सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! उस आश्रमकी उत्तर दिशामें हिमालय पर्वतके पृष्ठ भागके मध्यमें कैलास नामक पर्वत स्थित है। उसपर त्रिपुरासुरके संहारक | शंकरजी निवास करते हैं। उसके शिखर नाना प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित हैं तथा उनपर कल्पवृक्ष शोभा पा रहे हैं उस पर्वतपर श्रीमान् कुबेर गुझकोंके साथ निवास करते हैं। इस प्रकार अलकापुरीके अधीश्वर राजा कुबेर अप्सराओंद्वारा अनुगमन किये जाते हुए आनन्दका अनुभव करते हैं। कैलासके पाद (उपत्यका) से एक मन्दोदक नामक सरोवर प्रकट हुआ है, जिसका जल बड़ा पवित्र, निर्मल एवं शीतल है। उसका जल दहीके समान उज्ज्वल है उसी सरोवरसे मङ्गलमयी दिव्य मन्दाकिनी नदी प्रवाहित होती है। वहीं उस नदी तटपर नन्दन नामक दिव्य एवं महान् वन है कैलासकी पूर्वोत्तर दिशामें चन्द्रप्रभ नामक पर्वत है, जो रत्न सदृश चमकदार है। वह सभी प्रकारको धातुओंसे विभूषित तथा अनेकों प्रकारको सुगन्धसे सुवासित दिव्य सुबेल पर्वततक फैला हुआ है। उसके निकट अच्छोद (अच्छावत) नामसे विख्यात एक दिव्य सरोवर है, उससे अच्छोदिका (अच्छोदा) नामकी कल्याणमयी दिव्य नदी उद्भूत हुई है। उस नदीके तटपर चैत्ररथ नामक दिव्य एवं सुन्दर महान् वन है। उस पर्वतपर | शूरवीर यक्ष-सेनापति मणिभद्र गुहाकोंसे घिरे हुए अपने अनुयायियोंके साथ निवास करते हैं। पुण्यमयी मन्दाकिनी तथा कल्याणकारिणी अच्छोदा- ये दोनों नदियाँ पृथ्वी मण्डलके मध्यभागसे प्रवाहित होती हुई महासागरमें मिली है। ll 1960 ll
कैलासके दक्षिण-पूर्व दिशामें लाल वर्णवाला हेमशृङ्ग | नामक एक विशाल पर्वत है। वह दिव्य सुवेल पर्वततकफैला हुआ है। उसको कान्ति सूर्यके समान है। वह मङ्गलप्रद पर्वत सभी प्रकारकी ओषधियोंसे सम्पन्न तथा मैनशिल नामक धातुसे परिपूर्ण है। उसके पाद प्रान्तमें एक विशाल दिव्य सरोवर है, जिसका नाम लोहित है। वह पुण्यमय लौहित्य (ब्रह्मपुत्र) नामक महान् नदका उद्गमस्थान है। उस नदके तटपर विशोक नामक एक दिव्य एवं विस्तृत वन है। उस पर्वतपर मणिधर नामक यक्ष इन्द्रियोंको वशमें करके परम धार्मिक एवं सौम्य स्वभाववाले गुह्यकोंके साथ निवास करता है। कैलासकी पश्चिमोत्तर दिशामें ककुद्मान् नामक पर्वत है, जिसपर सभी प्रकारकी ओषधियाँ सुलभ हैं। वह अञ्जन- जैसा काला तथा तीन शिखरोंसे सुशोभित है। उस ककुद्मान् पर्वतपर भगवान् रुद्रके गण ककुदमी (नन्दिकेश्वर) की उत्पत्ति हुई है। वहीं समस्त धातुओंसे सम्पन्न वैद्युत नामक अत्यन्त महान् पर्वत है, जो त्रिककुद् पर्वतक विस्तृत है। उसके पाद प्रान्तमें सिद्धोंद्वारा सेवित एक महान् दिव्य मानस सरोवर है। उस सरोवरसे लोकपावनी पुण्य सलिला सरयू निकली हुई हैं, जिनके तटपर (वरुणका) वैभ्राज नामक सुप्रसिद्ध दिव्य वन है। उस वनमें प्रहेतिका पुत्र ब्रह्मधाता नामक राक्षस निवास करता है। वह जितेन्द्रिय, अनन्तपराक्रमी और कुबेरका अनुचर है ।। 10- 18 ॥
