नारदजीने पूछा-भगवन्! जो अभ्यास न होनेके कारण अथवा रोगवश उपवास करनेमें असमर्थ है, किंतु उसका फल चाहता है, उसके लिये कौन सा व्रत उत्तम है- यह बताइये ॥ 1 ॥ भगवान् शंकरने कहा-नारद! जो लोग उपवास करनेमें असमर्थ हैं, उनके लिये वही व्रत अभीष्ट है, जिसमें दिनभर उपवास करके रात्रिमें भोजनका विधान हो; मैं ऐसे महान् एवं अक्षय फल देनेवाले व्रतका परिचय देता हूँ, सुनो। उस व्रतका नाम है-'आदित्य शयन'। उसमें विधिपूर्वक भगवान् शङ्करकी पूजा की जाती है। पुराणोंके ज्ञाता महर्षि जिन नक्षत्रोंके योगमें इस व्रतका उपदेश करते हैं, उन्हें बताता हूँ। जब सप्तमी तिथिको हस्तनक्षत्रके साथ रविवार हो अथवा सूर्यकी संक्रान्ति हो, वह तिथि समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली होती है। उस दिन सूर्यके नामोंसे भगवती पार्वती और महादेवजीकी पूजा करनी चाहिये। सूर्यदेवको प्रतिमा तथा शिवलिङ्गका भी भक्तिपूर्वक पूजन करना उचित है; क्योंकि मुनिश्रेष्ठ! उमापति शङ्कर अथवा सूर्यमें कहीं भेद नहीं देखा जाता; इसलिये अपने घरमें शङ्करजीकी अर्चना करनी चाहिये हस्तनक्षत्र में 'सूर्याय नमः' का उच्चारण करके सूर्यदेवके चरणोंकी, चित्रा नक्षत्रमें 'अर्काय नमः' कहकर उनके गुल्फों (घुट्ठियों) की, स्वातीनक्षत्रमें पुरुषोत्तमाय नमः' से पिंडलियोंकी, विशाखायें 'धात्रे नमः' से घुटनोंकी तथा अनुराधामें 'सहस्रभानवे नमः' से दोनों जाँघोंकी पूजा करनी चाहिये ज्येष्ठानक्षत्र में 'अनङ्गाय नमः ' से गुहा प्रदेशकी मूलमें 'इन्द्राय नमः ' और 'भीमाय नमः' से कटिभागकी | पूजा करे ॥ 28 ॥पूर्वापाड और उत्तराषाढमें 'त्वये नमः' और 'समतुरङ्गाय नमः' से नाभिकी, श्रवणमें तीक्ष्णांशवे | नमः' से दोनों कुक्षियोंकी, धनिष्ठामें 'विकर्तनाय नमः ' से पृष्ठभागको और शतभिष नक्षत्रमें ध्वान्तविनाशनाय नमः' से सूर्यके वक्षःस्थलकी पूजा करनी चाहिये। द्विजवर! पूर्वाभाद्रपद और उत्तराभाद्रपदमें 'चण्डकराय नमः' से दोनों भुजाओंका रेवतीमें 'साम्रामधीशाय नमः' से दोनों हाथोंका पूजन करना चाहिये। अश्विनीमें 'समधुरंधराय नमः " से नोंका और भरणीमें 'कठोरधा नमः' से भगवान् सूर्यके कण्ठका पूजन करे। नारदजी ! कृत्तिकामें 'दिवाकराय नमः' से ग्रीवाकी, रोहिणीमें 'अम्बुजेशाय नमः' से सूर्यदेवके ओठोंकी, मृगशिरामें 'हरये नमस्ते' से त्रिपुरदाहक शिवकी जिह्वाकी और आर्द्रा नक्षत्र में 'रुद्राय नमः' से उनके दाँतोंकी पूजा करनी चाहिये पुनर्वसु 'सवित्रे नमः' से शङ्करजीकी नासिकाका, पुष्यमें अम्भोरुहवल्लभाय नमः' से ललाटका तथा 'वेदशरीरधारिणे नमः' से शिवके बालोंका पूजन करना चाहिये आश्लेषामें 'विबुधप्रियाय नमः' से उनके मस्तकका, मघामें 'गोगणेशाय नमः ' से शङ्करजीके दोनों कानोंका, पूर्वाफाल्गुनीमें 'गोब्राह्मणनन्दनाय नमः' से शम्भुके नेत्रोंका तथा उत्तराफाल्गुनीनक्षत्र में 'विश्वेश्वराय नमः' से उनकी दोनों भौंहोंका पूजन करे। 'पाश, अङ्कुश, त्रिशूल, कमल, कपाल, सर्प, चन्द्रमा तथा धनुष धारण करनेवाले श्रीमहादेवजीको नमस्कार है। गजासुर, कामदेव, त्रिपुर और अन्धकासुर आदिके विनाशके मूल कारण भगवान् श्रीशिवको प्रणाम है।" इत्यादि वाक्योंका उत्तारण करके प्रत्येक अङ्गकी पूजा करनेके पश्चात् 'विश्वेश्वराय नमः' से भगवान् शिवका पूजन करना चाहिये। तदनन्तर अन्न भोजन करना उचित है। भोजनमें तेलसे युक्त शाक और खारे नमकका उपयोग नहीं करना चाहिये। मांस और उच्छिष्ट अन्नका तो कदापि सेवन न करे ।। 