सूतजी कहते हैं- तपोधन ऋषियो! अब मैं छठे गोमेदक द्वीपका वर्णन कर रहा हूँ। गोमेदक द्वीपसे सुरोदकसागर घिरा हुआ है। इसका विस्तार शाल्मलद्वीपके विस्तारसे दुगुना है। उस द्वीपमें उच्च शिखरोंवाले दो पर्वत हैं-ऐसा जानना चाहिये। उनमें पहलेका नाम सुमना है। यह पर्वत अञ्जनके समान काले रंगसे सुशोभित है। दूसरा पर्वत कुमुद नामवाला है, जो सभी प्रकारकी ओषधियोंसे सम्पन्न, सुवर्णमय, शोभाशाली और वृक्षादिकी समृद्धियोंसे युक्त है। यह गोमेदक द्वीप छठे सुरोदसागरकी अपेक्षा दुगुने परिमाणवाले इक्षुरसोदसागरसे घिरा हुआ है। इसमें धातकी और कुमुद नामक दो अत्यन्त विस्तृत प्रदेश हैं, जो 'हव्यपुत्र' नामसे विख्यात हैं। सुमना पर्वतका जो प्रथम वर्ष है, उसीको धातकीखण्ड कहते हैं। यही धातकी नामक प्रथम पर्वतका प्रथम वर्ष कहलाता है। गोमेद नामसे जो वर्ष कहा गया है, उसीको सर्वसुख भी कहते हैं। इसके बाद दूसरे कुमुदपर्वतका प्रदेश भी कुमुद नामसे विख्यात है। ये दोनों पर्वत अन्य सभी पर्वतोंसे ऊँचे हैं। इस गोमेदक द्वीपके पूर्वभागमें सुमना नामक पर्वत स्थित है, जो पूर्वसे पश्चिम समुद्रतक फैला हुआ है। इसी प्रकार इस द्वीपके पश्चिमार्ध भागमें कुमुद नामक पर्वत स्थित है। इन पर्वतोंके चरण-प्रान्तोंसे वह देश दो भागों में विभक्त हो गया है। इस द्वीपका दक्षिणार्ध भाग धातकीखण्ड कहलाता हैतथा इसके उत्तरार्ध भागमें कुमुद नामक दूसरा श्रेष्ठ वर्ष है। गोमेदक द्वीपके ये दोनों प्रदेश अत्यन्त विस्तृत माने जाते हैं ॥ 1-11 ॥
इसके बाद अब मैं सातवें सर्वोत्तम द्वीपका वर्णन कर रहा हूँ, जो पुष्करों (कमलों) से व्याप्त होनेके कारण पुष्कर नामसे प्रसिद्ध है। यह परिमाणमें गोमेदकद्वीपसे दुगुना है और इक्षुरसोदक- सागरको घेरकर स्थित है। पुष्करद्वीपमें चित्रसानु (विचित्र शिखरोंवाला) नामक ||शेभाशाली महान पर्वत है। यह अनेकों चित्र-विचित्र | मणिमय शिखरों तथा शिलासमूहोंसे सुशोभित है। यह महान् पर्वत चित्रसानु द्वीपके पूर्वार्ध भागमें स्थित है। यह महान् गिरि सत्ताईस योजन विस्तृत और चौबीस योजन ऊँचा है। इस द्वीपके पश्चिमार्थ भागमें समुद्रतटपर मानस नामक पर्वत स्थित है, जो पूर्व दिशामें निकले हुए चन्द्रमाके समान शोभायमान है। यह साढ़े पचास हजार योजन ऊंचा है। मानस पर्वतके पूर्वार्धमें स्थित रहते हुए भी इसका पुत्र महावीत नामक पर्वत द्वीपके पश्चिमार्थ भागकी रक्षा करता है। इस प्रकार वह प्रदेश दो भागों में विभक्त कहा जाता है। पुष्करद्वीप स्वादिष्ट जलवाले महासागरसे घिरा हुआ है। यह विस्तार एवं मण्डल (घेराव) में गोमेदक द्वीपसे दुगुना है। इस द्वीपके अन्तःस्थित प्रदेशोंके मानव तीस हजार वर्षतक जीवित रहते हैं। उनमें वृद्धावस्थाका प्रवेश नहीं होता। वे स्वाभाविक रूपसे युवावस्था, नीरोगता, अत्यधिक सुख और मानसी सिद्धिसे युक्त होते हैं ॥12- 20 ॥
