सूतजी कहते हैं-ऋषियों। इसके उपरान्त अब मैं उस 'एकोद्दिष्ट श्राद्धकी विधि बतला रहा हूँ, जिसका वर्णन स्वयं भगवान् चक्रपाणि विष्णुने किया है। पिताको मृत्यु हो जानेपर पुत्रोंको शौचपर्यन्त जैसा कार्य करना चाहिये, उसे सुनिये ॥ 1 ॥
ब्राह्मणों में दस दिनके अशौचका विधान है। इसी प्रकार | क्षत्रियोंमें बारह दिनका, वैश्योंमें पन्द्रह दिनका और शूद्रों में एक मासका अशौच लगता है। इस अशौचका विधान सगोत्रमें ही किया गया है। जिसका मुण्डन संस्कार नहीं हुआ हो, ऐसे बच्चेका मरणाशौच एक राततक तथा इससे बड़ी अवस्थावालेका तीन राततक बतलाया गया है। इसी प्रकार जननाशौच भी सर्वदा सभी वर्णोंके लिये होता है। | मरणशीयमें अस्थिसंचयनके उपरान्त (परिवारवालों का) अङ्गस्पर्श करनेका विधान है। प्रेतात्माके लिये बारह दिनोंतक पिण्डदान करना चाहिये क्योंकि वे पिण्ड उस प्रेतके लिये पाथेय (मार्गका कलेवा) बतलाये गये हैं, अतः अतिशय | सुखदायी होते हैं। इसी कारण वह प्रेतात्मा बारह दिनोंतक प्रेतपुर (यमपुरी) को नहीं ले जाया जाता। वह बारह दिनोंतक अपने गृह, पुत्र और पत्नीको देखता रहता है। इसलिये उसके समस्त दाहोंकी शान्ति तथा मार्गको थकावटका | विनाश करनेके निमित्त दस राततक आकाशमें (पीपलके वृक्षमें बँधा हुआ) जलघट रखना चाहिये। तत्पश्चात् ग्यारहवें दिन ग्यारह ब्राह्मणोंको भोजन करावे। इसी प्रकार क्षत्रिय आदि अन्य वर्णवालोंको भी अपने-अपने सूतककी समाप्तिपर (विषम संख्यक) ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये। पुनः दूसरे अर्थात् बारहवें दिन पूर्ववत् विधिपूर्वक एकोद्दिष्ट श्राद्धका समारम्भ करे। इसमें आवाहन, अग्निमें पिण्डदान तथा विश्वेदेवोंका पूजन निषिद्ध है। इस श्राद्धमें एक ही पवित्रक, एक ही अर्घ्य और एक ही पिण्डका विधान है। | इसके पश्चात् 'उपतिष्ठताम्' इस शब्दका उच्चारण करके तिलसहित जल प्रदान करे और 'स्वदितम्0 'इस सम्पूर्ण मन्त्रको बोलकर अन्नको पृथ्वीपर बिखेर दे तथा विसर्जनके समय 'अभिरम्यताम्' ऐसा कहे। इस प्रकार वेदज्ञ पुत्रको अपने पिताका शेष श्राद्ध-कार्य पूर्ववत् करना चाहिये। इसी विधिसे प्रतिमास (पिताकी मृत्यु-तिथिपर) सारा कार्य | सम्पादित करना चाहिये। सूतक समाप्त होनेके पश्चात् दूसरे दिनकाञ्चनपुरुष (सोनेकी प्रतिमा) और फल वस्त्रसे समन्वित विलक्षण शय्याका दान करना चाहिये। उसी समय अनेकविध वस्त्राभूषणोंसे द्विज- दम्पतीका पूजन करे तत्पश्चात् वृषोत्सर्ग (साँड़ छोड़ने का काम सम्पन्न करे। उस समय एक | सुन्दर कपिला गौका दान करे। नरश्रेष्ठ! पुनः अनेक प्रकारके भक्ष्यभोज्य पदार्थोंसे युक्त एक जलपात्र, जो तिल और जलसे परिपूर्ण हो, दान करे। इस प्रकारके जलपात्रका | दान वर्षपर्यन्त करना चाहिये। इस तरह एक वर्ष पूर्ण होनेपर सपिण्डीकरण श्राद्ध किया जाता है। सपिण्डीकरण श्राद्धके पश्चात् प्रेतात्मा पार्वणश्राद्धका भागी हो जाता है तथा पूर्वकथित आभ्युदयिक आदि वृद्धि श्राद्धोंमें भाग पानेके योग्य एवं गृहस्थ हो जाता है । ll 2-16 ॥
