ब्रह्माने पूछा— भगवन्! आप तो भवसागररूपी संसारसे उद्धार करनेवाले हैं, अतः कोई ऐसा व्रत बतलाइये जो स्वर्ग, नीरोगता और सुखका प्रदाता हो ॥ 1 ॥ ईश्वरने कहा- ब्रह्मन् ! अब मैं सूर्यसे सम्बन्धित धर्म (व्रत) का वर्णन कर रहा हूँ, जो लोकमें कल्याणसप्तमी, विशोकसप्तमी, पापनाशिनी फलसप्तमी, पुण्यदायिनी शर्करासप्तमी, कमलसप्तमी, मन्दारसप्तमी तथा मङ्गलप्रदायिनी शुभसप्तमीके नामसे प्रसिद्ध है।ये सभी सप्तमियाँ देवर्षियोंद्वारा पूजित हैं तथा अनन्त फल देनेवाली कही गयी हैं। मैं इनके विधानको आनुपूर्वी यथार्थरूपसे वर्णन कर रहा हूँ ॥ 2-4 ll जब शुक्लपक्षकी सप्तमी तिथिको रविवार पड़ जाय तो उस सप्तमीको कल्याणिनी (नामसे) कहा जाता है। उसीका दूसरा नाम विजया भी है। व्रतीको चाहिये कि वह उस दिन प्रातः काल उठकर गोदुग्धयुक्त जलसे खान करनेके पश्चात् श्वेत वस्त्र धारण करे। फिर पूर्वाभिमुख हो चावलोंद्वारा अष्टदल कमल बनावे। उसके मध्यभागमें उसी आकारवाली कर्णिकाकी भी रचना करे। तत्पश्चात् पुष्प और अक्षतद्वारा क्रमशः सब ओर देवेश्वर सूर्यकी स्थापना करते हुए इन मन्त्रोंका उच्चारण करे- 'तपनाय नमः ' से पूर्वदलपर, 'मार्तण्डाय नमः' से अग्रिकोणस्थित दलपर, 'दिवाकराय नमः' से दक्षिणदलपर, 'विधात्रे नमः' से नैर्ऋत्यकोणके दलपर, 'वरुणाय नमः' से पश्चिमदलपर, 'भास्कराय नमः' से वायव्यकोणवाले दलपर, 'विकर्तनाय नमः' से उत्तरदलपर, 'रवये नमः' से ईशानकोणस्थित आठवें दलपर और 'परमात्मने नमः से आदि, मध्य और अन्तमें सूर्यका आवाहन करके स्थापित कर दे। फिर नमस्कारान्तसे सुशोभित इन मन्त्रोंका उच्चारण कर श्वेत वस्त्र, फल, नैवेद्य, धूप, पुष्पमाला और चन्दनसे भलीभांति पूजन करे। वेदीपर भी व्याहति मन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक गुड़ और नमकसे भक्तिपूर्वक पूजा करनेका विधान है। इसके बाद विसर्जन करना चाहिये। फिर अपनी शक्तिके अनुसार भक्तिपूर्वक गुड़, दूध और घी आदिके द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी पूजा करे और तिलसे भरा हुआ पात्र और सुवर्ण ब्राह्मणको दान कर दे। इस प्रकार विधानको पूरा करके व्रती मानव रात्रिमें शयन करे और प्रातःकाल उठकर स्नान-जप आदि नित्यकर्म पूरा करे। तत्पश्चात् उन ब्राह्मणोंके साथ ही घी और दूधसे बने हुए पदार्थोंका भोजन करे। अन्तमें विडालव्रत (छल-कपट) - से रहित वेदज्ञ ब्राह्मणको सुवर्णसहित घृतपूर्ण पात्र और जलसे भरा हुआ घट दान कर दे और उस समय इस प्रकार कहे- 'मेरे इस व्रतसे परमात्मा भगवान् सूर्य प्रसन्न हों।' इसी विधिसे प्रत्येक मासमें सभी व्रतोंका अनुष्ठान करना चाहिये। तदनन्तर तेरहवाँ महीना आनेपर तेरह गौ दान करनेका विधान है, जो सभी दुधारू हों, वस्त्र और अलंकार आदिसे सुसज्जित हो और जिनके मुखपर सोनेका पत्र लगा हुआ हो। यदि व्रती निर्धन हो तो वह अलंकाररहित होकर एक ही का दान करे, किंतु कृपणता न करे; क्योंकि | मोहवश कंजूसी करनेसे अधःपतन हो जाता है ।। 5- 17 ॥जो मनुष्य उपर्युक्त विधिके अनुसार इस कल्याणसप्तमी-व्रतका अनुष्ठान करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त होकर सूर्यलोकमें प्रतिष्ठित होता है। इस लोकमें भी उसे अनन्त आयु, आरोग्य और ऐश्वर्यकी प्राप्ति होती है; क्योंकि यह कल्याणसप्तमी सदा समस्त पापोंको हरनेवाली और सम्पूर्ण दुष्ट ग्रहोंका शमन करनेवाली है। सभी देवता नित्य इसकी पूजा करते हैं। जो मानव इस लोकमें इस अनन्त फलप्रदायिनी कल्याणसप्तमीकी चर्चा - कथाको सुनता अथवा पढ़ता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 18-20 ॥