुकड़ोंमें टूट-फूट गया। देवि! मैंने इस तीर्थको ब्रह्महत्याको दूर करनेवाला बना दिया। यह भूतलपर देवताओंके लिये कपालमोचनतीर्थके नामसे प्रसिद्ध हुआ मैं कालके रूपमें उत्पन्न होकर सम्पूर्ण विश्वका संहार और सृजन करता हूँ। इस प्रकार वह कपाल इस क्षेत्रमें गिरा और मेरा शाप नष्ट हुआ। इसी कारण यह कपालमोचनतीर्थ ब्रह्महत्याका विनाशक हुआ। सुरेश्वरि! मैं वहीं स्थित हूँ और सम्पूर्ण विश्वका कल्याण करता हूँ। देवेशि! सभी गुप्त स्थानों में यह अविमुक्तक्षेत्र मेरे लिये प्रियतर है। देवि! वहाँ मेरे भक्त, विष्णुभक्त और जो लोकनाथ प्रभाशाली सूर्यके भक्त हैं, वे सभी जाते हैं। जो वहाँ रहकर शरीरका त्याग करता है, वह मुझमें ही प्रविष्ट हो जाता है ॥ 97-105 ॥देवीने कहा- महाकान्तिशाली देव! ब्रह्माद्वारा कथित | यह विषय अत्यद्भुत है। त्रिपुरका विनाश करनेवाले शिवजीका यह प्रिय गुप्त स्थान है। अन्य जितने उत्तम तीर्थस्थान हैं, वे सभी उस स्थानकी सोलहवीं कलाकी समता नहीं कर सकते। जहाँ देवेश भगवान् शंकर निवास करते हैं तथा जिससे हजारों तीर्थोंसे श्रेष्ठ गङ्गाकी तुलना नहीं हो सकती, वह भी यहीं स्थित है। देवेश ! आप ही (ज्ञानात्मिका) भक्ति हैं और आप ही उत्तम गति हैं। देव! आपने ब्रह्मा आदिकी जो सनातनी गति बतलायी है, जिसे भक्त एवं द्विजातिगण सुनते हैं, वह सब भी आपकी ही अनुकम्पा है ॥ 106 - 109 ll

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मत्स्य पुराण
Index


  1. [अध्याय 1]मङ्गलाचरण, शौनक आदि मुनियोंका सूतजीसे पुराणविषयक प्रश्न, सूतद्वारा मत्स्यपुराणका वर्णनारम्भ, भगवान् विष्णुका मत्स्यरूपसे सूर्यनन्दन मनुको मोहित करना, तत्पश्चात् उन्हें आगामी प्रलयकालकी सूचना देना
  2. [अध्याय 2]मनुका मत्स्यभगवान्से युगान्तविषयक प्रश्न, मत्स्यका प्रलयके स्वरूपका वर्णन करके अन्तर्धान हो जाना, प्रलयकाल उपस्थित होनेपर मनुका जीवोंको नौकापर चढ़ाकर उसे महामत्स्यके सींगमें शेषनागकी रस्सीसे बाँधना एवं उनसे सृष्टि आदिके विषयमें विविध प्रश्न करना और मत्स्यभगवान्‌का उत्तर देना
  3. [अध्याय 3]मनुका मत्स्यभगवान् से ब्रह्माके चतुर्मुख होने तथा लोकोंकी सृष्टि करनेके विषयमें प्रश्न एवं मत्स्य भगवानद्वारा उत्तररूपमें ब्रह्मासे वेद, सरस्वती, पाँचवें मुख और मनु आदिकी उत्पत्तिका कथन
  4. [अध्याय 4]पुत्रीकी और बार-बार अवलोकन करनेसे ब्रह्मा दोषी क्यों नहीं हुए- एतद्विषयक मनुका प्रश्न, मत्स्यभगवान्का उत्तर तथा इसी प्रसङ्गमें आदिसृष्टिका वर्णन
  5. [अध्याय 5]दक्षकन्याओं की उत्पत्ति, कुमार कार्त्तिकेयका जन्म तथा दक्षकन्याओं द्वारा देवयोनियोंका प्रादुर्भाव
  6. [अध्याय 6]कश्यप-वंशका विस्तृत वर्णन
  7. [अध्याय 7]मरुतोंकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें दितिकी तपस्या, मदनद्वादशी व्रतका वर्णन, कश्यपद्वारा दितिको वरदान, गर्भिणी स्त्रियोंके लिये नियम तथा मरुतोंकी उत्पत्ति
  8. [अध्याय 8]प्रत्येक सर्गके अधिपतियोंका अभिषेचन तथा पृथुका राज्याभिषेक
  9. [अध्याय 9]मन्वन्तरोंके चौदह देवताओं और सप्तर्षियोंका विवरण
  10. [अध्याय 10]महाराज पृथुका चरित्र और पृथ्वी दोहनका वृत्तान्त
  11. [अध्याय 11]सूर्यवंश और चन्द्रवंशका वर्णन तथा इलाका वृत्तान्त
  12. [अध्याय 12]इलाका वृत्तान्त तथा इक्ष्वाकु वंशका वर्णन
  13. [अध्याय 13]पितृ-वंश-वर्णन तथा सतीके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें देवीके एक सौ आठ नामोंका विवरण
  14. [अध्याय 14]अच्छोदाका पितृलोकसे पतन तथा उसकी प्रार्थनापर पितरोंद्वारा उसका पुनरुद्धार
  15. [अध्याय 15]पितृवंशका वर्णन, पीवरीका वृत्तान्त तथा श्रद्ध-विधिका कथन
  16. [अध्याय 16]श्राद्धोंके विविध भेद, उनके करनेका समय तथा श्राद्धमें निमन्त्रित करनेयोग्य ब्राह्मणके लक्षण
  17. [अध्याय 17]साधारण एवं आभ्युदयिक श्राद्धकी विधिका विवरण
