ऋषियोंने पूछा- सूतजी ! (अनुज होकर भी) पूरुका वंश भूतलपर श्रेष्ठताको क्यों प्राप्त हुआ और ज्येष्ठ होते हुए भी यदुका वंश (राज्य) लक्ष्मीसे होन क्यों हो गया? इसका तथा ययातिके चरितका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये; क्योंकि यह पुण्यप्रद, आयुवर्धक और देवताओं द्वारा भी अभिनन्दनीय है॥1-2॥
सूतजी कहते हैं—ऋषियो। पूर्वकालमें शतानीकने (भी) महर्षि शौनकसे ययातिके इसी पुण्यप्रद, परम पवित्र, आयुवर्धक एवं महत्त्वशाली चरितके विषयमें (इस प्रकार ) प्रश्न किया था ॥ 3 ॥शतानीकने पूछा- तपोधन! हमारे पूर्वज महाराज यतिने जो प्रजापति दसवीं पीढ़ीमें उत्पन्न हुए थे. शुक्राचार्यको अत्यन्त दुर्लभ पुत्री देवयानीको पनीरूपये कैसे प्राप्त किया? मैं इस वृत्तान्तको विस्तारके साथ सुनना चाहता हूँ। आप मुझसे पूरुके सभी वंश प्रवर्तक राजाओंका क्रमशः पृथक् पृथक् वर्णन कीजिये ॥ 4-5 ॥
शौनकजीने कहा- राजसत्तम! राजर्षि ययाति देवराज इन्द्रके समान तेजस्वी थे। पूर्वकालमें शुक्राचार्य और वृषपर्वाने ययातिका अपनी-अपनी कन्याके पतिरूपमें जिस प्रकार वरण किया था, वह सब प्रसङ्ग तुम्हारे पूछनेपर मैं तुमसे कहूँगा। साथ ही यह भी बताऊँगा कि नहुषनन्दन ययाति तथा देवयानीका संयोग किस प्रकार हुआ। एक समय चराचर प्राणियोंसहित समस्त त्रिलोकीके ऐश्वर्यके लिये देवताओं और असुरोंमें परस्पर बड़ा भारी संघर्ष हुआ, उसमें विजय पानेकी इच्छासे देवताओंने यह कार्यके लिये मुनिके पुत्र बृहस्पतिका पुरोहितके पदपर वरण किया और दैत्योंने शुक्राचार्यको पुरोहित बनाया। वे दोनों ब्राह्मण सदा आपसमें बहुत लाग-डॉट रखते थे। देवता उस युद्धमें आये हुए जिन दानवोंको मारते थे, उन्हें शुक्राचार्य अपनी संजीविनी विद्याके बलसे पुनः जीवित कर देते थे। वे पुनः उठकर देवताओंसे युद्ध करने लगते; परंतु असुरगण युद्धके मुहानेपर जिन देवताओंको मारते, उन्हें उदारबुद्धि बृहस्पति जीवित नहीं कर पाते क्योंकि शक्तिशाली शुक्राचार्य जिस संजीविनी विद्याको जानते थे, उसका ज्ञान बृहस्पतिको न था। इससे देवताओंको बड़ा विषाद हुआ 6-13 देवता शुक्राचार्यके भयसे उद्विग्र हो गये। तब वे बृहस्पतिके ज्येष्ठ पुत्र कचके पास जाकर बोले—'ब्रह्मन् ! हम तुम्हारी शरणमें हैं। तुम हमें अपनाओ और हमारी उत्तम सहायता करो। अमित तेजस्वी ब्राह्मण शुक्राचार्यके पास जो मृतसंजीविनी विद्या है, उसे तुम शीघ्र सीख लो, इससे तुम हम देवताओंके साथ यज्ञमें भाग प्राप्त कर सकोगे। राजा वृषपर्वाके समीप तुम्हें विप्रवर शुक्राचार्यका दर्शन हो सकता है। वहाँ रहकर वे दानवोंकी रक्षा करते हैं; किंतु जो दानव नहीं हैं, उनकी रक्षा नहीं करते। उनकी आराधना करनेके लिये तुम्हारे अतिरिक्त दूसरा कोई समर्थ नहीं है। उन महात्माकी प्यारी का नाम देवयानी है, उसे अपनी सेवाओंद्वारा तुम्ही प्रसन्न कर सकते हो। दूसरा कोई इसमें समर्थ नहीं है।