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मत्स्य पुराण (मत्स्यपुराण)

Matsya Purana (Matsyapurana )

अध्याय 148 - Adhyaya 148

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तारकासुरकी तपस्या और ब्रह्माद्वारा उसे वरदानप्राप्ति, देवासुर संग्रामकी तैयारी तथा दोनों दलोंकी सेनाओंका वर्णन

तारकने कहा- महाबली असुरो! आपलोग ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनें। आप सभी लोगोंको इस कार्यकी तैयारीमें सर्वप्रथम अपने कल्याणके लिये विचार कर लेना चाहिये। दानववृन्द ! देवतालोग हम सभीके कुलका (सदा) संहार करते रहते हैं, इस कारण उनके साथ विरोध करना हमलोगोंका जातिगत धर्म है और उनके साथ हमारा (सदा) अक्षय वैर बँधा रहता है। हम सभी लोग अपने बाहुबलका आश्रय लेकर आज ही उन देवताओंका दमन करनेके लिये चलेंगे, इसमें कोई संशय नहीं है, किंतु दितिनन्दनो तपोबलसे सम्पन्न हुए बिना मैं | देवताओंके साथ लोहा लेना उचित नहीं समझता, | अतः मैं पहले घोर तपस्या करूँगा, तत्पश्चात् हमलोगदेवताओंको पराजित करेंगे और त्रिलोकी के सुखका उपभोग करेंगे; क्योंकि सुदृढ़ उपाय करनेवाला पुरुष ही अनपायिनी लक्ष्मीका पात्र होता है चञ्चल बुद्धिवाला पुरुष चञ्चला लक्ष्मीकी रक्षा नहीं कर सकता।

तारकासुरके उस कथनको सुनकर वहाँ उपस्थित सभी दानव और दैत्य आश्चर्यचकित हो उठे और ये सभी 'ठीक है, ठीक है' ऐसा कहने लगे। तत्पश्चात् तारकासुर (तपस्या करनेके लिये) पारियात्र पर्वत | (अरावली एवं विंध्यका पश्चिम भाग) की उत्तम कन्दराके पास पहुँचा। वह पर्वत सभी ऋतुओं में विकसित होनेवाले पुष्पोंसे व्याप्त, अनेक प्रकारकी औषधियोंसे उद्दीप्त, विविध धातुओंके रसोंके चूते रहनेसे चित्र-विचित्र, अनेकों गुहारूपी गृहोंसे युक्त, सब ओरसे घने वृक्षोंसे घिरा, रंग-बिरंगे कल्पवृक्षोंसे आच्छादित और अनेकों प्रकारके आकारवाले बहुत से पक्षि-समूहोंसे सर्वत्र व्याप्त था उस पर्वतसे अनेकों झरने झर रहे थे तथा वह अनेकविध जलाशयोंसे सुशोभित था उसको कन्दरा में जाकर तारक दैत्य घोर तपस्यामें संलग्न हो गया ॥ 1-10 ॥ पहले वह सौ-सौ वर्षोंके क्रमसे निराहार रहकर, फिर पञ्चाग्रि तापकर, पुनः पत्ते खाकर तत्पश्चात् केवल जल पीकर तपस्या करता रहा। इसके बाद उसने प्रतिदिन अपने शरीरसे सोलह माशा मांस काट-काटकर अग्निमें हवन करना प्रारम्भ किया, जिससे उसका शरीर मांसरहित हो गया। इस प्रकार उसके मांसरहित हो जानेपर वह तपःपुञ्ज सा दीख पड़ने लगा। उसके तेजसे चारों ओर सभी प्राणी संतप्त हो उठे। समस्त देवगण उसकी तपस्यासे भयभीत हो उद्विग्र हो गये। इसी अवसरपर ब्रह्मा उसकी भीषण तपस्यासे परम प्रसन्न हो गये। तब वे तारकासुरको वर प्रदान करनेके लिये स्वर्गलोकसे चल पड़े और उस पर्वतराज पारियात्रपर जा पहुँचे। वहाँ वे देवाधिदेव उस पर्वतकी कन्दरामें स्थित तारकके निकट जाकर उससे मधुर वाणीमें बोले ॥ 11-15 ll

ब्रह्माजीने कहा- पुत्र! तुम्हें अब तप करनेकी आवश्यकता नहीं, वह पूरी हो चुकी अब तुम्हारे लिये कुछ भी असाध्य नहीं है। अब तुम्हारे मनमें जो रुचे, वह उत्तम वर माँग लो।ब्रह्माद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर परम पराक्रमी दैत्यराज तारकने स्वयम्भू भगवान् ब्रह्माको प्रणाम किया और विनम्रभावसे हाथ जोड़कर कहा ।।16-17 ।।

तारक बोला- सभी प्राणियोंके मनमें निवास करनेवाले देव! आप सभी जीवोंकी चेष्टाको जानते हैं। प्रायः प्रत्येक मनुष्य अपने शत्रुसे बदला लेनेकी भावनासे उसे जीतनेका इच्छुक रहता है। हमलोगोंका जातिधर्मानुसार देवताओंक साथ वैर है। उन क्रूरकर्मी देवताओंने धर्मको तिलाञ्जलि देकर प्रायः दैत्योंको निःशेष कर दिया है। मैं उनका उन्मूलन करनेवाला हो जाऊँ― ऐसा मेरा विचार है। साथ ही मैं समस्त प्राणियों तथा परम तेजस्वी अस्त्रोंद्वारा अवध्य हो जाऊँ यही उत्तम वर मेरे हृदयमें स्थित है। देवेश! मुझे यही वर दीजिये। मुझे किसी अन्य वरकी अभिलाषा नहीं है। यह सुनकर सुरनायक ब्रह्म उस दैत्यराजसे बोले-'दै कोई भी देहधारी जीव मृत्युसे नहीं बच सकता, अर्थात् जो जन्म धारण करता है, उसकी मृत्यु अवश्य होती है, इसलिये जिससे तुम्हें मृत्युकी आशङ्का न हो, उसीसे अपनी मृत्युका वर माँग लो।' तब गर्वसे मूढ़ हुए महासुर दैत्यराज तारकने भलीभाँति सोच-विचारकर सात दिनके बालकके हाथसे अपनी मृत्युका वर माँगा । तदनन्तर देवाधिदेव ब्रह्मा उसके मनके अभिलाषानुसार उसे वर देकर स्वर्गलोकको चले गये। इधर दैत्यराज तारक भी अपने निवासस्थानको लौट आया। तब सभी दैत्याधिपति तपस्याको पूर्ण करके लौटे हुए उस दैत्यराज तारकको घेरकर इस प्रकार बातें करने लगे, जैसे स्वर्गलोकमें देवगण इन्द्रको घेरकर बातें करते हैं॥ 18-25 ll

दैत्योंके उस महान् साम्राज्यपर दैत्यनन्दन तारकके अवस्थित होनेपर छहों ऋतुएँ शरीर धारण कर अपने अपने कालके अनुसार सभी गुणोंसे युक्त हो उपस्थित हुई सभी लोकपाल उसका किंकर बनकर रहने लगे। कान्ति, द्युति, धृति, मेधा और श्री- ये सभी देवियाँ गुणयुक्त होकर निष्कपट भावसे उस दानवराजकी ओर देखती हुई उसे घेरकर खड़ी रहती थीं। जब वह दैत्यराज शरीरमें काला अगुरुका लेप कर बहुमूल्य मुकुटसे विभूषित हो|और मनोहर बाजूबंद बांधकर विशाल सिंहासनपर बैठता तब श्रेष्ठ अप्सराएँ उसपर निरन्तर पंखा झलती रहती थीं और क्षणमात्रके लिये भी उससे पृथक नहीं होती थीं मुनिवरो उसके महलमें चन्द्रमा और सूर्य दीपके स्थानपर, वायुदेव पंखोंके स्थानपर तथा कृतान्त उसके अग्रेसरके स्थानपर नियुक्त हुए। इस प्रकार (सुखपूर्वक) बहुत-सा समय व्यतीत हो जानेपर एक दिन उत्कृष्ट वरप्राप्सिसे गर्वित हुआ दैत्यराज तारकासुर अपने मन्त्रियोंसे बोला ॥ 26-31 ॥