  18. [अध्याय 18]एकोदिए और सपिण्डीकरण श्राद्धकी विधि
  19. [अध्याय 19]श्राद्धों में पितरोंके लिये प्रदान किये गये हव्य-कव्यकी प्राप्तिका विवरण
  20. [अध्याय 20]महर्षि कौशिकके पुत्रोंका वृत्तान्त तथा पिपीलिकाकी कथा
  21. [अध्याय 21]ब्रह्मदत्तका वृत्तान्त तथा चार चक्रवाकोंकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22]श्राद्धके योग्य समय, स्थान (तीर्थ) तथा कुछ विशेष नियमोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23]चन्द्रमाकी उत्पत्ति, उनका दक्ष प्रजापतिकी कन्याओंके साथ विवाह, चन्द्रमाद्वारा राजसूय यज्ञका अनुष्ठान, उनकी तारापर आसक्ति, उनका भगवान् शङ्करके साथ युद्ध तथा ब्रह्माजीका बीच-बचाव करके युद्ध शान्त करना'
  24. [अध्याय 24]ताराके गर्भसे बुधकी उत्पत्ति, पुरूरवाका जन्म, पुरूरवा और उर्वशीकी कथा, नहुष-पुत्रोंके वर्णन-प्रसङ्गमें ययातिका वृत्तान्त
  25. [अध्याय 25]कचका शिष्यभावसे शुक्राचार्य और देवयानीकी सेवामें संलग्न होना और अनेक कष्ट सहनेके पश्चात्मृतसंजीविनी विद्या प्राप्त करना
  26. [अध्याय 26]देवयानीका कचसे पाणिग्रहणके लिये अनुरोध, कचकी अस्वीकृति तथा दोनोंका एक-दूसरेको शाप देना
  27. [अध्याय 27]देवयानी और शर्मिष्ठाका कलह, शर्मिष्ठाद्वारा कुऍमें गिरायी गयी देवयानीको ययातिका निकालना और देवयानीका शुक्राचार्यके साथ वार्तालाप
  28. [अध्याय 28]शुक्राचार्यद्वारा देवयानीको समझाना और देवयानीका असंतोष
  29. [अध्याय 29]शुक्राचार्यका नृपपको फटकारना तथा उसे छोड़कर जानेके लिये उद्यत होना और वृषपवकि आदेशसे शर्मिष्ठाका देवयानीकी दासी बनकर शुक्राचार्य तथा देवयानीको संतुष्ट करना
  30. [अध्याय 30]सखियोंसहित देवयानी और शर्मिष्ठाका वनविहार, राजा ययातिका आगमन, देवयानीके साथ बातचीत तथा विवाह
  31. [अध्याय 31]ययातिसे देवयानीको पुत्रप्राप्ति, ययाति और शर्मिष्ठाका एकान्त मिलन और उनसे एक पुत्रका जन्म
  32. [अध्याय 32]देवयानी और शर्मिष्ठाका संवाद, ययातिसे शर्मिष्ठाके पुत्र होनेकी बात जानकर देवयानीका रूठना और अपने पिताके पास जाना तथा शुक्राचार्यका ययातिको बूढ़े होनेका शाप देना
  33. [अध्याय 33]ययातिका अपने यदु आदि पुत्रोंसे अपनी युवावस्था देकर वृद्धावस्था लेनेके लिये आग्रह और उनके अस्वीकार करनेपर उन्हें शाप देना, फिर पूरुको जरावस्था देकर उसकी युवावस्था लेना तथा उसे वर प्रदान करना
  34. [अध्याय 34]राजा ययातिका विषय सेवन और वैराग्य तथा पूरुका राज्याभिषेक करके वनमें जाना
  35. [अध्याय 35]वनमें राजा ययातिकी तपस्या और उन्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति
  36. [अध्याय 36]इन्द्रके पूछनेपर ययातिका अपने पुत्र पुरुको दिये हुए उपदेशकी चर्चा करना
  37. [अध्याय 37]ययातिका स्वर्गसे पतन और अष्टकका उनसे प्रश्न करना
  38. [अध्याय 38]ययाति और अष्टकका संवाद
  39. [अध्याय 39]अष्टक और ययातिका संवाद
  40. [अध्याय 40]ययाति और अष्टकका आश्रमधर्मसम्बन्धी संवाद
  41. [अध्याय 41]अष्टक-ययाति-संवाद और ययातिद्वारा दूसरोंके दिये हुए पुण्यदानको अस्वीकार करना
  42. [अध्याय 42]राजा ययातिका वसुमान् और शिबिके प्रतिग्रहको अस्वीकार करना तथा अष्टक आदि चारों राजाओंके साथ स्वर्गमें जाना
  43. [अध्याय 43]ययाति-वंश-वर्णन, यदुवंशका वृत्तान्त तथा कार्तवीर्य अर्जुनकी कथा
  44. [अध्याय 44]कार्तवीर्यका आदित्यके तेजसे सम्पन्न होकर वृक्षोंको जलाना, महर्षि आपवद्वारा कार्तवीर्यको शाप और क्रोष्टुके वंशका वर्णन
  45. [अध्याय 45]वृष्णिवंशके वर्णन-प्रसङ्गमें स्यमन्तक मणिकी कथा
  46. [अध्याय 46]वृष्णिवंशका वर्णन
  47. [अध्याय 47]श्रीकृष्ण चरित्रका वर्णन, दैत्योंका इतिहास तथा देवासुर संग्रामके प्रसङ्गमें विभिन्न अवान्तर कथाएँ
  48. [अध्याय 48]तुर्वसु और झुके वंशका वर्णन, अनुके वंश-वर्णनमें बलिकी कथा और कर्णकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग
  49. [अध्याय 49]पूरु- वंशके वर्णन-प्रसङ्गमें भरत वंशकी कथा, भरद्वाजकी उत्पत्ति और उनके वंशका कथन, नीप - वंशका वर्णन तथा पौरवोंका इतिहास
  50. [अध्याय 50]पुरुवंशी नरेशोंका विस्तृत इतिहास
  51. [अध्याय 51]अग्नि- वंशका वर्णन तथा उनके भेदोपभेदका कथन
  52. [अध्याय 52]कर्मयोगकी महत्ता
  53. [अध्याय 53]पुराणोंकी नामावलि और उनका संक्षिप्त परिचय
  54. [अध्याय 54]नक्षत्र-पुरुष-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  55. [अध्याय 55]आदित्यशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  56. [अध्याय 56]श्रीकृष्णाष्टमी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  57. [अध्याय 57]रोहिणीचन्द्रशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  58. [अध्याय 58]तालाब, बगीचा, कुआं,बावली,पुष्करिणी तथा देव मन्दिर की प्रतिष्ठ आदिका विधान
  59. [अध्याय 59]वृक्ष लगानेकी विधि
  60. [अध्याय 60]सौभाग्यशयन-व्रत तथा जगद्धात्री सतीकी आराधना
  61. [अध्याय 61]अगस्त्य और वसिष्ठकी दिव्य उत्पत्ति, उर्वशी अप्सराका प्राकट्य और अगस्त्य के लिये अयं-प्रदान करनेकी विधि एवं माहात्म्य
  62. [अध्याय 62]अनन्ततृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  63. [अध्याय 63]रसकल्याणिनी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  64. [अध्याय 64]आर्द्रानन्दकरी तृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  65. [अध्याय 65]अक्षयतृतीया-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  66. [अध्याय 66]सारस्वत - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  67. [अध्याय 67]सूर्य-चन्द्र-ग्रहणके समय स्नानकी विधि और उसका माहात्म्य
  68. [अध्याय 68]सप्तमीस्त्रपन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  69. [अध्याय 69]भीमद्वादशी व्रतका विधान
  70. [अध्याय 70]पण्यस्त्री व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  71. [अध्याय 71]अशून्यशयन (द्वितीया ) - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  72. [अध्याय 72]अङ्गारक- व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  73. [अध्याय 73]शुक्र और गुरुकी पूजा-विधि
  74. [अध्याय 74]कल्याणसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  75. [अध्याय 75]विशोकसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  76. [अध्याय 76]फलसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  77. [अध्याय 77]शर्करासप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  78. [अध्याय 78]कमलसप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  79. [अध्याय 79]मन्दारसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  80. [अध्याय 80]शुभ सप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  81. [अध्याय 81]विशोकद्वादशी व्रतकी विधि
  82. [अध्याय 82]गुड-धेनु के दान की विधि और उसकी महिमा
  83. [अध्याय 83]पर्वतदानके दस भेद, धान्यशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  84. [अध्याय 84]लवणाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  85. [अध्याय 85]गुडपर्वतके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  86. [अध्याय 86]सुवर्णाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  87. [अध्याय 87]तिलशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  88. [अध्याय 88]कार्पासाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  89. [अध्याय 89]घृताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  90. [अध्याय 90]रत्नाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  91. [अध्याय 91]रजताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  92. [अध्याय 92]शर्कराशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य तथा राजा धर्ममूर्तिके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें लवणाचलदानका महत्त्व