कैलासको पश्चिम दिशामें सम्पूर्ण औषधियोंसे सम्पन्न वरुण नामक दिव्य पर्वत है। वह पर्वतश्रेष्ठ सुवर्ण आदि धातुओंसे विभूषित, भगवान् शंकरका प्रियपार शोभाल स्वर्णसदृश चमकीला और स्वर्णमयी दिव्य शिलाओंसे सम्पन्न है। वह अपने स्वर्णसरीखे चमकदार सैकड़ों शिखरोंसे आकाशको छूता हुआ-सा दीख पड़ता है। वहीं शृङ्गवान् नामका एक महान् दिव्य पर्वत है, जो समृद्धिशाली एवं दुर्गम है। उस पर्वतपर धूम्रलोचन भगवान् शिव निवास करते हैं। उस पर्वतके पाद प्रान्तमें शैलोद नामक सरोवर है। उसीसे मङ्गलमयी पुण्यतोया शैलोदका नामको नदी प्रवाहित होती है उसे चक्षुषी भीकहते हैं। वह उन दोनों पर्वतोंके बीचसे बहती हुई पश्चिम सागरमें जा मिली है। कैलासको उत्तर दिशामें हिरण्यशृङ्ग नामका अत्यन्त विशाल पर्वत है, जो हरितालसे परिपूर्ण पर्वतश्रेष्ठ गौरतक फैला हुआ है। इस कल्याणकारी पर्वतपर दिव्य औषधियाँ प्राप्त होती हैं। इसके पादप्रान्तमें बिन्दुसर नामक अत्यन्त रमणीय दिव्य सरोवर है, जो सुवर्णके समान बालुकासे युक्त है। यहीं पर राजर्षि भगीरथने 'मेरे पूर्वज गङ्गाजलसे हड्डियोंके अभिषिक्त हो जानेपर स्वर्गलोकको चले जायें, इस भावनासे भावित होकर गङ्गाको भूतलपर लानेके लिये बहुत वर्षोंतक (तप करते हुए) निवास किया था। इसलिये त्रिपथगा गङ्गादेवी सर्वप्रथम वहीं प्रतिष्ठित हुई थीं और सोम पर्वतके पादसे निकलकर सात भागों में विभक्त हो गयीं। उस सरोवर के तटपर अनेकों मणिमय यज्ञस्तम्भ तथा स्वर्णमय विमान शोभा पा रहे थे। वहाँ देवताओंके साथ इन्द्रने यज्ञोंका | अनुष्ठान कर सिद्धि लाभ किया था। वहाँ दिव्य छायापथ तथा नक्षत्रोंका मण्डल विद्यमान है। वहाँ त्रिपथगा गङ्गादेवी रातमें चमकती हुई दीख पड़ती हैं । ll 19 - 29 ॥
गङ्गादेवी स्वर्गलोक और अन्तरिक्षलोकको पवित्र कर भूतलपर आर्मी और वे शिवजीके मस्तकपर गिरीं। तब शिवजीने अपनी योगमायाके बलसे उन्हें वहीं रोक दिया। (इससे गङ्गादेवी क्रुद्ध हो गयीं।) उस समय उन कुपित हुई गङ्गादेवीको जो कुछ बूँदें पृथ्वीपर गिरीं, उनसे 'बहुसर' नामक एक सरोवर बन गया, वही आगे चलकर 'बिन्दुसर' नामसे प्रसिद्ध हुआ। उस समय शिवजीके सहसा रोक लिये जानेपर गङ्गादेवी कुड होकर ऐसा विचार करने लगीं कि मैं अपनी धाराके साथ शङ्करको बहाती हुई पृथ्वीको फोड़कर पातालमें प्रवेश कर जाऊँगी। जब शङ्करजीको गङ्गाकी यह कुचेष्टा और क्रूर अभिप्राय ज्ञात हुआ, तब वे उसे गङ्गाका अभिमान समझकर क्रुद्ध हो गये और उस नदी रूपिणी गङ्गाको अपने अङ्गोंमें ही लीन कर लेनेका विचार करने लगे; परंतु ठीक इसी समय राजा भगीरथ, जिनकी इन्द्रियभूखसे व्याकुल हो गयी थीं तथा जिनके शरीर में नसेंमात्र दीख रही थीं, शिवजीके सम्मुख आ गये।उन क्षीणकाय नरेशको देखकर शङ्करजी विचारमें पड़ गये कि इसने तो पहले ही इस नदीको भूतलपर लानेके लिये तपस्याद्वारा मुझे संतुष्ट कर लिया है। फिर अपने द्वारा राजाको दिये गये वरदानको यादकर उन्होंने अपने क्रोधको रोक लिया। तत्पश्चात् गङ्गा नदीको धारण करते समय ब्रह्माद्वारा कहे गये वचनोंको सुनकर तथा भगीरथकी उग्र तपस्यासे प्रसन्न हो भगवान् शङ्करने अपने तेजसे रोकी हुई गङ्गा नदीको छोड़ दिया। इसके बाद गङ्गा सात धाराओं में विभक्त होकर प्रवाहित हुई । ll 30- 38 ॥