तीनों द्वीपोंमें सर्वत्र सुख दीर्घायु और सुन्दर रूपको सुलभता रहती है। उनमें ऊँच-नीचका भाव नहीं होता। पराक्रम और रूपकी दृष्टिसे वे एकतुल्य होते हैं। उनमें न कोई वध करनेयोग्य होता है और न मारनेवाला ही पाया जाता है। उनमें ईर्ष्या, असूया, भय, लोभ, दम्भ, द्वेष और संग्रहका नामतक नहीं है। उनमें सत्य-असत्य एवं धर्म अधर्मका विवाद, वर्णाश्रमकी चर्चा, पशुपालन, व्यवसाय, खेती, त्रयीविद्या, दण्डनीति (शत्रुओं या अपराधियों को दण्ड देकर वशमें करनेकी नीति), नौकरी और परस्पर दण्ड विधान भी नहीं पाया जाता। वहाँ न तो वर्षा होती है, न नदियाँ ही हैं तथा सर्दी गरमी भी नहीं पड़ती। पर्वतोंसे टपकते हुए जल ही अन्न और जलका काम पूरा करते हैं। | वहाँ सर्वदा उत्तरकुरु देशके सदृश समय बना रहता है।वहाँ सब लोग सर्वत्र वृद्धावस्थाके कष्टसे रहित सुखमय समय व्यतीत करते हैं। यही स्थिति धातकीखण्ड तथा महावीत दोनों प्रदेशोंमें पायी जाती है। इस प्रकार सातों द्वीप पृथक् पृथक् सात समुद्रोंसे घिरे हुए हैं। जो समुद्र जिस द्वीपके बाद पड़ता है, वह परिमागमें उसी द्वीपके बराबर माना गया है। इस प्रकार द्वीपों और समुद्रोंकी परस्पर वृद्धि समझनी चाहिये। जलको सम्यक् प्रकारसे वृद्धि होनेके कारण इस जलराशिको समुद्र कहते हैं। 'ऋषि' धातुका अर्थ गमन है, इसीसे 'वर्ष' शब्द बनता है। उन वर्षोंमें चार प्रकारकी प्रजाएँ सुखपूर्वक निवास करती हैं। पूर्व दिशामें चन्द्रमाके उदय होनेपर समुद्र सर्वदा जलसे पूर्ण हो जाता है अर्थात् उसमें ज्वार आ जाता है। और वही चन्द्रमा जब अस्त हो जाते हैं तब समुद्रका बढ़ा | हुआ जल अत्यन्त क्षीण हो जाता है अर्थात् भाटा हो जाता है। जलकी वृद्धिके समय समुद्र अपनी मर्यादाके भीतर ही बढ़ता है और क्षीण होते समय मर्यादाके अंदर ही उसके जलका क्षय होता है ।। 21-31 ॥
जिस प्रकार चन्द्रमाके उदय होनेपर चन्द्र-किरणोंका जलके साथ संयोग होनेसे जल अपने-आप उछलने लगता है, उसी प्रकार समुद्र भी बढ़ने लगता है। यद्यपि शुक्लपक्ष और कृष्णपक्षमें चन्द्रमाके उदय और अस्त-कालमें जल बढ़ता और घटता है, तथापि समुद्रकी मर्यादामें न्यूनता या अधिकता नहीं दीख पड़ती चन्द्रमाको वृद्धि और क्षय अवसरपर समुद्रका भी उत्कर्ष और अपकर्ष होता है। पानीका यह चढ़ाव उतार एक सौ पंद्रह अङ्गुलतक बतलाया जाता है। पर्वके अवसरोंपर समुद्रोंके जलोंका यह ज्वारभाटा स्पष्ट दीखनेमें आता है। दो ओर जलसे घिरा होनेके कारण समुद्रस्थ प्रदेशको द्वीप कहते हैं और जलको धारण करनेके कारण समुद्रको उदधि कहा जाता है। (सभी वस्तुओंको) आत्मसात् कर लेनेके कारण 'गिरि' और (पृथ्वीके) संधिस्थानको बाँधने के कारण 'पर्वत' नाम पड़ा है। शाकद्वीपमें शाक नामक पर्वत है, इसी कारण उसे शाकद्वीप कहते हैं। कुशद्वीपमें जनपदके मध्यभागमें विशाल कुशस्तम्ब (कुशका गुल्म) है (इसीलिये वह कुशद्वीप कहा जाता है)। क्रौञ्चद्वीपमें क्रौञ्च नामक पर्वत है, अतः उसीके नामपर वह क्रौञ्चद्वीप कहलाता है। शाल्मलद्वीपमें सेमलका महान् वृक्ष है, उसकी वहाँके लोग पूजा करते हैं। (इसीसे उसे शाल्मलद्वीप कहा जाता है) गोमेदकद्वीपमें गोमेद नामका पर्वत है, अतः उसीके नामपर द्वीपको गोमेदक नामसे पुकारते हैं। पुष्करद्वीपमें कमलके समान बरगदका वृक्ष है, इसी कारण उसे पुष्करद्वीप कहते हैं। वह वटवृक्ष अव्यक्त ब्रह्मके अंशसे समुद्धत हुआ है, इसीलिये प्रधान प्रधानदेवगण उसकी पूजा करते हैं। उस द्वीपमें साध्यगणोंके साथ प्रजापति ब्रह्मा निवास करते हैं। यहाँ महर्षियोंके साथ तैंतीस देवता उपासना करते हैं। वहाँ श्रेष्ठ महर्षियों एवं देवताओं द्वारा देवाधिदेव ब्रह्माकी पूजा की जाती है। जम्बूद्वीपसे अनेकों प्रकारके रख (अन्यान्य द्वीपोंमें) प्रवर्तित होते हैं ।। 32-41 ॥
