मत्स्यभगवान्ने कहा- देवताओंको वृद्धि करनेवाले इन्द्र परम प्रसन्न हुए और 'एवमस्तु—ऐसा ही हो' यों कहकर सर्वप्रथम शीतायुध चन्द्रमाको युद्धके लिये आदेश देते हुए बोले- 'सोम! आप जाइये और असुरोंके विनाश तथा देवताओंकी विजयके निमित्त पाशधारी वरुणकी सहायता कीजिये। आप मुझसे भी बढ़कर पराक्रमी और ज्योतिर्गणोंके अधीश्वर हैं। रसज्ञ लोग सम्पूर्ण लोकोंमें जितने रस हैं, उन्हें आपसे ही युक्त मानते हैं आपके मण्डलमें सागरकी तरह क्षय और वृद्धि स्पष्टरूपसे होती रहती है। आप जगत्में कालका योग करते हुए दिन रातका परिवर्तन करते रहते हैं। आपका चिह्न लोककी छायासे युक्त है। आप मृगलाञ्छन हैं। सोम! जो नक्षत्रोंके उत्पत्तिकर्ता हैं, वे देवता भी आपकी महिमाको नहीं जानते। आप सूर्यके मार्गसे ऊपर सभी ज्योतिर्गणोंके ऊपरी भागमें स्थित हैं और अपने तेजसे अन्धकारको दूर कर सम्पूर्ण जगत्को उद्भासित करते हैं। आप श्वेतभानु हिमतनु, ज्योतियोंके अधीश्वर, शशलान्छन, कालयोग स्वरूप, अग्निहोत्र वेदाध्ययन आदि कर्मरूप, यज्ञके परिणामभूत, अविनाशी, ओषधियोंके स्वामी, कर्मके उत्पादक, शिवजीके मस्तकपर स्थित, शीतल किरणोंवाले, अमृतके आश्रयस्थान, चञ्चल और श्वेतवाहन हैं। आप ही सौन्दर्यशाली व्यक्तियोंकि सौन्दर्य हैं और आप ही सोमपान करनेवालोंके लिये सोम हैं। आपका स्वभाव समस्त प्राणियोंके लिये सौम्य है। आप अन्धकारके विनाशक और नक्षत्रोंके स्वामी हैं इसलिये महासेन! आप कवचधारी वरुणके साथ जाइये और उस आसुरी मायाको शान्त कीजिये, जिससे हमलोग बुद्धस्थलमें जल रहे हैं' ॥ 1-10 ॥
सोमने कहा- वरदायक देवराज! यदि आप मुझे युद्धके लिये आदेश देते हैं तो मैं अभी दैत्योंकी | मायाका विनाश करनेवाले शिशिरकी वर्षा करता हूँ।आप इस भीषण युद्धमें मेरे द्वारा प्रयुक्त किये गये शीतसे जले हुए, हिमपरिवेष्टित, माया और गर्वसे रहित इन दैत्यसिंहाँको देखिये। फिर तो वरुणके पाशसहित चन्द्रमाद्वारा छोड़ी गयी हिमदृष्टिने उन भयंकर दैत्योंको मेघसमूहकी तरह घेर लिया। वे दोनों महाबली पाशधारी वरुण और शीतांशु चन्द्रमा पाश और हिमके प्रहारसे दानवोंका संहार करने लगे। वे दोनों जलके स्वामी और समरमें पाश एवं हिमके द्वारा युद्ध करनेवाले थे, अतः वे रणभूमिमें जलसे क्षुब्ध हुए दो महासागरकी भाँति विचरण करने लगे। उन दोनोंके द्वारा जलमग्न की गयी हुई दानवोंकी वह सेना उमड़े हुए संवर्तक नामक बादलोंसे आच्छादित जगत्की तरह दीख रही थी। इस प्रकार जलके स्वामी उन दोनों देवता चन्द्रमा और वरुणने देवेन्द्रद्वारा निर्मित मायाको शान्त कर दिया। रणभूमिमें शीतल किरणसमूहों से जले हुए तथा पाशों जकड़े हुए | दैत्यगण शिखररहित पर्वतोंकी तरह चलनेमें भी असमर्थ हो गये। शीतांशुके आघातसे उन दैत्योंके सर्वाङ्ग हिमसे आप्लावित हो गये और वे जलकी ठण्डकसे ठिठुर गये। इस प्रकार वे गरमीरहित अग्निकी तरह दीख रहे थे। आकाशमण्डलमें विचरनेवाले उन दैत्योंके विचित्र विमानोंकी कान्ति विपरीत हो गयी और वे लड़खड़ाकर गिरने पड़ने लगे ॥ 11-20 ॥
