ऋषियोंने पूछा— शास्त्रविशारद सूतजी! पितरोंके अधिपति चन्द्रमाकी उत्पत्ति कैसे हुई? आप यह सब हमें बतलाइये तथा चन्द्रवंशमें जो कीर्तिवर्धक राजा हो गये हैं, उनके विषयमें भी हमलोग सुनना चाहते हैं, कृपया वह सब भी विस्तार से बतलायें ॥ 1 ॥
सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! पूर्वकालमें ब्रह्माने अपने मानसपुत्र अत्रिको सृष्टि रचनाके लिये आज्ञा दी। उन सामर्थ्यशाली महर्षिने सृष्टि रचना के निमित्त अनुत्तरनामक (भीषण) तप किया। उस तपके प्रभावसे जगत्के कष्टोंका विनाशक, शान्तिकर्ता, इन्द्रियोंसे परे जो परमानन्द है तथा जो ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य और रुद्रके अन्तः प्रदेशमें निवास करनेवाला है, वहीं ब्रह्म उन प्रशान्त मनवाले रे महर्षिके (मन एवं ) नेत्रोंके भीतर स्थित हो गया। चूँकि उस समय उमासहित उमापति शंकरने भी अत्रिके मन-नेत्रोंको अधियम बनाया था, अतः उन्हें देखकर शिवके या उनके अष्टमांशसे शिशु (ललाटस्थ चन्द्रके) रूपमें चन्द्रमा प्रकट हो गये। उस समय महर्षि अत्रिके नेत्रोंसे जलसम्भूत धाम (तेज) नीचेकी ओर बह चला। उसने अपने प्रकाशसे अखिल चराचर विश्वको उद्दीप्त कर दिया। दिशाओंने उस तेजको स्त्री-रूपसे धारणकर पुत्र प्राप्तिको कामनासे ग्रहण कर लिया। वह उनके उदरमें गर्भरूप होकर तीन सौ वर्षोंतक स्थित रहा। जब दिशाएँ उस गर्भको धारण करनेमें असमर्थ हो गयीं, तब उन्होंने | उसका परित्याग कर दिया। तत्पश्चात् चतुर्मुख ब्रह्माने उस गर्भको उठाकर उसे एकत्र कर सर्वायुधधारी तरुण पुरुषके रूपमें परिणत कर दिया तथा वे शक्तिशाली पितामह सहस्र घोड़ोंसे जुते हुए वेदशक्तिमय रथपर उसे बैठाकर अपने लोकको ले गये। वहाँ (उस पुरुषको | देखकर) ब्रहार्थियोंने कहा—'ये हम लोगोंके स्वामी हों।'उसी समय पितर, ब्रह्मादि देवता, गन्धर्व और ओषधियोंने 'सोमदैवत्य' नामक वैदिक मन्त्रसमूहोंसे उनकी स्तुति की। इस प्रकार स्तुति किये जानेपर चन्द्रमाका तेज और अधिक बढ़ गया। तब उस तेजसमूहसे भूतलपर दिव्य ओषधियोंका प्रादुर्भाव हुआ। इसी कारण रात्रिमें उन ओषधियोंकी कान्ति सर्वदा अधिक हो जाती है। इसी हेतु चन्द्रमा ओषधीश कहलाये तथा उन्हें द्विजेश भी कहा जाता है। वेदोंके तेजरूप रससे उत्पन्न हुआ जो यह चन्द्रमण्डल है, वह सर्वदा शुक्लपक्षमें बढ़ता है और कृष्णपक्षमें क्षीण होता रहता है । ll 2-14 ॥
