मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन्! अब मैं कृतयुगमें घटित हुए भगवान् विष्णुके विष्णुत्व एवं हरित्व, देवताओंमें वैकुण्ठत्व और मनुष्योंमें कृष्णत्वका वर्णन कर रहा हूँ, सुनो। उस ईश्वरके कर्मोंकी यह गति बड़ी गहन है। इस समय तुम विष्णुके भूत एवं भावी अवतारोंके विषयमें यथार्थरूपसे श्रवण करो। जो ये ऐश्वर्यशाली अव्यक्तस्वरूप भगवान् हैं, वे ही व्यक्तरूपमें भी प्रकट होते हैं। वे हो नारायण अनन्तात्मा, सबके उत्पत्तिस्थान और अविनाशी भी कहे जाते हैं। ये सनातन नारायण श्रीहरि ब्रह्मा, वायु, सोम, धर्म, इन्द्र और बृहस्पतिके रूपमें भी प्रकट होते हैं। रविनन्दन ये सर्वव्यापी विष्णु अदिति पुत्ररूपमें उत्पन्न होकर इन्द्रके अनुज 'उपेन्द्र' के नामसे विख्यात होते हैं। इन सर्वव्यापीका अदितिके पुत्ररूपमें उत्पन्न होनेके दो कारण हैं- एक तो अदितिपर कृपा करना और दूसरा देवशत्रु दैत्यों, दानवों और राक्षसोंका वध करना। इन प्रधानात्मा प्रभुने सर्वप्रथम ब्रह्माको उत्पन्न किया उन पूर्वपुरुषने पूर्व कल्पमें प्रजापतियोंकी सृष्टि की।सत्पात् ब्रह्मा वंश उत्पन होनेवाले सर्वश्रेष्ठ मान उत्पन्न किया। उन महात्माओंके सम्पर्क एक ही शा ब्रह्म अनेक रूपों में विभक्त हो गया। लोकोंमें वर्णन करनेयोग्य भगवान् विष्णुके कर्मोका यह अनुकीर्तन परम आश्चर्यजनक है। मैं उसका वर्णन कर रहा हूँ सुनो ॥ 1-9 ॥
राजन्। कृतयुगको स्थितिके समय वृत्रासुरा हो जानेके पश्चात् त्रिलोकीमें विख्यात तारकामय संग्राम हुआ था जिसमें संग्राममें कठिनतासे जीते जानेवाले सभी भयंकर दानव यक्ष, नाग और राक्षसोंसहित सभी देवगणोंका संहार कर रहे थे। इस प्रकार मारे जाते हुए ये देवगण शस्त्ररहित हो युद्धसे विमुख हो गये और मनसे अपने रक्षक सामर्थ्यशाली भगवान् नारायणको शरणमें गये। इसी बीच बुझते हुए अंगारकी-सी कान्तिवाले मेघोंने सूर्य, चन्द्रमा और ग्रहगणोंसमेत आकाशमण्डलको आच्छादित कर लिया। वे प्रचण्ड बिजलियोंसे युक्त थे । तथा भयंकर गर्जना कर रहे थे। पुनः एक-दूसरेके वेगसे आहत हो सातों प्रकारकी वायु बहने लगी। उस समय कौंधती हुई बिजली और जलसे युक्त बादलों, वज्रके समान वेगशाली अग्नि और वायुके झकोरों तथा अत्यन्त भयंकर शब्दोंसे युक्त उत्पातोंद्वारा आकाश जलता हुआ सा दीख रहा था। आकाशमै उड़ती हुई हजारों उल्काएं भूतलपर गिरने लगीं। दिव्य विमान लड़खड़ाते हुए गिरने लगे। चारों युगोंकी समाप्तिके समय लोकोंके लिये जैसा भयकारी विनाश उपस्थित होता है, वैसा ही उत्पात उस समय भी घटित हुआ। सभी रूपवती वस्तुएँ विकृत हो गयीं। सारा जगत् प्रकाशहीन हो गया, जिससे कुछ भी जाना नहीं जा सकता था। घने अन्धकारसे ढकी हुई दसों दिशाएँ शोभाहीन हो गयीं। उस समय काले मेघोंके अवगुण्ठनसे युक्त काला रूप धारण करनेवाली देवी आकाशमें प्रविष्ट हुई घोर अन्धकारसे आवृत होनेके कारण सूर्यके छिप
