सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! (गत अध्यायमें कथित) काण्वायनवंशमें उत्पन्न होनेवाले क्षत्रियों तथा उनके स्वामी सुशर्मा नामक राजाको जो भूल्योंका अन्तिम राजा होगा, बलपूर्वक पराजित कर उन्हींका सजातीय शिशुक नामक आन्ध्र राजा इस वसुन्धराको प्राप्त करेगा। वह शिशुक तेईस वर्षोंतक पृथ्वीका शासन करेगा। उसके बाद उसका छोटा भाई कृष्ण अठारह वर्षतक शासन करेगा। उसका पुत्र श्रीशातकर्णि दस वर्षतक राज्य करेगा। उसका पुत्र पूर्णोत्सङ्ग नामक राजा होगा, जो अठारह वर्षोंतक राज्य करेगा। उसके बाद स्कन्धस्तम्भि नामक राजा अठारह वर्षतक राज्य करेगा। फिर शान्तकर्णि नामक राजा छप्पन वर्षतक राज्य करेगा। उसका पुत्र लम्बोदर अठारह वर्षतक राज्य करेगा। उसका पुत्र आपीतक बारह वर्षतक राज्य करेगा। तदनन्तर मेघस्वाति नामक राजा होगा, जो अठारह वर्षतक राज्य करेगा। इसके बाद स्वाति नामक राजा होगा, वह भी अठारह वर्षतक राज्य करेगा। फिर स्कन्धस्वाति नामक राजा सात वर्षतक राज्य करेगा। इसके बाद मृगेन्द्र स्वातिकर्ण नामक राजा तीन वर्षोंतक पृथ्वीपर शासन करेगा। तदनन्तर कुन्तल स्वातिकर्ण आठ वर्षोंतक राज्य करेगा। उसके बाद स्वातिवर्ण नामक राजा मात्र एक वर्ष राज्य करेगा। तदनन्तर रिक्तवर्ण पच्चीस वर्षतक राजा होगा। उसके बाद पाँच वर्षतक हाल राजा होगा। इसके बाद मन्तुलक नामक राजा होगा, जो पाँच वर्षतक राज्य करेगा। उसके बाद पुरीन्द्रसेन राजा होगा। फिर इसके बाद सौम्य एवं सुन्दर स्वभाववाला शान्तिकर्ण नामक राजा होगा, जो मात्र एक वर्षतक राज्य करेगा। फिर चकोरस्वातिकर्ण नामक राजा होगा, जो मात्र छः मास ही शासन करेगा।उसके बाद शिवस्वातिनामक राजा होगा, जो अट्ठाईस वर्षतक राज्य करेगा। उसके बाद गौतमीपुत्र शातकर्ण राजा होगा, जो इक्कीस वर्षांतक राज्य करेगा। उसका पुत्र पुलोमा अट्ठाईस वर्षतक राज्य करेगा। उसके बाद शिवश्री पुलोमा नामक राजा सात वर्षतक राज्य करेगा। इसके बाद शान्तिकर्णका पुत्र शिवस्कन्ध उन्तीस वर्षांतक राज्य करेगा। फिर यज्ञश्री शान्तिकर्णिक नामक राजा उन्तीस वर्षतक राज्य करेगा। उसका पुत्र विजय छः वर्षतक राजा होगा। उसका पुत्र चण्डश्री शान्तिकर्ण दस वर्षतक राज्य करेगा ll 1-15 ll
तदनन्तर उसके बाद दूसरा पुलोमा नामक राजा होगा, जो सात वर्षतक राज्य करेगा। इस प्रकार ये उन्तीस (मतान्तरसे 30 या 31) आन्ध्रवंशी राजा पृथ्वीका उपभोग करेंगे, इनका राज्यकाल चार सौ आठ वर्षोंका होगा, भृत्योपनामधारी उन आन्ध्रवंशीय राजाओंके वंशज राज्यके अधिकारी होंगे। उनमें सात आन्ध्रवंशीय, दस आभीरवंशी, सात गर्दभिल, अठारह शकवंशीय, * आठ यवन, चौदह तुषार, तेरह गुरुण्ड तथा उन्नीस हूणवंशीय राजा होंगे। फिर सात गर्दभिलवंशीय राजा इस पृथ्वीका उपभोग करेंगे। आठ यवन राजा सत्तासी वर्षतक राज्य करेंगे। सात सहस्र वर्षोंतक यह पृथ्वी तुषारोंके अधीन रहेगी। फिर एक