तारकने कहा— अमात्यो! स्वर्गलोकपर आक्रमण किये बिना मुझे इस राज्यसे क्या लाभ? देवताओंसे बैरका बदला चुकाये बिना मेरे हृदयमें शान्ति कहाँ? अभी भी देवगण स्वर्गलोकमें यज्ञांशोंका उपभोग कर रहे हैं। विष्णु लक्ष्मीको नहीं छोड़ रहा है और निर्भय होकर स्थित है। स्वर्गलोकमें क्रीडागारोंमें मदिराकी गन्धसे युक्त दुबले-पतले शरीरवाले श्रेष्ठ देवगण सुन्दरी देवाङ्गनाओंद्वारा आलिङ्गित किये जा रहे हैं। कोई भी व्यक्ति यदि जन्म लेकर अपना पुरुषार्थ नहीं प्रकट करता तो उसका जन्म लेना व्यर्थ है, उससे तो जन्म न लेनेवाला ही विशिष्ट है। जो पुरुष माता-पिताकी कामनाओंको पूर्ण नहीं करता, अपने बन्धुओंका शोक नष्ट नहीं करता और हिमके समान उज्ज्वल कीर्तिका अर्जन नहीं करता, वह जन्म लेकर भी मरे हुएके समान है ऐसा मेरा विचार है इसलिये श्रेष्ठ देवताओंको जीतने तथा त्रिलोकीकी लक्ष्मीका अपहरण करनेके लिये शीघ्र ही मेरा आठ पहियेवाला रथ, अजेय दैत्यसैन्यसमूह, स्वर्णपत्र जटित ध्वज और मुक्ताकी लड़ियोंसे सुशोभित छत्र तैयार किया जाय ॥ 32-37॥

दैत्यराज तारककी बात सुनकर उसके सेनानायक महाबली ग्रसन नामक दानवने उसके आज्ञानुसारकार्य करना आरम्भ किया। उसने तुरंत ही गम्भीर शब्द करनेवाली भेरी बजाकर दैत्योंको बुलाया। फिर आठ पहियोंसे विभूषित रथमें एक हजार घोड़े जोत दिये गये। ( वह उसपर सवार हुआ।) वह रथ चार योजन विस्तारवाला और अनेकों क्रीडागृहोंसे युक्त था। उसपर श्वेत वस्त्रका आच्छादन पड़ा हुआ था तथा वह गीतों और वाद्योंकी मधुर ध्वनिसे मनोहर लग रहा था। उस समय वह ऐसा दीख रहा था, मानो देवराज इन्द्रदेवका विमान हो उस समय दस करोड़ दैत्याधिपति उपस्थित थे, वे सभी दैत्य प्रचण्ड पराक्रमी थे उनका अगुआ जम्भ था। इसके बाद कुजम्भ महिष, कुंजर, मेघ कालनेमि, निमि मथन, जम्भक और शुम्भ नामक दस दैत्येन्द्र सेनानायक थे। इनके अतिरिक्त अन्य भी सैकड़ों दैत्य थे जो पृथ्वीका मर्दन करनेमें समर्थ थे। ये सभी दैत्येन्द्र पर्वतके समान विशाल शरीरवाले, प्रचण्ड पराक्रमी, नाना प्रकारके आयुधोंका प्रयोग करनेमें निपुण और अनेकविध शस्त्रास्त्रोंकी प्रयोगविधिमें पारंगत थे। तारकासुरका स्वर्णभूषित ध्वज अत्यन्त भयंकर था। शत्रुका विनाश करनेवाले सेनापति ग्रसनका ध्वज मकरके आकारसे युक्त था। जम्भका ध्वज लौहनिर्मित था और उसपर पिशाचके मुखका चिह्न बना हुआ था। कुजम्भके ध्वजपर हिलती हुई पूँछवाला गधा अङ्कित था। महिषके ध्वजपर स्वर्णनिर्मित शृगालका चित्र था। शुम्भका ध्वज काले लोहेका बना हुआ अत्यन्त ऊँचा था और उसपर फौलादका बना काकका आकार चित्रित था ॥ 38-47 ॥

इसी प्रकार अन्य दैत्योंके ध्वजोंपर भी अनेकों प्रकारके आकारका विन्यास किया गया था। ग्रसनके रथमें सौ शीघ्रगामी व्याघ्र जुते हुए थे, जिनके गलेमें सोनेकी मालाएँ पड़ी थीं और जो क्षुद्रघंटिकाओंसे सुशोभित थे। जम्भका दुर्जय रथ भी सौ सिंहोंद्वारा खींचा जा रहा था। कुम्भका रथ पिशाच सदृश मुखवाले च-सदृश | गधोंसे युक्त था। महिषका रथ ऊँटों कुंजरका घोड़ों, मेकाचीतों और कालनेमिका भयंकर हाथियोंसे संयुक्त था। दैत्यनायक निमि एक ऐसे रथपर सवार था जिसमें मतवाले गजराज जुते हुए थे, जो पर्वतके समान विशालकाय और चार दाँतोंसे युक्त थे, जिनके गण्डस्थलोंसे मदकी धारा बह रही थी, जो मेघ सदृश भयंकर गर्जना करनेवाले और युद्धकलामें शिक्षित थे जिसके शरीर में श्वेत चन्दनका अनुलेप लगा था और जो अनेकों प्रकारके उज्ज्वल पुष्पोंकी मालाओंसे सुशोभित था, वह मधन नामक दैत्येन्द्र हाथमें पाश लिये हुए उस सैन्यसमूहको दक्षिण दिशामें स्थित श्वेत चामरोंसे विभूषित रथपर शोभा पा रहा था। उसके रथमें सौ हाथ लम्बे शरीरवाले स्वर्णाभरणोंसे विभूषित काले रंगके घोड़े जुते हुए थे। जम्भक क्षुद्र घंटिकाओंसे सुशोभित ऊंटपर सवार था। शुम्भ नामक दानव कालके समान भयंकर एवं श्वेत वर्णवाले एक विशालकाय मेषपर आरूढ़ था। दूसरे भी दानववीर नाना प्रकारके वाहनोंपर चढ़कर चल रहे थे ।।48- 55 ॥

वे सभी अद्भुत पराक्रमपूर्ण कर्म करनेवाले, कुण्डल और पगड़ीसे विभूषित, अनेक प्रकारके दुपट्टोंसे सुशोभित, नाना प्रकारकी मालाओंसे सुसज्जित और अनेकविध सुगन्धित पदार्थोंसे सुवासित थे। उनके आगे-आगे वंदीगण स्तुति गान कर रहे थे। उनके साथ अनेकों प्रकारके युद्धके बाजे बज रहे थे और वे सभी अग्रेसर महारथी अनेकविध शृङ्गारसे सुसज्जित थे। उस सेनामें प्रधान प्रधान असुर पराक्रमपूर्ण कथाओंके कहने सुननेमें आसक्त थे। दैत्यसिंह तारकासुरकी वह सेना मतवाले एवं पराक्रमी हाथियों, घोड़ों और रोंसे व्याप्त होनेके कारण अत्यन्त भयंकर दीख रही थी। उसमें ध्वजाएँ फहरा रही थीं और बहुत से पैदल सैनिक भी थे। इस प्रकार वह सेना देवताओंसे टक्कर लेनेके लिये प्रस्थित हुई। इसी अवसरपर देवदूत वायु दानवोंकी उस सेनाको प्रस्थित होते हुए देखकर इन्द्रको सूचित करनेके लिये स्वर्गलोकमें जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने महात्मा महेन्द्रकी दिव्य सभायें जाकर | देवताओंके बीच उस उपस्थित हुए कार्यको सूचना दी।उसे सुनकर उस समय महाबाहु देवराज इन्द्रने पहले तो अपनी आँखें बंद कर लीं, फिर वे बृहस्पतिसे इस प्रकार बोले । ll 56-62 ॥

