सूतजी कहते हैं— 'ऋषियो आगे बढ़नेपर पार्वतीने
शृङ्गारसे विभूषित कुसुमामोदिनी (देवी) को आते देखा,
जो पार्वतीकी माता मेनाकी सखी और पर्वतराजको प्रधान देवता थीं। उधर पार्वतीको देखकर कुसुमामोदिनीका भी मन स्नेहसे व्याकुल हो उठा। तब उन देवताने पार्वतीका आलिङ्गन कर उच्चस्वरसे पूछा- 'बेटी! कहाँ जा रहीहो ?" तत्पश्चात् गिरिजाने उन देवीसे शंकरजीके प्रति उत्पन्न हुए अपने क्रोधके सारे कारणोंका वर्णन किया और फिर मातृ-तुल्य हितैषिणी देवतासे इस प्रकार कहा ॥ 13॥ उमा बोलीं- 'अनिन्दिते! आप मेरे पिता पर्वतराज हिमाचलकी देवता हैं, अतः आपका यहाँ नित्य निवास है। साथ ही मुझपर भी आपका अत्यन्त स्नेह है, इसलिये इस समय जो कार्य करना है उसे मैं आपके ध्यानमें ला रही हूँ। आपको इस पर्वतपर सावधान जिससे निरन्तर प्रयत्नपूर्वक ऐसी देखभाल करनी चाहिये कि यहाँ शिवजीके पास एकान्तमें कोई अन्य स्त्री प्रवेश न करने पाये। अनघे! यदि कोई स्त्री शंकरजीके पास प्रवेश करती है तो आपको मुझे तुरंत उसकी सूचना देनी चाहिये। उसके बाद जो कुछ करना होगा, उसका विधान में कर लूँगी। ऐसा कहे जानेपर वे 'तथेति' ऐसा ही करूंगी' यों कहकर अपने मङ्गलमय पर्वतकी ओर चली गयीं। इधर गिरिराजकुमारी उमा भी तुरंत ही मेघसमूहमें चमकती हुई बिजलीकी तरह आकाशमार्ग से अपने पिताके उद्यानमें जा पहुँची। वहाँ उन्होंने आभूषणोंका परित्याग कर वृक्षोंका वल्कल धारण कर लिया। वे ग्रीष्म ऋतुमें पञ्चाग्नि तपती थीं, वर्षा ऋतुमें जलमें निवास करती थीं और जामें शुष्क बंजर भूमिपर शयन करती थीं। वनके फल मूल ही उनके आहार थे तथा वे कभी कभी निराहार ही रह जाती थीं। इस प्रकार साधना करती हुई वे वहाँ तपस्यामें संलग्न हो गयीं ॥4- 10 ॥
इसी बीच अन्धकासुरका पुत्र एवं बकासुरका भ्राता आडि नामक दैत्य जो बलवान्, घमंडी, रणमें दुःसह, देवताओंका शत्रु और निरन्तर शंकरजीके छिद्रान्वेषणमें निरत रहनेवाला था, पार्वतीको तपस्यामें संलग्न जानकर अपने पिताके वधका अनुस्मरण करते हुए युद्धस्थलमें सभी देवताओंको पराजित कर त्रिपुरहन्ता | शंकरजीके नगरमें आ धमका। वहाँ आकर उसने वीरकको द्वारपर स्थित देखा। तब वह पूर्वकालमें ब्रह्माद्वारा दिये गये अपने वरदानके विषयमें सोच-विचार करने लगा। | शंकरजीद्वारा देवद्रोही अन्धक दैत्यके मारे जानेपर आडिने बहुत दिनोंतक परम कठोर तप किया था तब उसकी तपस्यासे संतुष्ट हो ब्रह्माने उसके निकट आकर कहा था-'दानवश्रेष्ठ आडि! तुम तपस्याद्वारा क्या प्राप्त करना चाहते हो?" तब उस दायने ब्रह्मासे कहा था- 'प्रभो! मैं अमरताका वरदान चाहता हूँ' ॥ 11-16 ॥तब ब्रह्माने कहा था- 'दानव! इस सृष्टिमें कोई भी मनुष्य मृत्युसे रहित नहीं है। दैत्येन्द्र शरीरधारीको किसी-न-किसी प्रकारसे मृत्यु प्राप्त होती ही है। ऐसा कहे जानेपर दैत्यसिंह आडिने पद्मयोनि ब्रह्मासे कहा था-'पद्मसम्भव! जब मेरे रूपका परिवर्तन हो जाय तभी मेरी मृत्यु हो, अन्यथा मैं अमर बना रहूँ।' उसके द्वारा ऐसा कहे जानेपर उस समय कमलयोनि ब्रह्माने प्रसन्न होकर उससे कहा था कि 'ठीक है, जब तुम्हारे रूपका दूसरा परिवर्तन होगा, तभी तुम्हारी मृत्यु होगी, अन्यथा नहीं