मनुजीने पूछा-निष्पाप परमात्मन्! कृष्ण मृगचर्म प्रदान करनेकी विधि, उसका समय तथा कैसे ब्राह्मणको दान देना चाहिये इसका विधान मुझे बताइये। इस विषयमें मुझे महान् संदेह है ॥ 1 ॥
मत्स्यभगवान् बोले- राजन् वैशाख पूर्णिमाको चन्द्रमा एवं सूर्यके ग्रहणके अवसरपर माथ, आषाढ़ तथा कार्तिककी पूर्णिमा तिथिमें, सूर्यके उत्तरायण रहनेपर तथा द्वादशी तिथिमें (कृष्णमृगचर्मक) दानका महाफल कहा गया है। जो ब्राह्मण नित्य अग्न्याधान करनेवाला हो उसीको वह दान देना चाहिये। अब जिस प्रकार और जिस विधानसे वह दान देना चाहिये, उसे मैं बतला रहा हूँ, सुनिये। नरेश्वर। पवित्र स्थानपर गोवरसे लिपी हुई पृथ्वीपर सर्वप्रथम सुन्दर ऊनी वस्त्र बिछाकर फिर खुर और सींगोंसे युक्त उस कृष्णमृगचर्मको बिछा दे उस मृगचर्मके सींगोंको सुवर्णसे, दाँतोंको चाँदीसे, पूँछको मोतियोंसे अलङ्कृत कर उसे तिलोंसे आवृत कर दे। बुद्धिमान् पुरुष उस मृगधर्मको तिलोंसे पूरित कर वखसे ढक दे। उसकी सुवर्णमय नाभि बनाकर उसे अपनी शक्तिके अनुकूल रत्नों तथा सुगन्धित पदार्थोंसे विशेषरूपसे अलत कर दे। फिर क्रमानुसार काँसेके बने हुए चार पात्रोंको उसको चारों दिशाओंमें रखे फिर पूर्व आदि दिशाओंमें क्रमश: चार मिट्टी के पात्रों में भूत, दुग्ध, दही तथा मधु विधिवत् भर दे। तदुपरान्त चम्पकको एक डाल तथा छिद्ररहित एक कलश बाहर पूर्वकी ओर मङ्गलमय भावनासे स्थापित करे ॥ 2 -10 ॥
मार्जनके लिये एक सुन्दर महीन पीले वस्त्रका प्रयोग करे तथा धातु निर्मित पात्र उसके दोनों पैरोके पास रख दे। तत्पश्चात् ऐसा कहे कि 'मैंने लोभमें पड़कर जिन-जिन पापोंको किया है, वे लौहमय पात्रादिका दान करनेसे शीघ्र ही नष्ट हो जायें।'फिर काँसेके पात्रको तिलोंसे भरकर बायें पैर के पास रखे और कहे कि 'मैंने प्रसङ्गवश जिन-जिन पापका आचरण किया है, मेरे वे सभी पाप इस कांस्य पात्र के दानसे सदाके लिये नष्ट हो जायें। फिर ताम्र पात्रमें भरकर दाहिने पैर के पास रखे और कहे कि 'दूसरेको निन्दा या चुगली करने अथवा किसी अवैध मांगका भक्षण करनेसे उत्पन्न हुआ मेरा पाप इस ताम्र-पात्रका दान करनेसे नष्ट हो जाय।' 'कन्या और गौके लिये मिथ्या कहनेसे तथा परकीय स्त्रीका स्पर्श करनेसे जो पाप उत्पन्न हुआ हो, मेरा वह पाप चाँदीके पात्रदानसे शीघ्र ही नष्ट हो जाय।' चाँदी तथा ताँबेके बने हुए पात्रोंको पैरके ऊपरी भागमें रखना चाहिये। 'जनार्दन। मैंने अपनी दुष्ट बुद्धिके द्वारा हजारों जन्मोंमें जो पाप किया है उसे आप सुवर्णपात्रके दानसे शीघ्र ही नष्ट कर दें।' यह मन्त्र सुवर्णपात्र दान करते समय कहे। उस समय सुवर्ण, मोती, मूंगा, अनार और बिजीरा नौबूको अच्छे पात्रमें रखकर उस मृगचर्मके कान, खुर और सींगपर स्थापित कर दे। यथोक्त विधिके अनुसार ऐसा करके सभी प्रकारके शक- फ्लोंको भी रख दे। महीपते। तत्पश्चात् जो ब्राह्मणश्रेष्ठ प्रतिग्रहकी विधिका ज्ञाता, विद्वान् और अग्न्याधान करनेवाला हो तथा स्नानके पश्चात् दो सुन्दर वस्त्रको धारणकर अपनी शक्तिके अनुसार अलंकृत भी हो, ऐसे ब्राह्मणको उस मृगचर्मके पुच्छदेशमें दान देनेका विधान है। उस समय उसके समीप इस मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये। जो 'कृष्णाजिनेति0 - इस मन्त्रका उच्चारण कर कृष्णमृगचर्म, सुवर्ण, मधु और घृतं ब्राह्मणको दान करता है, वह सभी दुष्कर्मोसे छूट जाता है 11-22 ॥ जो मनुष्य खुर तथा सींगसहित कृष्णमृगचर्मको तिलोंसे ढककर एवं सभी प्रकारके वस्त्रोंसे अलङ्कृत कर विशेषखायुक्त शासकी पूर्णिमा तिथिको दान करता है, उसने निःसंदेह समुद्रों, गुफाओं, पर्वतों एवं जंगलोंसमेत सातों द्वीपोंसे युक्त पृथ्वीका दान कर दिया। कृष्णाजिन तुम कृष्णस्वरूपधारी देवता हो, तुम्हें नमस्कार है। सुनंदान तथा तुम्हारे दानसे जिसके समस्त पाप नष्ट हो गये हैं, ऐसे मुझपर तुम प्रसन्न हो जाओ। कृष्णाजिन! तुम तैंतीस देवताओंके आधार स्वरूप निश्चित किये गये हो और साक्षात् मूर्तिमान् श्रीकृष्ण हो, तुम्हें प्रणाम है। पुनः वृषभध्वज शंकर मुझपर प्रसन्न हो जायें- इस भावनासे सुवर्णयुक्त नाभिवाले मृगचर्मका दानकरना चाहिये। जो श्यामवर्ण, कृष्णकण्ठ तथा कृष्णचर्म धारण करनेवाले देवता हैं, आपके दानसे पापशून्य हुए मुझपर वे शंकर प्रसन्न हों। राजन्! उपर्युक्त विधिसे कृष्णमृगचर्मका दान देनेके पश्चात् उस प्रतिगृहीता ब्रह्मणका स्पर्श नहीं करना चाहिये; क्योंकि वह (श्मशानस्था अस्पृश्या) चिताके खूंटेके समान हो जाता है। उसका श्राद्ध और दानके समय दूरसे ही परित्याग कर देना चाहिये। उस ब्राह्मणको अपने घरसे विदाकर फिर मङ्गलस्नान करनेका विधान है । ll 23-30 ॥
राजेन्द्र ! तत्पश्चात् आचार्य चम्पककी शाखासे युक्त जलपूर्ण कलशके जलसे दाताके मस्तकपर 'आप्यायस्व समुद्रज्येष्ठा0' आदि सोलह ऋचाओंसे अभिषेचन करे, तब वह दो बिना फटे वस्त्रोंको पहनकर आचमन करके पवित्र होता है। पुनः उस वस्त्रको कलशमें डालकर उसे चौराहेपर फेंक दे। इसके बाद देवताओंकी प्रदक्षिणा कर मण्डपमें प्रवेश करे। तदनन्तर ब्राह्मण उस | पीत वस्त्रधारी सपत्नीक यजमानका मार्जन करे। यदि यजमान मुक्तिकी इच्छा रखता हो तो ब्राह्मणसम्बन्धी घटसे उसका मार्जन करे। राजन्! यदि यजमान लक्ष्मीका अभिलाषी हो तो विष्णुसम्बन्धी कलशके जलसे उसका मार्जन करे। यदि राज्यकी कामना हो तो इन्द्रसम्बन्धी कलशके जलसे यजमानके मस्तकपर अभिषेक करे। द्रव्य और प्रतापकी कामना करनेवाले यजमानका अग्निसम्बन्धी कलशके जलसे सिंचन करे। मृत्युपर विजय पानेके विधानके लिये यमसम्बन्धी कलशके जलसे अभिषेक करे। तत्पश्चात् यजमानको तिलक लगाये। दाता ब्राह्मणोंको दक्षिणा देकर कृष्णमृगचर्म दानकी सिद्धिके लिये उनसे विशेष रूपसे आशीर्वाद ग्रहण करे ।। 31-37 ॥
नृपतिश्रेष्ठ इसके करनेसे जो तुष्टि प्राप्त होती है, उसका वर्णन करनेकी शक्ति यद्यपि देवताओंमें भी नहीं है तथापि मैं संक्षेपमें बतला रहा हूँ, सुनिये। वह दाता निश्चय ही समग्र पृथ्वीके दानका फल प्राप्त करता है, सभी लोकोंको जीत लेता है, पक्षीके समान सर्वत्र स्वेच्छानुसार विचरण करता है, महाप्रलयकालपर्यन्त निःसंदेह स्वर्गलोक में स्थित रहता है, । पिता पुत्रकी मृत्यु और पत्नीके वियोगको नहीं देखता।उसे मर्त्यलोकमें कहीं भी धन और देशके परित्यागका अवसर नहीं प्राप्त होता । जो मनुष्य समाहितचित्त हो कुलीन ब्राह्मणको श्रीकृष्णकी प्रिय वस्तु कृष्ण मृगचर्मका दान करता है वह कभी मृत्युकी चिन्तासे शोकग्रस्त नहीं होता और अपने मनके अनुकूल सभी फलोंको प्राप्त कर लेता है ॥ 38-41 ॥