इस प्रकार जब मायावी मय दानवने आकाशमें उन दानवोंको वरुणके पाशद्वारा बँधे हुए तथा शीतल किरणोंद्वारा आच्छादित देखा, तब उसने चारों ओर सुप्रसिद्ध पार्वती मायाकी सृष्टि की, जो शिलासमूहसे व्याप्त तथा ढाल-तलवारसे युक्त हो अट्टहास करनेवाली थी, जिसका अग्रभाग घने वृक्षोंसे आच्छादित होनेके कारण भयंकर था, जो कन्दराओंसे व्याप्त काननोंसे युक्त, सिंहों, व्याघ्रों, चिग्घाड़ते हुए गजयूथों और भेड़ियोंसे परिपूर्ण थी, जिसके वृक्ष वायुके झकोरेसे चकर काट रहे थे, जो अपने ही प्रयत्नसे निर्मित घोर शब्द करनेवाली और आकाशमें स्वेच्छानुसार गमन करनेवाली थी। वह पार्वती माया तलवारोंकी खनखनाहट, शिलाओंकी "वृष्टि और गिरते हुए वृक्षोंसे देवसमूहों का संहार करने लगी। उधर उसने दानवोंको जीवित भी कर दिया।उसके प्रभावसे चन्द्रमा और वरुणकी दोनों भाषाएँ अन्तर्हित हो गयीं। वह दैत्य रणभूमिमें देवगणोंके ऊपर तलवारों और लोहनिर्मित अन्यान्य अस्त्रोंका प्रयोग कर रहा था। उसने रणभूमिको शिलाओं, यन्त्रों, अस्त्रों, वृक्षों और पर्वतोंसे ऐसा सघनरूपसे पाट दिया कि वहाँकी पृथ्वी पर्वतोंकी तरह चलने-फिरनेके लिये दुर्गम हो गयी। उस समय कुछ देवता पत्थरोंसे आहत कर दिये गये, कुछ शिलाओंकी मारसे खण्ड-खण्ड कर दिये गये तथा कोई भी देवता ऐसा नहीं दीख रहा था, जो वृक्षसमूहोंसे ढक न गया हो। इस प्रकार एकमात्र भगवान् गदाधरको छोड़कर देवताओंकी उस सेनाके धनुष छिन भिन्न हो गये, अस्त्रसमूह नष्ट हो गये और वह प्रयत्नहीन हो गयी। शोभाशाली परमेश्वर गदाधर युद्धस्थलमें उपस्थित होनेपर भी विचलित नहीं हुए तथा सहनशील होनेके कारण उन जगदीश्वरको क्रोध भी नहीं आया। काले मेघकी-सी कान्तिवाले कालके ज्ञाता श्रीहरि रणभूमिमें देवताओं और असुरोंके युद्धको देखनेकी इच्छासे कालकी प्रतीक्षा करते हुए स्थित थे ll 21 - 31 ॥
तदनन्तर रणभूमिमें भगवान्को अग्नि और वायु दीख पड़े। तब भगवान् विष्णुने उन्हें प्रेरित किया कि तुम दोनों इस मायाको नष्ट कर डालो। तब वृद्धिकी अन्तिम सीमापर पहुँचे हुए उन प्रचण्ड वेगशाली वायु और अग्निके प्रभावसे उस महासमरमें वह पार्वती माया जलकर भस्म हो गयी और सर्वथा नष्ट हो गयी। इसके बाद अग्निसे संयुक्त वायु और वायुसे संयुक्त अग्नि- दोनों पूरी शक्ति लगाकर युगान्तकी तरह दैत्यसेनाको भस्म करने लगे। आगे-आगे वायुदेव चलते थे, फिर वायुदेवके पीछे अग्निदेव चलते थे। इस प्रकार अग्नि और वायु उस दानव सेनामें क्रीडा करते हुए विचरण कर रहे थे। दानवोंकी सेना जलती हुई इधर-उधर भागने लगी और विमान चारों ओर जलकर गिरने लगे। दानवोंके कंधे वायुसे अकड़ गये। इस प्रकार अग्निद्वारा अपना कर्म कर चुकनेपर मायाका बन्धन निवृत्त हो गया, भगवान् गदाधरकी स्तुति की जाने लगी, दैत्यगण प्रयत्नहीन हो गये, त्रिलोकी बन्धनसे मुक्त हो गयी, परम प्रसन्न हुए देवगण सब ओर 'ठीक है, ठीक है' ऐसा शब्द बोलने लगे। इन्द्रकी विजय और दैत्योंकी पराजय हो गयी, सभी दिशाएँ शुद्ध हो गयीं, धर्मका विस्तार होने लगा।' चन्द्रमाका आवरण हट गया, सूर्य अपने स्थानपर स्थित हो गये, तीनों लोक निश्चिन्त हो गये, लोगोंमेंचरित्रबल और बन्धुत्वको भावना जाग्रत हो गयी, सभी प्राणी यज्ञकी भावनासे पूर्ण हो गये, पापोंका प्रशमन हो गया, मृत्युका बन्धन सुदृढ़ हो गया, अग्निमें आहुतियाँ पड़ने लगीं, यज्ञोंमें