मनुजीने पूछा- देव! राजाओंको ग्रहयज्ञ किस प्रकार करना चाहिये? सभी पापोंको नष्ट करनेवाले लक्षहोम तथा कोटिहोम करनेकी क्या विधि है? जनार्दन! यह जिस विधिसे किया जाता है तथा शान्तिका चिन्तन करनेवाले जिस विधिसे सम्पन्न किये हों, वह सब विस्तारपूर्वक बतलाइये ॥ 1-2 ॥
मत्स्यभगवान्ने कहा— राजन् ! इस समय प्रसंगवश मैं तुम्हें उसे बतला रहा हूँ। धर्मपरायण एवं प्रजाओंके हितेच्छु राजाको लक्षहोमसहित ग्रहयज्ञ सदा करना चाहिये। | इस ग्रहयज्ञको नदियोंके संगम तथा देवताओंके समक्षसमतल भूभागपर करना चाहिये। सर्वप्रथम राजा ज्योतिषी से | परामर्श कर गुरु और ऋत्विजों के साथ भूमिकी परीक्षा करे। वहाँ एक हाथ गहरा चौकोर कुण्ड बनाये। लक्षहोममें यह कुण्ड दुगुना और कोटिहोममें चौगुना बड़ा बनाना चाहिये इसके लिये सोलह ऋत्विज् बतलाये गये हैं, जो वेदोंके पारगामी विद्वान् कंद-मूल फलका आहार करनेवाले अथवा दही-दूधका भोजन करनेवाले हों। यजमान राजा यज्ञवेदीपर विविध प्रकारके रत्न स्थापित करे। बालूद्वारा वेदीके चारों ओर मण्डल बनाकर अग्नि प्रज्वलित कराये फिर गायत्रीमन्त्रद्वारा दस हजार, 'मानस्तोके (ऋ0 3।13।6, वाजसनेयि ( 16 । 16 ) आदि मन्त्रद्वारा छः हजार, ग्रहोंके मन्त्रोंसे तीस हजार, विष्णुसूक्तसे चार हजार, कोंहड़ेसे पाँच हजार, पुष्प-समूहसे सोलह हजार तथा बेरके फलोंसे दस हजार आहुतियाँ अग्निमें देनी चाहिये ॥ 3-10 ॥ इसी प्रकार श्रीसूकसे चौदह हजार आहुतियाँ देनी चाहिये और शेष पाँच हजार आहुतियाँ इन्द्र देवताके मन्त्रोंसे देनी चाहिये। फिर एक लाख आहुतियोंसे हवन कर पुण्यस्नान * सम्पन्न करे। तत्पश्चात् सुवर्णयुक्त सोलह मङ्गल-कलशोंसे यजमानको स्नान कराये, तब शान्तिकी प्राप्ति होती है। नृप! ऐसा करके दक्षिणा देनेपर ग्रहपीडासे उत्पन्न जो कुछ कष्ट होता है, वह सब नष्ट हो जाता है। इसीलिये सभी प्रकारसे दक्षिणाको ही प्रधान माना गया है। उस समय राजा अपनी सम्पत्तिके अनुकूल ऋत्विजोंको हाथी, घोड़े, रथ, वाहन, भूमि, जोड़े वस्त्र, बैल तथा सौ गौएँ दक्षिणारूपमें दे कृपणता न करे। नराधिप। लक्षहोम एक मासमें समाप्त होता है। राजेन्द्र ! इस प्रकार मैंने लहोमका विधान आपको बाला दिया। अब मैं कोटिहोमका विधान बतला रहा हूँ, आप सुनिये। नरेश्वर! गङ्गा, यमुना और सरस्वतीके अथवा नर्मदा और देविका (सरयू) के तटपर इस हवनके करनेका विधान है। रविनन्दन। इस कोटिहोममें भी सोलह ऋत्विजोंका वरण करना चाहिये। राज सभी हवन-कार्यों में ब्राह्मणोंको धन देना चाहिये। यजमान ऋत्विज और आचार्यके साथ वर्षभरको दीक्षा ग्रहण करे। राजन्। चैत्र अथवा विशेषतया कार्तिकका महीना आनेपर इस यज्ञको प्रारम्भ करना चाहिये। इसी प्रकार प्रतिवर्ष करनेका विधान है ॥11- 203॥