मत्स्यभगवान् बोले- रविनन्दन। कालनेमिद्वारा विपरीत कर्म किये जानेके कारण वेद, धर्म, क्षमा, सत्य और नारायणके आश्रयमें रहनेवाली लक्ष्मी ये पाँचों उसके अधीन नहीं हुए। उनके उपस्थित न होनेसे क्रोधसे भरा हुआ दानवेश्वर कालनेमि वैष्णवपदकी प्राप्तिको अभिलापासे नारायणके निकट गया। वहाँ जाकर उसने शङ्ख-चक्र-गदाधारी भगवान्को गरुडकी पोठपर बैठे तथा दैत्योंका विनाश करनेके लिये कल्याणमयी गदा घुमाते देखा। उनके शरीरकी कान्ति सजल मेघके समान थी। उनका पीताम्बर बिजलीके समान चमक रहा था। वे स्वर्णमय पंखसे युक्त शिखाधारी कश्यपनन्दन गरुडपर समासीन थे। इस प्रकार रणभूमिमें दैत्योंका विनाश करनेके लिये स्वस्थचित्तसे स्थित अक्षोभ्य भगवान् विष्णुको देखकर दानवराज कालनेमिका मन क्षुब्ध हो उठा, तब वह कहने लगा 'यही हमलोगोंके पूर्वजोंका प्राणनाशक शत्रु है तथा यही | महासागरमें निवास करनेवाले मधु और कैटभका भी प्राणहर्ता है। हमलोगों का यह विग्रह शान्त होनेका नहीं, ऐसा निश्चितरूपसे कहा जाता है। बहुतेरे युद्धोंमें इसके द्वारा बहुत से दानव मारे जा चुके हैं। यह बड़ा निष्ठुर है। इसे जगत्में स्त्री बच्चोंपर भी हाथ उठाते समय लज्जा नहीं आती। इसने बहुत-सी दानव पत्नियोंके सोहागका उन्मूलन कर दिया है। यही देवताओंमें विष्णु, स्वर्गवासियोंमें वैकुण्ठ, नागोंमें अनन्त और जलमें शयन करनेवाला आदि स्वयम्भू है। यही देवताओंका स्वामी और व्यथित हृदयवाले हमलोगोंका शत्रु है। इसीके क्रोधमें पड़कर हिरण्यकशिपु मारे गये हैं । ll 1-10 ॥
'इसी प्रकार इसीका आश्रय ग्रहण कर यज्ञके प्रारम्भमें स्थित देवगण महर्षियोंद्वारा तीन प्रकारकी आहुति रूपमें दिये गये आज्यका उपभोग करते हैं। यही सभी देवोही अमुकी मृत्युका कारण है। | युद्धभूमिमें हमारे सभी कुल इसीके चक्रमें प्रविष्ट हो गये हैं।यह युद्धोंमें देवताओंके हितके लिये प्राणोंको बाजी लगा देता है और शत्रुओंपर सूर्यके समान तेजस्वी चक्रका प्रयोग करता है। यह दैत्योंके कालरूपसे यहाँ स्थित है, किंतु अब यह केशव अपने बीते हुए कालका फल भोगेगा। सौभाग्यवश यह विष्णु इस समय मेरे ही समक्ष आ गया है। यह आज मेरी भुजाओंसे पिसकर मुझसे ही प्रेम करेगा। सौभाग्यकी बात है कि आज मैं रणभूमिमें दानवोंको भयभीत करनेवाले इस नारायणका वध कर पूर्वजोंके प्रायश्चित्तको पूर्ण कर दूंगा। तत्पश्चात् रणमें शीघ्र ही देवताओंका संहार कर डालूँगा । यह अन्य जातियोंमें भी उत्पन्न होकर समरमें दानवोंको कष्ट पहुँचाता है। यही पूर्वकालमें अनन्त होकर पुनः पद्मनाभ नामसे विख्यात हुआ। इसने ही भयंकर एकार्णवके जलमें मधु-कैटभ नामक दोनों दैत्योंका वध किया था। इसने | अपने शरीरको आधा सिंह और आधा मनुष्य— इस प्रकार दो भागों में विभक्त करके पूर्वकालमें मेरे पिता हिरण्यकशिपुको मौत के घाट उतारा था। देवताओंकी जननी अदितिने इसीको अपने मङ्गलमय गर्भमें धारण किया था। अकेले इसीने तीन पगोंसे नापते हुए त्रिलोकीका उद्धार किया था। इस समय यह पुनः तारकामय संग्रामके प्राप्त होनेपर उपस्थित हुआ है। यह मेरे साथ उलझकर सभी देवताओं सहित नष्ट हो जायगा।' ऐसा कहकर उसने रणके मैदानमें प्रतिकूल वचनोंद्वारा अनेकों प्रकारसे नारायणपर आक्षेप करते हुए युद्धके लिये ही अभिलाषा व्यक्त की ।। 