ब्रह्माजीने पूछा-भगवन्! इस लोकमें जिसका अनुष्ठान करनेसे पुरुषको पत्नीवियोग अथवा स्त्रीको पतिवियोग न हो तथा शोक एवं रोगका भय और दुःख न हो, वह व्रत बतलाइये ॥ 1 ॥
श्रीभगवान्ने कहा— ब्रह्मन् ! श्रावणमास के कृष्ण पक्षकी द्वितीया तिथिको मधुसूदनभगवान् केशव | लक्ष्मीसहित सदा क्षीरसागरमें निवास करते हैं, अतः उस तिथिको जो मनुष्य भगवान् गोविन्दकी पूजा कर सात सौ कल्पोंतक फल देनेवाली गौ, पृथ्वी और सुवर्णका दान करता है, उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। यह द्वितीया अशून्यशयना नामसे प्रसिद्ध है; इस दिन विधिपूर्वक भगवान् विष्णुका पूजन कर इन वक्ष्यमाण मन्त्रोंद्वारा प्रार्थना करनी चाहिये 'लक्ष्मीकान्त ! आप श्रीवत्सको धारण करनेवाले, धन सम्पत्तिके निधि और सौन्दर्यके अधीश्वर हैं। अविनाशी भगवन्! मेरा धर्म, अर्थ और कामको सिद्ध करनेवाला गृहस्थ आश्रम कभी विनाशको न प्राप्त हो। पुरुषोत्तमः । मेरे गृहमें अग्रियों और इष्ट देवताओंका कभी अभाव न हो, मेरे पितरोंका विनाश न हो और दाम्पत्य-पति पत्नी (रूप व्यवहार) में कभी भेद-भाव न उत्पन्न हो ।देवाधिदेव ! जैसे आप कभी लक्ष्मीसे वियुक्त नहीं होते, उसी प्रकार मेरा भी स्त्री-सम्बन्ध कभी खण्डित न हो। वरदाता मधुसूदन! जिस प्रकार आपकी शय्या कभी लक्ष्मीसे शून्य नहीं रहती, उसी तरह मेरी भी शय्या स्त्रीसे शून्य न हो।' इस प्रकार प्रार्थना कर गाने-बजानेके माङ्गलिक शब्दोंके साथ-साथ देवाधिदेव भगवान् विष्णुके नामोंका कीर्तन करना चाहिये। जो गीत वाद्यके आयोजनमें असमर्थ हो, उसे घण्टाका शब्द कराना चाहिये; क्योंकि घण्टा समस्त बाजोंके समान माना गया है ॥2- 9॥
इस प्रकार भगवान् गोविन्दकी पूजा करके रातमें एक बार तेल और क्षार नमकसे रहित अन्नका भोजन करे। ऐसा भोजन तबतक करे, जबतक इस व्रतकी चार आवृत्ति न हो जाय (चार मासतक ऐसा ही भोजन चाहिये)। तदनन्तर प्रातः काल होनेपर एक विलक्षण शय्याका भी दान करनेका विधान है। वह शय्या गद्दा, श्वेत चादर और विश्रामोपयोगी तकियेसे सुशोभित हो उसपर भगवान् लक्ष्मीपतिकी स्वर्णमयी प्रतिमा स्थापित हो; उसके निकट दीपक, अनके पात्र, खड़ाऊँ, जूता, छाता, चंवर और आसन रखे गये हों; वह अभीष्ट सामग्रियोंसे युक्त हो, उसपर श्वेत पुष्प बिखेरे गये हों, वह नाना प्रकारके ऋतुफलोंसे सम्पन्न हो तथा अपनी शक्तिके अनुसार आभूषण और अन्न आदिसे समन्वित हो। इस प्रकार वह शय्या ऐसे ब्राह्मणको देनी चाहिये, जिसका कोई अङ्ग विकृत न हो तथा जो विष्णु भक्त, परिवारवाला, वेदज्ञ और आचरणसे पतित न हो। फिर उस शय्यापर द्विजदम्पतिको बैठाकर विधानके अनुसार उन्हें अलंकृत करे। उस समय पत्नीको भक्ष्य एवं भोज्य पदार्थोंसे युक्त वर्तन दान करे और ब्राह्मणको सभी उपकरणोंसे युक्त देवाधिदेव विष्णुको स्वर्णमयी प्रतिमा जलपूर्ण घटके साथ निवेदित करे (तत्पश्चात् ब्राह्मणको विदा कर व्रत समाप्त करे ) ॥ 10-16 ll
ब्रह्मन्! इस प्रकार जो पुरुष श्रीहरिके अशून्यश्यनतका अनुष्ठान करता है, उसे कभी पत्नी वियोग नहीं होता तथा सधवा अथवा विधवा नारी नारायणपरायण होकर कृपणता छोड़कर इसका अनुष्ठान करती है, वह दम्पति सूर्य-चन्द्रमाके स्थितिपर्यन्त न तो कभी शोकसे दुःखी | होते हैं और न उनका रूप ही विकृत होता है। साथ हीउनके पुत्र, पशु और धन आदिका विनाश नहीं होता। पितामह! अशून्यशयनव्रतका अनुष्ठान करनेवाला मनुष्य सात हजार सात सौ कल्पोंतक विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित | होता है ।। 17-19 ॥