अष्टकने पूछा- राजन्! सूर्य और चन्द्रमाकी तरह अपने-अपने लक्ष्यकी ओर दौड़ते हुए वानप्रस्थ और संन्यासी इन दोनोंमेंसे पहले कौन-सा देवताओंके आत्मभाव (ब्रह्म) को प्राप्त होता है ? ॥ 1 ॥
ययाति बोलें - कामवृत्तिवाले गृहस्थोंके बीच ग्राममें ही वास करते हुए भी जो जितेन्द्रिय और गृहरहित संन्यासी है, वही उन दोनों प्रकारके मुनियोंमें पहले ब्रह्मभावको प्राप्त होता है। जो वानप्रस्थ दुर्लभ दीर्घायुको पाकर भी विषयोंके प्राप्त होनेपर उनसे विकृत हो उन्हीं में विचरने लगता है, उसे यदि विषयोपभोगके अनन्तर पश्चाताप होता है तो उसे मोक्षके लिये पुनः तपका | अनुष्ठान करना चाहिये। राजन्! जो पापबुद्धिवाला मनुष्य अधर्मका आचरण करता है, उसका वह आचरण नृशंस (पापमय) और असत्य कहा गया है ( एवं उस अजितेन्द्रियका धन भी वैसा ही पापमय और असत्य है); परंतु वानप्रस्थ मुनिका जो धर्मपालन है, वही सरलता है, वही समाधि है और वही श्रेष्ठ आचरण है । ll 2-4 ॥
अष्टकने पूछा- राजन्! आपको यहाँ किसने भेजा है? आप अवस्थामें तरुण, फूलोंकी मालासे सुशोभित, दर्शनीय तथा उत्तम तेजसे उद्भासित जान पड़ते हैं। आप कहाँसे आये हैं? अथवा क्या आपके लिये इस पृथ्वीपर ही किसी दिशामें कोई उत्तम वासस्थान है ? ॥ 5 ॥
ययातिने कहा-मैं अपने पुण्यका क्षय होनेसे भौमनरकमें प्रवेश करनेके लिये आकाशसे गिर रहा हूँ। ये जो ब्रह्माजीके लोकपाल हैं, वे मुझे गिरनेके लिये जल्दी मचा रहे हैं। अतः (अब) आपलोगों से पूछकर विदा लेकर इस पृथ्वीपर गिरूंगा। नरेन्द्र मैं जब इस | पृथ्वीतलपर गिरनेवाला था, उस समय मैंने इन्द्रसे यह वर माँगा था कि मैं साधु पुरुषोंके समीप गिरूँ वह वर मुझे मिला, जिसके कारण आप सब सद्गुणी संतोंका सङ्ग प्राप्त हुआ ॥ 6-7 ॥
अष्टक बोले- महाराज! मेरा विश्वास है कि आप पारलौकिक धर्मके ज्ञाता हैं। मैं नीचे गिरनेवाले आपसे एक बात पूछता है-'क्या अन्तरिक्ष या स्वर्गलोकमें | मुझे प्राप्त होनेवाले कोई पुण्यलोक भी हैं?' ॥ 8 ॥ययातिने कहा- नरेन्द्रसिंह ! इस पृथ्वीपर जंगली पशुओं और पक्षियोंके साथ जितने गाय, घोड़े आदि पशु रहते हैं, स्वर्गमें तुम्हारे लिये उतने ही लोक विद्यमान हैं। तुम इसे निश्चय जानो ॥ 9 ॥
अष्टक बोले- राजेन्द्र स्वर्ग मेरे लिये जो लोक विद्यमान हैं, उन्हें मैं आपको देता हूँ, परंतु आपका पतन न हो। अन्तरिक्ष या द्युलोकमें मेरे लिये जो स्थान हैं, उनमें आप शीघ्र ही चले जायें; क्योंकि आप शत्रुओंका संहार करनेवाले हैं ॥ 10 ॥
ययातिने कहा— नृपश्रेष्ठ! ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण ही प्रतिग्रह लेता है, मेरे जैसा क्षत्रिय कदापि नहीं नरेन्द्र जैसे दान करना चाहिये, उस विधिसे मैंने पहले भी सदा उत्तम ब्राह्मणोंको बहुत दान दिये हैं। जो ब्राह्मण नहीं है, उसे दीन याचक बनकर कभी जीवन नहीं बिताना चाहिये। याचना तो विद्यासे दिग्विजय करनेवाले विद्वान् ब्राह्मणकी पत्नी है अर्थात् ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मणको ही याचना करनेका अधिकार है। मुझे सत्कर्म करनेकी इच्छा है, अतः ऐसा कोई अकार्य कैसे कर सकता हूँ, जो पहले कभी न किया हो ॥ 11-12 ॥
प्रतर्दन बोले- वाञ्छनीय रूपवाले श्रेष्ठ पुरुष मैं प्रतर्दन हूँ और आपसे पूछता हूँ, यदि अन्तरिक्ष अथवा स्वर्गमें मेरे भी लोक हों तो बताइये। मैं आपको | पारलौकिक धर्मका ज्ञाता मानता हूँ ॥ 13 ॥
ययातिने कहा- नरेन्द्र। तुम्हारे तो बहुत लोक हैं, यदि एक-एक लोकमें सात-सात दिन रहा जाय तो भी उनका अन्त नहीं है। वे सब-के-सब अमृतके झरने बहाते हैं एवं मृत (तेज) से युक्त है उनमें शेकका सर्वथा अभाव है। वे सभी लोक तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं ॥ 14 ॥
प्रतर्दन बोले- महाराज वे सभी लोक मैं आपको देता हूँ, आप नीचे न गिरें। जो मेरे लोक हैं, वे सब आपके हो जायें। वे अन्तरिक्षमें हों या स्वर्गमें, आप शीघ्र मोहरहित होकर उनमें चले जाइये ll 15 ll
ययातिने कहा- राजन् मैं स्वयं एक तेजस्वी राजा होकर दूसरेसे पुण्य तथा योग-क्षेमकी इच्छा नहीं करता। विद्वान् राजा दैववश भारी आपत्तिमें पड़ जानेपर भी कोई पापमय कार्य न करे।धर्मपर दृष्टि रखनेवाले राजाको उचित है कि वह प्रयत्नपूर्वक धर्म और यशके मार्गपर ही चले। जिसकी बुद्धि धर्ममें लगी हो, उस मेरे जैसे मनुष्यको जान-बूझकर ऐसा दीनतापूर्ण कार्य नहीं करना चाहिये जिसके लिये तुम मुझसे कह रहे हो जो शुभ कर्म करनेकी इच्छा रखता है वह ऐसा काम नहीं कर सकता, जिसे अन्य राजाओंने नहीं किया हो। (तदनन्तर) इस प्रकारकी बातें कहनेवाले राजा ययातिसे नृपश्रेष्ठ वसुमान् बोले ॥ 16-18 ॥