होगी।' ब्रह्माद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर वह महाबली दैत्यपुत्र आदि अपनेको अमर मानने लगा। उस समय उसने अपनी मृत्युके उस उपायका स्मरणकर वीरकके दृष्टिमार्गको बचानेके लिये सर्पका रूप धारण कर लिया और एक बिलमें प्रविष्ट हो गया। फिर वह परम दुर्जय दानव गणेश्वर वीरकके दृष्टिपथको बचाकर उनसे अलक्षितरूपसे भगवान् शंकरके पास पहुँच गया। तदनन्तर उस मोहित चित्तवाले महासुर आडिने शंकरजीको छलनेके लिये सर्पका रूप त्यागकर उमाका रूप धारण कर लिया। उसने मायाका आश्रय लेकर पार्वतीके ऐसे अकल्पनीय एवं मनोहर रूपका निर्माण किया था, जो सभी अवयवोंसे परिपूर्ण तथा सभी लक्षणोंसे युक्त था। फिर वह दैत्य मुखके भीतर वज्रके समान सुदृढ़ और तीखे अग्रभागवाले दाँतोंका निर्माण कर मूर्खतावश | शंकरजीका वध करनेके लिये उद्यत हुआ । 17 – 26 तदनन्तर वह पापी दैत्य सुन्दर रूप एवं चित्र विचित्र आभूषणों और वस्त्रोंसे विभूषित हो उमाका रूप धारण कर शंकरजीके निकट गया। उसे देखकर भगवान् शंकर प्रसन्न हो गये। तब उन्होंने उस महासुरको सभी अङ्ग-प्रत्यङ्गोंसे पार्वती मानते हुए उसका आलिङ्गन करके पूछा-'गिरिजे! अब तो मेरे प्रति तुम्हारा भाव उत्तम है न? बनावटी तो नहीं है? सुन्दरि ! (ऐसा प्रतीत होता है कि) तुम मेरे अभिप्रायको जानकर ही यहाँ आयी हो क्योंकि तुम्हारे बिना मैं त्रिलोकीको सूना-सा मान रहा था। अब जो तुम प्रसन्नतापूर्वक यहाँ आ गयी हो, तुम्हारे लिये ऐसा करना उचित ही है।इस प्रकार कहे जानेपर दानवेन्द्र आडि मुसकराते हुए धीरे-धीरे बोला वह त्रिपुरहन्ता शंकरजीद्वारा पार्वतीके शरीरमें लक्षित किये गये चिह्नको प्रायः नहीं जानता था ।। 27-31 ll
देवी (रूपधारी आडि) ने कहा- 'पतिदेव आपके अतुलनीय पति प्रेमको प्राप्तिके अभिप्रायसे मैं तपस्या करने गयी थी, किंतु उसमें मेरा मन नहीं लगा, अतः पुनः आपके निकट लौट आयी हूँ उसके ऐसा कहनेपर शंकरजीके मनमें कुछ शङ्का उत्पन्न हो गयी, परंतु उसे उन्होंने हृदयमें ही समाधान करके छिपा लिया। फिर वे मुसकराते हुए बोले- 'सूक्ष्माङ्गि तुम तो मुझपर कुपित होकर तपस्या करने गयी थी न ? साथ ही तुम स्वभावसे ही सुदृढ़ प्रतिज्ञावाली हो, फिर बिना मनोरथ सिद्ध किये लौट आयी हो, यह क्या बात है ? इससे तो मुझे संदेह हो रहा है। ऐसा विचारकर शंकरजी पार्वतीके उस लक्षणका स्मरण करने लगे, जिसे उन्होंने पार्वतीके शरीरके बायें भागमें बालोंको घुमाकर पद्मके रूपमें बनाया था, परंतु वह उन्हें दिखायी न पड़ा। तब पिनाकधारी महादेवने समझ लिया कि यह दानवी माया है। फिर तो उन्होंने अपने आकारको छिपाते हुए जननेन्द्रियमें वास्को अभिमन्त्रित करके उस दैत्यको मार डाला। इस प्रकार मारे गये दानवेन्द्र आडिकी बात वीरकको नहीं ज्ञात हुई। उधर इसके यथार्थ तत्त्वको न जाननेवाली हिमाचलकी देवता कुसुमामोदिनीने शंकरजीद्वारा स्त्रीरूपधारी दानवेश्वरको मारा गया देखकर अपने शीघ्रगामी दूत वायुद्वारा पार्वतीको इसकी सूचना भेज दी। वायुके मुखसे वह संदेश सुनकर पार्वती देवीके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये। तब वे दुःखी हृदयसे | अपने पुत्र वीरकको शाप देते हुए बोलीं ॥ 32- 39 ॥