सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! वहाँ सदा हिमाच्छादित तथा रंग-बिरंगे जो दो महान् शिखर थे, उनके बीचमें एक तीसरा शिखर था, जो अत्यन्त ऊँचा था। वह बादलोंसे सदा शून्य रहता था, जिससे उसकी शिलाएँ नित्य सन्तप्त बनी रहती थीं। उस शिखरके नीचे पश्चिम दिशामें वृक्षोंके समूह शोभा पा रहे थे। उन्होंके बीचमें एक अत्यन्त सुन्दर विवर (छिद्र) था, जो मालतीकी लताओंसे आच्छादित था। उसे देखते ही राजा पुरूरवा आश्चर्यचकित हो गये। तत्पश्चात् उन्होंने उस विवरमेंप्रवेश किया। वह मार्ग चार सौ हाथ (एक फलांग)-तक घने अन्धकारसे समावृत होनेके कारण अत्यन्त संकटमय था। उस चार सौ हाथकी दूरी पार कर लेनेपर राजा ऐसे स्थानपर पहुँचे, जो अपनी कान्तिसे ही उद्भासित हो रहा था। वह स्थान ऊँचा, अत्यन्त गम्भीर और गोलाकार था तथा एक कोसके विस्तारवाला था। यद्यपि वहाँ न सूर्य तपते थे न चन्द्रमा ही विराजमान थे, तथापि वह दिनकी भाँति रात-दिन प्रकाशयुक्त बना रहता था। वहाँ एक सरोवर भी था। जो सुवर्ण, चाँदी और मूँगेके समान रंग बिरंगे वृक्षोंसे सुशोभित था। उन वृक्षोंमें नाना प्रकारके मणियोंके सदृश परमोत्कृष्ट कान्तिसे युक्त फूल खिले हुए थे। उस सरोवरके चारों ओर शिलाओंकी वेदी बनी हुई थी. भूपाल ! उस सरोवरमें विभिन्न प्रकारके कमल खिले हुए थे, जिनके पुष्पदल पद्मरागमणि सरीखे, केसर समूह हरिके से और पत्ते नीले वैदूर्य मणिके समान चमक रहे थे और वे सुगन्धसे भरे हुए थे। उनकी कर्णिका (छत्ता) | सुवर्णक समान चमकीली थी॥196॥
उस सरोवर में जो भूमि थी, वह हरिसे आच्छादित थी, साथ ही वह नाना प्रकारके दूसरे खोंसे भी मण्डित थी। महोपाल। वहाँ जलमें उत्पन्न होनेवाली कौड़ी, सीपी और शङ्ख भी वर्तमान थे। वह कछुओकि साथ-साथ भयानक घड़ियालों और मछलियोंका वासस्थान था। राजन् ! उसमें कहाँ मरकतमणि तथा हाँरेके हजारों टुकड़े पड़े थे। कहीं पद्मराग (माणिक्य या लाल), इन्द्रनील (नीलम), महानील, पुष्पराग (पुखराज), कर्केतन, तुत्थक तथा शेष मणियोंके खण्ड चमक रहे थे। कहाँ लाजवर्त मुख्य रुधिरास सूर्यकान्त, चन्द्रकान्त नीलवर्णान्तिक, ज्योतीरस, रम्य एवं स्यमन्तक मणियोंकि टुकड़े यत्र-तत्र बिखरे पड़े थे। कहीं सुरमणि, सर्पमणि, वलक्षमणि और स्फटिकमणिको चट्टानें चमक रही थीं. तो कहाँ गोमेद, पित्तक, धूलोमणि, मरकत, वैदूर्य, सौगन्धिक, राजमणि, होरा, मुख्य तथा ब्रह्ममणिके खण्ड दृष्टिगोचर हो रहे थे। कहीं-कहीं बिखरे हुए मोती अपनी प्रभा फैला रहे थे, जो ताराोंकि समान लग रहे थे।उस सरोवरका जल कुछ गुनगुना गरम था, जो स्नान करनेसे ठण्डकको दूर कर देता था। उस सरोवर के मध्यमें वैदूर्यमणिकी एक सुन्दर शिला थी। राजन्। उस | रमणीय शिलाको महर्षि अत्रिने अपनी तपस्याके प्रभावसे निर्मित किया था। वह आठ सौ हाथ (दो फलांग) विस्तृत एवं चौकोर थी राजेन्द्र उस मनोहर द्वीपमें सारा प्रदेश बिलद्वारके समान स्वर्णमय था ॥ 