अपने शील स्वभाव, उदारता, मधुर व्यवहार, सदाचार तथा इन्द्रियसंयमद्वारा देवयानीको संतुष्ट कर लेनेपर तुम निश्चय ही उस विद्याको प्राप्त कर लोगे।' तब 'बहुत अच्छा' कहकर बृहस्पति पुत्र कच देवताओंसे सम्मानित हो वहाँसे वृषपर्वाके समीप गया। राजन्! देवताओं द्वारा भेजा गया कच तुरंत दानवराज वृषपवके नगरमें जाकर शुक्राचार्यसे मिला और उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार बोला- 'भगवन्! मैं अङ्गिरा ऋषिका पौत्र तथा साक्षात् बृहस्पतिका पुत्र हूँ। मेरा नाम कच है। आप मुझे अपने शिष्यके रूपमें ग्रहण करें। ब्रह्मन्! आप मेरे गुरु हैं। मैं आपके समीप रहकर एक हजार वर्षोंतक उत्तम ब्रह्मचर्य का पालन करूँगा। इसके लिये आप मुझे अनुमति दें ॥ 14-23 ॥
शुक्राचार्यने कहा- कच! तुम्हारा भलीभाँति स्वागत है, मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ। तुम मेरे लिये आदरके पात्र हो, अतः मैं तुम्हारा सम्मान एवं सत्कार करूँगा तुम्हारे आदर-सत्कारसे मेरे द्वारा बृहस्पतिका (ही) आदर-सत्कार होगा ।। 24 ।।
शौनकजी कहते हैं-तब कचने 'बहुत अच्छा' कहकर महाकान्तिमान् कविपुत्र शुक्राचार्यके आदेशके अनुसार स्वयं ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया। राजन्! नियत समयतकके लिये व्रतकी दीक्षा लेनेवाले कचको शुक्राचार्य भलीभाँति अपना लिया। कच आचार्य शुक्र तथा उनकी पुत्री देवयानी— दोनोंकी नित्य आराधना करने लगा। वह नवयुवक था और जवानीमें प्रिय लगनेवाले कार्य-गायन और नृत्य करके भाँति-भाँतिके बाजे बजाकर देवयानीको संतुष्ट रखता था। आचार्यकन्या देवयानी भी युवावस्थामें | पदार्पण कर चुकी थी। कच उसके लिये फूल और फल ले आता तथा उसकी आज्ञाके अनुसार कार्य करता (इस प्रकार उसकी सेवामें संलग्न रहकर वह सदा उसे प्रसन्न रखता था) देवयानी भी नियमपूर्वक ब्रह्मचर्य धारण करनेवाले कचके ही समीप रहकर गाती और आमोद-प्रमोद करती हुई एकान्तमें उसकी सेवा करती थी। इस प्रकार वहाँ रहकर ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करते हुए कचके पाँच सौ वर्ष व्यतीत हो गये। तब दानवोंको यह बात मालूम हुई। तदनन्तर कचको वनके एकान्त प्रदेशमें अकेले गौएँ चराते देख बृहस्पतिके द्वेषसे और संजीविनी विद्याकी रक्षाके लिये क्रोधमें भरे हुए दानवोंने कचको मार डाला। उन्होंने