ऋषियोंने पूछा-सूतजी! कार्तवीर्यने बलपूर्वक महात्मा आपवके उस वनको किस कारण जलाया था? अभी-अभी हम लोगोंने सुना है कि वे राजर्षि कार्ती प्रजाओंके रक्षक थे तो फिर रक्षक होकर उन्होंने महर्षिके तपोवनको कैसे जला दिया ? ॥ 1-2 ॥
सूतजी कहते हैं-ऋषियो! एक बार सूर्य ब्राह्मणका रूप धारण करके कार्तवीर्यके निकट पहुँचे और कहने लगे- 'नरेश्वर में सूर्य हूँ, आप मुझे एक वार तृति प्रदान कीजिये ' ॥ 3 ॥
राजाने पूछा- भगवन्! किस पदार्थसे आपकी तृप्ति होगी? दिवाकर! मैं आपको किस प्रकारका भोजन प्रदान करूँ? आपकी बात सुनकर मैं उसी प्रकारका विधान करूँगा ॥ 4 ॥
सूर्य बोले – दानिशिरोमणे! मुझे समस्त स्थावर अर्थात् वृक्ष आदिको आहाररूपमें प्रदान कीजिये। मैं उसीसे तृप्त होऊंगा राजन्! वही मेरे लिये सर्वश्रेष्ठ तृति होगी ॥ 5 ॥
कार्तवीर्यने कहा – तेजस्वियोंमें श्रेष्ठ सूर्य ये समस्त वृक्ष मेरे तेज और बलद्वारा जलाये नहीं जा सकते; अतः मैं आपको प्रणाम करता हूँ ॥ 6 ॥
सूर्य बोले - नरेश्वर ! मैं आपपर प्रसन्न हूँ, इसलिये मैं आपको ऐसे अक्षय एवं सर्वतोमुखी बाण दे रहा हूँ, जो मेरे तेजसे युक्त होनेके कारण चलाये जानेपर स्वयं जल उठेंगे और मेरे तेजसे परिपूर्ण हुए वे सारे वृक्षोंको सुखा देंगे; फिर सूख जानेपर उन्हें जलाकर भस्म कर देंगे। उससे मेरी तृप्ति हो जायगी ।। 7-8 ॥
सूतजी कहते हैं—यो! तदनन्तर सूर्यने कार्तवीर्य अर्जुनको अपने बाण प्रदान कर दिये। तब अर्जुन सम्मुख आये हुए समस्त वृक्षों, ग्रामों, आश्रमों, घोषों नगरों, तपोवनों तथा रमणीय वनों एवं उपवनोंको जलाकर राखका ढेर बना दिया। इस प्रकार पूर्व दिशाको जलाकर फिर समूची दक्षिण दिशाको भी भस्म कर दिया। उस | भयंकर तेजसे पृथ्वी वृक्षों एवं तृणोंसे रहित होकर नष्टभ्रष्ट हो गयी। उसी समय महर्षि आपव जो महान् तेजस्वी और तपस्याके धनी थे, दस हजार वर्षोंसे जलके भीतर बैठकर तप कर रहे थे, व्रत पूर्ण होनेपर बाहर निकले तो उन महामुनिने अर्जुनद्वारा अपने आश्रमको जलाया हुआ देखा। तब उन्होंने क्रुद्ध होकर राजर्षि अर्जुनको उक्त शाप दे दिया, जैसा कि मैंने अभी आप लोगोंको बतलाया है ॥ 9-133 ॥
ऋषियो! (अब) आपलोग राजर्षि क्रोष्टुके उस उत्तम बल पौरुषसे सम्पन्न वंशका वर्णन सुनिये, जिस वंशमें वृष्णिवंशावतंस भगवान् विष्णु (श्रीकृष्ण) अवतीर्ण हुए थे। क्रोष्टुके पुत्र महारथी वृजिनीवान् हुए वृजिनीवान्के स्वाह (पद्मपुराणमें स्वाति) नामक महाबली पुत्र उत्पन्न हुआ। राजन्! वक्ताओंमें श्रेष्ठ रुषङ्गु स्वाहके पुत्ररूपमें पैदा हुए। रुपङ्गुने संतानकी इच्छासे सौम्य स्वभाववाले पुत्रकी कामना की। तब उनके सत्कर्मोंसे समन्वित एवं चित्र-विचित्र रथसे युक्त चित्ररथ नामक पुत्र हुआ। चित्ररथके एक वीर पुत्र उत्पन्न हुआ जो शशबिन्दु