शौनकजी कहते हैं— शतानीक! स्वर्गलोकमें जाकर महाराज ययाति देव भवनमें निवास करने लगे। वहाँ | देवताओं, साध्यगणों, मरुद्रणों तथा वसुओंने उनका बड़ा स्वागत-सत्कार किया। पुण्यात्मा तथा जितेन्द्रिय राजा वहाँ देवलोक से ब्रह्मलोकतक भ्रमण करते हुए दीर्घकालतक रहे ऐसी पौराणिक परम्परा है। एक दिन नृपश्रेष्ठ ययाति देवराज इन्द्रके पास आये। वार्तालापके अन्तमें इन्द्रने राजा ययातिसे इस प्रकार प्रश्न किया ॥ 1-3॥
इन्द्रने पूछा- राजन् ! जिस समय पूरु आपसे वृद्धावस्था लेकर आपके स्वरूपसे इस पृथ्वीपर विचरण करने लगा, सत्य कहिये, उस समय राज्य देकर आपने उसको क्या आदेश दिया था ? ॥ 4 ॥
ययातिने कहा- देवराज! मैंने प्रजाओंकी अनुमतिसे | पूरुको राज्याभिषिक्त करके उससे यह कहा था कि 'बेटा! गङ्गा और यमुनाके बीचका यह सारा प्रदेश तुम्हारे अधिकारमें रहेगा। यह पृथ्वीका मध्य भाग है, इसके तुम राजा होओगे और तुम्हारे भाई सीमान्त देशोंके अधिपति होंगे।' देवेन्द्र! (इसके बाद मैंने यह उपदेश दिया कि मनुष्यको चाहिये कि वह दीनता, शठता और क्रोध न करे। कुटिलता, मात्सर्य और वैर कहीं न करे। माता, पिता, विद्वान्, तपस्वी तथा क्षमाशील पुरुषका बुद्धिमान् मनुष्य कभी अपमान न करें। | शक्तिशाली पुरुष सदा क्षमा करता है। शक्तिहीन मनुष्य सदा क्रोध करता है। दुष्ट मानव साधु पुरुषसे और दुर्बल अधिक बलवान्से द्वेष करता है। कुरूप मनुष्य रूपवान्से, निर्धन धनवान्से, अकर्मण्य कर्मनिष्ठसे और अधार्मिक धर्मात्मासे द्वेष करते हैं। इसी प्रकार गुणहीन मनुष्य गुणवान्से डाह रखता है। इन्द्र! यह कलिका लक्षण है।) क्रोध करनेवालोंसे वह पुरुष श्रेष्ठ है जो कभी क्रोध नहीं करता। इसी प्रकार असहनशीलसे सहनशील उत्तम है, मनुष्येतर प्राणियोंसे मनुष्य श्रेष्ठ है और मूखोंसे विद्वान् उत्तम है। यदि कोई किसीकी निन्दा करता या उसे गाली देता है तो वह भी बदलेमें निन्दा या गाली-गलौज न करे; क्योंकि जो गाली या निन्दा सह लेता है, उस पुरुषका आन्तरिक दुःख ही गाली देनेवाले या अपमान करनेवालेको जला डालता है। साथ ही उसके पुण्यको भी वह ले लेता है। क्रोधवश किसीके मर्म स्थानमें चोट न पहुँचाये ऐसा न करे, जिससे किसीको मार्मिक पौड़ा हो।| किसीके प्रति कठोर बात भी मुँहसे न निकाले, अनुचित उपायसे शत्रुको भी वशमें न करे। जो जीको जलानेवाली हो, जिससे दूसरेको उद्वेग होता हो ऐसी बात मुँहसे न बोले; क्योंकि पापीलोग ही ऐसी बातें बोला करते हैं। जो स्वभावका कठोर हो, दूसरोंके मर्ममें चोट पहुँचाता हो, तीखी बातें बोलता हो और कठोर वचनरूपी काँटोंसे दूसरे मनुष्यको पीड़ा देता हो, उसे अत्यन्त लक्ष्मीहीन ( दरिद्र या अभागा ) समझे उसको देखना भी बुरा है; क्योंकि वह कड़वी बोलीके रूपमें अपने मुँहमें बँधी हुई एक पिशाचिनीको ढो रहा है। (अपना बर्ताव और व्यवहार ऐसा रखे, जिससे) साधु पुरुष सामने तो सत्कार करें ही, पीठ-पीछे भी उनके द्वारा अपनी रक्षा हो । दुष्ट लोगोंकी कही हुई अनुचित बातें सदा सह लेनी चाहिये तथा श्रेष्ठ पुरुषोंके सदाचारका आश्रय लेकर साधु पुरुषोंके व्यवहारको ही अपनाना चाहिये। दुष्ट मनुष्योंके | मुखसे कटुवचनरूपी बाण सदा छूटते रहते हैं, जिनसे आहत होकर मनुष्य रात-दिन शोक और चिन्तामें डूबा रहता है। वे वाग्वाण दूसरोंके मर्मस्थानोंपर ही चोट करते हैं; अतः विद्वान् पुरुष दूसरेके प्रति ऐसी कठोर वाणीका प्रयोग न करे। सभी प्राणियोंके प्रति दया और मैत्रीका बर्ताव, दान और सबके प्रति मधुर वाणीका प्रयोग-तीनों लोकोंमें इनके समान कोई वशीकरण नहीं है। इसलिये कभी कठोर वचन न बोले। सदा सान्त्वनापूर्ण मधुर वचन ही बोले पूजनीय पुरुषोंका पूजन (आदर-सत्कार) करे। दूसरोंको दान दे और स्वयं कभी किसीसे कुछ न माँगे ॥ 5-13 ॥