मत्स्यभगवान्ने कहा—रविनन्दन ! कृतयुगकी अवधि चार हजार दिव्य वर्षोंकी बतलायी जाती है और उसकी संध्या उससे दुगुनी शतो अर्थात् आठ सौ वर्षों की होती है। उस युगमें धर्म अपने चारों पादोंसे विद्यमान रहता है और अधर्म चतुर्थांशमात्र रहता है। उस युगमें उत्पन्न होनेवाले मानव अपने धर्ममें निरत रहते हैं। ब्राह्मण धर्म-पालनमें तत्पर रहते हैं। क्षत्रिय राज धर्ममें स्थित रहते हैं। वैश्य कृषिकर्ममें लगे रहते हैं और शूद्र सेवाकार्यमें तल्लीन रहते हैं। उस समय सत्य, शौच और धर्मको अभिवृद्धि होती है। सभी लोग सत्पुरुषोंद्वारा आचरित कर्मका अनुकरण करते हैं और उसकी प्रशंसा करते हैं। पार्थिव! कृतयुगका यह आचार सभी प्राणियों में पाया जाता है, चाहे वे धर्मप्राण विप्र आदि हों अथवा नीच जातिके हों। इसके बाद तीन हजार दिव्य वर्षोंका त्रेतायुग कहलाता है उसकी संध्या उससे दुगुनी सती अर्थात् छः सौ वर्षकी कही गयी है। इस युगमें धर्म तीन चरणोंसे और अधर्म दो पादोंसे स्थित रहता है। उस समय त्रेताधर्म सत्य और सत्त्वगुणप्रधान माना जाता है। इसमें संदेह नहीं कि त्रेतायुगमें ये ब्राह्मणादि चारों वर्ण (कुछ) विकृत हो जाते हैं और इनके विकृत हो जाने के कारण चारों आश्रम भी दुर्बलताको प्राप्त हो जाते हैं। भगवानद्वारा निर्मित त्रेतायुगकी यह विचित्र गति है। अब द्वापरयुगकी जो चेष्टा है, उसे भी सुनिये ॥ 1-9॥
रविनन्दन ! द्वापरयुग दो हजार दिव्य वर्षोंका होता है। उसकी संध्या चार सौ वर्षोंकी कही जाती है। सूर्यपुत्र उस युगमें रजोगुणसे ग्रस्त सभी प्राणी अर्थपरायण होते हैं। उस युगमें जन्म लेनेवाले सभी प्राणी निष्कर्मी एवं क्षुद्र विचारवाले होते हैं। उस समय धर्म दो चरणोंसे स्थित रहता है और अधर्मकी वृद्धि तीन चरणोंसे होती है। इस प्रकार धीरे-धीरे परिवर्तन होनेके कारण कलियुगमें धर्म नष्ट हो जाता है। द्वापरयुगके परिवर्तनके समय लोगोंमें ब्राह्मणोंके प्रति आस्था नष्ट हो जाती है और | लोग व्रत-उपवास आदिको छोड़ बैठते हैं। उस समयक्रूर कलियुगका प्रवेश होता है, जिसकी संख्या संध्याके दो सौ वर्षोंसहित एक हजारकी बतलायी गयी है। उस युगमें अधर्म चारों पादोंसे प्रभावी हो जाता है और धर्म चतुर्थांशमात्र रह जाता है। उस युगमें जन्म लेनेवाले | मानव कामपरायण और तपस्यासे हीन होते हैं। कलियुगमें उत्पन्न होनेवाले मानवोंमें न तो कोई अत्यन्त सात्त्विक होता है और न साधुस्वभाव एवं सत्यवादी ही होता है। सभी नास्तिक हो जाते हैं और अपनेको परब्रह्मका भक्त बतलाते हैं। लोग अहंकारके वशीभूत और प्रेमबन्धनसे रहित हो जाते हैं। कलियुगमें सभी ब्राह्मण शूद्रके समान | आचरण करने लगते हैं। रविनन्दन ! कलियुगमें आश्रमों में भी परिवर्तन हो जाता है। युगान्तका समय आनेपर तो लोगोंमें वर्णोंका भी संदेह उत्पन्न हो जाता है ॥ 10- 18 ॥ महीपते ! इस प्रकार पूर्वकालमें निर्मित बारह हजारकी युग संख्या जाननी चाहिये। इस प्रकार जब एक हजार चतुर्युगी बीत जाती है, तब ब्रह्माका एक दिन कहा जाता है। ब्रह्माके उस दिनके व्यतीत हो जानेपर जीवोंके उत्पादक महाभूतपति श्रीहरि सभी प्राणियोंके शरीर मोक्षको देखकर लोकसंहारकी भावनासे ब्रह्मा आदि सभी देवताओं, दैत्यों, दानवों, यक्षों, राक्षसों, पक्षियों, गन्धर्वों, अप्सराओं, नागों, पर्वतों, नदियों, पशुओं, तिर्यग्योनिमें उत्पन्न हुए जीवों तथा कीटोंके पञ्चमहाभूतोंका विनाश कर जगत्का संहार करनेके निमित्त महान् विनाशकारी दृश्य उत्पन्न कर देते हैं। उस समय वे सूर्य बनकर सभीके नेत्रोंकी ज्योति नष्ट कर देते हैं, वायुरूप होकर जीवोंके प्राणसमूहको समेट लेते हैं, अग्निका रूप धारणकर सभी लोकोंको जलाकर भस्म कर देते हैं तथा मेघ बनकर पुनः भयंकर वृष्टि करते हैं ॥ 19 - 24 ॥