उपर्युक्त उन सभी द्वीपों और वर्षोंमें क्रमश: प्रजाओंकी सरलता, ब्रह्मचर्य, सत्यवादिता, इन्द्रियनिग्रह, नीरोगता और आयुका प्रमाण एक-दूसरेसे दुगुना बढ़ता जाता है। वे सभी स्वाभाविक ही पण्डित होते हैं, अतः उनके द्वारा स्वयं प्रजाओंकी रक्षा होती रहती है। वहाँ भोजन अनायास ही स्वयं उपस्थित हो जाता है, जो उहाँ रसोंसे युक्त और महान् बलदायक होता है। उसे ही वहाँके निवासी खाते हैं। पुष्करद्वीपके बाद स्वादिष्ट जलसे परिपूर्ण महासागर उस द्वीपको चारों ओरसे घेरकर अवस्थित है। उस स्वादिष्ट जलवाले सागरके चारों ओर एक मण्डलाकार पर्वत है, जो प्रकाश और अन्धकारसे युक्त है। उसीको 'लोकालोक' नामसे पुकारा जाता है। उसका अगला भाग प्रकाशयुक्त तथा पिछला भाग अन्धकारसे आच्छादित रहता है। उसका विस्तार लोकोंके विस्तारके बराबर है, किंतु वह बाहरसे पृथ्वीके अर्धभाग जितना दीख पड़ता है वह महान् पर्वत चारों ओर जल-राशिसे आच्छन्न एवं घिरा हुआ है। पृथ्वीसे दसगुना जल चारों ओरसे पृथ्वीकी रक्षा करता है। जलसे दसगुनी अनि सब ओरसे जलको धारण करती है। अग्निसे दसगुनी वायु तेजको धारण करके स्थित है। वह वायुमण्डल तिरछा होकर समस्त प्राणियों में प्रविष्ट हो सबको धारण किये हुए है। वायुसे दसगुना आकाश भूतोंको धारण किये हुए है। उस आकाशसे दसगुना भूतादि अर्थात् तामस अहंकार है। उस भूतादिसे दसगुना महद्भूत (महत्तत्त्व) है और वह महत्तत्त्व अनन्त अव्यक्तद्वारा धारण किया जाता है। इन विकृतिशील तत्त्वोंके विकार आधाराधेयभावसे | कल्पित हैं। ये पृथ्वी आदि विकार परस्पर विभक्त हैं,परस्पर एक दूसरेसे अधिक तथा एक दूसरेमें घुसे हुए भी हैं। इसी प्रकार ये परस्पर उत्पन्न होते हैं और परस्पर एक-दूसरेको धारण भी करते हैं * ॥ 42-54 ॥
चूँकि ये सभी परस्पर एक-दूसरेमें प्रविष्ट-से हैं, इसीलिये स्थिरताको प्राप्त हुए हैं। पहले इनमें कोई विशेषता नहीं थी, परंतु एक-दूसरेमें प्रविष्ट हो जानेसे ये विशिष्ट हो गये हैं। पृथ्वीसे लेकर वायुतकके सभी तत्त्व परस्पर विभक्त हैं। इन तत्त्वोंसे परे सारा जगत् निर्जन है। (अन्य सभी तत्त्व) प्रकाशमान आकाशमें सर्वत्र व्याप्त हैं। जिस प्रकार छोटे-छोटे पात्र बड़े पात्रके अन्तर्गत समा जाते हैं और परस्पर समाश्रयण होनेके कारण एक-दूसरेसे छोटे होते जाते हैं, उसी प्रकार ये सारे भेद प्रकाशमान आकाशके अन्तर्गत विलीन हो जाते हैं। ये तत्त्व परस्पर एक-दूसरेसे अधिक परिमाणवाले बनाये गये हैं। जबतक ये तत्त्व वर्तमान रहते हैं, तभीतक प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है। इस जगत् में इन्हीं तत्त्वोंके अन्तर्गत प्राणियोंकी व्यवस्थिति होती है। इन तत्त्वोंका प्रत्याख्यान कर देनेपर किसी प्रकार कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसीलिये वे परिमित (पृथ्वीसे वायुतक) तत्त्व कार्यात्मक कहे जाते हैं तथा महत्तत्त्व आदि भेद कारणात्मक हैं। इस प्रकार विभागपूर्वक पृथ्वीसे आच्छादित मण्डल, सातों द्वीपों और सातों समुद्रोंका यथार्थरूपसे गणनासहित विस्तार एवं मण्डल तथा परिमाणमें एकदेशी प्रधान तत्त्वका इसे विश्वरूप जानना चाहिये। राजन्! मैंने इस मण्डलका यहाँतक सम्यक् प्रकारसे वर्णन कर दिया; क्योंकि मण्डलके वृत्तान्तको यहाँतक ही सुनना चाहिये ॥ 55-64 ॥