10-21 राजन् ! उस शिलातलपर एक रमणीय पुष्करिणी (पोखरी) थी, जो चौकोर, मनोमोहिनी तथा आकाशके समान निर्मल थी। वह अत्यन्त शीतल एवं निर्मल जलसे परिपूर्ण तथा कमलोंसे सुशोभित थी उसका वह जल सुस्वादु पचनेमें हलका, शीतल और सुगन्धयुक्त था। वह जैसे गलेको कष्ट नहीं पहुँचाता था, उसी प्रकार कुक्षिको भी वायुसे परिपूर्ण नहीं करता था, अर्थात् वायुविकार नहीं उत्पन्न करता था अपितु शरीरमें पहुँचकर परम तृप्ति उत्पन्न करता तथा महान् सुख पहुँचाता था। उस पुष्करिणी (बावली) के मध्यभागमें महर्षि अत्रिने अपनी तपस्याके बलसे एक महलका निर्माण किया था। वह सुन्दर प्रासाद चाँदीका बना हुआ था, जो चन्द्रमाकी किरणोंके समान चमक रहा था। उसमें सभी प्रकारके रत्न जड़े गये थे तथा भीतर प्रवेश करनेके लिये सोनेकी सीढ़ियाँ बनी थीं, जिनमें रमणीय वैदूर्य एवं निर्मल मंगे लगे हुए थे उसमें इन्द्रनील मणिके विशाल खम्भे लगे थे। उसकी वेदिका अर्थात् फर्शपर मरकतमणि जड़ी हुई थी हीरेकी किरणोंसे चमचमाता हुआ वह रमणीय महल देखते ही मनको लुभा लेता था उस महलमें | देवाधिदेव भगवान् जनार्दन (मूर्ति रूपसे) सम्पूर्ण आभूषणोंसे विभूषित होकर शेषनागके फणोंपर शयन कर रहे थे। अनघ! देवाधिदेव चक्रधारी भगवान्का एक चरण घुटनेसे मुड़ा हुआ था और दूसरा चरण शेषनागके ऊपरसे होता हुआ लक्ष्मीको गोदमें स्थित था। शेषनागके फगोंपर शयन करनेवाले भगवान्का बाजूबंद विभूषित एक हाथ शेषनागके फणोंपर स्थापित था ॥ 22-30 ॥
उस हाथकी अगुलियोंका पृष्ठभाग शेषके सिरपर | रखा हुआ था। उनका दूसरा हाथ फैला हुआ था।तीसरे हाथका मणिबन्ध मुड़े हुए घुटनेपर सुशोभित था तथा कुछ मुड़कर नाभिदेशपर फैले हुए पहले हाथपर अवलम्बित था। अब उनके चौथे हाथकी दशा सुनो। चौथे हाथमें भगवान् कल्पवृक्षका पुष्प धारण किये हुए थे और उसे | अपनी नासिकातक ले गये थे। उस समय लक्ष्मी अपने कमल-दलके समान कोमल हाथोंसे भगवान्का चरण दवा रही थीं। भगवान्के मस्तकपर कल्पवृक्ष पुष्पोंकी मालाओंका मुकुट शोभा दे रहा था। वे हार, केयूर, बाजूबंद और अंगूठीसे विभूषित तथा शेषनागके फणोंपर रखे हुए सुन्दर रत्नोंसे प्रकाशित हो रहे थे एवं इनकी विशेषता यह थी कि महर्षि अत्रिने उनकी स्थापना की थी। उनका चरित्र वस्तुतः जाना नहीं जा सकता। सिद्धगण सदा उनकी पूजा करते थे। कल्पवृक्षके पुष्पोंद्वारा उनकी अर्चना होती थी। उनके अङ्गोंमें दिव्य चन्दनका अनुलेप था तथा वे दिव्य धूपसे धूपित थे। सिद्धगण उन्हें सदा सरस एवं मनोहर फलोंका उपहार देते थे। वे उत्तम पार्श्वसे सुशोभित थे तथा उनके मस्तकपर कमल शोभा पा रहा था ॥ 31–373 ॥ ऐसे भगवान् (की मूर्ति) को अपने सम्मुख देखकर राजा पुरुरवाने विधिपूर्वक घुटने टेककर और मस्तकको भूमिपर रखकर भगवान्को प्रणाम किया तथा सहस्रनामोंद्वारा उन मधुसूदनका स्तवन किया और उठकर बारम्बार उनकी प्रदक्षिणा की। पुनः उस रमणीय देवमन्दिरको देखकर उसी आश्रम में निवास करनेका निश्चय किया। तत्पश्चात् उस बिलसे बाहर निकलकर वे किसी अतिशय मनोहारिणी गुफाका आश्रय लेकर नाना प्रकारके पुष्पों, फलों, मूलों तथा गोरसोंद्वारा भगवान् मधुसूदनकी पूजा करते हुए वहीं तपस्यामें संलग्न हो गये। वे नित्य त्रिकाल स्नान तथा अग्निहोत्र करते थे। वे नरेश सभी प्रकारके आहारका परित्याग कर सदा उस देववापी (पोखरी) के जलसे ही प्राणोंकी रक्षा करते थे। राजा बिना बिछौनेके हो गुफामें शयन करते हुए समय बिता रहे थे। यद्यपि राजाने भोजन करना छोड़ दिया था और केवल जलपर ही निर्भर थे, तथापि उन्हें किसी प्रकारकी ग्लानि नहीं होती थी, प्रत्युत उनका शरीर अद्भुत तेजोमय हो गयाथा। इस प्रकार राजा पुरूरवाने तपस्यामें दत्तचित्त होकर सदा देवश्रेष्ठ भगवान् विष्णुकी पूजा करते हुए दुःखकी कुछ भी परवा न कर उस स्वर्गतुल्य आश्रममें कुछ कालतक निवास किया ॥ 38 - 45 ॥