तदनन्तर प्रचेता - नन्दन दक्षने चन्द्रमाको अपनी सत्ताईस कन्याएँ— जो रूप लावण्यसे सम्पन्न तथा परम तेजस्विनी थीं, पत्नीरूपमें प्रदान कीं। तब शीत किरणोंवाले चन्द्रमाने एकमात्र भगवान् विष्णुके ध्यानमें तत्पर होकर 10 लाख वर्षोंतक तपस्या की। उससे प्रभावित होकर भगवान् (ऐश्वर्यशाली) जनार्दन (दुष्टविनाशक), परमात्मा (परम आत्मबलसे सम्पन्न), नारायण (जलशायी) हैं, वे श्रीहरि चन्द्रमापर प्रसन्न हो गये और (उनके समक्ष प्रकट होकर) बोले- 'वर माँगो!' इस प्रकार कहे जानेपर चन्द्रमाने वर माँगते हुए कहा- 'भगवन् मैं इन्द्रलोकको जीत लेना चाहता हूँ जिससे देवतालोग प्रत्यक्षरूपसे मेरे भवनमें आकर अपना-अपना भाग ग्रहण करें। मेरे राजसूय यज्ञमें ब्रह्मा आदि देवगण ब्राह्मण हों तथा त्रिशूलधारी मङ्गलमय भगवान् शंकर हम सभीके दिव्य रक्षःपाल (राक्षसोंसे रक्षा करनेवाले या सभी प्रकारके रक्षक) रूपमें उपस्थित रहें।' भगवान् विष्णुके 'तथेति''ऐसा ही हो'- यों कहकर स्वीकार कर लेनेपर चन्द्रमाने राजसूय यज्ञका आयोजन किया। उस यज्ञमें महर्षि अत्रि होता (ऋग्वेदके पाठक), भृगु अध्वर्यु (यजुर्वेदके पाठक) और चतुर्मुख ब्रह्मा उद्गाता (सामवेदके गायक) थे। स्वयं श्रीहरिने उस यज्ञका उपद्रष्टा होकर ब्रह्म (अथर्ववेदका पाठक) का पद ग्रहण किया। उस राजसूय यज्ञमें सनक आदि सदस्य और दसों विश्वेदेव चमसाध्वर्यु (यज्ञमें सोमरस पीनेवाले) बने ऐसा सुना जाता है। उस समय चन्द्रमाने ऋत्विजों को तीनों लोक दक्षिणारूपमें | प्रदान कर दिये थे। तत्पश्चात् अवभृथस्नान (यज्ञान्तमें होनेवाला खान) की समाप्तिपर (चन्द्रमाके रूपपर मुग्ध होकर) उसके सौन्दर्यका अवलोकन करनेकी इच्छासे युक्त सिनीवाली आदि नौ देवियाँ उनकी सेवामें उपस्थित हुईं। लक्ष्मी नारायणको सिनीवाली कर्दमको, युति विभावसुको, तुष्टि अविनाशी ब्रह्माको, प्रभा प्रभाकरको कुहू स्वयं हविष्मानको कीर्ति जयन्तको, वसु मरीचिनन्दन कश्यपकोऔर पति अपने पति नन्दिको छोड़कर उस समय चन्द्रमा सेवामें नियुक्त हुई। चन्द्रमा उस समय दसों दिशाओंको उद्भासित करते हुए सुशोभित हो रहे थे तथा उन्होंने समस्त सृष्टिमें संस्कृत एवं दुर्लभ ऐश्वर्यको प्राप्तकर सातों लोकोंका एकच्छत्र आधिपत्य प्राप्त किया' ।। 15-28 ॥
इसके कुछ दिन बाद चन्द्रमा एक बार कभी ताराको साथ लेकर अपने घर चले गये। बृहस्पतिके कहनेपर भी उन्होंने ताराको उन्हें समर्पित नहीं किया। तत्पश्चात् महेश्वर, ब्रह्मा, साध्यगण तथा लोकपालोंसहित मरुद्रणके समझानेपर भी जब चन्द्रमाने ताराको किसी प्रकार नहीं लौटाया, तब भगवान् शिव, जो भूतलपर वामदेव नामसे विख्यात हैं तथा अनेकों रूद्र जिनके चरणकमलोंकी अर्चना किया करते हैं, क्रुद्ध हो उठे। तदनन्तर त्रिपुरासुरके शत्रु एवं पिनाक धारण करनेवालेभगवान् शंकर बृहस्पतिके प्रति स्नेहके वशीभूत हो शिष्योंके|साथ 'आजगव' नामक धनुष लेकर चन्द्रमाके साथ युद्ध करनेके लिये प्रस्थित हुए। उस समय उनका मुख विशेषरूपसे उदौस हुए तृतीय नेत्रकी असेि बड़ा भयानक दीख रहा था । ll 29-37 ।।