इन्द्रने कहा गुरुदेव ! देवताओंका दानवोंके साथ यह अत्यन्त भयंकर संघर्ष आ पहुँचा है। अब इस विषयमें क्या करना चाहिये, उपायसहित वह नीति बतलाइये। इन्द्रके इस वचनको सुनकर वाणीके अधीश्वर उदार बुद्धिवाले महान् भाग्यशाली बृहस्पति इस प्रकार बोले 'सुरश्रेष्ठ (इस प्रकारकी) चतुरंगिणी सेनापर विजय पानेकी इच्छा रखनेवालोंके लिये सामपूर्वक नीति बतलायी गयी है-यही सनातनी स्थिति है। नीतिके साम, भेद, दान और दण्ड-ये चार अङ्ग हैं। राजनीतिके प्रयोगमें क्रमश: देश, काल और शत्रुकी योग्यता आदिका क्रम देखना चाहिये। इनमें दैत्योंपर सामनीतिका प्रयोग तो हो नहीं सकता; क्योंकि उन्हें आश्रय प्राप्त हो चुका है (वे मदमत्त हैं), जातिधर्मके अनुसार भेदनीतिका प्रयोग करके उनमें फूट भी नहीं डाला जा सकता तथा जिन्हें लक्ष्मी प्राप्त है, उन्हें दान देनेसे भी क्या लाभ होगा? अतः इनपर एकमात्र दण्डका ही उपाय उपयुक्त प्रतीत हो रहा है। यदि आपको मेरी बात रुचती हो तो | इसीका अवलम्बन कीजिये क्योंकि दुर्जनोंकि साथ की गयी सामनीति एकदम निरर्थक होती है। क्रूर लोग महात्माओंद्वारा प्रयुक्त की गयी सामनीतिको भयवश की हुई मानते हैं, अतः उनके साथ की गयी सरलता, उदारबुद्धिका प्रयोग और दयानीतिका विपरीत परिणाम होता है। दुर्बलोग सामनीतिको भी सदा भयभीत होनेके कारण प्रयुक्त की हुई मानते हैं। इसलिये दुर्जनोंपर आक्रमण करनेके लिये पुरुषार्थका ही आश्रय लेना श्रेयस्कर है। दुर्जनेोंकि आक्रान्त हो जानेपर ही उनपर प्रयुक्त की हुई क्रिया फलवती होती है यह सत्पुरुषोंका महान् व्रत है। सुजन कभी (कुसङ्गवश) अपने उत्तम स्वभावका त्याग करनेकी इच्छा कर सकता है, परंतु दुर्जन कभी भी सुजन नहीं हो सकता। मेरी बुद्धिमें तो ऐसा ही आ रहा है, अब आपलोग इस विषयमें जैसा विचार करें इस प्रकार कहे जानेपर इन्द्रने बृहस्पति से कहा- 'ऐसा ही होगा।' फिर वे अपने कर्त्तव्यके विषयमें भलीभाँति | सोच-विचार कर उस देवसभामें बोले ॥ 63-73 ।।इन्द्र ने कहा- स्वर्गवासियो आपलोग सावधानीपूर्वक मेरी बात सुनें आपलोग यज्ञके भोक्ता, संतुष्ट आत्मावाले, अत्यन्त सात्त्विक, अपनी महिमामें स्थित और नित्य जगत्का पालन करनेवाले हैं, तथापि दानवेश्वरगण अकारण ही आपलोगोंको पीड़ा पहुँचाते रहते हैं। उनपर साम आदि तीन नीतियोंके प्रयोगसे कोई लाभ है नहीं, अतः दण्डनीतिका ही विधान करना चाहिये। इसलिये अब आपलोग युद्धकी तैयारी कीजिये और मेरी सेना सुसज्जित की जाय। देवगण! आपलोग संगठित होकर शस्त्रोंको धारण कीजिये, अस्त्र- देवताओंकी पूजा कीजिये और सवारियोंको सुसज्जित करके रथोंको जोत दीजिये। इन्द्रद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर देवताओंमें जो प्रधान देव थे, वे लोग शीघ्र ही यमराजको सेनापतिके पदपर नियुक्त कर सेनाको संगठित करनेमें जुट गये। उस युद्धमें समस्त देवताओंके साथ दस हजार घोड़े सजाये गये, जो नाना प्रकारके आश्चर्ययुक्त गुणोंसे युक्त थे तथा जिनके गलेमें सोनेके घण्टे शोभा पा रहे थे। मातलिने देवराजके दुर्जय रथको सजाकर तैयार किया। यमराज अपने महिषपर सवार होकर सेनाके अग्रभागमें स्थित हुए। उस समय उनके नेत्र महाप्रलयके समय प्रचण्ड ज्वालासे धधकते हुए आकाशकी तरह धधक रहे थे और वे चारों ओरसे प्रचण्ड पराक्रमी किंकरोंसे घिरे हुए थे। अग्निदेव हाथमें शक्ति लिये हुए छागपर आरूढ हो उपस्थित हुए। अपने महान् वेगका विस्तार करनेवाले पवनदेवके हाथमें अङ्कुश शोभा पा रहा था। स्वयं भगवान् वरुण भुजगेन्द्रपर सवार थे जो राक्षसोंके अधीश्वर, आकाशचारी और भयंकर रूपवाले हैं, जिनके हाथमें तेज तलवार शोभा पा रही थी, गदा जिनका आयुध है, जो सिंहके समान भयंकर रूपसे दहाड़नेवाले हैं, वे धनाध्यक्ष देवाधिदेव कुबेर पालकीपर बैठकर समरमें उपस्थित हुए ॥74-84 ॥

चतुरङ्गिणी सेनाके साथ चन्द्रमा, सूर्य और दोनों अश्विनीकुमार भी सम्मिलित हुए। स्वर्णनिर्मित आभूषणोंसे विभूषित गन्धर्वगण अपने अधिपतियों के साथ उपस्थित हुए। उनके आसन स्वर्णनिर्मित थे, उनके उपरनोंमें सोनेकी पच्चीकारी की गयी थी, वे चित्र-विचित्र कवच, रथ और आयुधसे युक्त थे, उनके सिरोंपर स्वर्गीय मयूरपिच्छ शोभा पा रहा था और उनके ध्वजोंपर वैदूर्यमणिकी मकराकृति बनी हुई थी।इधर महान् पराक्रमी राक्षसोंके उपरने जपा-कुसुमके समान लाल रंगके थे। उनके बाल भी लाल थे। उनकी ध्वजाओंपर गोधके आकार बने हुए थे। वे निर्मल लोहेके बने हुए आभूषणोंसे विभूषित थे। उनके हाथमें मूसल, गदा और तलवार शोभा पा रहे थे। वे पगड़ी बाँधे हुए रथपर सवार थे। वे हाथीके समान विशालकाय थे और मेघके समान भयंकर गर्जना कर रहे थे, जो ऐसा लग रहा था मानो भयंकर उल्कापात अथवा वज्रपात हो रहा हो। यक्षलोग काला वस्त्र पहने हुए थे और उनके हाथोंमें भयंकर धनुष-बाण शोभा पा रहे थे। वे बड़े भयंकर और स्वर्ण एवं रत्ननिर्मित आभूषणोंसे विभूषित थे। उनकी ध्वजाओंपर तबके उलूक बने हुए थे। निशाचरोंकी सेना गैंडेके चमड़ेका उपरना धारण किये हुए बड़ी शोभा पा रही थी। उनकी ध्वजाओंमें गीधोंके पंख लगे हुए थे। वे हड्डीके आभूषणोंसे विभूषित थे। वे आयुधरूपमें मूसल धारण किये हुए थे, जिससे देखने में बड़े भयंकर लग रहे थे। उनकी सेनामें बहुत से प्राणियोंके भयंकर शब्द हो रहे थे। किंनरगण श्वेत वस्त्र धारण किये हुए थे। उनकी श्वेत पताकाओंपर बाणके चिह्न बने हुए थे। वे प्रायः मतवाले गजराजोंपर सवार थे और तेज तोमर उनके अस्त्र थे । ll 85-913 ॥