  93. [अध्याय 93]शान्तिक एवं पौष्टिक कर्मों तथा नवग्रह शान्तिकी विधिका वर्णन *
  94. [अध्याय 94]नवग्रहोंके स्वरूपका वर्णन
  95. [अध्याय 95]माहेश्वर-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  96. [अध्याय 96]सर्वफलत्याग- व्रतका विधान और उसका माहात्म्य
  97. [अध्याय 97]आदित्यवार-कल्पका विधान और माहात्म्य
  98. [अध्याय 98]संक्रान्ति व्रतके उद्यापनकी विधि
  99. [अध्याय 99]विभूतिद्वादशी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  100. [अध्याय 100]विभूतिद्वादशी* के प्रसङ्गमें राजा पुष्पवाहनका वृत्तान्त
  101. [अध्याय 101]साठ व्रतोंका विधान और माहात्म्य
  102. [अध्याय 102]स्नान और तर्पणकी विधि
  103. [अध्याय 103]युधिष्ठिरकी चिन्ता, उनकी महर्षि मार्कण्डेयसे भेंट और महर्षिद्वारा प्रयाग-माहात्म्यका उपक्रम
  104. [अध्याय 104]प्रयाग-माहात्म्य-प्रसङ्गमें प्रयाग क्षेत्रके विविध तीर्थस्थानोंका वर्णन
  105. [अध्याय 105]प्रयागमें मरनेवालोंकी गति और गो-दानका महत्त्व
  106. [अध्याय 106]प्रयाग माहात्म्य वर्णन-प्रसङ्गमें वहांके विविध तीर्थोंका वर्णन
  107. [अध्याय 107]प्रयाग स्थित विविध तीर्थोका वर्णन
  108. [अध्याय 108]प्रयागमें अनशन-व्रत तथा एक मासतकके निवास ( कल्पवास) का महत्त्व
  109. [अध्याय 109]अन्य तीर्थोकी अपेक्षा प्रयागकी महत्ताका वर्णन
  110. [अध्याय 110]जगत्के समस्त पवित्र तीर्थोंका प्रयागमें निवास
  111. [अध्याय 111]प्रयाग में ब्रह्मा, विष्णु और शिवके निवासका वर्णन
  112. [अध्याय 112]भगवान् वासुदेवद्वारा प्रयागके माहात्म्यका वर्णन
  113. [अध्याय 113]भूगोलका विस्तृत वर्णन
  114. [अध्याय 114]भारतवर्ष, किम्पुरुषवर्ष तथा हरिवर्षका वर्णन
  115. [अध्याय 115]राजा पुरूरवाके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  116. [अध्याय 116]ऐरावती नदीका वर्णन
  117. [अध्याय 117]हिमालयकी अद्भुत छटाका वर्णन
  118. [अध्याय 118]हिमालयकी अनोखी शोभा तथा अत्रि - आश्रमका वर्णन
  119. [अध्याय 119]आश्रमस्थ विवरमें पुरूरवा * का प्रवेश, आश्रमकी शोभाका वर्णन तथा पुरूरवाकी तपस्या
  120. [अध्याय 120]राजा पुरूरवाकी तपस्या, गन्धवों और अप्सराओंकी क्रीडा, महर्षि अत्रिका आगमन तथा राजाको वरप्राप्त
  121. [अध्याय 121]कैलास पर्वतका वर्णन, गङ्गाकी सात धाराओंका वृत्तान्त तथा जम्बूद्वीपका विवरण
  122. [अध्याय 122]शाकद्वीप, कुशद्वीप, क्रौञ्चद्वीप और शाल्मलद्वीपका वर्णन
  123. [अध्याय 123]गोमेदकद्वीप और पुष्करद्वीपका वर्णन
  124. [अध्याय 124]सूर्य और चन्द्रमाको गतिका वर्णन
  125. [अध्याय 125]सूर्यकी गति और उनके रथका वर्णन
  126. [अध्याय 126]सूर्य रथ पर प्रत्येक मासमें भिन्न-भिन्न देवताओंका अधिरोहण तथा चन्द्रमाकी विचित्र गति
  127. [अध्याय 127]ग्रहोंके रथका वर्णन और ध्रुवकी प्रशंसा
  128. [अध्याय 128]देव-गृहों तथा सूर्य-चन्द्रमाकी गतिका वर्णन
  129. [अध्याय 129]त्रिपुर- निर्माणका वर्णन
  130. [अध्याय 130]दानवश्रेष्ठ मयद्वारा त्रिपुरकी रचना
  131. [अध्याय 131]त्रिपुरमें दैत्योंका सुखपूर्वक निवास, मयका स्वप्न-दर्शन और दैत्योंका अत्याचार
  132. [अध्याय 132]त्रिपुरवासी दैत्योंका अत्याचार, देवताओंका ब्रह्माकी शरणमें जाना और ब्रह्मासहित शिवजीके पास जाकर उनकी स्तुति करना
  133. [अध्याय 133]त्रिपुर- विध्वंसार्थ शिवजीके विचित्र रथका निर्माण और देवताओंके साथ उनका युद्धके लिये प्रस्थान
  134. [अध्याय 134]देवताओं सहित शङ्करजीका त्रिपुरपर आक्रमण, त्रिपुरमें देवर्षि नारदका आगमन तथा युद्धार्थ असुरोंकी तैयारी
  135. [अध्याय 135]शङ्करजीकी आज्ञा इन्द्रका त्रिपुरपर आक्रमण, दोनों सेनाओंमें भीषण संग्राम, विद्युन्मालीका वध, देवताओंकी विजय और दानवोंका युद्ध विमुख होकर त्रिपुरमें प्रवेश