नामसे विख्यात था। वह आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट् हुआ। वह यज्ञोंमें प्रचुर दक्षिणा देनेवाला था पूर्वकालमें इस शशविन्दुके विषयमें वंशानुक्रमणिकारूप यह श्लोक गाया जाता रहा है कि शशविन्दुके सौ पुत्र हुए। उनमें भी प्रत्येकके सौ सौ पुत्र हुए। वे सभी प्रचुर धन सम्पत्ति एवं तेजसे परिपूर्ण, सौन्दर्यशाली एवं बुद्धिमान् थे उन पुत्रक नामके अग्रभागमें 'पृभु' शब्द संयुक्त छः महाबली पुत्र हुए। उनके पूरे नाम इस प्रकार हैं- पृथुश्रवा, पृथुयशा, पृथुधर्मा, पृथुंजय, पृथुकीर्ति और पृथुमना। ये शशबिन्दुके वंशमें उत्पन्न हुए राजा थे। पुराणोंके ज्ञाता विद्वान्लोग इनमें सबसे ज्येष्ठ पृथुवाकी विशेष प्रशंसा करते हैं। उत्तम यहाँका अनुष्ठान करनेवाले पृथुश्रवाका पुत्र सुयज्ञ हुआ। सुयज्ञका पुत्र उशना हुआ, जो सर्वश्रेष्ठ धर्मात्मा था। उसने इस पृथ्वीकी रक्षा करते हुए सौ अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान किया था। उशनाका पुत्र तितिक्षु हुआ जो शत्रुओंको संतप्त कर देनेवाला था। राजर्षियोंमें सर्वश्रेष्ठ मस्त तितिक्षुके पुत्र हुए। मस्तका पुत्र वीरवर कम्बल था कि पुत्र विद्वान् स्वमकवच हुआ स्वमकवचने अपने अनेकों प्रकारके बाणके प्रहारसे धनुर्धारी एवं कवचसे सुसज्जित | शत्रुओंको मारकर इस पृथ्वीको प्राप्त किया था।शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले राजा रुक्मकवचने एक बार बड़े (भारी) अश्वमेध यज्ञमें ब्राह्मणोंको प्रचुर दक्षिणा प्रदान की थी। ll 14-27॥
इन (राजा रुक्मकवच) के रुक्मेषु पृथुस्वम्, ज्याम परिम और हरिनामक पाँच पुत्र हुए, जो महान् पराक्रमी एवं श्रेष्ठ धनुर्धर थे। पिता रुक्मकवचने इनमेंसे परिष और हरि-इन दोनोंको विदेह देशके राज-पदपर नियुक्त कर दिया। रुक्मेषु प्रधान राजा हुआ और पृथुरुक्म उसका आश्रित बन गया। उन लोगोंने ज्यामधको राज्यसे निकाल | दिया। वहाँ एकत्र ब्राह्मणद्वारा समझाये- बुझाये जानेपर वह प्रशान्त-चित्त होकर वानप्रस्थीरूपसे आश्रमोंमें स्थिररूपये रहने लगा। कुछ दिनोंके पश्चात् वह (एक ब्राह्मणको शिक्षासे) ध्वजायुक्त रथपर सवार हो हाथमें धनुष धारणकर दूसरे देशकी ओर चल पड़ा। यह केवल जीविकोपार्जनकी कामनासे अकेले ही नर्मदातटपर जा पहुँचा। वहाँ दूसरोंद्वारा उपभुक्त ऋक्षवान् गिरि (शतपुरा पर्वत श्रेणी) पर जाकर निश्चितरूपसे निवास करने लगा। ज्यामघकी सती-साध्वी | पत्नी शैल्या प्रौढ़ा हो गयी थी। (उसके गर्भसे) कोई पुत्र न उत्पन्न हुआ। इस प्रकार यद्यपि राजा ज्यामघ पुत्रहीन अवस्थामें ही जोवनयापन कर रहे थे, तथापि उन्होंने दूसरी पत्नी नहीं स्वीकार की। एक बार किसी युद्धमें राजा ज्यानवको विजय हुई। वहाँ उन्हें (विवाहार्थ) एक कन्या प्राप्त हुई। (पर) उसे लाकर पत्नीको देते हुए राजाने उससे भयपूर्वक कहा- 'शुचिस्मिते। यह (मेरी स्त्री नहीं) तुम्हारी स्नुषा (पुत्रवधू) है।' इस प्रकार कहे जानेपर उसने राजासे पूछा 'यह किसकी स्रुषा है?' ।। 28-34 ll