तौ तिरासी वर्ष, एक सौ अठारह वर्ष तथा चार सौ पचास वर्षतक अर्थात् सात सौ इक्यावन वर्षतक तेरह म्लेच्छवंशज गुरुण्ड राजा शूद्रोंके साथ पृथ्वीका उपभोग करेंगे। तीन सौं ग्यारह वर्षतक आन्ध्रवंशीय राजा राज्य करेंगे तथा श्रीपर्वतीयोंका राज्य बावन वर्षतक रहेगा। उसी प्रकार दस आभीर राजा सड़सठ वर्षतक राज्य करेंगे। कालवश उनके विनष्ट हो जानेपर किलकिला नामक राजा होंगे, जो यवन-जातिके होंगे। धर्म, काम, अर्थ-तीनों दृष्टियोंसे आर्य लोग उनकी संस्कृतिसे विमिश्रित हो म्लेच्छ हो जायेंगे और आश्रमधर्मका विपर्यय करने लगेंगे। परिणामतः प्रजा नष्ट हो जायगी तथा राजालोग लोभी और असत्यवादी हो जायेंगे।दम्भ-पाखण्डसे सभी आर्य तथा म्लेच्छ लोग प्रभावहत हो जायेंगे। अधार्मिकोंकी वृद्धि होगी, पाखंड बढ़ जायगा। इस प्रकार सन्ध्यामात्र शेष रह जानेपर कलियुगमें जब सभी राजवंश नष्ट हो जायगा तब थोड़ी प्रजा शेष रह जायगी, जो धर्मके विनष्ट हो जानेसे विशृंखलित रहेगी ।। 16-28 ॥
उस समय सारी प्रजा असत्कर्मपरायण, निर्बल, व्यधि और शोकसे जर्जरित अनावृष्टिसे पीड़ित, परस्पर एक-दूसरेके संहारके इच्छुक, आश्रयहीन, भयभीत, घोर संकटसे ग्रस्त होकर नदियोंके तटों तथा पर्वतोंपर निवास करेंगी। राजवंशोंके नष्ट हो जानेपर सारी प्रजा घर-द्वारसे विहीन, स्नेहरहित, निर्लज्ज, भाई-मित्र आदिका त्याग कर देनेवाली, वर्णाश्रमधर्मसे भ्रष्ट, अधर्म में लीन, पत्ते, मूल और फलोंका आहार करनेवाली, पत्तों और मृगचर्मको वस्त्ररूपमें धारण करनेवाली तथा जीविकाके लोभमें सारी पृथ्वीका चक्कर लगाने लगेगी। इस प्रकार कलियुगके अवसानके समय प्रजाएँ कष्ट झेलेंगी। वे कलियुगके साथ ही समाप्त हो जायेंगी तब संध्यासहित कलियुगके एक हजार दिव्य वर्ष बीत जानेपर कृतयुगकी प्रवृत्ति होगी। इस प्रकार मैंने क्रमशः भूत, वर्तमान और भविष्यकालीन राजवंशका पूर्णरूपसे वर्णन किया है। यह राज्यकाल परीक्षित्के जन्मसे लेकर महापद्मके राज्याभिषेकतक एक हजार पचास वर्ष होता है। पुनः पौलोम आन्ध्रसे लेकर महापद्मके राजत्वकालतक आठ सौ छत्तीस वर्ष समझना चाहिये ॥ 29-37 ॥
परीक्षित समयसे लेकर आन्ध्रवंशीय राजाओंक अन्तकालतकका प्रमाण वेदों एवं पुराणोंक जाननेवाले ऋषियोंने भविष्यपुराणमें इस प्रकार परिगणित किया है। जब पुनः सत्ताईस आन्ध्रवंशीय राजाओंका राज्य होगा, तब सप्तर्षिगण प्रज्वलित अग्निके समान उद्दीप्त रहेंगे। वे सप्तर्षिगण एक-एक सौ वर्षोंतक नक्षत्रमण्डलमें निवास करते हैं।