त्रिपथगा गङ्गाकी तीन धाराएँ पूर्वाभिमुखी तथा तीन पश्चिमाभिमुखी प्रवाहित हुई (और सातवीं धारा स्वयं भागीरथी गङ्गा थीं)। इस प्रकार वे सात धाराओंमें विभक्त हो गयीं। उनमें पूर्व दिशामें बहनेवाली धाराओंका नाम नलिनी, ह्रादिनी और पावनी है तथा पश्चिम दिशामें प्रवाहित होनेवाली तीनों धाराएँ सीता, चक्षु और सिंधु नामसे कही गयी हैं। उनमें सातवीं धारा भगीरथके पीछे-पीछे दक्षिण दिशाकी ओर चली और दक्षिणसागरमें प्रविष्ट हो गयी, इसी कारण वह भागीरथी नामसे प्रसिद्ध हुई। ये ही सातों धाराएँ हिमवर्षको आप्लावित करती हैं इस प्रकार ये सातों नदियाँ बिन्दुसरसे निकली हुई हैं। ये सब ओरसे उन म्लेच्छप्राय देशोंको सींचती हैं, जो पर्वतीय कुकुर, रौध्र, बर्बर, यवन, खस, पुलिन्द, कुलत्थ, अङ्गालोक्य और वर नामसे कहे जाते हैं। इस प्रकार गङ्गा हिमवान्को दो भागोंमें विभक्त कर दक्षिणसमुद्रमें प्रवेश कर गयी हैं। इसके बाद चक्षु (वंक्षु) नदी वीरमरु, कालिक, शूलिक, तुषार, बर्बर, कार, पहच पारद और शक इन देशोंको आप्लावित कर समुद्रमें मिल गयी है। सिन्धु नदी दरद, उर्जगुड, गान्धार, औरस, कुछ शिवपौर, इन्द्रमरु वसति, सैन्धव, उवंश, वर्ष, कुपथ, भीमरोभक, शुनामुख और उर्दमस्— इन देशोंकी सेवा करती अर्थात् इन देशोंमें बहती है। मङ्गलमयी गङ्गा गन्धर्व, किंनर, यक्ष, राक्षस, विद्याधर, नाग, कलापग्रामवासी जन, किम्पुरुष, किरात, पुलिन्द कुरु भारत, पाञ्चाल, कौशिक मत्स्य (विराट), मगध, अङ्ग,उत्तरसुह्य, वङ्ग और ताम्रलिप्त इन आर्य देशोंको पवित्र करती हैं। इस प्रकार वे (हिमालयसे निकलकर) विन्ध्यपर्वतसे अवरुद्ध होकर पूर्वकी ओर आगे बढ़ती हुई दक्षिणसमुद्रमें मिल गयी हैं ।। 39-51॥
इसी प्रकार पुण्यतोया हादिनी, जो पूर्वाभिमुखी प्रवाहित होती है, उपका, निषाद, धीवर, ऋषिक, नीलमुख, केकर, अनेककर्ण, किरात, कालंजर, विकर्ण, कुशिक और स्वर्गभौमक इन सभी देशोंको सींचती हुई समुद्रमण्डलके तटपर पहुँचकर उसमें लीन हो गयी है। नलिनी नदी भी बिन्दुसरसे निकलकर पूर्व दिशाकी ओर प्रवाहित हुई है। वह कुपथ, इन्द्रद्युम्नसर, खरपथ, वेत्र (ट) द्वीप, शङ्कुपथ आदि प्रदेशोंको सींचती हुई उज्जानक (जूनागढ़) मरुके मध्यभागसे बहती हुई कुथप्रावरणकी ओर चली गयी है। तथा इन्द्रद्वीपके निकट लवणसागरमें मिल गयी है। उसी (मूल) सरोवरसे पावनी नदी बड़े वेगसे पूर्व दिशाको ओर बहती है। वह तोमर, हंसमार्ग और समूहक देशोंको सींचती हुई पूर्वी देशोंमें जा पहुँचती है। वहाँ अनेकों प्रकारसे पर्वतको विदीर्ण करके कर्णप्रावरणमें पहुँचकर अश्वमुख देशमें चली जाती है। इसके बाद मेरु पर्वतको सोंचती हुई विद्याधरोंके लोकोंमें जाकर शैमिमण्डलकोष्ठ नामक महान् सरोवरमें प्रवेश कर जाती है। इनकी छोटी बड़ी सैकड़ों-हजारों सहायक नदियाँ भी हैं, जो पृथक् पृथक् इन्हींमें आकर मिली हैं। इन्हींके जलको ग्रहण कर इन्द्र वर्षा करते हैं ।। 52-60 ॥
