ईश्वरने कहा- नारद! इसके बाद मैं दिव्य तेजसे सम्पन्न, अमृतमय और महान् से महान् पापोंके विनाशक | श्रेष्ठ घृताचलका वर्णन कर रहा हूँ। बीस बड़े बीसे बना हुआ घृताचल उत्तम, दससे मध्यम और पाँचसे अधम (साधारण) कहा गया है। अल्प वित्तवाला भी यदि करना चाहे तो वह दो ही घड़े वृतसे विधिपूर्वक घृताचलकी रचना करके दान कर सकता है। पुनः उसके चतुर्थांशसे विष्कम्भपर्वतोंकी भी कल्पना करनी चाहिये। उन सभी घड़ोंके ऊपर अगहनी चावलसे परिपूर्ण पात्र रखा जाय और उन्हें विधिपूर्वक शोभाका ध्यान रखते हुए एकके ऊपर एक रखकर ऊँचा कर दिया जाय। उन्हें श्वेत वस्त्रोंसे परिवेष्टित कर दिया जाय और उनके निकट गन्ना और फल आदि रख दिये जायें। इसमें शेष सारा विधान धान्यपर्वतकी ही भाँति बतलाया गया है। देवताओंकी स्थापना, हवन और देवार्चन भी उसी प्रकार करना चाहिये। रात्रिके व्यतीत होनेपर प्रातः काल (यजमान) शान्तमनसे वह घृताचल गुरुको निवेदित कर दे। उसी प्रकार विष्कम्भपर्वतोंको ऋत्विजोंको दान कर देनेका विधान है।( उस समय इस अर्थवाले मन्त्रका पाठ करना चाहिये - ) 'चूँकि अमृत और अग्रिके संयोगसे घृत उत्पन्न हुआ है, इसलिये अग्निस्वरूप विश्वात्मा शङ्कर इस व्रतसे प्रसन्न हों। चूँकि ब्रह्म तेजोमय है और घीमें विद्यमान है, ऐसा जानकर तुम घृतपर्वतरूपसे रात-दिन हमारी रक्षा करो।' जो मनुष्य उपर्युक्त विधिसे इस श्रेष्ठ घृताचलका दान करता है, वह महापापी होनेपर भी शिवलोकको प्राप्त होता है। वहाँ वह हंस और सारस पक्षियोंकी चित्रकारी क्षुद्र घंटिका (किङ्किणीजाल) - से सुशोभित तथा विमानपर आरूढ़ होकर अप्सराओं, सिद्धों और विद्याधरोंसे घिरा हुआ पितरोंके साथ प्रलय कालतक विहार करता है ॥ 1-10 ॥