मनुजीने कहा- भगवन्! अब मैं उत्सर्ग किये जानेवाले वृषभके लक्षणों, वृषोत्सर्गकी विधि और वृषोत्सर्गसे प्राप्त होनेवाले महान् पुण्यफलको सुनना चाहता हूँ ॥ 1 ॥
मत्स्यभगवान् बोले- राजन् सर्वप्रथम धेनुकी परीक्षा करनी चाहिये जो सुशीला, गुणवती, अधिकृत अङ्गोवाली, मोटी-ताजी, जिसके बछड़े जीते हों, रोगरहित, मनोहर रंगवाली, चिकने खुरवाली, चिकने सींगोंवाली, सुदृश्य, सीधी-सादी, न अधिक ऊँची, न अधिक नाटी अर्थात् मध्यम कदवाली, अचञ्चल, भँवरीवाली, विशेषतः दाहिनी ओरकी भैवरियाँ दाहिनी ओर और बाय ओरकी बाय ओर हों, विस्तृत जांघोंवाली, मुलायम एवं सटे हुए लाल होठोंवाली, लाल गलेसे सुशोभित, काली एवं लम्बी न हो ऐसी स्फुटित लाल जिह्वावाली, अश्रुरहित निर्मल नेत्रोंवाली, सुदृढ़ एवं सटे हुए खुरोंवाली, वैदूर्य, मधु अथवा जलके बुदबुदके समान रंगोंवाली, लाल चिकने नेत्र और लाल कनीनिकासे युक्त, इक्कीस दाँत और श्यामवर्णके तालुसे सम्पन्न हो, जिसके छ: स्थान उच्च, पाँच स्थान समान, सिर, ग्रीवा और आठ स्थान विस्तृत तथा बगल और ऊरु देश सुन्दर हों, वह गौ शुभ लक्षणोंसे युक्त मानी गयी है ॥ 28 ॥
मनुने पूछा भगवन्! आपने जो यह बतलाया कि गौओंके छः स्थान उन्नत, पाँच स्थान सम तथा आठ स्थान आयत होने चाहिये, वे शुभदायक स्थान कौन कौन हैं ? ।। 9 ।।मत्स्यभगवान्ने कहा- पृथ्वीपते। छाती, पीठ, सिर, दोनों कोख तथा कमर इन छः उन्नत स्थानोंवाली धेनुओंको विज्ञलोग श्रेष्ठ मानते हैं। सूर्यपुत्र! दोनों कान, दोनों नेत्र तथा ललाट-इन पाँच स्थानोंका सम-आयत होना प्रशंसित है। पूँछ, गलकम्बल, दोनों सक्थियों (घुटनोंसे नीचेके भाग) और चारों स्तन—ये आठ तथा सिर और गर्दन- ये दो मिलाकर दस स्थान आयत होनेपर श्रेष्ठ माने गये हैं। भूपते। ऐसी सर्वलक्षणसम्पन्न धेनुके शुभ लक्षणोंसे युक्त बछडेकी भी परीक्षा करनी चाहिये। जिसका कंधा और ककुद् ऊँचा हो, पूँछ और गलेका कम्बल (चमड़ा) कोमल हो, कटितट और स्कन्ध विशाल हो, वैदूर्य मणिके समान नेत्र हो, सींगोंका अग्रभाग प्रबाल (मूँगे) के सदृश हो, पूँछ लम्बी तथा मोटी हो, तीखे अग्रभागवाले नौ या अठारह सुन्दर दाँत हों तथा मल्लिका पुष्पोंकी तरह श्वेत आँखें हों, ऐसे वृषका उत्सर्ग करना चाहिये, उसके गृहमें रहनेसे भी धन-धान्यकी वृद्धि होती है ॥ 10-15 ॥
ब्राह्मणके लिये ताम्रके समान लाल अथवा कपिल वर्णका वृषभ उत्तम है जो सफेद, लाल, काला, भूरा, पाटल, पूरा ऊँचा लाल पीठवाला, पाँच प्रकारके रोएँसे चितकबरा, स्थूल कानोंवाला विशाल कंधेसे युक्त, चिकने रोमोंवाला, लाल आँखोंवाला, कपिल, सींगका निचला भाग लाल रंगवाला, सफेद पेट और कृष्ण पार्श्वभागवाला हो, ऐसा वृषभ ब्राह्मणके लिये श्रेष्ठ कहा गया है। लाल रंगके चिकने रोमवाला वृषभ क्षत्रिय जातिके लिये, सुवर्णके समान वर्णवाला वृषभ वैश्यके लिये और काले रंगका वृष शुद्रके लिये उत्तम माना गया है। जिस वृषभके सींग आगेकी ओर विस्तृत तथा भौहें मुखकी ओर झुकी हों, वह सभी वर्णोंके लिये सर्वार्थ सिद्ध करनेवाला होता है। बिलावके समान पैरोंवाला, कपिल या पीले रंगका मिश्रित वृषभ धन्य होता है। श्वेत रंगका, बिल्लीके समान पैरवाला और मणिके समान आँखोंवाला वृषभ धन्य है। कौवेके समान काले और पीले रंगवाला तथा श्वेत पैरोंवाला वृष धन्य है जिसके सभी पैर अथवा दो पैर श्वेतवर्णके हों और जिसका रंग कपिञ्जल अथवा तीतरके समान हो, वह भी धन्य है ॥ 