वंशौकसाराके तटपर सुरभि नामक वह वन है, जिसमें जितेन्द्रिय एवं विद्वान् हिरण्यशृङ्ग निवास करता है। वह कुबेरका अनुचर, यज्ञसे विमुख, अमित तेजस्वी एवं परम पराक्रमी है। वहीं अगस्त्यगोत्रीय विद्वान् ब्रह्मराक्षसोंका भी निवासस्थान है। (उनकी संख्या चार है।) वे चारों कुबेरके अनुचर हैं, जो उसी हिरण्यशृङ्गके आश्रम में रहते हैं। इसी प्रकार पर्वतनिवासियोंकी सिद्धि समझनी चाहिये।वह धर्म, काम और अर्थके अनुसार परस्पर दुगुना फल देनेवाली होती है। हेमकूट पर्वतके पृष्ठभागपर जो सा सरोवर बतलाया जाता है, उसीसे सरस्वती और ज्योतिष्मती नामकी दो नदियाँ निकली हैं। वे क्रमशः पूर्व और पश्चिम समुद्रमे जाकर मिली हैं पर्वतश्रेष्ठ निषधपर विष्णुपद नामक सरोवर है, जो उसी पर्वतके अग्रभागसे निकला हुआ है। वे दोनों (नाग और विष्णुपद) सरोवर गन्धर्वोके अनुकूल हैं। मेरुके पार्श्वभागसे चन्द्रप्रभ नामक महान् सरोवर तथा पुण्यसलिला जम्बूनदी निकलती है। जम्बूनदीमें जाम्बूनद नामक सुवर्ण पाया जाता है। वहीं पयोद और पुण्डरीकवान् नामक दो सरोवर और हैं, जिनका जल क्रमशः नील और श्वेत है। इन पुण्डरीक और पयोद सरोवरोंसे दो सरोवर और प्रकट हुए हैं। उनमें एक सरोवरसे निकला हुआ सर उत्तरमानस नामसे प्रसिद्ध है। उससे मृग्या और मृगकान्ता नामकी दो नदियाँ निकली हैं। कुरुदेशमें सागरके समान अगाध एवं विस्तृत बारह हद हैं, जो कमलों और मछलियोंसे भरे रहते हैं, वे 'वैजय' नामसे विख्यात है। उनसे शान्ती और मध्वी नामकी दो नदियाँ निकली हैं। किम्पुरुष आदि जो आठ वर्ष हैं, उनमें इन्द्रदेव वर्षा नहीं करते, अपितु वहाँकी बड़ी-बड़ी नदियाँ ही अन्नोत्पादक जलको प्रवाहित करती हैं ॥ 61-71 ॥
बलाहक, ऋषभ, चक्र और मैनाक- ये चारों पर्वत क्रमशः चारों दिशाओंमें लवणसागरतक फैले हुए हैं । चन्द्रकान्त, द्रोण तथा सुमहान् इन पर्वतोंका विस्तार उत्तर दिशामें महासागरतक है। चक्र, बधिरक और नारद ये पर्वत पश्चिम दिशामें फैले हुए हैं। इनका विस्तार महास्वगरतक है। जीमूत द्रावण, मैनाक और चन्द्र महापर्वत दक्षिण दिशामें दक्षिण समुद्रतक विस्तृत है। दक्षिणापथके समुद्र चक्र और मैनक पर्वतके मध्य संवर्तक नामक अनिका निवास है। वह उस सागरके जलको पीता है। समुद्र निवास करनेवाला और्य नामक अनि है, इसेबडवाग्नि कहते हैं। जिसका मुख घोड़ीके समान है। (वह भी समुद्रके जलको सोखता रहता है।) पूर्वकालमें जब इन्द्र पर्वतोंका पक्षच्छेदन कर रहे थे, उस समय ये चारों पर्वत इन्द्रके भयसे भीत होकर लवणसागरमें भागकर छिप गये थे। ये पर्वत चन्द्रमाके शुक्लपक्षमें आनेपर दीखते हैं एवं कृष्णपक्ष आनेपर समुद्रमें डूब जाते हैं। भारतवर्षके जो भेद दीख पड़ते हैं, उनका वर्णन यहाँ किया गया। अन्य वर्षोंका वर्णन अन्यत्र किया जा चुका है। इन वर्षोंमें प्रत्येक वर्ष एक-दूसरेकी अपेक्षा उत्तरोत्तर गुणोंमें अधिक है। इन वर्षोंमें सभी प्राणी विभागपूर्वक आरोग्य और आयुके प्रमाणसे तथा धर्म, काम और अर्थसे युक्त होकर निवास करते हैं। उन सभी वर्षोंमें उन प्राणियोंकी अनेकों जातियाँ भी हैं। इस प्रकार इस विश्व एवं इस | जगत्को धारण करती हुई पृथ्वी स्थित है ॥ 72-82 ॥