जानेसे आकाशमण्डलको शोभा जाती रही।॥ 10- 19 ॥ उसी समय सामर्थ्यशाली भगवान्ने अपने दोनों हाथोंसे अन्धकारसहित घन समूहों को दूर हटाकर कृष्णवर्णका दिव्य शरीर प्रकट किया। उसकी कान्ति काले मेघ और कञ्चलके समान थी, उसके रोएँ भी काले मेघ-जैसे थे, वह तेज और शरीर दोनोंसे कजलगिरिकी भाँति कृष्ण था, उसपर उद्दीप्स पीताम्बर शोभा पा रहा था, वह तपाये हुए स्वर्णमय आभूषणोंसे विभूषित, धुएँके अन्धकारकी सी कान्तिसे युक्त तथाप्रलयकालमें प्रकट हुई अग्निके समान उद्भासित हो रहा था, उसके कंधे दुगुने एवं चौगुने मोटे थे, उसके बाल किरीटसे ढके होनेके कारण शोभा पा रहे थे, वह स्वर्ण सदृश चमकीले आयुधोंसे सुशोभित था, उससे चन्द्रमा और सूर्यकी किरणों जैसी प्रभा निकल रही थी, वह पर्वत शिखरकी तरह ऊँचा था, उसके हाथ नन्दक नामक खड्ग और विषैले सर्पों जैसे बाणोंसे युक्त थे, वह चित्तल मछलीके समान विशाल शक्ति, शङ्ख, चक्र और गदा धारण किये हुए था, क्षमा जिसका मूल था, जो श्रीवृक्षसे सम्पन्न, शार्ङ्गधनुषसे युक्त, देवताओंको उत्तम फल देनेवाला, देवानारूपी रुचिर सुशोभित सभी लोगों मनको प्रिय लगनेवाला, सम्पूर्ण जीवोंसे युक्त होनेके कारण मनोहर, नाना प्रकारके विमानरूपी वृक्षोंसे युक्त और बादलोंके मीठे जलको टपकानेवाला, विद्या और अहंकारके सारसे सम्पन्न तथा महाभूतरूपी वृक्षोंको उगानेवाला था, वह घने पत्तोंसे आच्छादित था, उसपर ग्रह-नक्षत्ररूप पुष्प खिले हुए थे, दैत्योंके लोक उसकी | विशाल शाखाके रूपमें थे, ऐसा वह विष्णुशैल मृत्युलोकमें प्रकाशित हो रहा था ॥ 20- 28 ll
रसातलतक व्याप्त रहनेवाला वह नारायणरूप महासागर सागरकी भाँति शब्द कर रहा था, वह मृगेन्द्ररूपी पाशोंसे व्याप्त, पंखभारी जन्तुओंसे सेवित, शील और अर्थकी सुन्दर गन्धसे युक्त तथा सम्पूर्ण लोकरूपी महान् वृक्षसे सम्पन्न था, नारायणका अव्यक्त स्वरूप उसका अगाध जल था, वह व्यक्त अहंकाररूप फेनसे युक्त था, उसमें महाभूतगण लहरोंके समूह थे, ग्रह और नक्षत्र बुद्बुदकी तरह शोभा पा रहे थे, वह विमानोंके चलनेसे होनेवाले शब्दोंसे व्याप्त था, वह बादलोंके आडम्बर से सम्पन्न, जलजन्तुओं और मत्स्यसमूहोंसे परिपूर्ण और समुद्रस्थ पर्वतों एवं शङ्खसमूहसे युक्त था। उसमें त्रिगुणयुक्त विषयोंकी भँवरें उठ रही थीं और सारा लोक तिमिंगिल (बहुत बड़ी मछली) के समान था, वीरगण वृक्षों और लताओंके झुरमुट थे, बड़े-बड़े नाग सेवारके समान थे, बारहों आदित्य महाद्वीप और ग्यारहों रुद्र नगर थे, यह महासागर आठों वसुओंरूप पर्वतसे युद्ध और त्रिलोकीरूप