जलेश्वर वरुणको ध्वजापर चाँदीका बना हुआ हंस अङ्कित था, जिसे मुक्तासमूहों सुशोभित किया गया था। वह भयंकर धूमसे घिरे हुए अग्नि ध्वज जैसा दीख रहा था। कुबेरकी ध्वजापर पद्मरागमणि एवं बहुमूल्य रत्नोंसे वृक्षकी आकृति बनायी गयी थी। यमराजके महान् ध्वजपर काष्ठ और लोहेसे भेड़ियेका चिह्न अङ्कित किया गया था। वह ऊँचा ध्वज ऐसा लग रहा था मानो आकाशको पार कर जाना चाहता है। राक्षसेशके ध्वजपर प्रेतका मुख शोभा पा रहा था। अमित तेजस्वी चन्द्रदेव और सूर्यदेवके ध्वजपर सोनेके सिंह बने हुए थे। अधिनीकुमारोंके पर रत्नद्वारा कुम्भका आकार बना हुआ था। इन्द्रके ध्वजपर सोनेका हाथी बना हुआ था, जिसे चित्र-विचित्र रत्नोंसे सजाया गया था और वह श्वेत चँवरसे सुशोभित था। नाग, यक्ष, गन्धर्व, महोरग और निशाचरोंसे भरी हुई देवराज इन्द्रकी वह सेना त्रिभुवनमें अजेय थी। इस प्रकार उस देव सेनामें देवताओंको संख्या तैंतीस करोड़ थी। उस समय स्वर्गलोक में सहस्रनेत्रधारी महाबली पाकशासन इन्द्र ऐरावत नामक गजराजपर, जो हिमालयके समान विशालकाय था, जिसके श्वेत कान चँवरके समान हिल रहे थे, जिसके गलेमें स्वर्णनिर्मित कमलोंकी निर्मल एवं सुन्दर माला लटक रही थी, जिसके उज्जवल मस्तकपर कुङ्कुमसे पत्रभंगीकीरचना की गयी थी तथा जिसके कपोलपर भ्रमरसमूह क्रीड़ा करते हुए मँडरा रहे थे, बैठे हुए शोभा पा रहे थे। वे चित्र-विचित्र आभूषण और वस्त्र पहने हुए थे, चमकीले वस्त्रोंके बने हुए विशाल छत्रसे सुशोभित थे, उनके बाजूबंदकी फैलती हुई प्रभा भुजाके अग्रभागको सुशोभित कर रही थी और हजारों वंदी उनकी स्तुति कर रहे थे। इसी प्रकार जो घोड़ों और हाथियोंके सैन्यसमूहसे व्याप्त, श्वेत छत्र और ध्वजसमूहोंसे सुशोभित, अजेय पैदल सैनिकोंसे भरी हुई तथा नाना प्रकारके आयुध धारण करनेवाले योद्धाओंसे युक्त होनेके कारण दुस्तर वह देवसेना भी अत्यन्त शोभा पा रही थी ॥ 92 - 101 ॥