  136. [अध्याय 136]मयका चिन्तित होकर अद्भुत बावलीका निर्माण करना, नन्दिकेश्वर और तारकासुरका भीषण युद्ध तथा प्रमथगणोंकी मारसे विमुख होकर दानवोंका त्रिपुर-प्रवेश
  137. [अध्याय 137]वापी शोषणसे मयको चिन्ता, मय आदि दानवोंका त्रिपुरसहित समुद्रमें प्रवेश तथा शंकरजीका इन्द्रको युद्ध करनेका आदेश
  138. [अध्याय 138]देवताओं और दानवोंमें घमासान युद्ध तथा तारकासुरका वध
  139. [अध्याय 139]दानवराज मयका दानवोंको समझा-बुझाकर त्रिपुरकी रक्षामें नियुक्त करना तथा त्रिपुरकौमुदीका वर्णन
  140. [अध्याय 140]देवताओं और दानवोंका भीषण संग्राम, नन्दीश्वरद्वारा विद्युन्मालीका वध, मयका पलायन तथा शङ्करजीकी त्रिपुरपर विजय
  141. [अध्याय 141]पुरूरवाका सूर्य-चन्द्रके साथ समागम और पितृतर्पण, पर्वसंधिका वर्णन तथा श्राद्धभोजी पितरोंका निरूपण
  142. [अध्याय 142]युगोंकी काल-गणना तथा त्रेतायुगका वर्णन
  143. [अध्याय 143]यज्ञकी प्रवृत्ति तथा विधिका वर्णन
  144. [अध्याय 144]द्वापर और कलियुगकी प्रवृत्ति तथा उनके स्वभावका वर्णन, राजा प्रमतिका वृत्तान्त तथा पुनः कृतयुगके प्रारम्भका वर्णन
  145. [अध्याय 145]युगानुसार प्राणियोंको शरीर स्थिति एवं वर्ण-व्यवस्थाका वर्णन, श्रौतस्मार्त, धर्म, तप, यज्ञ, क्षमा, शम, दया आदि गुणोंका लक्षण, चातुर्होत्र की विधि तथा पाँच प्रकारके ऋषियोंका वर्णन
  146. [अध्याय 146]वज्राङ्गकी उत्पत्ति, उसके द्वारा इन्द्रका बन्धन, ब्रह्मा और कश्यपद्वारा समझाये जानेपर इन्द्रको बन्धनमुक्त करना, वज्राङ्गका विवाह, तप तथा ब्रह्माद्वारा वरदान
  147. [अध्याय 147]ब्रह्माके वरदानसे तारकासुरकी उत्पत्ति और उसका राज्याभिषेक
  148. [अध्याय 148]तारकासुरकी तपस्या और ब्रह्माद्वारा उसे वरदानप्राप्ति, देवासुर संग्रामकी तैयारी तथा दोनों दलोंकी सेनाओंका वर्णन
  149. [अध्याय 149]देवासुर संग्रामका प्रारम्भ
  150. [अध्याय 150]देवताओं और असुरोंकी सेनाओंमें अपनी-अपनी जोड़ीके साथ घमासान युद्ध, देवताओंके विकल होनेपर भगवान् विष्णुका युद्धभूमिमें आगमन और कालनेमिको परास्त कर उसे जीवित छोड़ देना
  151. [अध्याय 151]भगवान् विष्णुपर दानवोंका सामूहिक आक्रमण, भगवान् विष्णुका अद्भुत युद्ध-कौशल और उनके द्वारा दानव सेनापति ग्रसनकी मृत्यु
  152. [अध्याय 152]भगवान् विष्णुका मधन आदि दैत्योंके साथ भीषण संग्राम और अन्तमें घायल होकर युद्धसे पलायन
  153. [अध्याय 153]भगवान् विष्णु और इन्द्रका परस्पर उत्साहवर्धक वार्तालाप, देवताओंद्वारा पुनः सैन्ध-संगठन, इन्द्रका असुरोंके साथ भीषण युद्ध, गजासुर और जम्भासुरकी मृत्यु तारकासुरका घोर संग्राम और उसके द्वारा भगवान् विष्णुसहित देवताओंका बंदी बनाया जाना
  154. [अध्याय 154]तारकके आदेश से देवताओंकी बन्धन-मुक्ति, देवताओंका ब्रह्माके पास जाना और अपनी विपत्तिगाथा सुनाना, ब्रह्माद्वारा तारक-वधके उपायका वर्णन, रात्रिदेवीका प्रसङ्ग, उनका पार्वतीरूपमें जन्म, काम दहन और रतिकी प्रार्थना, पार्वतीकी तपस्या, शिवपार्वती विवाह तथा पार्वतीका वीरकको पुत्ररूपमें स्वीकार करना *
  155. [अध्याय 155]भगवान् शिवद्वारा पार्वतीके वर्णपर आक्षेप, पार्वतीका वीरकको अन्तःपुरका रक्षक नियुक्त कर पुनः तपश्चर्याके लिये प्रस्थान
  156. [अध्याय 156]कुसुमामोदिनी और पार्वतीकी गुप्त मन्त्रणा, पार्वतीका तपस्यायें निरत होना आदि दैत्यका पार्वतीरूपमें शंकरके पास जाना और मृत्युको प्राप्त होना तथा पार्वतीद्वारा वीरकको शाप
  157. [अध्याय 157]पार्वतीद्वारा वीरकको शाप, ब्रह्माका पार्वती तथा एकानंशाको वरदान, एकानंशाका विन्ध्याचलके लिये प्रस्थान, पार्वतीका भवनद्वारपर पहुँचना और वीरकद्वारा रोका जाना
  158. [अध्याय 158]वीरकद्वारा पार्वतीकी स्तुति, पार्वती और शंकरका पुनः समागम, अग्निको शाप, कृत्तिकाओंकी प्रतिज्ञा और स्कन्दकी उत्पत्ति