16-22 ॥ जिस वृषभका मुख कानतक श्वेत दिखायी पड़ता हो तथा विशेषतया वह लाल वर्णका हो, उसे नन्दीमुख जानना चाहिये।जिस वृषभका पेट तथा पीठ श्वेतवर्ण हो, वह समुद्राक्ष नामक वृषभ कहा जाता है। वह सर्वदा कुलकी वृद्धि करनेवाला होता है। जो वृष मल्लिकाके फूलके समान चितकबरे रंगवाला होता है, वह धन्य है। जो कमल मण्डलके समान चितकबरा होता है, वह सौभाग्यवर्द्धक होता है तथा अलसीके फूलके समान नीले रंगवाला बैल धन्यतर कहा गया है। राजन्! ये उत्तम लक्षणोंवाले वृष हैं। अब मैं आपसे अशुभ लक्षणसम्पत्र वृषभोंका वर्णन कर रहा हूँ। जो काले तालु, ओंठ और मुखवाले, रूखे सींगों एवं खुरोंवाले, अव्यक्त रंगवाले, नाटे, बाघ तथा सिंहके समान भयानक, कौवे और गृध्रके समान रंगवाले या मूषकके समान अल्पकाय, मन्द स्वभाववाले, काने लंगड़े, नीची-ऊँची आँखोंवाले, विषम (तीन या एक) पैरोंमें श्वेत रंगवाले तथा चञ्चल नेत्रोंवाले हों, ऐसे वृषभोंका न तो उत्सर्ग करना चाहिये और न उन्हें अपने घरमें ही रखना ठीक है। मैं पुनः उत्सर्ग करने तथा पालने योग्य (श्रेष्ठ) वृषभोंका लक्षण बतला रहा हूँ। जिनके सॉंग स्वस्तिकके आकारके हों और स्वर बादलको गर्जनाके सदृश हो, जो ऊंचे कदवाले, हाथीके समान चलनेवाले, विशाल छातीवाले, बहुत ऊँचे, महान् बल पराक्रमसे युक्त हों तथा चन्द्रमाके समान श्वेत वर्णके जिन वृषभोंके सिर, दोनों कान, ललाट, पूँछ, चारों पैर, दोनों नेत्र, दोनों बगलें काले रंगके हों एवं काले रंगवाले वृषभोंके थे स्थान श्वेत हो तो वे उत्तम माने गये हैं। जिसकी लम्बी और मोटी पूंछ पृथ्वीपर रगड़ खाती हो और जिसका अगला भाग उठा हुआ हो, वह नील वृषभ प्रशंसनीय माना गया है ॥23-33 ॥
जिनके शरीरमें शक्ति, ध्वज और पताकाओंकी रेखा बनी हो, वे वृषभ धन्य हैं और विचित्र सिद्धि एवं विजय प्रदान करनेवाले हैं जो घुमाये जानेपर या स्वयं घूमनेपर दाहिनी ओर घूमते हों तथा जिनके सिर एवं कंधे समुन्नत हों, वे धन्य तथा अपने समूहके वृद्धिकारक हैं। जिसके सींगोंके अग्रभाग तथा नेत्र लाल हों और वह यदि श्वेतवर्णका हो तथा उसके घर प्रवालके समान लाल हो तो उससे श्रेष्ठ कोई वृषभ नहीं होता। ऐसे वृषभोंका प्रयत्नपूर्वक पालन अथवा उत्सर्ग करना चाहिये; क्योंकि ये रखने अथवा उत्सर्ग करने- दोनों दशाओंमें धन-धान्यको बढ़ाते हैं।जिस वृषभके चारों चरण, मुख और पूँछ श्वेत हों तथा शेष शरीरका रंग लाह-रसके समान हो, उसे नील वृषभ कहते हैं। ऐसा वृषभ उत्सर्ग कर देना चाहिये, उसे घरमें पालना ठीक नहीं हैं; क्योंकि ऐसे वृषभके लिये लोकमें एक ऐसी पुरानी गाथा प्रचलित है कि बहुतेरे पुत्रोंकी कामना करनी चाहिये; क्योंकि उनमेंसे कोई भी तो गयाकी यात्रा करेगा या गौरी कन्याका दान करेगा या नीले वृषभका उत्सर्ग करेगा। राजन्! ऐसे लक्षणयुक्त वृषभका चाहे वह घरमें उत्पन्न हुआ हो या खरीदा गया हो, उत्सर्ग कर महात्मा पुरुष कभी मृत्युके भयसे शोकग्रस्त नहीं होता; उसे मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है। इसीलिये मैं आपसे कह रहा हूँ ॥ 34 -41 ।।