सपिण्डीकरण श्राद्ध में सर्वप्रथम विश्वेदेवोंको नियुक्त करे। तत्पश्चात् पितरोंको स्थान दे और प्रेतका स्थान उनसे | अलग निश्चित करे। फिर अर्घ्य देनेके लिये चन्दन, जल | और तिलसे युक्त चार पात्र तैयार करे और प्रेतपात्रके जलसे पितृपात्रोंको सिक्त कर दे। (अर्थात् प्रेतपात्रके जलको तीन भागमें विभक्त करके उन्हें पितृपात्रोंमें डाल दे।) इसी प्रकार पिण्डदाता चार पिण्डोंका निर्माण करके उन्हें संकल्पपूर्वक (पितरों और प्रेतके स्थानोंपर पृथक्-पृथक् ) | रख दे। फिर 'ये समानाः 0' (वाजस0 19 45-46) | इन दो मन्त्रद्वारा अन्तके (चौथे प्रेतके) पिण्डको (स्वर्णशलाका या कुशसे) तीन भागों में विभक्त कर दे (और एक-एक भागको क्रमशः पितरोंके पिण्डोंमें मिला दे। इसके पश्चात् उस चौथे पिण्डका कहीं भी कोई उपयोग नहीं रह जाता। इसके बाद वह प्रेतात्मा सब ओरसे संतुष्ट होकर पितृरूपमें परिवर्तित हो जाता है और 'अग्निष्वात्त' आदि देवपितरोंके मध्य उत्तम एवं अविनाशी पद प्राप्त कर लेता है। इसी कारण सपिण्डीकरणके पश्चात् उसे कुछ नहीं दिया जाता। यह प्रेतात्मा जिन पितरोंके बीच स्थित है, उसके पिण्डके तीनों भागोंको उन्हीं पितरोंके पिण्डोंमें मिला देना चाहिये। तत्पश्चात् संक्रान्ति अथवा ग्रहण आदि पर्वोंके समय त्रिपिण्ड | श्राद्ध ही करना चाहिये। एकोद्दिष्ट श्राद्धको प्रेतात्माकी मृत्युके दिन करनेका विधान है। जो श्रद्धकर्ता पिताको मृत्युतिथिपर एकोदिष्ट श्राद्धका परित्याग कर (केवल) अन्य को करता है, वह सदैव पितृपाती तथा माता और भाईका विनाशक हो जाता है। पिताकी क्षयातिथिपर पार्वण करनेवाला मानव अधम-से-अधम गतिको प्राप्त होता है कि प्रेतोंसे सम्बन्धित हो जानेसे पितृगण व्याकुल । हो जाते हैं, इसलिये प्रतिवर्ष एकोद्दिष्ट श्राद्ध करना चाहिये।जो मनुष्य मत्सररहित होकर वर्षपर्यन्त प्रेतके निमित्त अन्न आदि पदार्थोंसे युक्त जलपात्र दान करता रहता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है। विधियोंका ज्ञाता श्राद्धकर्ता जब आमश्राद्ध (जिसमें ब्राह्मणोंको भोजन न कराकर कच्चा अन्न दिया जाता है) करे तो विधिपूर्वक अग्निकरण करे और उसी समय पिण्डदान भी करे। जब पिता सपिण्डीकरण श्राद्धमें अपने पिता, पितामह, प्रपितामहके साथ सम्बन्ध प्राप्त कर लेता है, तब वह बन्धनसे मुक्त हो जाता है। मुक्त होनेपर भी वह कुशके मार्जनसे लेपंभागी हो जाता है। इस प्रकार चतुर्थ और पञ्चमसहित तीन पितर लेपभागी और पिता आदि तीन पिण्डभागी हैं। उनमें पिण्डदाता सातवीं संतान है। इस प्रकार सात पीढ़ीतक सपिण्डता मानी जाती है ।। 17–29 ।।