तब राजाने कहा - (प्रिये) तुम्हारे गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न होगा, उसीकी यह पत्नी होगी। (यह आश्चर्य देख-र -सुनकर वह कन्या तप करने लगी।) तत्पञ्चात् उस कन्याको उग्र तपस्याके परिणामस्वरूप वृद्धा प्रायः बूढ़ी होनेपर भी शैव्याने (गर्भ धारण किया और) विदर्भ नामक एक पुत्रको जन्म दिया। उस विद्वान् विदर्भने स्नुषाभूता उस राजकुमारीके गर्भसे क्रथ, कैशिक तथा तीसरे परम धर्मात्मा लोमपाद नामक पुत्रोंको उत्पन्न किया। ये सभी पुत्र शूरवीर एवं युद्धकुशल थे। इनमें लोमपादसे मनु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ तथा मनुका पुत्र ज्ञाति हुआ। कैशिकका पुत्र चिदि हुआ, उससे उत्पन्न हुए नरेश चैद्य नामसे प्रख्यात हुए। विदर्भ-पुत्र के कुन्ति नामक पुत्र पैदा हुआ कुन्तिसे भृष्ट नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो परम प्रतापी एवं रणविशारद था। |ष्टका पुत्र निर्वृति हुआ जो धर्मात्मा एवं शत्रु वीरोंकासंहारक था। निर्वृतिके एक ही पुत्र था जो विदूरथ नामसे प्रसिद्ध था। विदूरथका पुत्र दशाई और दशार्हका पुत्र व्योम बतलाया जाता है। दशार्हवंशी व्योमसे पैदा हुए पुत्रको जीमूत नामसे कहा जाता है ॥ 35-40 ॥ जीमूतका पुत्र विमल और विमलका पुत्र भीमरथ हुआ। भीमरथका पुत्र नवरथ नामसे प्रसिद्ध था । नवरथका पुत्र दृढरथ और उसका पुत्र शकुनि था । शकुनिसे करम्भ और करम्भसे देवरात उत्पन्न हुआ। देवरातका पुत्र महायशस्वी राजा देवक्षत्र हुआ। देवक्षत्रका पुत्र देव पुत्रकी-सी कान्तिसे युक्त महातेजस्वी मधु नामसे उत्पन्न हुआ। मधुका पुत्र पुरवस् तथा पुरस्का पुत्र पुरुषश्रेष्ठ पुरद्वान् था पुरुद्वान्के संयोगसे विदर्भ राजकुमारी भद्रसेनीके गर्भ से जन्तु नामक पुत्रने जन्म लिया। उस जन्तुको पत्नी ऐक्वाकी हुई, उसके गर्भसे उत्कृष्ट बल पराक्रमसे सम्पन्न एवं सात्त्वतवंशियों (या आप) की कीर्तिका विस्तारक सात्त्वत नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। इस प्रकार महात्मा ज्यामघकी इस संतान परम्पराको जानकर मनुष्य पुत्रवान् हो जाता है और अन्तमें बुद्धिमान् राजा सोमका सायुज्य प्राप्त कर लेता है। राजन्! कौसल्या (सात्त्वतकी पत्नी थी। उसने) सात्त्वतके संयोगसे जिन बल पराक्रमसम्पन्न पुत्रोंको जन्म दिया, उनके नाम हैं- भजि, भजमान, दिव्य राजा देवावृध, अन्धक, महाभोज और यदुकुलको आनन्द प्रदान करनेवाले वृष्णि। इनमें चार वंशका विस्तार हुआ। अब उसका विस्तारपूर्वक वर्णन श्रवण कीजिये संजयकी दो कन्याएँ संजयी और बाह्यका भजमानकी पत्त्रियाँ थीं। इनसे वाह्यक नामक पुत्र उत्पन्न हुए। इनके अतिरिक्त उन दोनों बहनोंने और भी बहुत-से पुत्रोंको जन्म दिया था। उनके नाम हैं-निमि, कृमिल और शत्रु-नगरीको जीतनेवाला वृष्णि ये सभी भजमानके संयोगसे संजयी और वाह्यकाके गर्भसे उत्पन्न हुए थे । ll 41-50 ॥