सूतजी कहते हैं-ऋषियो! इस प्रकार ओंकारका वर्णन सुननेके पश्चात् राजेन्द्र मनुने उस जलार्णवमें स्थित मत्स्यरूपी देवेश विष्णुसे पुनः (इस प्रकार ) प्रश्न किया ॥ 1 ॥
मनुजीने पूछा- प्रभो! ऋषियोंके नाम, गोत्र, वंश, अवतार तथा प्रवरोंकी समता और विषमता — इन विषयोंका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये। स्वायम्भुव मन्वन्तरमें महादेवजीने ऋषियोंको शाप दिया था, अतः वैवस्वतमन्वन्तरमें उनकी पुनः उत्पत्ति कैसे हुई? यह मुझे बतलाइये। साथ ही दक्ष प्रजापतिकी संतानोंसे उत्पन्न प्रजाओंका ऋषियोंके वंशका तथा भृगुवंशके विस्तारका वर्णन कीजिये ll 2-4 ll
मत्स्यभगवान् बोले- राजन्! अब मैं पूर्वकालमें वैवस्वत मन्वन्तरके प्राप्त होनेपर जो परमेष्ठो ब्रह्मा थे, उनका चरित्र बतला रहा हूँ। महादेवजीके शापसे अपने शरीरका परित्याग कर ऋषिगण महात्मा ब्रह्माद्वारा अग्निसे उत्पन्न हुए। उसी अग्निसे परम तेजस्वी तपोनिधि भृगु उत्पन्न हुए। अङ्गालोंसे अङ्गिरा, शिखाओंसे अनि और किरणोंसे महातपस्वी मरीचि उत्पन्न हुए। केशोंसे कपिश रंगवाले महातपस्वी पुलस्त्य प्रकट हुए। तत्पश्चात् लम्बे केशोंसे महातपस्वी पुलहने जन्म लिया। अग्निको दीप्तिसे तपोनिधि वसिष्ठ उत्पन्न हुए। महर्षि भृगुने पुलोमा ऋषिकी दिव्य पुत्रीको भार्यारूपमें ग्रहण किया। इन्हीं (195- 203) अध्यायोंपर आभूत हैं। वैसे संहिता (7) ण्डमें भी इसपर विस्तृत विचार है।उस पत्नीसे उनके यज्ञ करनेवाले बारह देवतुल्य पुत्र उत्पन्न हुए। उनके नाम हैं- भुवन, भौवन, सुजन्य, सुजन, ऋतु, वसु, मूर्धा, त्याज्य, वसुद, प्रभव, अव्यय तथा बारहवें दक्ष इस प्रकार ये बारह 'देवभृगु' नामसे विख्यात हैं। इसके बाद भृगुने पौलोमीके गर्भसे देवताओंसे कुछ निम्नकोटिके ब्राह्मणोंको उत्पन्न किया। उनके नाम हैं- महाभाग्यशाली च्यवन और आप्नुवान आप्नुवानके पुत्र और्व है और्वके पुत्र जमदग्नि हुए ॥5- 15 ॥
और्व उन महात्मा भार्गवोंके गोत्र-प्रवर्तक हुए। अब मैं दीप्त तेजस्वी भृगुके गोत्र-प्रवर्तकोंका वर्णन कर रहा हूँ-भृगु च्यवन, आप्नुवान, और्व, जमदग्नि, वात्स्य, दण्डि, नडायन, वैगायन, वीतिहव्य, पैल, शौनक, शौनका जीवन्ति, आवेद, कार्यण हीन विरूपा रोहित्यायनि वैश्वानर, नील, लुब्ध, सावर्णिक, विष्णु, पौर, बालक, ऐलिक, अनन्तभागिन, मृग, मार्गेय, मार्कण्ड, जविन, नीतिन मण्ड, माण्डव्य, माण्डूक, फेनप,, स्तनित, स्थलपिण्ड, शिखावर्ण, शार्कराक्षि, जालधि, सौधिक, क्षुभ्य, कुत्स, मौद्रलायन, माइकायन, देवपति, पाण्डुरोचि, गालव, सांकृत्य, चातकि, सर्पि, यज्ञपिण्डायन, गण, गायन, गाहांवण गोष्ठापन बाह्यापन, वैशम्पायन, वैकर्णिनिश याज्ञेयि भ्राष्ट्रकार्याणि लालटिनकुलि, लक्षिण्य, उपरिमण्डल, आलुकि, सौचकि, कौला, पैंगलायनि, सात्यायानि मालपनि कटिल कौचहस्तिक सौह, सति सि कौसि चन्द्रमसि नैकजिजिक, व्याधा लौहरिण, शारद्वतिक, नैतिष्य, सोलाक्षि, चलकुण्डल, वागायनि आनुमति, पूर्णिमागतिक और असकृत् साधारणप इन ऋषियोंमें ये पाँच प्रवर कहे जाते हैं- भृगु, च्यवन, आप्नुवान, और्व और जामदग्नि ॥ 16- 29 ॥इसके बाद भृगुवंशमें उत्पन्न अन्य ऋषियोंका वर्णन कर रहा हूँ, सुनिये। जमदग्नि, बिंद, पौलस्त्य, वैजभृत् उभयजात, कायनि, शाकटायन, और्वेय और मारुत। इनके तीन शुभ प्रवर हैं- भृगु, च्यवन और आनुवान इन ऋषियोंमें परस्पर विवाहका निषेध है। भृगुदास, मार्गपथ, ग्राम्यायणि, कटायनि, आपस्तम्ब, बिल्वि, नैकशि, कपि, आर्ष्टिषेण, गार्दभ, कार्दमावनि, आश्वायनि तथा रूपि इनके प्रवर ये पाँच हैं भृगु, च्यवन, आप्नुवान, आर्ष्टिषेण तथा रूपि । इन पाँच प्रवरवालोंमें भी विवाहकर्म निषिद्ध है। यस्क वीतिहव्य, मथित, दम, जैवन्त्यायनि मौज, पिलि, चलि, भागिल, भागवित्ति, कौशापि, काश्यपि, बालपि, श्रमदागेपि, सौर, तिथि, गार्गीय, जाबालि पौष्णायन और रामोद इन वंशोंमें ये प्रवर हैं- भृगु, वीतिहव्य, रेवस और वैवस। इनमें भी परस्पर विवाह नहीं होते। शालायानि शाकटाक्ष, मैत्रेय खाण्डव, द्रौणायन, रौक्मायणि आपिशि, आधिकार्यान और हंसजिह्न । इनके प्रवर इन ऋषियोंके हैं- भृगु, वध्यश्व और दिवोदास इनमें भी परस्पर विवाह निषिद्ध है। राजन्! एकायन, यज्ञपति, मत्स्यगन्ध, प्रत्यह सौरि, ओधि, कार्दमायानि गृत्समद और महर्षि सनक। इन वंशोंके दो ऋषियोंके प्रवर हैं- भृगु तथा गृत्समद इन वंशोंमें भी परस्पर विवाह निषिद्ध है।राजन्! इस प्रकार मैंने आपसे भृगुवंशमें उत्पन्न महानुभाव गोत्रप्रवर्तक ऋषियोंका वर्णन कर दिया। इनके नामोंका कीर्तन करनेसे प्राणी सभी पापोंसे छुटकारा पा जाता है ॥ 30-46 ॥