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मत्स्य पुराण
Index


  1. [अध्याय 1]मङ्गलाचरण, शौनक आदि मुनियोंका सूतजीसे पुराणविषयक प्रश्न, सूतद्वारा मत्स्यपुराणका वर्णनारम्भ, भगवान् विष्णुका मत्स्यरूपसे सूर्यनन्दन मनुको मोहित करना, तत्पश्चात् उन्हें आगामी प्रलयकालकी सूचना देना
  2. [अध्याय 2]मनुका मत्स्यभगवान्से युगान्तविषयक प्रश्न, मत्स्यका प्रलयके स्वरूपका वर्णन करके अन्तर्धान हो जाना, प्रलयकाल उपस्थित होनेपर मनुका जीवोंको नौकापर चढ़ाकर उसे महामत्स्यके सींगमें शेषनागकी रस्सीसे बाँधना एवं उनसे सृष्टि आदिके विषयमें विविध प्रश्न करना और मत्स्यभगवान्‌का उत्तर देना
  3. [अध्याय 3]मनुका मत्स्यभगवान् से ब्रह्माके चतुर्मुख होने तथा लोकोंकी सृष्टि करनेके विषयमें प्रश्न एवं मत्स्य भगवानद्वारा उत्तररूपमें ब्रह्मासे वेद, सरस्वती, पाँचवें मुख और मनु आदिकी उत्पत्तिका कथन
  4. [अध्याय 4]पुत्रीकी और बार-बार अवलोकन करनेसे ब्रह्मा दोषी क्यों नहीं हुए- एतद्विषयक मनुका प्रश्न, मत्स्यभगवान्का उत्तर तथा इसी प्रसङ्गमें आदिसृष्टिका वर्णन
  5. [अध्याय 5]दक्षकन्याओं की उत्पत्ति, कुमार कार्त्तिकेयका जन्म तथा दक्षकन्याओं द्वारा देवयोनियोंका प्रादुर्भाव
  6. [अध्याय 6]कश्यप-वंशका विस्तृत वर्णन
  7. [अध्याय 7]मरुतोंकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें दितिकी तपस्या, मदनद्वादशी व्रतका वर्णन, कश्यपद्वारा दितिको वरदान, गर्भिणी स्त्रियोंके लिये नियम तथा मरुतोंकी उत्पत्ति
  8. [अध्याय 8]प्रत्येक सर्गके अधिपतियोंका अभिषेचन तथा पृथुका राज्याभिषेक
  9. [अध्याय 9]मन्वन्तरोंके चौदह देवताओं और सप्तर्षियोंका विवरण
  10. [अध्याय 10]महाराज पृथुका चरित्र और पृथ्वी दोहनका वृत्तान्त
  11. [अध्याय 11]सूर्यवंश और चन्द्रवंशका वर्णन तथा इलाका वृत्तान्त
  12. [अध्याय 12]इलाका वृत्तान्त तथा इक्ष्वाकु वंशका वर्णन
  13. [अध्याय 13]पितृ-वंश-वर्णन तथा सतीके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें देवीके एक सौ आठ नामोंका विवरण
  14. [अध्याय 14]अच्छोदाका पितृलोकसे पतन तथा उसकी प्रार्थनापर पितरोंद्वारा उसका पुनरुद्धार
  15. [अध्याय 15]पितृवंशका वर्णन, पीवरीका वृत्तान्त तथा श्रद्ध-विधिका कथन
  16. [अध्याय 16]श्राद्धोंके विविध भेद, उनके करनेका समय तथा श्राद्धमें निमन्त्रित करनेयोग्य ब्राह्मणके लक्षण
  17. [अध्याय 17]साधारण एवं आभ्युदयिक श्राद्धकी विधिका विवरण
  18. [अध्याय 18]एकोदिए और सपिण्डीकरण श्राद्धकी विधि
  19. [अध्याय 19]श्राद्धों में पितरोंके लिये प्रदान किये गये हव्य-कव्यकी प्राप्तिका विवरण
  20. [अध्याय 20]महर्षि कौशिकके पुत्रोंका वृत्तान्त तथा पिपीलिकाकी कथा
  21. [अध्याय 21]ब्रह्मदत्तका वृत्तान्त तथा चार चक्रवाकोंकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22]श्राद्धके योग्य समय, स्थान (तीर्थ) तथा कुछ विशेष नियमोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23]चन्द्रमाकी उत्पत्ति, उनका दक्ष प्रजापतिकी कन्याओंके साथ विवाह, चन्द्रमाद्वारा राजसूय यज्ञका अनुष्ठान, उनकी तारापर आसक्ति, उनका भगवान् शङ्करके साथ युद्ध तथा ब्रह्माजीका बीच-बचाव करके युद्ध शान्त करना'
  24. [अध्याय 24]ताराके गर्भसे बुधकी उत्पत्ति, पुरूरवाका जन्म, पुरूरवा और उर्वशीकी कथा, नहुष-पुत्रोंके वर्णन-प्रसङ्गमें ययातिका वृत्तान्त
  25. [अध्याय 25]कचका शिष्यभावसे शुक्राचार्य और देवयानीकी सेवामें संलग्न होना और अनेक कष्ट सहनेके पश्चात्मृतसंजीविनी विद्या प्राप्त करना
  26. [अध्याय 26]देवयानीका कचसे पाणिग्रहणके लिये अनुरोध, कचकी अस्वीकृति तथा दोनोंका एक-दूसरेको शाप देना
  27. [अध्याय 27]देवयानी और शर्मिष्ठाका कलह, शर्मिष्ठाद्वारा कुऍमें गिरायी गयी देवयानीको ययातिका निकालना और देवयानीका शुक्राचार्यके साथ वार्तालाप
  28. [अध्याय 28]शुक्राचार्यद्वारा देवयानीको समझाना और देवयानीका असंतोष
  29. [अध्याय 29]शुक्राचार्यका नृपपको फटकारना तथा उसे छोड़कर जानेके लिये उद्यत होना और वृषपवकि आदेशसे शर्मिष्ठाका देवयानीकी दासी बनकर शुक्राचार्य तथा देवयानीको संतुष्ट करना
  30. [अध्याय 30]सखियोंसहित देवयानी और शर्मिष्ठाका वनविहार, राजा ययातिका आगमन, देवयानीके साथ बातचीत तथा विवाह
  31. [अध्याय 31]ययातिसे देवयानीको पुत्रप्राप्ति, ययाति और शर्मिष्ठाका एकान्त मिलन और उनसे एक पुत्रका जन्म
  32. [अध्याय 32]देवयानी और शर्मिष्ठाका संवाद, ययातिसे शर्मिष्ठाके पुत्र होनेकी बात जानकर देवयानीका रूठना और अपने पिताके पास जाना तथा शुक्राचार्यका ययातिको बूढ़े होनेका शाप देना
  33. [अध्याय 33]ययातिका अपने यदु आदि पुत्रोंसे अपनी युवावस्था देकर वृद्धावस्था लेनेके लिये आग्रह और उनके अस्वीकार करनेपर उन्हें शाप देना, फिर पूरुको जरावस्था देकर उसकी युवावस्था लेना तथा उसे वर प्रदान करना
  34. [अध्याय 34]राजा ययातिका विषय सेवन और वैराग्य तथा पूरुका राज्याभिषेक करके वनमें जाना
  35. [अध्याय 35]वनमें राजा ययातिकी तपस्या और उन्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति
  36. [अध्याय 36]इन्द्रके पूछनेपर ययातिका अपने पुत्र पुरुको दिये हुए उपदेशकी चर्चा करना
  37. [अध्याय 37]ययातिका स्वर्गसे पतन और अष्टकका उनसे प्रश्न करना
  38. [अध्याय 38]ययाति और अष्टकका संवाद
  39. [अध्याय 39]अष्टक और ययातिका संवाद
  40. [अध्याय 40]ययाति और अष्टकका आश्रमधर्मसम्बन्धी संवाद
  41. [अध्याय 41]अष्टक-ययाति-संवाद और ययातिद्वारा दूसरोंके दिये हुए पुण्यदानको अस्वीकार करना
  42. [अध्याय 42]राजा ययातिका वसुमान् और शिबिके प्रतिग्रहको अस्वीकार करना तथा अष्टक आदि चारों राजाओंके साथ स्वर्गमें जाना
  43. [अध्याय 43]ययाति-वंश-वर्णन, यदुवंशका वृत्तान्त तथा कार्तवीर्य अर्जुनकी कथा
  44. [अध्याय 44]कार्तवीर्यका आदित्यके तेजसे सम्पन्न होकर वृक्षोंको जलाना, महर्षि आपवद्वारा कार्तवीर्यको शाप और क्रोष्टुके वंशका वर्णन
  45. [अध्याय 45]वृष्णिवंशके वर्णन-प्रसङ्गमें स्यमन्तक मणिकी कथा
  46. [अध्याय 46]वृष्णिवंशका वर्णन
  47. [अध्याय 47]श्रीकृष्ण चरित्रका वर्णन, दैत्योंका इतिहास तथा देवासुर संग्रामके प्रसङ्गमें विभिन्न अवान्तर कथाएँ
  48. [अध्याय 48]तुर्वसु और झुके वंशका वर्णन, अनुके वंश-वर्णनमें बलिकी कथा और कर्णकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग
  49. [अध्याय 49]पूरु- वंशके वर्णन-प्रसङ्गमें भरत वंशकी कथा, भरद्वाजकी उत्पत्ति और उनके वंशका कथन, नीप - वंशका वर्णन तथा पौरवोंका इतिहास
  50. [अध्याय 50]पुरुवंशी नरेशोंका विस्तृत इतिहास
  51. [अध्याय 51]अग्नि- वंशका वर्णन तथा उनके भेदोपभेदका कथन
  52. [अध्याय 52]कर्मयोगकी महत्ता
  53. [अध्याय 53]पुराणोंकी नामावलि और उनका संक्षिप्त परिचय
  54. [अध्याय 54]नक्षत्र-पुरुष-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  55. [अध्याय 55]आदित्यशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  56. [अध्याय 56]श्रीकृष्णाष्टमी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  57. [अध्याय 57]रोहिणीचन्द्रशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  58. [अध्याय 58]तालाब, बगीचा, कुआं,बावली,पुष्करिणी तथा देव मन्दिर की प्रतिष्ठ आदिका विधान
  59. [अध्याय 59]वृक्ष लगानेकी विधि
  60. [अध्याय 60]सौभाग्यशयन-व्रत तथा जगद्धात्री सतीकी आराधना
