सूतजी कहते हैं-ऋपियो (बहुत दिनोंतक राज इसके राजधानी न लौटनेपर सशङ्कित होकर) उनके छोटे भाई मनु-पुत्र इक्ष्वाकु आदि राजा इल (सुद्युम्र) का अन्वेषणः करते हुए उसी शरवणके निकट जा पहुँचे। वहाँ उन सभीने मार्गके अग्रभागमें खड़ी हुई एक अनुपम घोड़ीको देखा, जिसका शरीर रत्ननिर्मित जीनकी किरणोंसे उद्दीप्त हो रहा | था। तत्पश्चात् जीनको पहचानकर वे सभी बन्धु आश्चर्यचकित हो गये (और परस्पर कहने लगे) 'अरे! यह तो हमारे भाई महात्मा राजा इलका चन्द्रप्रभ नामक घोड़ा है! किस कारण यह सुन्दर घोड़ीके रूपमें परिणत हो गया!' तब वे सभी लौटकर अपने कुल पुरोहित महर्षि वसिष्ठके पास जाकर पूछने लगे 'योगवेत्ताओंमें श्रेष्ठ महर्षे! ऐसी आश्चर्यजनक घटना क्यों घटित हुई? इसका रहस्य हमें बतलाइये। तब महर्षि वसिष्ठ ध्यानदृष्टिद्वारा सारा वृत्तान्त | जानकर इक्ष्वाकु आदिसे बोले— 'राजपुत्रो ! पूर्वकालमें शम्भु पत्नी उमाने इस शरवणके विषयमें ऐसा समय (शर्त) निर्धारित कर रखा है कि 'जो पुरुष इस शरवणमें प्रवेश करेगा, वह स्त्री रूपमें परिवर्तित हो जायगा।' इसी कारण राजा इलके साथ-ही-साथ यह घोड़ा भी स्त्रीत्वको प्राप्त हो गया है। अब जिस प्रकार राजा इल कुबेरकी भाँति पुनः पुरुषत्वको प्राप्त कर सकें, तुमलोगोंको पिनाकधारी शंकरकी आराधना करके वैसा ही प्रयत्न करना चाहिये।' महर्षि वसिष्ठकी आज्ञा पाकर वे सभी मनु-पुत्र वहाँ गये, जहाँ | देवाधिदेव महेश्वर विराजमान थे। वहाँ उन्होंने विभिन्न स्तोत्रोंद्वारा पार्वती और परमेश्वरका स्तवन किया। (उस स्तवनसे प्रसन्न होकर) पार्वती और परमेश्वरने कहा- 'राजकुमारो यद्यपि मेरे इस नियम (शर्त) का उल्लङ्घन नहीं किया जा सकता, तथापि इस समय उसके निवारणके लिये मैं एक उपाय बतला रहा हूँ। यदि इक्ष्वाकुद्वारा किये गये अश्वमेध यज्ञका जो कुछ फल हो, वह सारा का सारा हम दोनोंको समर्पित कर दिया जाय तो राजा इल निःसंदेह किम्पुरुष (किन्नर) हो जायेंगे।' यह सुनकर 'बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा'- यों कहकर वैवस्वत मनुके वे सभी पुत्र राजधानीको लौट आये। घर आकर इक्ष्वाकुने अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान किया और उसका पुण्य फल पार्वती परमेश्वरको अर्पित कर |दिया, जिसके परिणामस्वरूप इल किम्पुरुष हो गये।वहाँ थे वीरवर एक मास पुरुषरूपमें रहकर पुनः एक मास स्त्री हो जाते थे। बुधके भवनमें स्त्रीरूपसे रहते समय इलने गर्भ धारण कर लिया था। उस गर्भसे अनेक गुणोंसे सम्पन्न एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उस पुत्रको उत्पन्नकर बुध भूलोकसे पुन: स्वर्गलोकको चले गये॥ 113॥ तभीसे इलके नामपर उस वर्षका नाम इलावृत पड़ गया। इस प्रकार चन्द्रवंश और सूर्यवंशके आदिमें सर्वप्रथम मनु-नन्दन इल ही राजा हुए थे। तपोधन ऋषियो! जैसे इलकी पुरुषावस्थामें उत्पन्न हुए राजा पुरूरवा चन्द्रवंशकी वृद्धि करनेवाले थे, वैसे ही महाराज इक्ष्वाकु सूर्य वंशके विस्तारक कहे गये हैं। किम्पुरुषयोनिमें रहते समय इल | सुधुन नामसे कहे जाते थे उन के पुनः उत्कल, गय और पराक्रमी हरिताश्व नामक तीन अपराजेय पुत्र उत्पन्न हुए थे। इलने (अपने इन चारों पुत्रोंमेंसे) उत्कलको उत्कल (उड़िसा), गयको गयाप्रदेश और हरिताश्वको कुरुप्रदेशकी सीमावर्तिनी पूर्व दिशाका प्रदेश (राज्य) समर्पित किया। तत्पश्चात् अपने ज्येष्ठ पुत्र पुरुरवाका प्रतिष्ठानपुरमें अभिषेक करके वे स्वयं दिव्य फलाहारका उपभोग करनेके लिये इलावृतवर्षमें चले गये। (सुद्युम्नके बाद) मनुके ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु मध्यदेशके अधिकारी हुए। (मनुके अन्य पुत्रोंमें) नरिष्यन्तके शुच नामक महाबली पुत्र हुआ। नाभागके अम्बरीष और धृष्टके भृष्टकेतु, चित्रनाथ और रण नामक तीन पराक्रमी पुत्र हुए। शर्यातिके आनर्त नामक एक पुत्र तथा सुकन्या नाम्री एक पुत्री हुई आनर्तके रोचमान नामका एक प्रतापी पुत्र हुआ। आनर्तद्वारा शासित देशका नाम आनर्त (गुजरात) पड़ा और कुशस्थली (द्वारका) नगरी उसकी राजधानी हुई। रोचमानका पुत्र रेव हुआ, जो रेवत और ककुयी नामसे भी पुकारा जाता था। वह रोचमानके सौ पुत्रोंमें ज्येष्ठ था। उसके रेवती नामकी एक कन्या उत्पन्न हुई, जो बलरामजीकी भार्यारूपसे विख्यात है। करूषके बहुत-से पुत्र थे, जो भूतलपर कारूप नामसे विख्यात हुए। पृषत्र गौकी हत्या कर देनेके कारण गुरुके शापसे शूद्र • हो गया ॥14- 243 ॥श्रेष्ठ ऋषियो । अब मैं इक्ष्वाकु वंशका वर्णन करने रहा हूँ आपलोग ध्यानपूर्वक सुनिये। देवराज विकुक्षि इक्ष्वाकुके पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए। वे इक्ष्वाकुके सौ पुत्रोंमें ज्येष्ठ थे। उन (विकुक्षि) के पंद्रह पुत्र थे, जो सुमेरुगिरिकी उत्तर दिशामें श्रेष्ठ राजा हुए। विकुक्षिके एक सौ चौदह पुत्र और हुए थे, जो सुमेरुगिरिकी दक्षिण दिशाके शासक कहे गये हैं। विकुक्षिका ज्येष्ठ पुत्र ककुत्स्थ नामसे विख्यात था। उसका पुत्र सुयोधन हुआ। सुयोधनका पुत्र पृथु पृथुका पुत्र विश्वग, विश्वगका पुत्र इन्दु और इन्दुका पुत्र युवनाश्व | हुआ। युवनाश्वका पुत्र श्रावस्त हुआ, जिसे वत्सक भी | कहा जाता था। द्विजवरो! उसीने गौडदेशमें श्रावस्ती नामकी नगरी बसायी थी। श्रावस्तसे बृहदश्व और उससे कुबलाश्वका जन्म हुआ, जो पूर्वकालमें धुन्धुद्वारा मारे जानेके कारण धुन्धुमार नामसे विख्यात था। धुन्धुमारके दृढाश्व, दण्ड और कपिलाश्व नामक तीन पुत्र हुए थे, जिनमें प्रतापी कपिलाश्च धौन्धुमारि नामसे भी प्रसिद्ध था दृढावका पुत्र प्रमोद और उसका पुत्र हर्यश्व हुआ हर्यश्वका पुत्र निकुम्भ तथा उससे संहताश्वका जन्म हुआ संहताश्वके अकृताश्च और रणाश्व नामक दो पुत्र हुए। उनमें रणाश्वका पुत्र युवनाश्व हुआ तथा उससे मान्धाताकी उत्पत्ति हुई। मान्धाताके पुरुकुत्स, राजा धर्मसेन और शत्रुओंको पराजित करनेवाले सुप्रसिद्ध प्रतापी मुचुकुन्द-ये तीन पुत्र हुए। इनमें पुरुकुत्सका पुत्र नर्मदापति वसुद हुआ। उसका पुत्र सम्भूति हुआ और सम्भूतिसे त्रिधन्वाका