शोभा पानेवाले देवगण स्वर्गकी प्राधिके हेतु मार्गदर्शन करने लगे, लोकपालगण सभी दिशाओंके लिये प्रस्थित हो गये, सिद्धोंकी भावना तपस्या में "संलग्न हो गयी, पापकर्मीका अभाव हो गया, देवपक्षमें आनन्द मनाया जाने लगा। दैत्यपक्षमें उदासी छा गयी, धर्म तीन चरणोंसे स्थित हुआ और अधर्मका एक चरण रह गया, महाद्वार (यममार्ग) बंद हो गया और सन्मार्गका प्रचार होने लगा। सभी लोग अपने-अपने वर्णधर्म एवं आश्रमधर्ममें प्रवृत्त हो गये, राजाओंका दल प्रजाकी रक्षामें तत्पर होकर सुशोभित होने लगा, दानवरूपी तमोगुणके शान्त हो जानेपर जगत्में पापका विनाश हो गया। इस प्रकार अग्नि और वायुद्वारा युद्धकर्म किये जानेपर सभी विशाल लोक उन्हींसे युक्त हो गये और उन्होंके द्वारा यह विजयकी क्रिया सम्पन्न हुई ।। 32-463 ॥
तदनन्तर दैत्योंके लिये वायु और अग्निद्वारा उत्पन्न किये गये महान् भयको सुनकर सर्वप्रथम कालनेमि नामसे विख्यात दानव (युद्धभूमिमें) दिखायी पड़ा। वह सुवर्णसे युक्त मन्दराचलके समान विशालकाय था, उसके -मस्तकपर सूर्य सरीखा मुकुट चमक रहा था, वह मधुर शब्द करते हुए बाजूबंद से विभूषित था, उसके सौ बाहु, सौ मुख और सौ मस्तक थे, वह परम भयानक सौ अस्त्रोंको एक साथ धारण किये हुए था, इस प्रकार वह सौ शिखरोंवाले पर्वतकी भांति शोभा पा रहा था, दैत्योंके विशाल पक्षमें आगे बढ़ा हुआ वह दानव ग्रीष्मकालीन अग्निकी तरह दीख रहा था, उसके बाल धूमिल थे, उसकी दाढ़ी हरे रंगकी थी, वह दाँतोंसे होंठोंको दबाये हुए मुखसे युक्त था, इस प्रकार वह समूची त्रिलोकीमें विस्तृत विशाल शरीर धारण किये हुए था। वह भुजाओंसे आकाशको नापता हुआ, पैरोंसे पर्वतोंको फेंकता हुआ और मुखके निःश्वाससे जलयुक्त बादलोंको तितर-बितर करता हुआ चल रहा था। उसकी बड़ी-बड़ी लाल आँखें तिरछी मढ़ी हुई थीं। वह मन्दराचलके समान परम तेजस्वी था। वह युद्धस्थलमें समस्त देवगणोंको जलाते हुएकी तरह आ रहा था। वह देवगणोंको भयभीत कर रहा था, दसों दिशाओंको आच्छादित किये हुए था और प्रलयकालमें प्रकट हुए प्यासे मृत्युकी तरह दीख रहाथा। जो सुतलसे निकला था, जिसकी अंगुलियोंके पर्व (पोरु) विशाल थे, जो आभरणोंसे युक्त था, जिसका कवच कुछ हिल रहा था और जिसके दाहिने हाथका अग्रभाग उठा हुआ था, ऐसे शरीरसे युक्त कालनेमिने देवताओंद्वारा मारे गये दानवोंसे कहा- 'अब तुमलोग उठकर खड़े हो जाओ' ॥ 47-56 ॥
इस प्रकार समरभूमिमें शत्रुओंके प्रति कालकी-सी भीषण चेष्टा करनेवाले उस कालनेमिकी ओर सभी देवता एकटक निहारने लगे। उस समय उनके नेत्र भयसे कातर हो रहे थे। इस प्रकार चलते हुए उस कालनेमिको समस्त प्राणी ऐसे देख रहे थे मानो तीन पगसे त्रिलोकीको नापनेके लिये चलते हुए दूसरे नारायण हों । अत्यन्त विशाल शरीरवाले कालनेमिके चलते हुए पैरोंकी वायुसे आकाश चक्कर-सा काटने लगता था, इस प्रकार वह असुर युद्धभूमिमें विचरण करता हुआ देवताओंको भयभीत करने लगा। तदुपरान्त रणक्षेत्रमें असुरराज मयने कालनेमिका आलिङ्गन किया। उस समय वह दैत्य विष्णुसहित मन्दराचलके समान सुशोभित हो रहा था तदनन्तर इन्द्र आदि सभी देवता दूसरे कालकी तरह कालनेमिको आया हुआ देखकर अत्यन्त व्यथित हो गये ।। 57–61॥