मारनेके बाद उसके शरीरको टुकड़े टुकड़े कर कुत्तों और सियारोंको बाँट दिया। उस | दिन गौएँ बिना रक्षकके ही अपने स्थानपर लौटीं। जबदेवयानीने देखा, गौएँ तो वनसे लौट आ उनके साथ कच नहीं है, तब उसने उस समय अपने पितासे इस प्रकार कहा- 'प्रभो! आपने अग्रिहोत्र कर लिया और सूर्यदेव भी अस्ताचलको चले गये। गौएँ भी आज बिना रक्षकके ही लौट आयी हैं। तात! तो भी कच नहीं दिखायी देता। पिताजी! अवश्य ही कच या तो मारा गया है या पकड़ लिया गया है। मैं आपसे सच कहती हूँ, मैं उसके बिना जीवित नहीं रह सकूँगी' ।। 25- 35 ॥
शुक्राचार्यने कहा- (बेटी! चिन्ता न करो।) मैं मरे हुए कचको अभी 'आओ, आओ' इस प्रकार बुलाकर जीवित किये देता हूँ। ऐसा कहकर उन्होंने संजीविनी विद्याका प्रयोग किया और कचको पुकारा। फिर तो गुरुके पुकारनेपर सरस्वतीनन्दन कच दूरसे ही दौड़ पड़ा और शुक्राचार्यके निकट आकर उन्हें प्रणाम कर बोला- 'गुरो ! राक्षसोंने मुझे मार डाला था।' पुनः | देवयानीने स्वेच्छानुसार वनसे पुष्प लानेके लिये कचको आज्ञा दी, तब ब्राह्मण कच सनातन ब्रह्म (वेद) -का पाठ करते हुए वनमें गया। दानवोंने वनमें उसे पुष्पोंका चयन करते हुए देख लिया। तत्पश्चात् असुरोंने दूसरी बार मारकर आग में जलाया और उसकी जली हुई लाशका चूर्ण बनाकर मदिरामें मिला दिया तथा उसे शुक्राचार्यको ही पिला दिया। अब देवयानी पुनः अपने पितासे यह बात बोली- 'पिताजी! आज मैंने उसे फूल लानेके लिये भेजा था, परंतु अभीतक वह दिखायी नहीं दिया। तात! जान पड़ता है कि वह मार दिया गया या मर गया। मैं आपसे सच कहती हूँ, मैं उसके बिना जीवित नहीं रह सकती' ॥ 36-41 ll
शुक्राचार्यने कहा-बेटी बृहस्पतिका पुत्र कच मर गया। मैंने विद्यासे उसे कई बार जिलाया तो भी वह | इस प्रकार मार दिया जाता है, अब मैं क्या करूँ। देवयानि ! तुम इस प्रकार शोक न करो, रोओ मत। तुम जैसी शक्तिशालिनी स्त्री किसी मरनेवाले के लिये शोक नहीं करती तुम्हें तो वेद, ब्राह्मण, इन्द्रसहित सब देवता, वगण, अश्विनीकुमार, दैत्य तथा सम्पूर्ण जगत्के प्राणी |मेरे प्रभावसे तीनों संध्याओंके समय मस्तक झुकाकर प्रणाम करते हैं। अब उस ब्राह्मणको जिलाना असम्भव है। यदि जीवित हो जाय तो फिर दैत्योंद्वारा मार डाला जायगा (अतः उसे जिलानेसे कोई लाभ नहीं है।) ॥42-44 ॥देवयानी बोली- पिताजी! अत्यन्त वृद्ध महर्षि अङ्गिरा जिसके पितामह हैं, तपस्याके भण्डार बृहस्पति जिसके पिता हैं, जो ऋषिका पुत्र और ऋषिका ही पौत्र है, उस ब्रह्मचारी कचके लिये मैं कैसे शोक न करूँ और कैसे न रोऊ? तात! वह ब्रह्मचर्यपालनमें रत था, तपस्या ही उसका धन था वह सदा ही सजग रहनेवाला और कार्य करनेमें कुशल था इसलिये कच मुझे बहुत प्रिय था वह सदा मेरे मनके अनुरूप चलता था। अब मैं भोजनका त्याग कर दूंगी और कच जिस मार्गपर गया है, वहाँ मैं भी चली जाऊँगी ।। 45-46 ।।