  61. [अध्याय 61]अगस्त्य और वसिष्ठकी दिव्य उत्पत्ति, उर्वशी अप्सराका प्राकट्य और अगस्त्य के लिये अयं-प्रदान करनेकी विधि एवं माहात्म्य
  62. [अध्याय 62]अनन्ततृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  63. [अध्याय 63]रसकल्याणिनी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  64. [अध्याय 64]आर्द्रानन्दकरी तृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  65. [अध्याय 65]अक्षयतृतीया-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  66. [अध्याय 66]सारस्वत - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  67. [अध्याय 67]सूर्य-चन्द्र-ग्रहणके समय स्नानकी विधि और उसका माहात्म्य
  68. [अध्याय 68]सप्तमीस्त्रपन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  69. [अध्याय 69]भीमद्वादशी व्रतका विधान
  70. [अध्याय 70]पण्यस्त्री व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  71. [अध्याय 71]अशून्यशयन (द्वितीया ) - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  72. [अध्याय 72]अङ्गारक- व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  73. [अध्याय 73]शुक्र और गुरुकी पूजा-विधि
  74. [अध्याय 74]कल्याणसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  75. [अध्याय 75]विशोकसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  76. [अध्याय 76]फलसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  77. [अध्याय 77]शर्करासप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  78. [अध्याय 78]कमलसप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  79. [अध्याय 79]मन्दारसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  80. [अध्याय 80]शुभ सप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  81. [अध्याय 81]विशोकद्वादशी व्रतकी विधि
  82. [अध्याय 82]गुड-धेनु के दान की विधि और उसकी महिमा
  83. [अध्याय 83]पर्वतदानके दस भेद, धान्यशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  84. [अध्याय 84]लवणाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  85. [अध्याय 85]गुडपर्वतके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  86. [अध्याय 86]सुवर्णाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  87. [अध्याय 87]तिलशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  88. [अध्याय 88]कार्पासाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  89. [अध्याय 89]घृताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  90. [अध्याय 90]रत्नाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  91. [अध्याय 91]रजताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  92. [अध्याय 92]शर्कराशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य तथा राजा धर्ममूर्तिके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें लवणाचलदानका महत्त्व
  93. [अध्याय 93]शान्तिक एवं पौष्टिक कर्मों तथा नवग्रह शान्तिकी विधिका वर्णन *
  94. [अध्याय 94]नवग्रहोंके स्वरूपका वर्णन
  95. [अध्याय 95]माहेश्वर-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  96. [अध्याय 96]सर्वफलत्याग- व्रतका विधान और उसका माहात्म्य
  97. [अध्याय 97]आदित्यवार-कल्पका विधान और माहात्म्य
  98. [अध्याय 98]संक्रान्ति व्रतके उद्यापनकी विधि
  99. [अध्याय 99]विभूतिद्वादशी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  100. [अध्याय 100]विभूतिद्वादशी* के प्रसङ्गमें राजा पुष्पवाहनका वृत्तान्त
  101. [अध्याय 101]साठ व्रतोंका विधान और माहात्म्य
  102. [अध्याय 102]स्नान और तर्पणकी विधि
  103. [अध्याय 103]युधिष्ठिरकी चिन्ता, उनकी महर्षि मार्कण्डेयसे भेंट और महर्षिद्वारा प्रयाग-माहात्म्यका उपक्रम
  104. [अध्याय 104]प्रयाग-माहात्म्य-प्रसङ्गमें प्रयाग क्षेत्रके विविध तीर्थस्थानोंका वर्णन
  105. [अध्याय 105]प्रयागमें मरनेवालोंकी गति और गो-दानका महत्त्व
  106. [अध्याय 106]प्रयाग माहात्म्य वर्णन-प्रसङ्गमें वहांके विविध तीर्थोंका वर्णन
  107. [अध्याय 107]प्रयाग स्थित विविध तीर्थोका वर्णन
  108. [अध्याय 108]प्रयागमें अनशन-व्रत तथा एक मासतकके निवास ( कल्पवास) का महत्त्व
  109. [अध्याय 109]अन्य तीर्थोकी अपेक्षा प्रयागकी महत्ताका वर्णन
  110. [अध्याय 110]जगत्के समस्त पवित्र तीर्थोंका प्रयागमें निवास
  111. [अध्याय 111]प्रयाग में ब्रह्मा, विष्णु और शिवके निवासका वर्णन
  112. [अध्याय 112]भगवान् वासुदेवद्वारा प्रयागके माहात्म्यका वर्णन
  113. [अध्याय 113]भूगोलका विस्तृत वर्णन
  114. [अध्याय 114]भारतवर्ष, किम्पुरुषवर्ष तथा हरिवर्षका वर्णन
  115. [अध्याय 115]राजा पुरूरवाके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  116. [अध्याय 116]ऐरावती नदीका वर्णन
  117. [अध्याय 117]हिमालयकी अद्भुत छटाका वर्णन
  118. [अध्याय 118]हिमालयकी अनोखी शोभा तथा अत्रि - आश्रमका वर्णन
  119. [अध्याय 119]आश्रमस्थ विवरमें पुरूरवा * का प्रवेश, आश्रमकी शोभाका वर्णन तथा पुरूरवाकी तपस्या
  120. [अध्याय 120]राजा पुरूरवाकी तपस्या, गन्धवों और अप्सराओंकी क्रीडा, महर्षि अत्रिका आगमन तथा राजाको वरप्राप्त
  121. [अध्याय 121]कैलास पर्वतका वर्णन, गङ्गाकी सात धाराओंका वृत्तान्त तथा जम्बूद्वीपका विवरण
  122. [अध्याय 122]शाकद्वीप, कुशद्वीप, क्रौञ्चद्वीप और शाल्मलद्वीपका वर्णन
  123. [अध्याय 123]गोमेदकद्वीप और पुष्करद्वीपका वर्णन
  124. [अध्याय 124]सूर्य और चन्द्रमाको गतिका वर्णन
  125. [अध्याय 125]सूर्यकी गति और उनके रथका वर्णन
  126. [अध्याय 126]सूर्य रथ पर प्रत्येक मासमें भिन्न-भिन्न देवताओंका अधिरोहण तथा चन्द्रमाकी विचित्र गति
  127. [अध्याय 127]ग्रहोंके रथका वर्णन और ध्रुवकी प्रशंसा
  128. [अध्याय 128]देव-गृहों तथा सूर्य-चन्द्रमाकी गतिका वर्णन
  129. [अध्याय 129]त्रिपुर- निर्माणका वर्णन
  130. [अध्याय 130]दानवश्रेष्ठ मयद्वारा त्रिपुरकी रचना
  131. [अध्याय 131]त्रिपुरमें दैत्योंका सुखपूर्वक निवास, मयका स्वप्न-दर्शन और दैत्योंका अत्याचार
  132. [अध्याय 132]त्रिपुरवासी दैत्योंका अत्याचार, देवताओंका ब्रह्माकी शरणमें जाना और ब्रह्मासहित शिवजीके पास जाकर उनकी स्तुति करना
  133. [अध्याय 133]त्रिपुर- विध्वंसार्थ शिवजीके विचित्र रथका निर्माण और देवताओंके साथ उनका युद्धके लिये प्रस्थान
  134. [अध्याय 134]देवताओं सहित शङ्करजीका त्रिपुरपर आक्रमण, त्रिपुरमें देवर्षि नारदका आगमन तथा युद्धार्थ असुरोंकी तैयारी
  135. [अध्याय 135]शङ्करजीकी आज्ञा इन्द्रका त्रिपुरपर आक्रमण, दोनों सेनाओंमें भीषण संग्राम, विद्युन्मालीका वध, देवताओंकी विजय और दानवोंका युद्ध विमुख होकर त्रिपुरमें प्रवेश
  136. [अध्याय 136]मयका चिन्तित होकर अद्भुत बावलीका निर्माण करना, नन्दिकेश्वर और तारकासुरका भीषण युद्ध तथा प्रमथगणोंकी मारसे विमुख होकर दानवोंका त्रिपुर-प्रवेश
  137. [अध्याय 137]वापी शोषणसे मयको चिन्ता, मय आदि दानवोंका त्रिपुरसहित समुद्रमें प्रवेश तथा शंकरजीका इन्द्रको युद्ध करनेका आदेश
  138. [अध्याय 138]देवताओं और दानवोंमें घमासान युद्ध तथा तारकासुरका वध
  139. [अध्याय 139]दानवराज मयका दानवोंको समझा-बुझाकर त्रिपुरकी रक्षामें नियुक्त करना तथा त्रिपुरकौमुदीका वर्णन
