सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! अब मैं (ग्रहकक्षानुसार बुधादि) ग्रहों, नक्षत्रों और राहुके रथका वर्णन कर रहा हूँ। सोमपुत्र बुधका रथ उज्ज्वल एवं तेजोमय है। उसमें वायुके समान वेगशाली पीले रंगके दस घोड़े जोते जाते हैं। उनके नाम हैं- श्वेत, पिशङ्ग, सारङ्ग, नील, पीत, विलोहित, कृष्ण, हरित, पृषत और पृष्णि इन्हीं महान् भाग्यशाली, अनुपम एवं वायुसे उत्पन्न दस घोड़ोंसे वह रथ युक्त है। इसके बाद मङ्गलका रथ सुवर्णनिर्मित | बतलाया जाता है। वह रथके सम्पूर्ण आठों अङ्गॉसे संयुक्त है तथा लाल रंगवाले आठ घोड़ोंसे युक्त है। उसपर अग्रिसे प्रकट हुआ ध्वज फहराता रहता है। उसपर सवार होकर किशोरावस्था के मङ्गल कभी सीधी एवं कभी वक्र गतिसे विचरण करते हैं। अङ्गिराके पुत्र देवाचार्य विद्वान बृहस्पति पीले रंगके तथा वायुके से वेगशाली आठ दिव्य असे जुते हुए सुवर्णमय रथपर चलते हैं। वे एक राशिपर एक वर्षतक रहते हैं, इसलिये इस रथके द्वारा स्वाधिष्ठित राशिकी दिशाकी ओर (दोनों गतियों) से अपने वर्गसहित जाते हैं। शुक्र भी अपने वेगशाली रथपर आरूढ़ होकर भ्रमण करते हैं। उनके रथमें अग्रिके समान रंगवाले आठ घोड़े जुते रहते हैं और वह ध्वजाओंसे सुशोभित रहता है। शनैश्चर अपने लोहनिर्मित रथपर सवार होकर चलते हैं। उसमें वायुतुल्य वेगशाली एवं बलवान् घोड़े जुते रहते हैं। राहुका रथ तमोमय है। उसे कवच आदिसे सुसज्जित वायुके समान वेगवाले काले रंगके आठ घोड़े खींचते हैं। सूर्यके भवनमें निवास करनेवाला वह राहु पूर्णिमा आदि पर्वोमें चन्द्रमाके पास चला जाता है और अमावास्या आदि पर्वोंमें चन्द्रमाके पाससे सूर्यके निकट लौट आता है। इसी | प्रकार केतुके रथमें भी वायुके समान शीघ्रगामी आठ मोड़े जोते जाते हैं। उनके शरीरको कान्ति पुआलके धुँएके सदृश है। वे दुबले-पतले शरीरवाले और बड़े भयंकर हैं ये सभी वायुरूपी रस्सीसे ध्रुवके साथ सम्बद्ध हैं। इस प्रकार मैंने ग्रहोंके रथोंके साथ-साथ घोड़ोंका वर्णन कर दिया ॥ 1-12 ॥वायुरूपी अदृश्य रस्सियोंद्वारा बँधे हुए ये सभी अश्व भ्रमण करते हुए नियमानुसार उन रथोंको खींचते हैं जिस प्रकार ध्रुवसे बंधे हुए सूर्य, चन्द्र आदि ग्रह गगनमण्डलमें परिभ्रमण करते हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण ज्योतिर्गण ध्रुवके पीछे-पीछे घूमता है जिस प्रकार नदीके जलमें पड़ी हुई नौका जलके साथ बहती जाती है, उसी तरह देवताओंके गृह भी वायुके वेगसे वहन किये जाते हैं, इसीलिये वे आकाशमण्डलमें देव - गृह नामसे पुकारे जाते हैं। आकाशमण्डलमें जितनी तारकाएँ हैं, उतनी ही ध्रुवकी किरणें भी हैं। ये सभी तारकाएँ ध्रुवसे संलग्न हैं, इसलिये स्वयं घूमती हुई किरणें उन्हें भी घुमाती हैं। जैसे तेल पेरनेवाला चक्र (कोल्हू) स्वयं घूमता है और अपनेसे लगी हुई सभी वस्तुओंको घुमाता है, वैसे ही वायुरूपी रस्सीसे बँधी हुई ज्योतियाँ सब ओर भ्रमण करती हैं। वातचक्रसे प्रेरित होकर घूमती हुई वे ज्योतियाँ अलातचक्र (जलती हुई बनेठी) की भाँति प्रतीत होती हैं। चूँकि वायु उन ज्योतियोंको वहन करता है, इसलिये वह 'प्रवह' नामसे प्रसिद्ध है। इस प्रकार ध्रुवसे बंधा हुआ यह ज्योतिक्षक भ्रमण करता है। इसी | प्रकार गगनमण्डलमें स्थित शिशुमारचक्रमें ये ध्रुव तारामय अर्थात् ताराओंसे युक्त कहे जाते हैं। दिनमें जो पाप किया जाता है, वह रात्रिमें उस चक्रको देखनेसे नष्ट हो जाता है ॥ 13-193 ॥
शिशुमारचक्र के शरीरमें जितनी तारकाएँ स्थित हैं, उनका दर्शन कर तथा सर्वथा शिशुमारकी आकृतिको जानकर मनुष्य उतने ही अधिक वर्षोंतक जीवित रह सकता है। उत्तानपादको उस शिशुमारचक्रका ऊपरी जबड़ा तथा यज्ञको निचला जबड़ा समझना चाहिये। धर्म उसके मस्तकपर स्थित हैं। हृदयमें नारायण और साध्यगणोंको तथा अगले पैरोंमें अश्विनीकुमारोंको जानना चाहिये। वरुण और अर्यमा उसकी पिछली जाँघें हैं। शिश्न (जननेन्द्रिय) के स्थानपर संवत्सरको समझिये और गुदास्थानपर मित्र स्थित हैं। उसकी पूँछमें अग्नि, महेन्द्र, मरीचि, कश्यप और ध्रुव स्थित हैं।ताराओंद्वारा निर्मित यह स्तम्भ नक्षत्र, चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह और तारागणोंके साथ न अस्त होता है न उदय, अपितु ये सभी आकाशमें चक्रकी तरह उसके मुखकी ओर देखते हुए स्थित हैं। ये ध्रुवसे अधिकृत होकर आकाशस्थित मेढ़ीभूत सुरश्रेष्ठ ध्रुवकी ही प्रदक्षिणा करते हैं। उन आग्नीध्र तथा कश्यपके वंशमें ध्रुव ही सर्वश्रेष्ठ हैं। ये ध्रुव अकेले ही मेरुके अन्तर्वर्ती शिखरपर ज्योतिश्चक्रको साथ लेकर उसे खींचते हुए भ्रमण करते हैं। उस समय उनका |मुख नीचेकी ओर रहता । इस प्रकार वे मेरुको प्रकाशित करते हुए उसकी प्रदक्षिणा करते हैं ॥ 20 - 29 ॥