शौनकजी कहते हैं— शतानीक! देवयानीके कहने से उसके दुःखसे दुःखी महर्षि शुक्राचार्यने कचको पुकारा और दैत्योंके प्रति कुपित होकर बोले— 'इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि असुरलोग मुझसे द्वेष करते हैं। तभी तो यहाँ आये हुए मेरे शिष्योंको ये लोग मार डालते हैं। ये भयंकर स्वभाववाले दैत्य मुझे ब्राह्मणत्वसे गिराना चाहते हैं। इसीलिये प्रतिदिन मेरे विरुद्ध आचरण कर रहे हैं। इस पापका परिणाम यहाँ अवश्य प्रकट होगा। ब्रह्महत्या किसे नहीं जला देगी, चाहे वह इन्द्र ही क्यों न हों?' जब गुरुने विद्याका प्रयोग करके बुलाया, तब उनके पेटमें बैठा हुआ कच भयभीत हो धीरेसे बोला (उसकी आवाज सुनकर ) शुक्राचार्यने पूछा- 'वत्स! किस मार्गसे जाकर तुम मेरे उदरमें स्थित हो गये। ठीक-ठीक बताओ' ll 47- 49 ॥
कचने कहा- गुरुदेव! आपके प्रसादसे मेरी | स्मरणशक्तिने साथ नहीं छोड़ा है। जो बात जैसे हुई, वह सब मुझे स्मरण है। इस प्रकार पेट फाड़कर निकल जानेसे मेरी तपस्याका नाश होगा। वह न हो, इसलिये मैं यहाँ घोर क्लेश सहन करता हूँ। आचार्यपाद! असुरोंने मुझे मारकर मेरे शरीरको जलाया और चूर्ण बना दिया। फिर उसे मदिरामें मिलाकर आपको पिला दिया। विप्रवर! आप ब्राह्मी, आमुरो और गीतों प्रकारकाओंको जानते हैं। आपके होते हुए कोई इन मायाओंका उल्लङ्घन कैसे कर सकता है ? ।। 50-51 ॥
शुक्राचार्य बोले- बेटी देवयानि ! अब तुम्हारे लिये कौन-सा प्रिय कार्य करूँ ! मेरे वधसे ही कचका जीवित होना सम्भव है। मेरे उदरको विदीर्ण करनेके अतिरिक्त और कोई ऐसा उपाय नहीं है, जिससे मेरे शरीरमें बैठा हुआ कच बाहर दिखायी दे ॥ 52 ॥देवयानीने कहा—पिताजी! कचका नाश और आपका वध— ये दोनों ही शोक अग्निके समान मुझे जला देंगे। कचके नष्ट होनेपर मुझे शान्ति नहीं मिलेगी और आपके मरनेपर मैं जीवित न रह सकूँगी ॥ 53 ॥
शुक्राचार्य बोले—बृहस्पतिके पुत्र कच ! अब तुम सिद्ध हो गये; क्योंकि तुम देवयानीके भक्त हो और वह तुम्हें चाहती है। यदि कचके रूपमें तुम इन्द्र नहीं हो तो मुझसे मृतसंजीविनी विद्या ग्रहण करो। केवल एक ब्राह्मणको छोड़कर दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो मेरे पेटसे पुनः जीवित निकल सके। इसलिये तुम विद्या ग्रहण करो तात! मेरे इस शरीरसे जीवित निकलकर मेरे लिये पुत्रके तुल्य हो मुझे पुनः जिला देना। मुझ गुरुसे विद्या प्राप्त करके विद्वान् हो जानेपर भी मेरे प्रति धर्मयुक्त दृष्टिसे ही देखना ॥ 54-56 ॥