  159. [अध्याय 159]स्कन्दकी उत्पत्ति, उनका नामकरण, उनसे देवताओंकी प्रार्थना और उनके द्वारा देवताओंको आश्वासन, तारकके पास देवदूतद्वारा संदेश भेजा जाना और सिद्धोंद्वारा कुमारकी स्तुति
  160. [अध्याय 160]तारकासुर और कुमारका भीषण युद्ध तथा कुमारद्वारा तारकका वध
  161. [अध्याय 161]हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरप्राप्ति, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, विष्णुद्वारा देवताओंको अभयदान, भगवान् विष्णुका नृसिंहरूप धारण करके हिरण्यकशिपुकी विचित्र सभायें प्रवेश
  162. [अध्याय 162]प्रह्लादद्वारा भगवान् नरसिंहका स्वरूप वर्णन तथा नरसिंह और दानवोंका भीषण युद्ध
  163. [अध्याय 163]नरसिंह और हिरण्यकशिपुका भीषण युद्ध, दैत्योंको उत्पातदर्शन, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, नरसिंहद्वारा हिरण्यकशिपुका वध तथा ब्रह्मद्वारा नरसिंहकी स्तुति
  164. [अध्याय 164]पद्मोद्भवके प्रसङ्गमें मनुद्वारा भगवान् विष्णुसे सृष्टिसम्बन्धी विविध प्रश्न और भगवान्‌का उत्तर
  165. [अध्याय 165]चारों युगोंकी व्यवस्थाका वर्णन
  166. [अध्याय 166]महाप्रलयका वर्णन
  167. [अध्याय 167]भगवान् विष्णुका एकार्णवके जलमें शयन, मार्कण्डेयको आश्चर्य तथा भगवान् विष्णु और मार्कण्डेयका संवाद
  168. [अध्याय 168]पञ्चमहाभूतों का प्राकट्य तथा नारायणकी नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  169. [अध्याय 169]नाभिकमलसे ब्रह्माका प्रादुर्भाव तथा उस कमलका साङ्गोपाङ्ग वर्णन
  170. [अध्याय 170]मधु-कैटभकी उत्पत्ति, उनका ब्रह्माके साथ वार्तालाप और भगवानद्वारा बध
  171. [अध्याय 171]ब्रह्माके मानस पुत्रोंकी उत्पत्ति, दक्षकी बारह कन्याओंका वृत्तान्त, ब्रह्माद्वारा सृष्टिका विकास तथा विविध
  172. [अध्याय 172]तारकामय-संग्रामकी भूमिका एवं भगवान् विष्णुका महासमुद्रके रूपमें वर्णन, तारकादि असुरोंके अत्याचारसे दुःखी होकर देवताओंकी भगवान् विष्णुसे प्रार्थना और भगवान्का उन्हें आश्वासन
  173. [अध्याय 173]दैत्यों और दानवोंकी युद्धार्थ तैयारी
  174. [अध्याय 174]देवताओंका युद्धार्थ अभियान
  175. [अध्याय 175]देवताओं और दानवोंका घमासान युद्ध, मयकी तामसी माया, और्वाग्निकी उत्पत्ति और महर्षि द्वारा हिरण्यकशिपुको उसकी प्राप्ति
  176. [अध्याय 176]चन्द्रमाकी सहायतासे वरुणद्वारा और्वाग्नि- मायाका प्रशमन, मयद्वारा शैली-मायाका प्राकट्य, भगवान् विष्णुके आदेश से अग्नि और वायुद्वारा उस मायाका निवारण तथा कालनेमिका रणभूमिमें आगमन
  177. [अध्याय 177]देवताओं और दैत्योंकी सेनाओंकी अद्भुत मुठभेड़, कालनेमिका भीषण पराक्रम और उसकी देवसेनापर विजय
  178. [अध्याय 178]कालनेमि और भगवान् विष्णुका रोषपूर्वक वार्तालाप और भीषण युद्ध, विष्णुके चक्रके द्वारा कालनेमिका वध और देवताओंको पुनः निज पदकी प्राप्ति
  179. [अध्याय 179]शिवजीके साथ अन्धकासुरका युद्ध, शिवजीद्वारा मातृकाओंकी सृष्टि, शिवजीके हाथों अन्धककी मृत्यु और उसे गणेशत्वकी प्राप्ति, मातृकाओंकी विध्वंसलीला तथा विष्णुनिर्मित देवियोंद्वारा उनका अवरोध
  180. [अध्याय 180]वाराणसी माहात्म्यके प्रसङ्गमें हरिकेश यक्षकी तपस्या, अविमुक्तकी शोभा और उसका माहात्म्य तथा हरिकेशको शिवजीद्वारा वरप्राप्ति
  181. [अध्याय 181]अविमुक्तक्षेत्र (वाराणसी) का माहात्म्य
  182. [अध्याय 182]अविमुक्त-माहात्म्य
  183. [अध्याय 183]अविमुक्तमाहात्म्यके प्रसङ्गमें शिव-पार्वतीका प्रश्नोत्तर
  184. [अध्याय 184]काशीकी महिमाका वर्णन
  185. [अध्याय 185]वाराणसी माहात्य
  186. [अध्याय 186]नर्मदा माहात्म्यका उपक्रम
  187. [अध्याय 187]नर्मदामाहात्यके प्रसङ्गमें पुनः त्रिपुराख्यान
  188. [अध्याय 188]त्रिपुर- दाहका वृत्तान्त
  189. [अध्याय 189]नर्मदा-कावेरी संगमका माहात्म्य