  140. [अध्याय 140]देवताओं और दानवोंका भीषण संग्राम, नन्दीश्वरद्वारा विद्युन्मालीका वध, मयका पलायन तथा शङ्करजीकी त्रिपुरपर विजय
  141. [अध्याय 141]पुरूरवाका सूर्य-चन्द्रके साथ समागम और पितृतर्पण, पर्वसंधिका वर्णन तथा श्राद्धभोजी पितरोंका निरूपण
  142. [अध्याय 142]युगोंकी काल-गणना तथा त्रेतायुगका वर्णन
  143. [अध्याय 143]यज्ञकी प्रवृत्ति तथा विधिका वर्णन
  144. [अध्याय 144]द्वापर और कलियुगकी प्रवृत्ति तथा उनके स्वभावका वर्णन, राजा प्रमतिका वृत्तान्त तथा पुनः कृतयुगके प्रारम्भका वर्णन
  145. [अध्याय 145]युगानुसार प्राणियोंको शरीर स्थिति एवं वर्ण-व्यवस्थाका वर्णन, श्रौतस्मार्त, धर्म, तप, यज्ञ, क्षमा, शम, दया आदि गुणोंका लक्षण, चातुर्होत्र की विधि तथा पाँच प्रकारके ऋषियोंका वर्णन
  146. [अध्याय 146]वज्राङ्गकी उत्पत्ति, उसके द्वारा इन्द्रका बन्धन, ब्रह्मा और कश्यपद्वारा समझाये जानेपर इन्द्रको बन्धनमुक्त करना, वज्राङ्गका विवाह, तप तथा ब्रह्माद्वारा वरदान
  147. [अध्याय 147]ब्रह्माके वरदानसे तारकासुरकी उत्पत्ति और उसका राज्याभिषेक
  148. [अध्याय 148]तारकासुरकी तपस्या और ब्रह्माद्वारा उसे वरदानप्राप्ति, देवासुर संग्रामकी तैयारी तथा दोनों दलोंकी सेनाओंका वर्णन
  149. [अध्याय 149]देवासुर संग्रामका प्रारम्भ
  150. [अध्याय 150]देवताओं और असुरोंकी सेनाओंमें अपनी-अपनी जोड़ीके साथ घमासान युद्ध, देवताओंके विकल होनेपर भगवान् विष्णुका युद्धभूमिमें आगमन और कालनेमिको परास्त कर उसे जीवित छोड़ देना
  151. [अध्याय 151]भगवान् विष्णुपर दानवोंका सामूहिक आक्रमण, भगवान् विष्णुका अद्भुत युद्ध-कौशल और उनके द्वारा दानव सेनापति ग्रसनकी मृत्यु
  152. [अध्याय 152]भगवान् विष्णुका मधन आदि दैत्योंके साथ भीषण संग्राम और अन्तमें घायल होकर युद्धसे पलायन
  153. [अध्याय 153]भगवान् विष्णु और इन्द्रका परस्पर उत्साहवर्धक वार्तालाप, देवताओंद्वारा पुनः सैन्ध-संगठन, इन्द्रका असुरोंके साथ भीषण युद्ध, गजासुर और जम्भासुरकी मृत्यु तारकासुरका घोर संग्राम और उसके द्वारा भगवान् विष्णुसहित देवताओंका बंदी बनाया जाना
  154. [अध्याय 154]तारकके आदेश से देवताओंकी बन्धन-मुक्ति, देवताओंका ब्रह्माके पास जाना और अपनी विपत्तिगाथा सुनाना, ब्रह्माद्वारा तारक-वधके उपायका वर्णन, रात्रिदेवीका प्रसङ्ग, उनका पार्वतीरूपमें जन्म, काम दहन और रतिकी प्रार्थना, पार्वतीकी तपस्या, शिवपार्वती विवाह तथा पार्वतीका वीरकको पुत्ररूपमें स्वीकार करना *
  155. [अध्याय 155]भगवान् शिवद्वारा पार्वतीके वर्णपर आक्षेप, पार्वतीका वीरकको अन्तःपुरका रक्षक नियुक्त कर पुनः तपश्चर्याके लिये प्रस्थान
  156. [अध्याय 156]कुसुमामोदिनी और पार्वतीकी गुप्त मन्त्रणा, पार्वतीका तपस्यायें निरत होना आदि दैत्यका पार्वतीरूपमें शंकरके पास जाना और मृत्युको प्राप्त होना तथा पार्वतीद्वारा वीरकको शाप
  157. [अध्याय 157]पार्वतीद्वारा वीरकको शाप, ब्रह्माका पार्वती तथा एकानंशाको वरदान, एकानंशाका विन्ध्याचलके लिये प्रस्थान, पार्वतीका भवनद्वारपर पहुँचना और वीरकद्वारा रोका जाना
  158. [अध्याय 158]वीरकद्वारा पार्वतीकी स्तुति, पार्वती और शंकरका पुनः समागम, अग्निको शाप, कृत्तिकाओंकी प्रतिज्ञा और स्कन्दकी उत्पत्ति
  159. [अध्याय 159]स्कन्दकी उत्पत्ति, उनका नामकरण, उनसे देवताओंकी प्रार्थना और उनके द्वारा देवताओंको आश्वासन, तारकके पास देवदूतद्वारा संदेश भेजा जाना और सिद्धोंद्वारा कुमारकी स्तुति
  160. [अध्याय 160]तारकासुर और कुमारका भीषण युद्ध तथा कुमारद्वारा तारकका वध
  161. [अध्याय 161]हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरप्राप्ति, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, विष्णुद्वारा देवताओंको अभयदान, भगवान् विष्णुका नृसिंहरूप धारण करके हिरण्यकशिपुकी विचित्र सभायें प्रवेश
  162. [अध्याय 162]प्रह्लादद्वारा भगवान् नरसिंहका स्वरूप वर्णन तथा नरसिंह और दानवोंका भीषण युद्ध
  163. [अध्याय 163]नरसिंह और हिरण्यकशिपुका भीषण युद्ध, दैत्योंको उत्पातदर्शन, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, नरसिंहद्वारा हिरण्यकशिपुका वध तथा ब्रह्मद्वारा नरसिंहकी स्तुति
  164. [अध्याय 164]पद्मोद्भवके प्रसङ्गमें मनुद्वारा भगवान् विष्णुसे सृष्टिसम्बन्धी विविध प्रश्न और भगवान्‌का उत्तर
  165. [अध्याय 165]चारों युगोंकी व्यवस्थाका वर्णन
  166. [अध्याय 166]महाप्रलयका वर्णन
  167. [अध्याय 167]भगवान् विष्णुका एकार्णवके जलमें शयन, मार्कण्डेयको आश्चर्य तथा भगवान् विष्णु और मार्कण्डेयका संवाद
  168. [अध्याय 168]पञ्चमहाभूतों का प्राकट्य तथा नारायणकी नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  169. [अध्याय 169]नाभिकमलसे ब्रह्माका प्रादुर्भाव तथा उस कमलका साङ्गोपाङ्ग वर्णन
  170. [अध्याय 170]मधु-कैटभकी उत्पत्ति, उनका ब्रह्माके साथ वार्तालाप और भगवानद्वारा बध
  171. [अध्याय 171]ब्रह्माके मानस पुत्रोंकी उत्पत्ति, दक्षकी बारह कन्याओंका वृत्तान्त, ब्रह्माद्वारा सृष्टिका विकास तथा विविध
  172. [अध्याय 172]तारकामय-संग्रामकी भूमिका एवं भगवान् विष्णुका महासमुद्रके रूपमें वर्णन, तारकादि असुरोंके अत्याचारसे दुःखी होकर देवताओंकी भगवान् विष्णुसे प्रार्थना और भगवान्का उन्हें आश्वासन
  173. [अध्याय 173]दैत्यों और दानवोंकी युद्धार्थ तैयारी
  174. [अध्याय 174]देवताओंका युद्धार्थ अभियान
  175. [अध्याय 175]देवताओं और दानवोंका घमासान युद्ध, मयकी तामसी माया, और्वाग्निकी उत्पत्ति और महर्षि द्वारा हिरण्यकशिपुको उसकी प्राप्ति
  176. [अध्याय 176]चन्द्रमाकी सहायतासे वरुणद्वारा और्वाग्नि- मायाका प्रशमन, मयद्वारा शैली-मायाका प्राकट्य, भगवान् विष्णुके आदेश से अग्नि और वायुद्वारा उस मायाका निवारण तथा कालनेमिका रणभूमिमें आगमन
  177. [अध्याय 177]देवताओं और दैत्योंकी सेनाओंकी अद्भुत मुठभेड़, कालनेमिका भीषण पराक्रम और उसकी देवसेनापर विजय
  178. [अध्याय 178]कालनेमि और भगवान् विष्णुका रोषपूर्वक वार्तालाप और भीषण युद्ध, विष्णुके चक्रके द्वारा कालनेमिका वध और देवताओंको पुनः निज पदकी प्राप्ति
  179. [अध्याय 179]शिवजीके साथ अन्धकासुरका युद्ध, शिवजीद्वारा मातृकाओंकी सृष्टि, शिवजीके हाथों अन्धककी मृत्यु और उसे गणेशत्वकी प्राप्ति, मातृकाओंकी विध्वंसलीला तथा विष्णुनिर्मित देवियोंद्वारा उनका अवरोध
  180. [अध्याय 180]वाराणसी माहात्म्यके प्रसङ्गमें हरिकेश यक्षकी तपस्या, अविमुक्तकी शोभा और उसका माहात्म्य तथा हरिकेशको शिवजीद्वारा वरप्राप्ति
  181. [अध्याय 181]अविमुक्तक्षेत्र (वाराणसी) का माहात्म्य
  182. [अध्याय 182]अविमुक्त-माहात्म्य
  183. [अध्याय 183]अविमुक्तमाहात्म्यके प्रसङ्गमें शिव-पार्वतीका प्रश्नोत्तर
  184. [अध्याय 184]काशीकी महिमाका वर्णन
  185. [अध्याय 185]वाराणसी माहात्य
  186. [अध्याय 186]नर्मदा माहात्म्यका उपक्रम
  187. [अध्याय 187]नर्मदामाहात्यके प्रसङ्गमें पुनः त्रिपुराख्यान
  188. [अध्याय 188]त्रिपुर- दाहका वृत्तान्त
  189. [अध्याय 189]नर्मदा-कावेरी संगमका माहात्म्य
  190. [अध्याय 190]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थ
  191. [अध्याय 191]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका माहात्म्य
  192. [अध्याय 192]शुक्लतीर्थका माहाल्य
  193. [अध्याय 193]नर्मदामाहात्म्य-प्रसङ्गमें कपिलादि विविध तीर्थोंका माहात्म्य, भृगुतीर्थका माहात्स्य, भृगुमुनिको तपस्या, शिव-पार्वतीका उनके समक्ष प्रकट होना, भृगुद्वारा उनकी स्तुति और शिवजीद्वारा भृगुको वर प्रदान