उनके साथ भूतेश्वरों और सिद्धोंका समुदाय भी था तथा शस्त्रास्वसे सुसजित गणेश आदि चौरासी गण भी साथ ही रवाना हुए। उसी प्रकार यक्षराज कुबेरने भी अनेकों शतकोटि सेनाओंके साथ-साथ रथारूढ़ एक पद्म वेताल, एक अरब यक्ष, तीन लाख नाग और बारह लाख किन्नरोंको साथ लेकर शिवजीका अनुसरण किया। उधर चन्द्रमा भी क्रोधाविष्ट हो नक्षत्रों, दैत्यों और असुरोंकी सेनाओंके साथ शनैश्वर और मंगलके सहयोगके कारण उद्दीत तेजसे सम्पन्न हो रणभूमिमें आ डटे उस समाहारको देखकर सातों लोक भयभीत हो उठे तथा द्वीपों एवं समुद्रोंसहित पृथ्वी काँपने लगी। शिवजीने प्रकाशमान एवं विशाल आग्नेयास्त्रको लेकर चन्द्रमापर आक्रमण किया। फिर तो दोनों सेनाओं में अत्यन्त भीषण युद्ध छिड़ गया। धीरे-धीरे उस युद्धने उग्ररूप धारण कर लिया। उसमें सम्पूर्ण जीवोंका संहार हो रहा था तथा अग्रिके समान प्रज्वलित हथियार चमक रहे थे। इस प्रकार एक-दूसरेके प्रति अत्यन्त तीखे शस्योंके प्रहारसे दोनों सेनाएँ समग्ररूपसे नष्ट होने लगीं। उस समय ऐसे जाज्वल्यमान शस्त्रोंकी वर्षा हो रही थी, जो स्वर्गलोक, भूतल और पातालको भस्म कर डालते थे। यह देख रुद्रने क्रुद्ध होकर ब्रह्मशीर्ष नामक अस्त्र चलाया, तब चन्द्रमाने भी अपने अचूक लक्ष्यवाले सोमास्त्रका प्रयोग किया उन दोनों अस्त्रोंके टकरानेसे समुद्र, भूमि और अन्तरिक्ष आदि सभी भयसे काँप उठे। इस प्रकार उन दोनों अस्त्रोंको जगत्का विनाश करनेके लिये बढ़ता हुआ देखकर देवताओंके साथ ब्रह्माने उनके भीतर प्रवेश करके किसी-किसी प्रकारसे उनका निवारण किया (और कहा-) 'सोम! तुमने अकारण ही ऐसा कार्य क्यों किया, यह तो लोगों का विनाशक है। सोम चौक तुमनेदूसरेकी स्त्रीका अपहरण करनेके लिये इतना भयंकर युद्ध किया है, इसलिये शान्तस्वरूप होनेपर भी तुम शुक्लपक्षके अन्तमें अर्थात् कृष्णपक्षमें निश्चय ही जनता में पापग्रहके रूपसे प्रसिद्ध होओगे। तुम बृहस्पतिकी इस | भार्याको उन्हें समर्पित कर दो। दूसरेका धन लेकर उसे लौटा देनेमें अपमान नहीं होता' ॥ 38-46 ॥
सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! तब चन्द्रमाने 'तथेति— ऐसा ही हो' यों कहकर ब्रह्माकी आज्ञा स्वीकार कर ली और वे शान्त होकर युद्धसे हट गये। इधर बृहस्पति भी अपनी पत्नी ताराको ग्रहण करके शिवजीके साथ | प्रसन्नतापूर्वक अपने घरको चले गये ॥ 47 ॥