11-22 ॥ भगवान् गदाधरमें क्षमाका महान् बल है, जिसके कारण असुरेन्द्रद्वारा इस प्रकार आक्षेप किये जानेपर भी वे कुपित नहीं हुए, अपितु मुसकराते हुए इस प्रकार बोले- 'दैत्य! दर्पका बल अल्पकालस्थायी होता है, किंतु क्षमाजनित बल स्थिर होता है। तुम क्षमाका परित्याग करके जो इस प्रकारकी उटपटांग बातें बक रहे हो, इससे प्रतीत होता है कि तुम अपने दर्पजन्य दोषोंसे नष्ट हो चुके हो मेरी समझसे तो तुम बड़े अधीर दीख रहे हो। तुम्हारे इस वाग्बलको धिक्कार है; क्योंकि ऐसी गर्जना तो जहाँ पुरुष नहीं होते, वहाँ स्विप भी करती हैं। दैत्य मैं तुम्हें भी पूर्वजोंके मार्गका अनुगामी ही देख रहा हूँ। भला ब्रह्मद्वारा स्थापित की गयी मर्यादाओंको तोड़करकौन कुशलपूर्वक जीवित रह सकता है। अतः देवताओंके कार्योंमें बाधा पहुँचानेवाले तुम्हें मैं आज ही नष्ट कर डालूंगा और देवताओंको पुनः अपने-अपने स्थानोंपर स्थापित कर दूंगा।' ॥ 23 – 27 ॥
रणभूमिमें श्रीवत्सधारी भगवान् के इस प्रकार कहने पर दानवराज कालनेमि ठहाका मारकर हँस पड़ा और फिर उसने क्रोधवश हाथोंमें हथियार धारण कर लिया। क्रोधके कारण उसके नेत्र दुगुने लाल हो गये थे। उसने रणभूमिमें सभी प्रकारके अत्रोंको धारण करनेवाली अपनी सैकड़ों भुजाओंको उठाकर भगवान् विष्णुके वक्षःस्थलपर प्रहार किया। इसी प्रकार मय, तारक आदि अन्यान्य दानव भी खङ्ग आदि आयुध लेकर युद्धस्थलमें भगवान् विष्णुपर टूट पड़े। यद्यपि सभी प्रकारके अस्त्रोंसे युक्त अत्यन्त बली दैत्य उनपर प्रहार कर रहे थे, तथापि वे विचलित नहीं हुए, अपितु युद्धभूमिमें पर्वतकी तरह अटल बने रहे। तब महान् असुर कालनेमि गरुडके साथ उलझ गया। उसने अपनी विशाल गदाको हाथोंमें धारण कर ली और क्रोधमें भरकर पूरी शक्तिके साथ उस चमकती हुई भयंकर गदाको गरुडके ऊपर छोड़ दिया। इस प्रकार उसके द्वारा फेंकी गयी वह गदा जब गरुडके मस्तकपर जा गिरी, तब दैत्यके उस कर्मसे भगवान् विष्णु आश्चर्यचकित हो उठे। फिर गरुडको पीड़ित तथा अपने शरीरको क्षत-विक्षत देखकर उनके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये। तब उन्होंने चक्र हाथमें उठाया। फिर तो वे सर्वव्यापी विष्णु गरुडके साथ वेगपूर्वक आगे बढ़े। उनकी भुजाएँ दसों दिशाओंमें व्याप्त होकर बढ़ने लगीं। इस प्रकार भगवान् केशवने प्रदिशाओं, आकाशमण्डल और भूतलको आच्छादित कर लिया ।। 28-36 ॥
पुनः वे अपने तेजसे लोकोंका अतिक्रमण करते हुए-से बढ़ने लगे। जिस समय वे आकाशमण्डलमें असुरेन्द्रोंको भयभीत करनेके लिये बढ़ रहे थे, उस समय ऋषिगण और गन्धर्व भगवान् मधुसूदनकी स्तुति कर रहे थे। वे अपने किरीटसे ऊपरी सभी लोकोंको तथा क्लॉसे मेवासहित आकाशको छूते हुए पैरोंसे पृथ्वीको आक्रान्त करके और भुजाओंसे दिशाओंको आच्छादित करके स्थित थे। उनके चक्रकी कान्ति सूर्यकी किरणोंकी सो उद्दीप्त थी। उसमें हजारों अरे लगे थे। वह शत्रुओंकाविनाशक था। वह प्रज्वलित