अष्टकने पूछा- सत्ययुगके निष्पाप राजाओंमें प्रधान
नरेश! जब आप इच्छानुसार रूप धारण करके दस लाख
वर्षोंतक नन्दनवनमें निवास कर चुके हैं, तब क्या कारण
है कि आप उसे छोड़कर भूतलपर चले आये ? ॥ 1 ॥
ययाति बोले- जैसे इस लोकमें जाति-भाई, सुहृद् अथवा स्वजन कोई भी क्यों न हो, धन नष्ट हो जानेपर उसे सब मनुष्य त्याग देते हैं, उसी प्रकार स्वर्गलोकमें जिसका पुण्य समाप्त हो जाता है, उस मनुष्यको देवराज इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता तुरंत त्याग देते हैं ॥ 2 ॥
अष्टकने पूछा— देवलोकमें मनुष्योंके पुण्य कैसे क्षीण होते हैं? इस विषयमें मेरा मन अत्यन्त मोहित हो रहा है। प्रजापतिका वह कौन-सा धाम है, जिसमें | विशिष्ट (अपुनरावृत्तिकी योग्यतावाले) पुरुष जाते हैं ? यह बताइये; क्योंकि आप मुझे ज्ञानी जान पड़ते हैं ॥ 3 ॥ययाति बोले- नरदेव ! जो अपने मुखसे अपने पुण्यकमका बखान करते हैं, वे सभी इस भौम नरकमें आ गिरते हैं। यहाँ वे गीधों, गोदड़ों और कौओं आदिके खानेयोग्य इस शरीर के लिये पृथ्वीपर पुत्र-पौत्रादिरूपसे बहुधा विस्तारको प्राप्त होते हैं। इसलिये नरेन्द्र ! इस लोकमें जो दुष्ट और निन्दनीय कर्म हो, उसे सर्वथा त्याग देना चाहिये। भूपाल! मैंने तुमसे सब कुछ कह दिया बोलो, अब तुम्हें क्या बताऊँ ॥ 4-5 ॥
अष्टकने पूछा- जब मनुष्योंको मृत्युके पश्चात् पक्षी, गीध, मयूर और पतङ्ग—ये नोच-नोचकर खा लेते हैं तब वे कैसे और किस रूपमें उत्पन्न होते हैं ? आज मैं आपके ही मुखसे (प्रथम बार ) भौम नरकका (जिसे कभी नहीं सुना था ) नाम सुन रहा हूँ ll 6 ॥
ययाति बोले- कर्मसे उत्पन्न होने और बढ़नेवाले शरीरको पाकर गर्भसे निकलनेके पश्चात् जीव सबके समक्ष इस पृथ्वीपर ( विषयोंमें) विचरते हैं। उनका यह विचरण ही भौम नरक कहा गया है। इसीमें वे पड़ते हैं। इसमें पड़नेपर वे व्यर्थ बीतनेवाले अनेक वर्षसमूहोंकी ओर दृष्टिपात नहीं करते। कितने ही प्राणी स्वर्गादि लोकोंमें साठ हजार वर्ष रहते हैं। कुछ अस्सी हजार वर्षोंतक वहाँ निवास करते हैं। इसके बाद वे भूमिपर गिरते हैं। यहाँ उन गिरनेवाले जीवोंको तीखी दाढ़ोंवाले पृथ्वीके भयानक राक्षस (दुष्ट प्राणी) अत्यन्त पीड़ा देते हैं ॥ 7-8 ॥
अष्टकने पूछा-तीखी दादाँवाले पृथ्वीके भयंकर राक्षस पापवश आकाशसे गिरते हुए जिन जीवोंको सताते हैं, वे गिरकर कैसे जीवित रहते हैं? किस प्रकार इन्द्रिय आदिसे युक्त होते हैं? और गर्भमें कैसे आते हैं ? ॥ 9 ॥
ययाति बोले- अन्तरिक्षसे गिरा हुआ प्राणी असृक् (रक्त) होता है। फिर वही क्रमशः नूतन शरीरका बीजभूत वीर्य बन जाता है। (फिर) वह पुष्पके रससे संयुक्त होकर कर्मानुरूप योनिका अनुसरण करता है। गर्भाधान करनेवाले पुरुषके द्वारा स्त्रीसंसर्ग होनेपर वीर्यमें आविष्ट हुआ वह जीव उस स्त्रीके रजसे मिल जाता है। तदनन्तर वही गर्भरूपमें परिणत हो जाता है। जीव जलरूपसे गिरकर वनस्पतियों और ओषधियोंमें प्रवेश करते हैं तथा जल, वायु, पृथ्वी और अन्तरिक्ष आदिमें प्रवेश करते हुए कर्मानुसार पशु अथवा मनुष्य सब कुछ होते हैं। इस प्रकार वे भूमिपर आकर फिर पूर्वोक्त | क्रमके अनुसार गर्भभावको प्राप्त होते हैं । ll 10-11 ॥अष्टकने पूछा- राजन् ! इस मनुष्ययोनिमें आनेवाला जीव अपने इसी शरीरसे गर्भमें आता है या दूसरा शरीर धारण करता है? आप यह रहस्य मुझे बताइये। मैं संशय होनेके कारण पूछता हूँ । गर्भमें आनेपर वह भिन्न भिन्न शरीररूपी आश्रयको, आँख और कान आदि इन्द्रियोंको तथा चेतनाको भी कैसे उपलब्ध करता है? मेरे पूछनेपर ये सब बातें आप बताइये। तात! हम सब लोग आपको क्षेत्रज्ञ (आत्मज्ञानी) मानते हैं ॥ 12-13 ॥