  190. [अध्याय 190]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थ
  191. [अध्याय 191]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका माहात्म्य
  192. [अध्याय 192]शुक्लतीर्थका माहाल्य
  193. [अध्याय 193]नर्मदामाहात्म्य-प्रसङ्गमें कपिलादि विविध तीर्थोंका माहात्म्य, भृगुतीर्थका माहात्स्य, भृगुमुनिको तपस्या, शिव-पार्वतीका उनके समक्ष प्रकट होना, भृगुद्वारा उनकी स्तुति और शिवजीद्वारा भृगुको वर प्रदान
  194. [अध्याय 194]नर्मदातटवर्ती तीर्थोका माहात्म्य
  195. [अध्याय 195]गोत्रप्रवर-निरूपण-प्रसङ्गमें भृगुवंशकी परम्पराका विवरण
  196. [अध्याय 196]प्रवरानुकीर्तनमें महर्षि अङ्गिराके वंशका वर्णन
  197. [अध्याय 197]महर्षि अत्रिके वंशका वर्णन
  198. [अध्याय 198]प्रवरानुकौर्तन में महर्षिं विश्चामित्र के वंशका वर्णन
  199. [अध्याय 199]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि कश्यपके वंशका वर्णन
  200. [अध्याय 200]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि वसिष्ठकी शाखाका कथन
  201. [अध्याय 201]प्रवरानुकीर्तन महर्षि पराशरके वंशका वर्णन
  202. [अध्याय 202]गोत्रप्रवरकीर्तनमें महर्षि अगस्त्य, पुलह, पुलस्त्य और क्रतुकी शाखाओंका वर्णन
  203. [अध्याय 203]प्रवरकीर्तनमें धर्मके वंशका वर्णन
  204. [अध्याय 204]श्राद्धकल्प – पितृगाथा-कीर्तन
  205. [अध्याय 205]धेनु-दान-विधि
  206. [अध्याय 206]कृष्णमृगचर्मके दानकी विधि और उसका माहाय्य
  207. [अध्याय 207]उत्सर्ग किये जानेवाले वृषके लक्षण, वृषोत्सर्गका विधान और उसका महत्त्व
  208. [अध्याय 208]सावित्री और सत्यवान्‌का चरित्र
  209. [अध्याय 209]सत्यवान्का सावित्रीको वनकी शोभा दिखाना
  210. [अध्याय 210]यमराजका सत्यवान के प्राणको बाँधना तथा सावित्री और यमराजका वार्तालाप
  211. [अध्याय 211]सावित्रीको यमराजसे द्वितीय वरदानकी प्राप्ति
  212. [अध्याय 212]यमराज - सावित्री-संवाद तथा यमराजद्वारा सावित्रीको तृतीय वरदानकी प्राप्ति
  213. [अध्याय 213]सावित्रीकी विजय और सत्यवान्की बन्धन मुक्ति
  214. [अध्याय 214]सत्यवान्‌को जीवनलाभ तथा पत्नीसहित राजाको नेत्रज्योति एवं राज्यकी प्राप्ति
  215. [अध्याय 215]राजाका कर्तव्य, राजकर्मचारियोंके लक्षण तथा राजधर्मका निरूपण
  216. [अध्याय 216]राजकर्मचारियोंके धर्मका वर्णन
  217. [अध्याय 217]दुर्ग-निर्माणकी विधि तथा राजाद्वारा दुर्गमें संग्रहणीय उपकरणोंका विवरण
  218. [अध्याय 218]दुर्गमें संग्राह्य ओषधियोंका वर्णन
  219. [अध्याय 219]विषयुक्त पदार्थोके लक्षण एवं उससे राजाके बचने के उपाय
  220. [अध्याय 220]राजधर्म एवं सामान्य नीतिका वर्णन
  221. [अध्याय 221]दैव और पुरुषार्थका वर्णन
  222. [अध्याय 222]साम-नीतिका वर्णन
  223. [अध्याय 223]नीति चतुष्टयीके अन्तर्गत भेद नीतिका वर्णन
  224. [अध्याय 224]दान-नीतिकी प्रशंसा
  225. [अध्याय 225]दण्डनीतिका वर्णन
  226. [अध्याय 226]सामान्य राजनीतिका निरूपण
  227. [अध्याय 227]दण्डनीतिका निरूपण
  228. [अध्याय 228]अद्भुत शान्तिका वर्णन
  229. [अध्याय 229]उत्पातोंके भेद तथा कतिपय ऋतुस्वभावजन्य शुभदायक अद्भुतोका वर्णन
  230. [अध्याय 230]अद्भुत उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  231. [अध्याय 231]अग्निसम्बन्धी उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  232. [अध्याय 232]वृक्षजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  233. [अध्याय 233]वृष्टिजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  234. [अध्याय 234]जलाशयजनित विकृतियाँ और उनकी शान्तिके उपाय
  235. [अध्याय 235]प्रसवजनित विकारका वर्णन और उसकी शान्ति
  236. [अध्याय 236]उपस्कर - विकृतिके लक्षण और उनकी शान्ति
  237. [अध्याय 237]पशु-पक्षी सम्बन्धी उत्पात और उनकी शान्ति
  238. [अध्याय 238]राजाकी मृत्यु तथा देशके विनाशसूचक लक्षण और उनकी शान्ति