तत्पश्चात् राजा देवावृधका जन्म हुआ, जो बन्धुओंके साथ सुदृढ़ मैत्रीके प्रवर्धक थे। परंतु राजा (देवावृध) को कोई पुत्र न था। उन्होंने 'मुझे सम्पूर्ण सद्गुणोंसे सम्पन्न पुत्र पैदा हो' ऐसी अभिलाषासे युक्त हो अत्यन्त घोर तप किया। अन्तमें उन्होंने मन्त्रको संयुक्त कर पर्णाशा नदीके जलका स्पर्श किया। इस प्रकार स्पर्श करनेके कारण पर्णाशा नदी राजाका प्रिय करनेका विचार करने लगी। वह श्रेष्ठ नदी उस राजाके कल्याणकी चिन्तासे व्याकुल हो उठी। अन्तमें वह इस निश्चयपर पहुँची कि मैं ऐसी किसी दूसरी स्त्रीको नहीं देख पा रही हूँ, जिसके गर्भसे इस प्रकारका (राजाकी अभिलाषा के अनुसार) पुत्र पैदा हो सके, इसलिये आज मैं स्वयं ही हजारों प्रकारका रूप धारण करूँगी। तत्पश्चात् पर्णाशाने परम सुन्दर शरीर धारण करके कुमारीरूपमें प्रकट | होकर राजाको सूचित किया। तब महान् व्रतशाली राजाने उसे (पत्नीरूपसे) स्वीकार कर लिया। तदुपरान्त नदियोंमें श्रेष्ठ पर्णाशाने राजा देवावृधके संयोगसे नवें महीनेमें सम्पूर्ण सद्गुणोंसे सम्पन्न बभ्रु नामक पुत्रको जन्म दिया। पुराणोंके ज्ञाता विद्वान्लोग वंशानुकीर्तनप्रसङ्गमें महात्मा देवावृधके गुणोंका कीर्तन करते हुए ऐसी गाथा गाते हैं— उद्वार प्रकट करते हैं-'इन (बधु) के विषयमें हमलोग जैसा (दूरसे) सुन रहे थे, उसी प्रकार (इन्हें) निकट आकर भी देख रहे हैं। बभ्रु तो सभी मनुष्योंमें श्रेष्ठ हैं और देवावृध (साक्षात्) | देवताओंके समान हैं। राजन्! बभ्रु और देवावृधके प्रभावसे इनके छिहत्तर हजार पूर्वज अमरत्वको प्राप्त हो गये। राजा बभ्रु यज्ञानुष्ठानी, दानशील, शूरवीर, ब्राह्मणभक्त, सुदृढ़वती, सौन्दर्यशाली, महान तेजस्वी तथा विख्यात बल पराक्रमसे सम्पन्न थे। तदनन्तर (बधुके संयोगसे) कडूकी कन्याने कुकुर, भजमान, शशि और कम्बलबर्हिष नामक चार पुत्रोंको जन्म दिया। कुकुरका पुत्र वृष्णि, वृष्णिका पुत्र धृति, उसका पुत्र कपोतरोमा, उसका पुत्र तैत्तिरि, उसका पुत्र सर्प, उसका पुत्र विद्वान् नल था। नलका पुत्र दरदुन्दुभि नामसे कहा जाता था ॥ 51-63 ।।नर दरदुन्दुभि पुत्रप्राप्तिके लिये अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान कर रहे थे। उस विशाल यज्ञमें पुनर्वसु नामक पुत्र प्रादुर्भूत हुआ। पुनर्वसु अतिरात्रके मध्य में सभा के बीच प्रकट हुआ था, इसलिये वह विदान् शुभाशुभ कर्मोंका ज्ञाता, यज्ञपरायण और दानी था। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ राजन्! पुनर्वसुके आहुक नामका पुत्र और आहुकी नामकी कन्या- ये जुड़वीं संतान पैदा हुई। इनमें आहुक अजेय और लोकप्रसिद्ध था उन आहुकके प्रति विद्वान् लोग इन श्लोकोंको गाया करते हैं-'राजा आहुकके पास दस हजार ऐसे रथ रहते थे, जिनमें सुदृढ़ उपासङ्ग (कुबर) एवं अनुकर्ष (भूरे) लगे रहते थे, जिनपर ध्वजाएँ फहराती रहती थीं, जो कवचसे सुसजित रहते थे तथा जिनसे मेघकी घरघराहटके सदृश शब्द निकलते थे। उस भोजवंशमें ऐसा कोई राजा नहीं पैदा हुआ जो असत्यवादी, निस्तेज, यज्ञविमुख, सहस्रोंकी दक्षिणा देनेमें असमर्थ, अपवित्र और मूर्ख हो।" राजा आहुकसे भरण पोषणकी वृत्ति पानेवाले लोग ऐसा कहा करते थे। आहुकने अपनी बहन आह्कीको अवन्ती नरेशको प्रदान किया था आडुकके संयोगसे काश्यकी कन्याने देवक और उग्रसेन नामक दो पुत्रोंको जन्म दिया। वे दोनों | देव पुत्रोंके सदृश कान्तिमान् थे देवकके देवताओंके समान कान्तिमान् एवं पराक्रमी चार शूरवीर पुत्र उत्पन्न हुए। उनके नाम हैं- देववान्, उपदेव, सुदेव और देवरक्षित इनके सात बहनें भी थीं, जिन्हें देवकने वसुदेवको समर्पित किया था उनके नाम हैं-देवकी, श्रुतदेवी, मित्रदेवी, यशोधरा, श्रीदेवी, सत्यदेवी और सातवीं सुतापी ॥ 64-73 ॥
उग्रसेनके नौ पुत्र थे, उनमें कंस ज्येष्ठ था उनके नाम है-न्यग्रोध, सुनामा कङ्क, शहू अजभू, राष्ट्रपाल, युद्धमुष्टि और सुमुष्टिद उनके कंसा, कंसवती, सतन्तू 1 राष्ट्रपाली और कङ्का नामकी पाँच बहनें थीं, जो परम सुन्दरी थीं। अपनी संतानोंसहित उग्रसेन कुकुर-वंशमें उत्पन्न हुए कहे जाते हैं। भजमानका पुत्र महारथी विदूरथ और शूरवीर राजाधिदेव विदूरथका पुत्र हुआ। राजाधिदेवके शोणाश्च और श्वेतवाहन नामक दो पुत्र हुए, जो देवोंके | सदृश कान्तिमान् और नियम एवं व्रतके पालनमें तत्पर रहनेवाले थे। शोणाश्वके शमी, देवशर्मा, निकुन्त, शक्र और शत्रुजित् नामक पाँच शूरवीर एवं युद्धनिपुण पुत्र हुए।शमीका पुत्र प्रतिक्षत्र, प्रतिक्षत्रका पुत्र प्रतिक्षेत्र, उसका पुत्र भोज और उसका पुत्र हृदीक हुआ। हृदीकके दस अनुपम पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए, उनमें कृतवर्मा ज्येष्ठ और शतधन्वा मँझला था। शेषके नाम (इस प्रकार) हैं—देवार्ह, नाभ, धिषण, महाबल, अजात, वनजात, कनीयक और करम्भक। देवार्हके कम्बलबर्हिष नामक विद्वान् पुत्र हुआ। उसका पुत्र असोमजा और असोमजाका पुत्र तमोजा हुआ। इसके बाद सुदंष्ट्र, सुनाभ और कृष्ण नामके तीन राजा और हुए जो परम पराक्रमी और उत्तम कीर्तिवाले थे। इनके कोई संतान नहीं हुई। ये सभी अन्धकवंशी माने गये हैं। जो मनुष्य अन्धकोंके इस वंशका नित्य कीर्तन करता है वह स्वयं पुत्रवान् होकर अपने वंशकी वृद्धि करता है ॥ 74–85 ॥