मनुने पूछा- विशाल नेत्रोंवाले देव! अब मुझे इन अद्भुतोंका फल तथा उनकी शान्तिका उपाय बतलाइये; क्योंकि आप सभी ज्ञेय विषयोंके पूर्ण ज्ञाता हैं ॥ 1 ॥ मत्स्यभगवान्ने कहा— राजन् ! इस विषयमें सभी धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ महातपस्वी वृद्ध गर्गने अत्रिसे जो कुछ कहा था, वह सब मैं तुम्हें बतला रहा हूँ। एक समय मुनिजनों के प्रिय महर्षि गर्गाचार्य सरस्वती नदी के तटपर सुखपूर्वक बैठे हुए थे, उसी समय महातेजस्वी अत्रिने उनसे प्रश्न किया । ll 2-3 ॥
अत्रि ऋषिने पूछा- महर्षे! आप मुझे विनाशोन्मुख मनुष्यों, राजाओं तथा नगरोंके सभी पूर्वलक्षण बतलाइये ll 4 ll
गगंजी बोले- अत्रिनी! मनुष्यों के अत्याचारसे निश्चय ही देवता प्रतिकूल हो जाते हैं। तत्पश्चात् उन देवताओंके अप्रसन्न होनेसे उत्पात प्रारम्भ होता है। वह उत्पात दिव्य, आन्तरिक्ष और भौम- तीन प्रकारका कहा गया है। ग्रहों और नक्षत्रोंके विकारको दिव्य उत्पात। जानना चाहिये। अब मुझसे आन्तरिक्ष उत्पातका वर्णन सुनिये। उल्कापात, दिशाओंका दाह, मण्डलोंका उदय, | आकाशमें गन्धर्व-नगरका दिखायी देना, खण्डवृष्टि, अनावृष्टि) या अतिवृष्टि इस प्रकारके उत्पातोंको इस लोकमें आन्तरिक्ष उत्पात कहना चाहिये। स्थावर-जंगमसे उत्पन्न हुआ उत्पात तथा भूमिजन्य भूकम्प भौम उत्पात हैं। जलाशयोंका विकार भी भौम उत्पात कहलाता है। भौम उत्पात होनेपर उसका थोड़ा फल जानना चाहिये, किंतु वह बहुत देरमें शान्त होता है। आन्तरिक्ष उत्पात मध्यम फल देनेवाला होता है और मध्यमकालमें परिणामदायी होता है। इस महोत्पातके उदय होनेपर यदि कल्याणकारिणी वृष्टि होती है तो यह समझ लेना चाहिये कि एक सप्ताह के भीतर यह उत्पात निष्फल हो जायगा, किंतु इस महान् उत्पातका अवसान शान्तिके बिना नहीं होता।इसे तीन वर्षोंतक महान् भयदायक मानना चाहिये। इसका परिणाम राजाके शरीर, राज्य, पुरद्वार, पुरोहित, पुत्र, कोश और वाहनोंपर प्रकट होता है। राजेन्द्र । जो अद्भुतसंज्ञक उत्पात ऋतुओंके स्वभावके अनुकूल होते हैं, उन्हें शुभदायक मानना चाहिये। मैं उनका वर्णन कर रहा हूँ, सुनिये ॥5- 136 ॥
वज्र एवं बिजलीका गिरना, पृथ्वीका कम्पन, संध्याके समय वज्रका शब्द, सूर्य तथा चन्द्रमामें मण्डलोंका होना, धूलि और धूएँका उद्भव, उदय एवं अस्तके समय सूर्यकी अतिलालिमा, वृक्षोंके टूट जानेपर उनसे रसका गिरना, फलवाले वृक्षोंकी अधिकता, गौ, पक्षी और मधुकी वृद्धि-ये चैत्र और वैशाखमासमें शुभप्रद हैं। ग्रीष्म ऋतुमें कलुषित नक्षत्रों और ग्रहोंका पतन, सूर्य और चन्द्रके मण्डलोंका कपिल वर्ण होना, सायंकालीन नभके काले और सफेद मिश्रित, पीले, धूसरित, श्यामल, लाल, लाल पुष्पके समान अरुण और क्षुब्ध सागरकी तरह संक्षुब्ध होना तथा नदियोंका जल सूख जाना-इन उत्पातोंको | देखकर इन्हें शुभ कहना चाहिये। इन्द्रधनुषका मण्डलाकार उदय, विद्युत् और उल्काका पतन, पृथ्वीका अकस्मात् कम्पन, उलट-पलट विकृति, ह्रास और फटना, नदियों एवं तालाबों में जलकी न्यूनता, नाव, जहाज और पुलका काँपना, सींगवाले जानवरों तथा शूकरोंकी वृद्धि - ये उत्पात वर्षा ऋतुमें मङ्गलकारी हैं। शीतल वायु, तुषार, | पशु एवं पक्षियोंका चीत्कार, राक्षस, भूत और पिशाचोंका दर्शन, दैवी वाणी, सूर्यके उदय-अस्तके समय आकाश, वन और पर्वतोंसहित दिशाओंका गाढ़रूपमें धुएँसे अन्धकारित हो जाना—ये उत्पात हेमन्त ऋतुमें उत्तम माने जाते हैं। दिव्य स्त्रीका रूप, गन्धर्व-विमान, ग्रह, नक्षत्र और ताराओंका दर्शन, दैवी वाणी, वनोंमें और पर्वतोंकी चोटियोंपर गाने-बजानेका शब्द सुनायी पड़ना, अन्नोंकी वृद्धि, रसकी विशेष उत्पत्ति—ये उत्पात शरत्कालमें माङ्गलिक कहे गये हैं। हिमपात, वातका बहना, विरूप एवं अद्भुत उत्पातोंका दर्शन, आकाशका काले कज्जलके समान दिखायी पड़ना तथा ताराओं एवं उल्काओंके गिरनेसे पीले रंगका दीख पड़ना, स्त्री, गाय, बकरी, घोड़ी, मृगी और पक्षियोंसे विचित्र प्रकारके बच्चोंका पैदा होना, पत्तों, अकुरों और लताओंमें अनेकों प्रकारकेविकारोंका हो जाना-ये उत्पात शिशिर ऋतु में शुभदायी माने गये हैं। इन ऋतु स्वभावके अतिरिक्त अन्य उत्पन्न हुए अद्भुत उत्पातके देखे जानेके बाद राजाको शीघ्र ही शास्त्रानुकूल कही गयी शान्तिका विधान करना चाहिये । ll 14 - 26 ॥