जलसे भरा हुआ था, उसके जलमें असंख्य संध्यारूप लहरें उठ रही थीं, वह सुपर्णरूप वायुसे सेवित, दैत्य और राक्षसगणरूप ग्राह तथा यक्ष एवं नागरूप मीनसे व्याप्त था, पितामह ब्रह्मा ही उसमें महान पराक्रमी व्यक्ति थे, वह सभी खीरत्नों तथा श्री, कीर्ति, कान्ति और लक्ष्मीरूपी नदियोंसे सुशोभित था, उसमें समयानुसार महान् पर्व और प्रलयकी उत्पत्ति होती रहती थी, ऐसा वह योगरूप महान् तटवाला नारायण महासागर था ॥ 29 - 363 ॥
उस समय दैत्योंसे पराजित हुए देवताओंने आकाशमें उन देवाधिदेव भगवान्को, जो भक्तोंके वरदायक, भक्तवत्सल, अनुग्रह करनेवाले, प्रशान्तिकारक, शुभमय और भयके अवसरोंपर अभय प्रदान करनेवाले हैं, देखा। वे ऐसे लोकमय दिव्य रथपर विराजमान थे, जो इन्द्रके रथके समान था, जिसपर गरुडध्वज फहरा रहा था, जिसमें सभी ग्रह चन्द्र और सूर्य उपस्थित थे, जो मन्दराचलकी श्रेष्ठ धुरीपर आधारित था, वह असंख्य किरणोंसे युक्त मेरुकी विस्तृत गुफा जैसा लग रहा था, उसमें तारकाएँ विचित्र पुष्पोंके सदृश तथा ग्रह और नक्षत्र हंसके समान शोभा पा रहे थे तब इन्द्र आदि वे सभी देवता हाथ जोड़कर जय-जयकार करते हुए उन शरणागतवत्सलको शरणमें गये ॥ 37-413 ॥
इस प्रकार देवताओंकी वह आर्त-वाणी सुनकर देवाधिदेव भगवान् विष्णुने महासमरमें दानवोंका विनाश करनेको सोचा। तब उत्तम शरीर धारण करके आकाशमें स्थित हुए भगवान् विष्णु सभी देवताओंसे प्रतिज्ञापूर्वक ऐसी वाणी बोले 'देवगण! तुम्हारा कल्याण हो। तुमलोग शान्त हो जाओ, भय मत करो, ऐसा समझो कि मैंने सभी दानवोंको जीत लिया है। अब तुमलोग पुनः त्रिलोकीका राज्य ग्रहण करो।' इस प्रकार उन सत्यसंध भगवान् विष्णुके वचनसे वे देवगण परम संतुष्ट हुए और उन्हें ऐसी प्रसन्नता प्राप्त हुई, मानो उत्तम अमृत ही पान करनेको मिल गया हो। तदनन्तर वह निविड़ अन्धकार नष्ट हो गया। बादल विनष्ट हो गये। सुखदायिनी वायु चलने लगी और दसों दिशाएँ शान्त हो गयीं। ज्योतिर्गणोंकी प्रभा निर्मल हो गयी। तब चन्द्रमा और वे सभी ज्योतिर्गण प्रदक्षिणा करने लगे। ग्रहोंमें परस्पर विग्रहका भाव नष्ट हो गया। सागर प्रशान्त हो गये। मार्ग धूलरहित हो गये। स्वर्गादि तीनों लोकोंमें शान्ति स्थापित हो गयी। नदियाँ यथार्थरूपसे प्रवाहित होने लगीं। समुद्रोंका ज्वार-भाटा | शान्त हो गया। मनुष्योंकी अन्तरात्माएँ तथा इन्द्रियाँशुभकारिणी हो गयीं। महर्षियोंका शोक नष्ट हो गया, वे उच्च स्वरसे वेदोंका अध्ययन करने लगे। यज्ञोंमें अग्निको पके हुए मङ्गलकारक हविकी प्राप्ति होने लगी। इस प्रकार शत्रुका विनाश करनेके विषयमें दत्तप्रतिज्ञ भगवान् विष्णुकी वाणी सुनकर सभी लोगोंका मन हर्षित हो गया, तब वे अपने-अपने धर्मोंमें संलग्न हो गये ।