शौनकजी कहते हैं— शतानीक! गुरुसे संजीविनी विद्या प्राप्त करके विप्रवर कच तत्काल ही महर्षि शुक्राचार्यका पेट फाड़कर ठीक उसी तरह निकल आया, जैसे दिन बीतनेपर पूर्णिमाको संध्याके समय हिमालय पर्वतके श्वेत शिखरको भेदकर चन्द्रमा प्रकट हो जाते हैं। मूर्तिमान् वेदराशिके तुल्य शुक्राचार्यको भूमिपर पड़ा देख कचने भी अपने मरे हुए गुरुको (संजीविनी) विद्याको प्राप्त कर लेनेपर गुरुको प्रणाम कर वह इस प्रकार बोला 'जो लोग निधियोंके भी निधि, श्रेष्ठ लोगोंको भी वरदान देनेवाले, मस्तकपर हिमालय पर्वतके समान श्वेत केशधारी पूजनीय गुरुदेवका (उनसे विद्या प्राप्त करके भी) आदर नहीं करते, वे प्रतिष्ठारहित होकर पापपूर्ण लोकों—नरकोंमें जाते हैं' ।। 57-59 ।। शौनकजी कहते हैं-नाचार्य मदिरापानसे ठगे गये थे और उस अत्यन्त भयानक परिस्थितिको पहुँच गये थे, जिसमें तनिक भी चेत नहीं रह जाता। मदिरासे मोहित होनेके कारण ही वे उस समय अपने मनके अनुकूल चलनेवाले प्रिय शिष्य ब्राह्मणकुमार कचको भी पी गये थे। यह सब देख और सोचकर वे महानुभाव कविपुत्र शुक्र कुपित हो उठे। मदिरा पानके प्रति उनके मनमें क्रोध और घृणाका भाव जाग उठा और उन्होंने ब्राह्मणोंका हित करनेकी इच्छासे स्वयं इस प्रकार घोषणा की ।। 60-61 ।।शुक्राचार्यने कहा- आजसे (इस जगत्का) जो कोई भी मन्दबुद्धि ब्राह्मण अज्ञानसे भी मदिरापान करेगा, वह धर्मसे भ्रष्ट हो ब्रह्महत्याके पापका भागी होगा तथा इहलोक और परलोक दोनोंमें निन्दित होगा। धर्मशास्त्रों में ब्राह्मण-धर्मकी जो सीमा निर्धारित की गयी है, उसीमें मेरे द्वारा स्थापित की हुई यह मर्यादा भी रहे और सम्पूर्ण लोकमें मान्य हो । साधु पुरुष, ब्राह्मण, गुरुओंके समीप अध्ययन करनेवाले शिष्य, देवता और समस्त जगत्के मनुष्य मेरी बाँधी हुई इस मर्यादाको अच्छी तरह सुन लें ॥ 62-63 ।।
शौनकजी कहते हैं—ऐसा कहकर तपस्याकी निधियोंकी निधि, अप्रमेय शक्तिशाली महानुभाव शुक्राचार्यने, दैवने जिनकी बुद्धिको मोहित कर दिया था, उन दानवोंको बुलाया और इस प्रकार कहा ॥ 64॥ शुक्राचार्यने कहा- 'दानवो! तुम सब (बड़े) मूर्ख हो। मैं तुम्हें बताये देता हूँ- (महात्मा) कच मुझसे संजीवनी विद्या पाकर सिद्ध हो गया है। इसका प्रभाव मेरे ही समान है। यह ब्राह्मण ब्रह्मस्वरूप है ॥ 65 ॥ शौनकजी कहते हैं— कचने (इस प्रकार ) एक हजार वर्षोंतक गुरुके समीप रहकर अपना व्रत पूरा कर लिया। तब (गुरुसे) घर जानेकी अनुमति मिल जानेपर उसने देवलोकमें जानेका विचार किया ॥ 66 ॥