उन सप्तर्षियोंके ऊपर यह दिव्य नामसे कहा गया है। इसका परिमाण सड़सठ दिव्य वर्षोंका है। इस प्रकार इन सप्तर्षियोंका दिव्य काल प्रवृत्त होता है। रात्रिके समय सप्तर्षियोंके जो दो प्रारम्भिक पूर्व दिशामें जिस नक्षत्रके सामने उदित होते हैं, सभी सप्तर्षि उसी नक्षत्रमें स्थित माने जाते हैं। पुनः सौ वर्षोंके बाद आकाशमें उनका दूसरे नक्षत्रके साथ मिलन होता है। नक्षत्रों और उन सप्तर्षियोंके संयोगकी यही गति बतायी जाती है। ये सप्तर्षिगण राजा परीक्षितके राज्यकालमें मघा नक्षत्रमें स्थित थे। उनके चौबीस सौ वर्ष बाद राज्य करनेवाले शुङ्गवंशीय ब्राह्मण राजा होंगे। उसके बाद यह सारा लोक अत्यन्त पतित हो जायगा। उस समय सारी प्रजाऐं मिथ्या व्यवहारमें लीन, लोभी, धर्म, अर्थ एवं कामसे हौन, वैदिक एवं स्मार्त नियमोंके पालनसे विमुख, वर्णाश्रम धर्मको मर्यादासे विहीन और दुर्बलात्मा हो जायेंगी। वे मोहित होकर वर्णसंकर संतान उत्पन्न करेंगी। ब्राह्मण शूद्रयोनिमें स्थित हो जायेंगे और शुद्र मन्त्रोंके ज्ञाता हो जायेंगे। उन्हीं मन्त्रोंको जाननेकी अभिलाषासे ब्राह्मण उन मन्त्रज्ञ शूद्रोंकी उपासना करेंगे। क्रमशः सभी लोग अपने वर्ण-धर्मको छोड़कर अन्य वर्णमें सम्मिलित हो जायेंगे ll 38- 48 ॥
फिर नष्ट होनेसे बची हुई प्रजाएँ युगान्तके समय विनष्ट हो जायँगी। जिस दिन श्रीकृष्ण स्वर्ग (गोलोक) गये, उसी दिन कलियुगका प्रारम्भ हुआ। इसका प्रमाण मुझसे सुनिये। बुद्धिमान् लोग उस कलियुगका प्रमाण मानववर्षके अनुसार चार लाख बत्तीस हजार और | दिव्यमानके अनुसार एक हजार वर्ष मानते हैं। उसके बाद उसकी संध्या (तथा संध्यांश) प्रवृत्त होती है। उस कलियुगके समाप्त होनेपर कृतयुगका प्रारम्भ होता है। | सहदेव ऐल और इक्ष्वाकुवंशीय दोनों कहा जाता है। इक्ष्वाकुका वंश राजा सुमित्रतक बतलाया जाता है। सोमवंशके ज्ञाता लोग ऐलवंशको चन्द्रवंशमें संक्रान्त मानते हैं ये ही विवस्वान्के भी कीर्तिशाली पुत्र कहे गये हैं, जो भूत, वर्तमान तथा भविष्यकालमें होनेवाले हैं। उस वैवस्वत मन्वन्तरमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इन सभी वर्णोंके लोग होते हैं। इस प्रकार अब यहाँ यह वंश-वर्णन समाप्त हो जाता है ll 49-55 ॥पुरुवंशीय राजा देवापि और इक्ष्वाकुवंशीय राजा (सहदेव), जिसे तुम मानते हो— ये दोनों महान् योगबल से सम्पन्न होंगे, जो कलाप ग्राममें निवास करते हैं। उन्तीसवीं चतुर्युगीमें ये दोनों राजा क्षत्रिय जातिके नेता होंगे। मनुका पुत्र सुवर्चा इक्ष्वाकुवंशीय राजाओंमें प्रथम होगा। वही उन्तीसवें युगमें अपने वंशका मूल पुरुष होगा तथा देवापिका पुत्र सत्य ऐलवंशीयोंका राजा होगा। भविष्यकालीन चतुर्युगमें ये दोनों क्षात्रधर्मके प्रवर्तक होंगे। इसी प्रकार सभी वंशोंमें सन्ततिके लक्षणोंको जानना चाहिये। कलियुगके क्षीण हो जानेपर कृतयुगमें सप्तर्षि उन राजाओंके साथ स्थित रहते हैं। पुनः त्रेताके मध्यमें वे ब्राह्मण और क्षत्रियके बीजके कारण होते हैं। इसी प्रकार सभी कलियुगों एवं अन्य युगों में होता है। प्रत्येक युगमें सप्तर्षि राजाओंके साथ प्रजाओंकी उत्पत्तिके लिये अवस्थित रहते हैं। इसी प्रकार ब्राह्मणोंद्वारा क्षत्रियोंकी उत्पत्तिका सम्बन्ध कहा जाता है। मन्वन्तरोंके विस्तार में ब्राह्मण और क्षत्रियसे उत्पन्न हुई संतान युगको अतिक्रान्त कर जाती है, ऐसा श्रुतियोंमें कहा गया है। वे सप्तर्षि उन संततियोंकी जिस प्रकार प्रशान्ति होती है तथा जिस प्रकार क्षय दीर्घायुकी प्राप्ति, उन्नति और अवनति होती है, वह सब जानते हैं ।। 56-63 ।।
