ऋषियोंने पूछा- सूतजी सूर्यपुत्र मनुद्वारा पूछे जानेपर भगवान् विष्णुने उनसे धर्म और अधर्मके जिस परम उत्तम प्रसङ्गको विस्तारपूर्वक कहा था, वह इस समय आप हमलोगोंको बतलाइये ॥ 1 ॥
सूतजी कहते हैं-ऋषियो! प्रलयकालके उस एकार्णवके जलमें मत्स्यरूपधारी विश्वात्मा भगवान् विष्णुने सूर्यपुत्र मनुके प्रति सर्गके विस्तारका पूर्णरूपसे वर्णन किया था। साथ ही कर्मयोग और सांख्ययोगको भी उन्हें विस्तारपूर्वक यथार्थरूपसे बतलाया था ( उसे ही मैं आपलोगों को सुनाना चाहता हूँ ॥ 2-3
ऋषियोंने पूछा- उत्तम व्रतका पालन करनेवाले सूतजी! आपके लिये लोकमें कोई वस्तु अज्ञात तो है नहीं, अतः हमलोग आपसे कर्मयोगका लक्षण सुनना चाहते हैं ll 4ll
सूतजी कहते हैं-ऋषियो! विष्णुभगवान्ने जिस | प्रकार कर्मयोगकी व्याख्या की थी, उसे मैं बतला रहा हूँ। कर्मयोग ज्ञानयोगसे हजारोंगुना अधिक प्रशस्त है; क्योंकि ज्ञान कर्मयोगसे ही प्रादुर्भूत होता है; अत: वह परमपद है। ब्रह्म भी कर्मज्ञानसे उद्भूत होता है। कर्मके बिना तो ज्ञानकी सत्ता ही नहीं है इसीलिये कर्मयोग के अभ्यासमें संलग मनुष्य अविनाशी तत्त्वको प्राप्त कर लेता है। सम्पूर्ण वेद और | वेदज्ञोंके आचार-विचार धर्मके मूल हैं। उनमें आठ प्रकारके आत्मगुण प्रधानरूपसे विद्यमान रहते हैं; जैसे समस्त प्राणियोंपर दया, क्षमा, दुःखसे पीडित प्राणीको आश्वासन | प्रदान करना और उसकी रक्षा करना, जगत्में किसीसे ईर्ष्या-द्वेष न करना, बाह्य एवं आन्तरिक पवित्रता, परिश्रमरहित अथवा | अनायास प्राप्त हुए कार्योंके अवसरपर उन्हें माङ्गलिक आचार व्यवहारके द्वारा सम्पन्न करना, अपने द्वारा उपार्जित द्रव्योंसे दीन-दुखियोंकी सहायता करते समय कृपणता न करना तथा पराये धन और परायी स्वीके प्रति सदा निःस्पृह रहनापुराणों के ज्ञाता विद्वानद्वारा ये आठ आत्मगुण बतलाये गये हैं। यही कर्मयोग ज्ञानयोगका साधक है। जगत्में कर्मयोगके बिना किसीको ज्ञानकी प्राप्ति हुई हो, ऐसा नहीं देखा गया है इसलिये श्रुतियों एवं स्मृतियोंद्वारा कहे गये धर्मका प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिये। प्रतिदिन सर्वदा देवताओं, पितरों और मनुष्योंको यज्ञोंद्वारा तृप्त करना चाहिये। साथ ही पितरों और ऋषियोंके तर्पणका कार्य भी कर्तव्य है। विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह स्वाध्यायद्वारा देवताओंकी, हवनद्वारा ऋषियोंकी द्वारा पितरोंकी, अत्रद्वारा अतिथियोंकी तथा बलिकर्मद्वारा मृत प्राणियोंकी विधिपूर्वक अर्चना करे। गृहस्थोंके परमें जीवहिंसाके पाँच प्रकारके स्थानोंपर मटित हुए पापको निवृत्तिके लिये इन पाँच प्रकारके यहाँका विधान बतलाया गया है। गृहस्थके घरमें जीवहिंसाके पाँच स्थान ये हैं- कण्डनी (वस्तुओंके कूटनेका पात्र ओखली, खरल आदि), पेषणी (पीसनेका उपकरण चक्की, सिलवट आदि), सुखी (चूल्हा), जलकुम्भी (पानी रखे जानेवाले घड़े) और प्रमार्जनी (शाहू आदि)। इन स्थानोंपर उत्पन्न हुए पापके कारण गृहस्थ पुरुष स्वर्ग नहीं जा सकता, अतः उन पापोंके विनाशके लिये ये पाँचों यज्ञ बतलाये गये हैं ।। 5- 16 ll
द्विजातियोंके लिये जो चालीस प्रकार के संस्कार बतलाये गये हैं, उनसे संस्कृत होनेपर भी जो मनुष्य (उपर्युक्त आठ) आत्मगुणोंसे रहित है, वह मोक्षका भागी नहीं हो सकता। इसलिये आत्मगुणों से सम्पन्न होकर ही वैदिक कर्मका अनुष्ठान | करना चाहिये। गृहस्थको सदा उपार्जित धनद्वारा गौओं और ब्राह्मणोंका कल्याण करना चाहिये। उसका कर्तव्य है कि वह व्रत एवं उपवास आदि करके गौ, पृथ्वी, सुवर्ण, वस्त्र, गन्ध, माला और जल आदि ब्रह्मा, विष्णु सूर्य स्द और सुस्वरूप शिवको श्रद्धापूर्वक विधिसहित पूजा करे; इसमें कृपणता न करे जो ये इन्द्रियों के अगोचर, परम शन्त सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म अव्यक्त, अविनाशी एवं विश्वस्वरूप भगवान् वासुदेव है उन्हींकी ये विभूतियाँ हैं। उन विभूतियोंके नाम ये हैं-ब्रह्मा, भगवान् विष्णु, सूर्य, शिव, आठ वसु ग्यारह गणाधिप, लोकपालाधीश्वर, पितर और मातृकाएँ। चराचर जगत्सहित ये सभी विभूतियाँ बतलायी गयी हैं। ब्रह्मा आदि चार (ब्रह्मा विष्णु, सूर्य, शिव) देवता मूलरूपसे इस जगत् के अव्यक्त | अधिपति कहे जाते हैं। इसलिये ब्रह्मा, सूर्य, विष्णु अथवा शिवकी अभेदभावसे पूजा करनेपर चराचर जगत्की पूजा सम्पन्न हो जाती है। सूर्य ब्रह्मा आदि तीनों देवताओंके परम | धाम हैं, जिनमें वे निवास करते हैं। सूर्यदेव वेदोंके मूर्तस्वरूप हैं, अतः इनकी प्रयत्नपूर्वक पूजा करनी चाहिये। इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह अग्नि अथवा ब्राह्मणोंके मुखोंमें |इनका आवाहन करके दान, व्रत, उपवास, जप, हवन आदि द्वारा इनकी पूजा करे। इस प्रकार जो मनुष्य कर्मयोगनिष्ठ, वेदान्तशास्त्र और स्मृतियोंका प्रेमी तथा अधर्मसे सदा भयभीत रहता है, उसके लिये इस लोक अथवा परलोकमें कुछ भी प्राप्तव्य नहीं रह जाता, अर्थात् सभी पदार्थ उसके हस्तगत हो जाते हैं ॥17- 26 ॥