  239. [अध्याय 239]ग्रहयागका विधान
  240. [अध्याय 240]राजाओंकी विजयार्थ यात्राका विधान
  241. [अध्याय 241]अङ्गस्फुरणके शुभाशुभ फल
  242. [अध्याय 242]शुभाशुभ स्वप्नोंके लक्षण
  243. [अध्याय 243]शुभाशुभ शकुनोंका निरूपण
  244. [अध्याय 244]वामन-प्रादुर्भाव-प्रसङ्गमें श्रीभगवान्द्वारा अदितिको वरदान
  245. [अध्याय 245]बलिद्वारा विष्णुकी निन्दापर प्रह्लादका उन्हें शाप, बलिका अनुनय, ब्रह्माजीद्वारा वामनभगवान्‌का स्तवन, भगवान् वामनका देवताओंको आश्वासन तथा उनका बलिके यज्ञके लिये प्रस्थान
  246. [अध्याय 246]बलि-शुक्र- संवाद, वामनका बलिके यज्ञमें पदार्पण, बलिद्वारा उन्हें तीन डग पृथ्वीका दान, वामनद्वारा बलिका बन्धन और वर प्रदान
  247. [अध्याय 247]अर्जुनके वाराहावतारविषयक प्रश्न करनेपर शौनकजी द्वारा भगवत्स्वरूपका वर्णन
  248. [अध्याय 248]वराहभगवान्का प्रादुर्भाव, हिरण्याक्षद्वारा रसातलमें ले जायी गयी पृथ्वीदेवीद्वारा यज्ञवराहका भगवानद्वारा उनका उद्धारस्तवन और
  249. [अध्याय 249]अमृत-प्राप्तिके लिये समुद्र मन्थनका उपक्रम और वारुणी (मदिरा) का प्रादुर्भाव
  250. [अध्याय 250]अमृतार्थ समुद्र मन्धन करते समय चन्द्रमासे लेकर विपतकका प्रादुर्भाव
  251. [अध्याय 251]अमृतका प्राकट्य, मोहिनीरूपधारी भगवान् विष्णुद्वारा देवताओंका अमृत पान तथा देवासुरसंग्राम
  252. [अध्याय 252]वास्तुके प्रादुर्भावकी कथा
  253. [अध्याय 253]वास्तु चक्रका वर्णन
  254. [अध्याय 254]वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत राजप्रासाद आदिकी निर्माण-विधि
  255. [अध्याय 255]वास्तुविषयक वेधका विवरण
  256. [अध्याय 256]वास्तुप्रकरणमें गृह निर्माणविधि
  257. [अध्याय 257]गृहनिर्माण (वास्तुकार्य ) में ग्राह्य काष्ठ
  258. [अध्याय 258]देव-प्रतिमाका प्रमाण-निरूपण
  259. [अध्याय 259]प्रतिमाओंके लक्षण, मान, आकार आदिका कथन
  260. [अध्याय 260]विविध देवताओंकी प्रतिमाओंका वर्णन
  261. [अध्याय 261]सूर्यादि विभिन्न देवताओंकी प्रतिमाके स्वरूप, प्रतिष्ठा और पूजा आदिकी विधि
  262. [अध्याय 262]पीठिकाओंके भेद, लक्षण और फल
  263. [अध्याय 263]शिवलिङ्गके निर्माणकी विधि
  264. [अध्याय 264]प्रतिमा-प्रतिष्ठा के प्रसङ्गमें यज्ञाङ्गरूप कुण्डादिके निर्माणकी विधि
  265. [अध्याय 265]प्रतिमाके अधिवासन आदिकी विधि
  266. [अध्याय 266]प्रतिमा प्रतिष्ठाकी विधि
  267. [अध्याय 267]देव (प्रतिमा) - प्रतिष्ठा के अङ्गभूत अभिषेक-स्नानका निरूपण
  268. [अध्याय 268]वास्तु शान्तिकी विधि
  269. [अध्याय 269]प्रासादोंके भेद और उनके निर्माणकी विधि
  270. [अध्याय 270]प्रासाद संलग्न मण्डपोंके नाम, स्वरूप, भेद और उनके निर्माणकी विधि
  271. [अध्याय 271]राजवंशानुकीर्तन *
  272. [अध्याय 272]कलियुगके प्रद्योतवंशी आदि राजाओं का वर्णन
  273. [अध्याय 273]आन्ध्रवंशीय शकवंशीय एवं यवनादि राजाओंका संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण
  274. [अध्याय 274]षोडश दानान्तर्गत तुलादानका वर्णन
  275. [अध्याय 275]हिरण्यगर्भदानकी विधि
  276. [अध्याय 276]ब्रह्माण्डदानकी विधि
  277. [अध्याय 277]कल्पपादप-दान-विधि
  278. [अध्याय 278]गोसहस्त्र दानकी विधि
  279. [अध्याय 279]कामधेनु दानकी विधि
  280. [अध्याय 280]हिरण्याश्व - दानकी विधि
  281. [अध्याय 281]हिरण्याश्वरथ दानकी विधि
  282. [अध्याय 282]हेमहस्तिरथ-दानकी विधि
  283. [अध्याय 283]पञ्चाङ्गल (हल) प्रदानकी विधि
  284. [अध्याय 284]हेमधरा (सुवर्णमयी पृथ्वी) दानकी विधि
  285. [अध्याय 285]विश्वचक्रदानकी विधि
  286. [अध्याय 286]कनककल्पलतादानकी विधि
  287. [अध्याय 287]सप्तसागर दानकी विधि
  288. [अध्याय 288]रत्नधेनुदानकी विधि
  289. [अध्याय 289]महाभूतघट-दानकी विधि
  290. [अध्याय 290]कल्पानुकीर्तन
  291. [अध्याय 291]मत्स्यपुराणकी अनुक्रमणिका