  194. [अध्याय 194]नर्मदातटवर्ती तीर्थोका माहात्म्य
  195. [अध्याय 195]गोत्रप्रवर-निरूपण-प्रसङ्गमें भृगुवंशकी परम्पराका विवरण
  196. [अध्याय 196]प्रवरानुकीर्तनमें महर्षि अङ्गिराके वंशका वर्णन
  197. [अध्याय 197]महर्षि अत्रिके वंशका वर्णन
  198. [अध्याय 198]प्रवरानुकौर्तन में महर्षिं विश्चामित्र के वंशका वर्णन
  199. [अध्याय 199]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि कश्यपके वंशका वर्णन
  200. [अध्याय 200]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि वसिष्ठकी शाखाका कथन
  201. [अध्याय 201]प्रवरानुकीर्तन महर्षि पराशरके वंशका वर्णन
  202. [अध्याय 202]गोत्रप्रवरकीर्तनमें महर्षि अगस्त्य, पुलह, पुलस्त्य और क्रतुकी शाखाओंका वर्णन
  203. [अध्याय 203]प्रवरकीर्तनमें धर्मके वंशका वर्णन
  204. [अध्याय 204]श्राद्धकल्प – पितृगाथा-कीर्तन
  205. [अध्याय 205]धेनु-दान-विधि
  206. [अध्याय 206]कृष्णमृगचर्मके दानकी विधि और उसका माहाय्य
  207. [अध्याय 207]उत्सर्ग किये जानेवाले वृषके लक्षण, वृषोत्सर्गका विधान और उसका महत्त्व
  208. [अध्याय 208]सावित्री और सत्यवान्‌का चरित्र
  209. [अध्याय 209]सत्यवान्का सावित्रीको वनकी शोभा दिखाना
  210. [अध्याय 210]यमराजका सत्यवान के प्राणको बाँधना तथा सावित्री और यमराजका वार्तालाप
  211. [अध्याय 211]सावित्रीको यमराजसे द्वितीय वरदानकी प्राप्ति
  212. [अध्याय 212]यमराज - सावित्री-संवाद तथा यमराजद्वारा सावित्रीको तृतीय वरदानकी प्राप्ति
  213. [अध्याय 213]सावित्रीकी विजय और सत्यवान्की बन्धन मुक्ति
  214. [अध्याय 214]सत्यवान्‌को जीवनलाभ तथा पत्नीसहित राजाको नेत्रज्योति एवं राज्यकी प्राप्ति
  215. [अध्याय 215]राजाका कर्तव्य, राजकर्मचारियोंके लक्षण तथा राजधर्मका निरूपण
  216. [अध्याय 216]राजकर्मचारियोंके धर्मका वर्णन
  217. [अध्याय 217]दुर्ग-निर्माणकी विधि तथा राजाद्वारा दुर्गमें संग्रहणीय उपकरणोंका विवरण
  218. [अध्याय 218]दुर्गमें संग्राह्य ओषधियोंका वर्णन
  219. [अध्याय 219]विषयुक्त पदार्थोके लक्षण एवं उससे राजाके बचने के उपाय
  220. [अध्याय 220]राजधर्म एवं सामान्य नीतिका वर्णन
  221. [अध्याय 221]दैव और पुरुषार्थका वर्णन
  222. [अध्याय 222]साम-नीतिका वर्णन
  223. [अध्याय 223]नीति चतुष्टयीके अन्तर्गत भेद नीतिका वर्णन
  224. [अध्याय 224]दान-नीतिकी प्रशंसा
  225. [अध्याय 225]दण्डनीतिका वर्णन
  226. [अध्याय 226]सामान्य राजनीतिका निरूपण
  227. [अध्याय 227]दण्डनीतिका निरूपण
  228. [अध्याय 228]अद्भुत शान्तिका वर्णन
  229. [अध्याय 229]उत्पातोंके भेद तथा कतिपय ऋतुस्वभावजन्य शुभदायक अद्भुतोका वर्णन
  230. [अध्याय 230]अद्भुत उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  231. [अध्याय 231]अग्निसम्बन्धी उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  232. [अध्याय 232]वृक्षजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  233. [अध्याय 233]वृष्टिजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  234. [अध्याय 234]जलाशयजनित विकृतियाँ और उनकी शान्तिके उपाय
  235. [अध्याय 235]प्रसवजनित विकारका वर्णन और उसकी शान्ति
  236. [अध्याय 236]उपस्कर - विकृतिके लक्षण और उनकी शान्ति
  237. [अध्याय 237]पशु-पक्षी सम्बन्धी उत्पात और उनकी शान्ति
  238. [अध्याय 238]राजाकी मृत्यु तथा देशके विनाशसूचक लक्षण और उनकी शान्ति
  239. [अध्याय 239]ग्रहयागका विधान
  240. [अध्याय 240]राजाओंकी विजयार्थ यात्राका विधान
  241. [अध्याय 241]अङ्गस्फुरणके शुभाशुभ फल
  242. [अध्याय 242]शुभाशुभ स्वप्नोंके लक्षण
  243. [अध्याय 243]शुभाशुभ शकुनोंका निरूपण
  244. [अध्याय 244]वामन-प्रादुर्भाव-प्रसङ्गमें श्रीभगवान्द्वारा अदितिको वरदान
  245. [अध्याय 245]बलिद्वारा विष्णुकी निन्दापर प्रह्लादका उन्हें शाप, बलिका अनुनय, ब्रह्माजीद्वारा वामनभगवान्‌का स्तवन, भगवान् वामनका देवताओंको आश्वासन तथा उनका बलिके यज्ञके लिये प्रस्थान
  246. [अध्याय 246]बलि-शुक्र- संवाद, वामनका बलिके यज्ञमें पदार्पण, बलिद्वारा उन्हें तीन डग पृथ्वीका दान, वामनद्वारा बलिका बन्धन और वर प्रदान
  247. [अध्याय 247]अर्जुनके वाराहावतारविषयक प्रश्न करनेपर शौनकजी द्वारा भगवत्स्वरूपका वर्णन
  248. [अध्याय 248]वराहभगवान्का प्रादुर्भाव, हिरण्याक्षद्वारा रसातलमें ले जायी गयी पृथ्वीदेवीद्वारा यज्ञवराहका भगवानद्वारा उनका उद्धारस्तवन और
  249. [अध्याय 249]अमृत-प्राप्तिके लिये समुद्र मन्थनका उपक्रम और वारुणी (मदिरा) का प्रादुर्भाव
  250. [अध्याय 250]अमृतार्थ समुद्र मन्धन करते समय चन्द्रमासे लेकर विपतकका प्रादुर्भाव
  251. [अध्याय 251]अमृतका प्राकट्य, मोहिनीरूपधारी भगवान् विष्णुद्वारा देवताओंका अमृत पान तथा देवासुरसंग्राम
  252. [अध्याय 252]वास्तुके प्रादुर्भावकी कथा
  253. [अध्याय 253]वास्तु चक्रका वर्णन
  254. [अध्याय 254]वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत राजप्रासाद आदिकी निर्माण-विधि
  255. [अध्याय 255]वास्तुविषयक वेधका विवरण
  256. [अध्याय 256]वास्तुप्रकरणमें गृह निर्माणविधि
  257. [अध्याय 257]गृहनिर्माण (वास्तुकार्य ) में ग्राह्य काष्ठ
  258. [अध्याय 258]देव-प्रतिमाका प्रमाण-निरूपण
  259. [अध्याय 259]प्रतिमाओंके लक्षण, मान, आकार आदिका कथन
  260. [अध्याय 260]विविध देवताओंकी प्रतिमाओंका वर्णन
  261. [अध्याय 261]सूर्यादि विभिन्न देवताओंकी प्रतिमाके स्वरूप, प्रतिष्ठा और पूजा आदिकी विधि
  262. [अध्याय 262]पीठिकाओंके भेद, लक्षण और फल
  263. [अध्याय 263]शिवलिङ्गके निर्माणकी विधि
  264. [अध्याय 264]प्रतिमा-प्रतिष्ठा के प्रसङ्गमें यज्ञाङ्गरूप कुण्डादिके निर्माणकी विधि
  265. [अध्याय 265]प्रतिमाके अधिवासन आदिकी विधि
  266. [अध्याय 266]प्रतिमा प्रतिष्ठाकी विधि
  267. [अध्याय 267]देव (प्रतिमा) - प्रतिष्ठा के अङ्गभूत अभिषेक-स्नानका निरूपण
  268. [अध्याय 268]वास्तु शान्तिकी विधि
  269. [अध्याय 269]प्रासादोंके भेद और उनके निर्माणकी विधि
  270. [अध्याय 270]प्रासाद संलग्न मण्डपोंके नाम, स्वरूप, भेद और उनके निर्माणकी विधि
  271. [अध्याय 271]राजवंशानुकीर्तन *
  272. [अध्याय 272]कलियुगके प्रद्योतवंशी आदि राजाओं का वर्णन
  273. [अध्याय 273]आन्ध्रवंशीय शकवंशीय एवं यवनादि राजाओंका संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण
  274. [अध्याय 274]षोडश दानान्तर्गत तुलादानका वर्णन
  275. [अध्याय 275]हिरण्यगर्भदानकी विधि
  276. [अध्याय 276]ब्रह्माण्डदानकी विधि
  277. [अध्याय 277]कल्पपादप-दान-विधि
  278. [अध्याय 278]गोसहस्त्र दानकी विधि
  279. [अध्याय 279]कामधेनु दानकी विधि
  280. [अध्याय 280]हिरण्याश्व - दानकी विधि
  281. [अध्याय 281]हिरण्याश्वरथ दानकी विधि
  282. [अध्याय 282]हेमहस्तिरथ-दानकी विधि
  283. [अध्याय 283]पञ्चाङ्गल (हल) प्रदानकी विधि
  284. [अध्याय 284]हेमधरा (सुवर्णमयी पृथ्वी) दानकी विधि
  285. [अध्याय 285]विश्वचक्रदानकी विधि
  286. [अध्याय 286]कनककल्पलतादानकी विधि
  287. [अध्याय 287]सप्तसागर दानकी विधि
  288. [अध्याय 288]रत्नधेनुदानकी विधि
  289. [अध्याय 289]महाभूतघट-दानकी विधि
  290. [अध्याय 290]कल्पानुकीर्तन
  291. [अध्याय 291]मत्स्यपुराणकी अनुक्रमणिका