अग्निकी तरह भयंकर होनेपर भी देखनेमें परम सुन्दर था। सुवर्णकी रेणुकासे धूसरित, वज्रकी नाभिसे युक्त और अत्यन्त भयानक था वह दानवोंके शरीरसे निकले हुए मेदा, अस्थि, मज्जा और रुधिरसे चुपड़ा हुआ था। वह अपने ढंगका अकेला ही अस्त्र था। उसके चारों ओर क्षुरे लगे हुए थे। वह माला और हारसे विभूषित था। वह अभीप्सित स्थानपर जानेवाला तथा स्वेच्छानुकूल रूप धारण करनेवाला था। स्वयं ब्रह्माने उसकी रचना की थी। वह सम्पूर्ण शत्रुओंके लिये भयदायक था तथा महर्षिके क्रोधसे परिपूर्ण और नित्य युद्धमें गवला बना रहता था। उसका प्रयोग करनेसे स्थावर-जङ्गमसहित सभी प्राणी मोहित हो जाते हैं तथा महासमरमें मांसभोजी जीव तृप्तिको प्राप्त होते हैं। वह अनुपम कर्म करनेवाला, भयंकर और सूर्यके समान तेजस्वी था ॥ 37-44 ॥
क्रोधसे उद्दीप्त हुए भगवान् गदाधरने समरभूमिमें उस चक्रको उठाकर अपने तेजसे दानवके तेजको नष्ट कर दिया और फिर उन श्रीधरने चक्रद्वारा कालनेमिकी भुजाओंको काट डाला। तत्पश्चात् श्रीहरिने उस दैत्यके सौ मुखोंको, जो भयंकर, अग्निके समान तेजस्वी और अट्टहास कर रहे थे, बलपूर्वक चक्रके प्रहारसे काट डाला। इस प्रकार भुजाओं और सिरोंके कट जानेपर भी वह दानव विचलित नहीं हुआ, अपितु युद्धभूमिमें शाखाओंसे हीन वृक्षकी तरह कबन्धरूपसे स्थित रहा। तब गरुडने अपने विशाल पंखोंको फैलाकर और वायुके समान वेग भरकर अपनी छाती के धकेसे कालनेमिके कवन्धको धराशायी कर दिया। मुखों और भुजाओंसे हीन उसका वह शरीर चक्कर काटता हुआ स्वर्गलोकको छोड़कर भूतलको क्षुब्ध करता हुआ नीचे गिर पड़ा। उस दैत्यके गिर जानेपर ऋषियोंसहित देवगणोंने उस समय संगठित होकर भगवान् विष्णुको साधुवाद देते हुए उनकी पूजा की। दूसरे दैत्यगण, जो युद्धमें भगवान्के पराक्रमको देख चुके थे, वे सभी भगवान्की भुजाओंके वशीभूत हो रणभूमिमें चलने फिरनेमें भी असमर्थ थे। भगवान् किन्हींको केश पकड़कर | पटक दिया तो किन्होंको गला घोंटकर मार डाला।किसीका मुख फाड़ दिया तो दूसरेकी कमर तोड़ दी। इस प्रकार वे सभी गदाकी चोट और चक्रसे जल चुके थे, उनके पराक्रम नष्ट हो गये थे और शरीरके सभी अङ्ग चूर-चूर हो गये थे। वे प्राणरहित होकर आकाशसे भूतलपर गिर पड़े। इस प्रकार उन सभी दैत्योंके मारे जानेपर पुरुषोत्तम भगवान् गदाधर इन्द्रका प्रिय कार्य करके कृतार्थ हो शान्तिपूर्वक स्थित हुए |॥45-543 ॥
तदनन्तर उस भयानक तारकामय संग्रामके निवृत्त होनेपर लोकपितामह ब्रह्मा तुरंत ही उस स्थानपर आये । उस समय उनके साथ सभी ब्रह्मर्षि थे तथा गन्धर्वो एवं अप्सराओंका समुदाय भी था। तब देवाधिदेव ब्रह्माने भगवान् श्रीहरिका आदर करते हुए इस प्रकार कहा- 'देव! आपने बहुत बड़ा काम किया है। आपने तो देवताओंका काँटा ही उखाड़ दिया। दैत्योंके इस संहारसे हमलोग परम संतुष्ट हैं। विष्णो! आपने जो इस महान् असुर कालनेमिका वध किया है, यह आपके ही योग्य है; क्योंकि एकमात्र आप ही रणभूमिमें इसके वधकर्ता हैं, दूसरा कोई नहीं है। यह दानव देवताओं और असुरोंसहित समस्त लोकों और देवताओंको तिरस्कृत करते हुए ऋषियोंका संहार कर