जन्म हुआ। त्रिधन्वासे उत्पन्न हुआ पुत्र त्रय्यारुण नामसे प्रसिद्ध हुआ। उससे सत्यव्रत और सत्यव्रतसे सत्यरथका जन्म हुआ। सत्यरथसे हरिश्चन्द्र, | हरिश्चन्द्रसे रोहित, रोहितसे वृक और वृकसे बाहुकी उत्पत्ति हुई। बाहुके पुत्र राजा सगर हुए, जो परम धर्मात्मा थे। उन सगरके प्रभा और भानुमती नामवाली दो पत्त्रियाँ थीं। उन दोनोंने पूर्वकालमें पुत्रकी कामनासे और्वानिकी आराधना की थी। उनकी आराधनासे संतुष्ट होकर उन्हें यथेष्ट उत्तम वर प्रदान करते हुए और्वने कहा- 'तुम दोनोंमेंसे एकको साठ हजार पुत्र होंगे और दूसरीको केवल एक वंशप्रवर्तक पुत्र होगा। (तुम दोनोंमें जिसकी जैसी इच्छा हो, वह वैसा वरदान ग्रहण करे।) ' तब प्रभाने साठ हजार पुत्रोंको स्वीकार किया और भानुमतीने एक ही पुत्र माँगा। कुछ दिनोंके | पश्चात् भानुमतीने असमञ्जसको पैदा किया तथा यदुवंशको कन्या प्रभाने साठ हजार पुत्रोंको जन्म दिया, जो अश्वमेध यज्ञके अश्वको खोजमें जिस समय पृथ्वीको खोद रहे थे, उसी समय उन्हें विष्णु (भगवदवतार कपिल) ने जलाकर भस्म कर दिया ।। 25-42 ॥असमञ्जसका पुत्र अंशुमान् नामसे विख्यात हुआ। उसके पुत्र दिलीप और दिलीपसे भगीरथ हुए, जो तपस्या करके भागीरथी गङ्गाको स्वर्गसे भूतलपर ले आये। भगीरथके पुत्र नाभाग नामसे प्रसिद्ध हुए। नाभाग के पुत्र अम्बरीष और उनसे सिन्धुद्वीपका जन्म हुआ। सिन्धुद्वीपका पुत्र अयुतायु हुआ तथा उससे ऋतुपर्णकी उत्पत्ति हुई। ऋतुपर्णका पुत्र कल्माषपाद और उससे सर्वकर्मा पैदा हुआ। उसका पुत्र अनरण्य और अनरण्यका पुत्र निघ्न हुआ। निघ्नके अनमित्र और राजा रघु नामके दो पुत्र हुए, जिनमें अनमित्र वनमें चला गया, जो कृतयुगमें राजा होगा। रघुसे दिलीप तथा दिलीपसे अज हुए। अजसे दीर्घबाहु और उससे राजा अजपाल हुए। अजपालसे दशरथ पैदा हुए, जिनके चार पुत्र थे। वे सब के सब नारायणके अंशसे प्रादुर्भूत हुए थे। उनमें श्रीराम सबसे ज्येष्ठ थे, जो रावणका अन्त करनेवाले तथा रघुवंशके प्रवर्धक थे। भृगुवंशप्रवर महर्षि वाल्मीकिने श्रीरामके चरित्रका (रामायणरूपमें विस्तारपूर्वक) वर्णन किया है। श्रीरामके कुश और लव नामक दो पुत्र हुए, जो इक्ष्वाकु कुलके विस्तारक थे। कुशसे अतिथि और उससे निषधका जन्म हुआ। निषधका पुत्र नल हुआ और उससे नमकी उत्पत्ति हुई। नभसे पुण्डरीकका तथा उससे क्षेमधन्वाका जन्म हुआ। क्षेमधन्वाका पुत्र प्रतापी वीरवर देवानीक हुआ। उसका पुत्र अहीनगु तथा उससे सहस्राश्वका जन्म हुआ। सहस्राश्वसे चन्द्रावलोक और उससे तारापीडकी उत्पत्ति हुई। तारापीडसे चन्द्रागिरि और उससे भानुचन्द्र पैदा हुआ। भानुचन्द्रका पुत्र श्रुतायु हुआ, जो महाभारत युद्धमें मारा गया था। महर्षि कश्यपद्वारा उत्पन्न हुए इस वंशमें नल नामसे दो राजा विख्यात हुए हैं, उनमें एक वीरसेनका पुत्र तथा दूसरा राजा निषधका पुत्र था इस प्रकार वैवस्वतवंशीय महाराज इक्ष्वाकुके वंशमें उत्पन्न होनेवाले ये सभी राजा अतिशय दानशील | थे। मैंने इनका मुख्यरूपसे वर्णन कर दिया ।। 43-57॥