अनघ ! (अनुष्ठानके समय) यजमानको दुग्ध अथवा फलका आहार करना चाहिये। जौ आदि अन्न, उड़द, तिल, सरसों और पलाशकी लकड़ी इस होममें प्रशंसित हैं। इसके ऊपर वसुधारा छोड़नी चाहिये। पहले महीने में ऋत्विजोंको दुग्धका भोजन देना चाहिये। दूसरे महीने में धर्म, अर्थ और कामकी साधिका खिचड़ी खिलानी चाहिये। रविनन्दन। तीसरे महीने में गोलिया देनी चाहिये। चौथे महीने में ब्राह्मणोंको प्रसन्न करते हुए लड्डू दे । पाँचवें महीने में दही और भात, छठे महीनेमें सत्तूका भोजन, सातवें महीने में मालपुआ और आठवें मास में मालपुआ और घी दे । रविनन्दन ! नवें महीनेमें साठीका भात, दसवेंमें जौ मिश्रित साठीका भात तथा ग्यारहवें महीने में उड़दयुक्त भोजन देना चाहिये। सूर्यकुलोत्पन्न ! बारहवें महीनेके आनेपर छहों रसोंसे युक्त सभी कामनाओंकी पूर्ति करनेवाला भोजन दे। राजेन्द्र उन ब्राह्मणोंको प्रतिमास दक्षिणा भी देनी चाहिये। मध्याहके समय पवित्र वस्त्र धारण कर हवन करनेका विधान है। इसलिये यजमानको ब्राह्मणोंके साथ सर्वदा यज्ञ करनेके लिये उत्साहयुक्त रहना चाहिये। इन्द्र आदि देवताओंको प्रसन्न करना चाहिये, यह सभी मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला है। राजेन्द्र फिर देवताओंके उद्देश्यसे बलि देकर सभी प्रकारके दानकर्मीको सम्पादित करे। साथ ही अग्निष्टोमका अनुष्ठान करे ॥ 21-30 ॥
इस प्रकार विधिपूर्वक ग्रहयाग सम्पन्न कर शत होममें सौ हजार होममें हजारसे लेकर लक्ष होमतक दो सौ पूर्णाहुतियाँ देनी चाहिये। तत्पश्चात् ऋत्विजोंको देवताओंके लिये पुरोडाश देना चाहिये। उन्हें क्रमशः उन्हीं आगत मनुष्योंमें ही उपस्थित समझना चाहिये फिर क्रमशः पूजित ब्राह्मणों और देवताओंको प्रसन्न करके सभी पितरोंको शास्त्रो विधिके अनुसार पिण्ड समर्पित करे। इस होमके समाप्त होनेपर ब्राह्मणोंको दक्षिणा दे। तदुपरान्त राजाको चाहिये कि कृपणताको छोड़कर समान भागवाली तराजू बनवाकर उसमें दो पलड़े बाँध दे और उसपर पत्नीसहित अपनेको तौले। उस समय अपनेको सुवर्णसे तथा पत्नीको चाँदीसे तौलनेका विधान है। तौलनेके बाद उसे ब्राह्मणको दे देना चाहिये। पुनः चाँदी तथा सुवर्णकी बनी हुई एक लक्ष मुद्राका दान करेअथवा सर्वस्व दान कर दे। ऐसा करनेसे उसे राजसूय यज्ञका फल प्राप्त होता है। इस प्रकार विधिपूर्वक यज्ञ करके उन ब्राह्मणोंको विदा करे और कहे- 'सभी यज्ञोंके स्वामी कमलनेत्र भगवान् विष्णु प्रसन्न हों; क्योंकि उनके संतुष्ट होनेपर समस्त जगत् संतुष्ट और प्रसन्न होनेपर प्रसन्न होता है।' इस प्रकार देवताओं तथा मनुष्योंद्वारा की गयी सभी बाधाओंके लिये यह शान्ति कही गयी है, जिसे मैंने तुम्हें बताया है और जिसका अनुष्ठान करनेसे मनुष्य पुण्यवान् होता है और उसे जन्म-मृत्यु तथा उचित अनुचितके विचारके समय चिन्ता नहीं करनी पड़ती। राजन्! सभी तीर्थोंमें स्नान करने और सभी यज्ञोंके अनुष्ठानसे जो फल प्राप्त होता है, वह फल इन तीनों यज्ञोंको करनेवाला मनुष्य प्राप्त कर लेता है । ll 31-40 ॥