ययाति बोले-ऋतुकालमें पुष्परससे संयुक्त वीर्यको वायु गर्भाशयमें खींच लेता है और वह वहाँ उसपर अधिकार जमाकर क्रमश: गर्भकी वृद्धि करता रहता है। वह गर्भ बढ़कर जब सम्पूर्ण अवयवोंसे सम्पन्न हो जाता है तब चेतनाका आश्रय ले योनिसे बाहर निकलकर मनुष्य कहलाता है। वह कानोंसे शब्द सुनता। है, आँखोंसे रूप देखता है, नासिकासे गन्ध लेता है, जिह्वासे रसका आस्वादन करता है, त्वचासे स्पर्श और मनसे आन्तरिक भावोंका अनुभव करता है। अष्टक! इस प्रकार महान् आत्मबलसे सम्पन्न प्राणधारियोंके शरीरमें जीवकी स्थापना होती है। ll 14–16 ॥
अष्टकने पूछा- जो मनुष्य मर जाता है, वह जलाया जाता है या गाड़ दिया जाता है अथवा जलमें बहा दिया जाता है। इस प्रकार विनाश होकर स्थूल शरीरका अभाव हो जाता है। फिर वह चेतन जीवात्मा किस शरीरके आधारपर रहकर चैतन्ययुक्त व्यवहार करता है ? ll 17 ll
ययाति बोले- राजसिंह! जैसे मनुष्य श्वास लेते हुए प्राणयुक्त स्थूल शरीरको छोड़कर स्वप्रमें विचरण करता है, वैसे ही यह चेतन जीवात्मा अस्फुट शब्दोच्चारणके साथ इस मृतक स्थूल शरीरको त्यागकर सूक्ष्म शरीरसे संयुक्त होता है और फिर पुण्य अथवा पापको आगे | रखकर उसी पुण्य पापके अनुसार अन्य योनिको प्राप्त होता है। पुण्य करनेवाले मनुष्य पुण्य-योनिमें और पाप करनेवाले मनुष्य पाप-योनिमें जाते हैं। इस प्रकार पापी जीव कीटपतङ्ग आदि होते हैं। महानुभाव! इन सब |विषयोंको विस्तारके साथ कहनेकी इच्छा नहीं होती।नृपश्रेष्ठ! इसी प्रकार जीव गर्भमें आकर चार पैरवाले
(चतुष्पाद), दो पैरवाले मनुष्यादि और पक्षियोंके रूपमें
उत्पन्न होते हैं। यह सब मैंने पूरा-पूरा बतला दिया। अब और क्या पूछना चाहते हो ? ॥ 18- 20 ॥ अष्टकने पूछा- तात ! मनुष्य कौन-सा कर्म करके उत्तम यश प्राप्त करता है? वह यश तपसे प्राप्त होता है या विद्यासे? मैं यही पूछता हूँ। जिस कर्मके द्वारा क्रमशः श्रेष्ठ लोकोंकी प्राप्ति हो सके, वह सब यथार्थ रूपसे बताइये ॥ 21 ॥
ययाति बोले- राजन् ! साधु पुरुष स्वर्गलोकके सात महान् दरवाजे बतलाते हैं, जिनसे प्राणी उसमें प्रवेश करते हैं। उनके नाम ये हैं-तप, दान, शम, दम, लज्जा, सरलता और समस्त प्राणियोंके प्रति दया। वे तप आदि द्वार सदा ही पुरुषके अभिमानरूप तमसे आच्छादित होनेपर नष्ट हो जाते हैं, यह संत पुरुषोंका कथन है। जो वेदोंका अध्ययन करके अपनेको सबसे बड़ा पण्डित मानता और अपनी विद्याद्वारा दूसरोंके यशका नाश करता है, उसके पुण्यलोक अन्तवान् (विनाशशील) होते हैं और उसका पढ़ा हुआ वेद भी उसे फल नहीं देता। अग्रिहोत्र, मौन, अध्ययन और यज्ञ- ये चार कर्म मनुष्यको भयसे मुक्त करनेवाले हैं; परंतु वे ही ठीकसे न किये जायें, दूषित भावसे अनुष्ठित हों तो वे उलटे भय प्रदान करते हैं। विद्वान् पुरुष सम्मानित होनेपर अधिक आनन्दित न हो, अपमानित होनेपर संतप्त न हो। इस लोकमें संत पुरुष ही सत्पुरुषोंका आदर करते हैं। दुष्ट पुरुषोंको 'यह सत्पुरुष है' ऐसी बुद्धि प्राप्त ही नहीं होती। ऐसा दान देना चाहिये, इस प्रकार यजन करना चाहिये, इस तरह स्वाध्यायमें लगा रहना चाहिये- ये सभी वचन अभयदायक हैं, अतः नित्य पालनीय हैं ऐसा मैंने सुना है जो सबका आश्रय है, पुराण (कूटस्थ) है तथा जहाँ मनकी गति भी रुक जाती है, वह (परब्रह्म परमात्मा) तुम सब लोगोंके लिये कल्याणकारी हो। जो विद्वान् उसे जानते हैं वे उस परब्रह्म परमात्मासे संयुक्त होकर इहलोक और परलोकमें परम शान्तिको प्राप्त होते हैं । ll 22-28 ॥