मेरे पास भी आकर गर्जता था। इसलिये जो यह कालके समान भयंकर कालनेमि मारा गया, आपके इस श्रेष्ठ कर्मसे मैं भलीभांति संतुष्ट हूँ। अतः आपका कल्याण हो, आइये, अब हमलोग उत्तम स्वर्गलोकमें चलें। वहाँ सभामें बैठे हुए ब्रह्मर्षिगण आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। वरदानियोंमें श्रेष्ठ भगवन्! आप तो स्वयं ही देवताओं और दैत्योंके लिये श्रेष्ठ वरदायक हैं। ऐसी दशामें मैं आपको कौन-सा वर प्रदान करूँ? विष्णो! त्रिलोकीका यह समृद्धिशाली राज्य अब कण्टकरहित हो गया है, इसे आप इसी युद्धस्थलमें महात्मा इन्द्रको समर्पित कर दीजिये।' भगवान् ब्रह्माद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर अविनाशी श्रीहरि इन्द्र आदि सभी देवताओंसे मधुर वाणीमें बोले ॥ 55-64 ।।
भगवान् विष्णुने कहा- यहाँ आये हुए जितने देवता है, वे सभी इन्द्रको आगे करके सावधानीपूर्वक कान लगाकर मेरी बात सुनें। इस समरमें हमलोगोंने कालनेमि आदि सभी महान् पराक्रमी दानवोंको, जो इन्द्रसे भी बढ़कर बलशाली थे, मार डाला है; किंतु इस महान् संग्राममें दैत्येन्द्र विरोचन | और महान् ग्रह राहु-ये दोनों दैत्य भाग निकले हैं।अब इन्द्र अपनी पूर्व दिशाकी रक्षा करें तथा वरुण पश्चिम दिशाको, यम दक्षिण दिशाका और कुबेर उत्तर दिशाका पालन करें। चन्द्रमा नक्षत्रोंके साथ पूर्ववत् अपने स्थानको चले जायें। सूर्य अवनोंके साथ ऋतुकालानुसार वर्षका उपभोग करें। यज्ञोंमें सदस्योंद्वारा अभिपूजित हो देवगण आज्यभाग ग्रहण करें। ब्राह्मणलोग वेदविहित कर्मानुसार अग्निमें आहुतियाँ डालें। देवगण अग्निहोत्रसे, महर्षिगण स्वाध्यायसे और पितृगण श्राद्धसे सुखपूर्वक तृप्तिलाभ करें। वायु अपने मार्गसे प्रवाहित हों। अग्नि अपने गुणोंसे तीनों वर्णों और तीनों लोकोंको तृप्त करते हुए तीन भागोंमें विभक्त होकर प्रकाशित हों । ll 65-72 ॥
दीक्षित ब्राह्मणोंद्वारा यज्ञानुष्ठान प्रारम्भ हों। याज्ञिक ब्राह्मणोंको पृथक्-पृथक् दक्षिणाएँ दी जायें। सूर्य पृथ्वीको, चन्द्रमा रसोंको और वायु प्राणियोंमें स्थित प्राणोंको तृप्त करते हुए सभी अपने-अपने कर्ममें प्रवृत्त हों। महेन्द्र और मलय पर्वतसे निकलनेवाली त्रिलोकीकी मातास्वरूप सभी नदियाँ आनुपूर्वी पूर्ववत् समुद्रमें प्रविष्ट हों। देवगण! आपलोग दैत्योंसे प्राप्त होनेवाले भयको छोड़ दें और शान्ति धारण करें आपलोगोंका कल्याण हो । अब मैं सनातन ब्रह्मलोकको जा रहा हूँ। आपलोगोंको अपने घरमें अथवा स्वर्गलोकमें अथवा विशेषकर संग्राममें दैत्योंका विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि दानव सदा क्षुद्र प्रकृतिवाले होते हैं। वे छिद्र पाकर तुरंत प्रहार कर बैठते हैं। उनकी स्थिति कभी निश्चित नहीं रहती। इधर सौम्य एवं कोमल स्वभाववाले आपलोगोंका आर्जव ही धन है। महायशस्वी एवं सत्यपराक्रमी भगवान् विष्णु देवगणोंसे ऐसा कहकर ब्रह्माके साथ अपने लोकको चले गये। राजन्! दानवों और भगवान् विष्णुके मध्य घटित हुए तारकामय संग्राममें यही आश्चर्य हुआ था, जिसके विषयमें तुमने मुझसे प्रश्न किया था । ll 73-80 ॥