इस प्रकारके क्रमयोगसे चन्द्रवंशी और इक्ष्वाकुवंशीय राजा त्रेतामें उत्पन्न होकर कलियुगमें विनष्ट हो जाते हैं। एक मन्वन्तरके विनाशतक युग संज्ञा कही जाती है। जमदग्निके पुत्र परशुरामद्वारा क्षत्रियोंका संहार हो जानेपर यह सारी पृथ्वी क्षत्रिय राजाओंसे शून्य हो गयी थी। अब मैं राजाओंके सूर्य-चन्द्र- इन दो वंशोंकी उत्पत्ति बता रहा हूँ, उसे मुझसे सुनिये। ऐल और इक्ष्वाकुवंश क्षत्रियोंकी मूल प्रकृति कहे गये हैं। इन राजाओंके वंशज तथा अन्य क्षत्रियगण पृथ्वीपर प्रचुर परिमाणमें अवस्थित हैं। इनमें ऐलवंशीय राजा तो बहुत हैं, किंतु इक्ष्वाकुवंशीय उतने नहीं हैं। इनके कुलोंकी संख्या पूरी एक सौ बतलायी जाती है। इसी प्रकार भोजवंशीय राजाओंका विस्तार इनसे दूना है। भोजवंशीय राजाओंसे दूने अन्य क्षत्रियगण हैं। वे चार प्रकारके हैं और बीत चुके हैं। मैं उनका नामसहित यथार्थ रूपसे वर्णन कर रहा हूँ, उसे मुझसे सुनिये। इनमें प्रतिविन्ध्योंकी | संख्या सौ, नागोंकी संख्या सौ, हयोंकी संख्या सौऔर धार्तराष्ट्रोंकी संख्या सौ है। जनमेजयोंकी संख्या अस्सी है। वीरवर ब्रह्मदत्तोंकी संख्या सौ, कुरुओंकी संख्या सौ, पाञ्चालोंकी संख्या सौ और काशि-कुशादिकी संख्या सौ है। इनके अतिरिक्त जो नीप और शशबिन्दु हैं, उनकी संख्या दो हजार है ।। 64-72 ।।
वे सभी यज्ञ करनेवाले तथा अत्यधिक दक्षिणा प्रदान करनेवाले थे। इस प्रकार सैकड़ों-हजारों राजर्षिगण बीत चुके हैं, जो प्रभावशाली वैवस्वत मनुके वर्तमान अन्तरमें जन्म ग्रहण कर चुके हैं। उनके मरण और उत्पत्तिमें अब लोककी स्थिति ही प्रमाणभूत है। उनकी संतानका विस्तार तो परस्पर पूर्वापर-सम्बन्धसे सैकड़ों वर्षोंमें भी नहीं बताया जा सकता। इस वैवस्वत मन्वन्तरमें वे नृपतिगण अपने वंशदेवताओंके साथ अट्ठाईस पीढ़ीतक बीत चुके हैं। जो शेष हैं, उन्हें सुनिये। वे महात्मा राजा तैंतालीस होंगे। उन अवशिष्ट वैवस्वत महात्माओंकी संज्ञा उनके युगोंके साथ है। इस प्रकार मैंने इन वंशोंका विस्तार और संक्षेपसे वर्णन कर दिया। उनकी संख्या बहुत होनेके कारण मैं विस्तारपूर्वक बतलाने में असमर्थ हूँ। राजन्! मैंने जिन ययातिवंशीय राजाओंके वंशधर राजर्षियोंकी चर्चा की है, वे सभी युगोंके साथ समाप्त हो चुके हैं। वे सभी कान्तिमान् एवं यशस्वी थे। जो मनुष्य उनके नामोंको स्मरण रखता है, वह इस लोकमें पाँच दुर्लभ लौकिक वरदानोंको प्राप्त कर लेता है, अर्थात् वह आयु, कीर्ति, धन, स्वर्ग और पुत्रसे सम्पन्न होकर उत्पन्न होता है तथा उस बुद्धिमान्को इनके स्मरण एवं श्रवण करनेसे परमस्वर्गकी प्राप्ति होती है । ll 73 - 81 ॥