9-17 ॥द्विजवर नारद! इस प्रकार रात्रिमें शुद्ध भोजन करके पुनर्वसुनक्षत्रमें गूलरकी लकड़ीके पात्रमें एक सेर अगहनीका चावल तथा घृत रखकर सुवर्णके साथ उसे ब्राह्मणको दान करना चाहिये। सातवें दिनके पारणमें और दिनोंकी अपेक्षा एक जोड़ा वस्त्र अधिक दान करना चाहिये। नारद! चौदहवें दिनमें पारणमें गुड़, खीर और घृत आदिके द्वारा ब्राह्मणोंको भक्तिपूर्वक भोजन कराये। तदनन्तर कर्णिकासहित सोनेका अष्टदल कमल बनवाये, जो आठ अङ्गुलका हो तथा जिसमें पद्मरागमणि (माणिक्य अथवा लाल) की पत्तियाँ अङ्कित की गयी हों। फिर सुन्दर शय्या तैयार करावे, जिसपर सुन्दर बिछौने बिछाकर तकिया रखा गया हो, शय्याके ऊपर पंखा रखा गया हो। उसके आस-पास बर्तन, खड़ाऊँ, जूता, छत्र, चँवर, आसन और दर्पण रखे गये हों। फल, वस्त्र, चन्दन तथा आभूषणोंसे वह शय्या सुशोभित होनी चाहिये। ऊपर बताये हुए सर्वगुणसम्पन्न सोनेके कमलको अलङ्कृत करके उस शय्यापर रख दे। इसके बाद मन्त्रोच्चारणपूर्वक दूध देनेवाली अत्यन्त सीधी कपिला गौका दान करे। वह गौ उत्तम गुणोंसे सम्पन्न, वस्त्राभूषणोंसे सुशोभित और बछड़ेसहित होनी चाहिये। उसके खुर चाँदीसे और सींग सोनेसे मढ़े होने चाहिये तथा उसके साथ काँसेकी दोहनी होनी चाहिये। दिनके पूर्व भागमें ही दान करना उचित है। समयका उल्लङ्घन कदापि नहीं करना चाहिये। शय्यादानके पश्चात् इस प्रकार प्रार्थना करे— 'सूर्यदेव ! जिस प्रकार आपकी शय्या कान्ति, धृति, श्री और रतिसे कभी सूनी नहीं होती, वैसे ही मुझे भी सिद्धियाँ प्राप्त हों। देवगण आपके सिवा और किसीको निष्पाप एवं श्रेयस्कर नहीं जानते, इसलिये आप सम्पूर्ण दुःखोंसे भरे हुए इस संसार सागरसे मेरा उद्धार कीजिये।' इसके पश्चात् भगवान्की प्रदक्षिणा कर उन्हें प्रणाम करनेके अनन्तर विसर्जन करे। शय्या और गौ आदि समस्त पदार्थोंको ब्राह्मणके घर पहुँचा दे ॥ 18-28 ॥
दुराचारी और दम्भी पुरुषके सामने भगवान् शंकरके इस व्रतकी चर्चा नहीं करनी चाहिये। जो गौ, ब्राह्मण, देवता, अतिथि और धार्मिक पुरुषोंकी विशेषरूपसे निन्दा करता है, उसके सामने भी इसको प्रकट न करे।भगवान्के भक्त और जितेन्द्रिय पुरुषके समक्ष ही शिवजीका यह आनन्ददायी एवं गूढ़ रहस्य प्रकाशित करनेके योग्य है। वेदवेत्ता पुरुषोंका कहना है कि यह व्रत महापातकी मनुष्योंके भी पापोंका नाश कर देता है। जो पुरुष इस व्रतका अनुष्ठान करता है, उसका बन्धु, पुत्र, धन और स्त्रीसे कभी वियोग नहीं होता तथा वह देवताओंका आनन्द बढ़ानेवाला माना जाता है। इसी प्रकार जो नारी भक्तिपूर्वक इस व्रतका पालन करती है उसे कभी रोग, दुःख और शोकका शिकार नहीं होना पड़ता। प्राचीनकालमें महर्षि वसिष्ठ, अर्जुन, कुबेर तथा इन्द्रने इस व्रतका आचरण किया था। इस व्रतके कीर्तनमात्रसे सारे पाप नष्ट ! हो जाते हैं, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। जो पुरुष इस | आदित्यशयन नामक व्रतके माहात्म्य एवं विधिका पाठ या श्रवण करता है, वह इन्द्रका प्रियतम होता है तथा जो इस व्रतका अनुष्ठान करता है, वह नरकमें भी पड़े हुए | समस्त पितरोंको स्वर्गलोकमें पहुँचा देता है ॥ 29-33 ॥