तारकने कहा- महाबली असुरो! आपलोग ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनें। आप सभी लोगोंको इस कार्यकी तैयारीमें सर्वप्रथम अपने कल्याणके लिये विचार कर लेना चाहिये। दानववृन्द ! देवतालोग हम सभीके कुलका (सदा) संहार करते रहते हैं, इस कारण उनके साथ विरोध करना हमलोगोंका जातिगत धर्म है और उनके साथ हमारा (सदा) अक्षय वैर बँधा रहता है। हम सभी लोग अपने बाहुबलका आश्रय लेकर आज ही उन देवताओंका दमन करनेके लिये चलेंगे, इसमें कोई संशय नहीं है, किंतु दितिनन्दनो तपोबलसे सम्पन्न हुए बिना मैं | देवताओंके साथ लोहा लेना उचित नहीं समझता, | अतः मैं पहले घोर तपस्या करूँगा, तत्पश्चात् हमलोगदेवताओंको पराजित करेंगे और त्रिलोकी के सुखका उपभोग करेंगे; क्योंकि सुदृढ़ उपाय करनेवाला पुरुष ही अनपायिनी लक्ष्मीका पात्र होता है चञ्चल बुद्धिवाला पुरुष चञ्चला लक्ष्मीकी रक्षा नहीं कर सकता।
तारकासुरके उस कथनको सुनकर वहाँ उपस्थित सभी दानव और दैत्य आश्चर्यचकित हो उठे और ये सभी 'ठीक है, ठीक है' ऐसा कहने लगे। तत्पश्चात् तारकासुर (तपस्या करनेके लिये) पारियात्र पर्वत | (अरावली एवं विंध्यका पश्चिम भाग) की उत्तम कन्दराके पास पहुँचा। वह पर्वत सभी ऋतुओं में विकसित होनेवाले पुष्पोंसे व्याप्त, अनेक प्रकारकी औषधियोंसे उद्दीप्त, विविध धातुओंके रसोंके चूते रहनेसे चित्र-विचित्र, अनेकों गुहारूपी गृहोंसे युक्त, सब ओरसे घने वृक्षोंसे घिरा, रंग-बिरंगे कल्पवृक्षोंसे आच्छादित और अनेकों प्रकारके आकारवाले बहुत से पक्षि-समूहोंसे सर्वत्र व्याप्त था उस पर्वतसे अनेकों झरने झर रहे थे तथा वह अनेकविध जलाशयोंसे सुशोभित था उसको कन्दरा में जाकर तारक दैत्य घोर तपस्यामें संलग्न हो गया ॥ 1-10 ॥ पहले वह सौ-सौ वर्षोंके क्रमसे निराहार रहकर, फिर पञ्चाग्रि तापकर, पुनः पत्ते खाकर तत्पश्चात् केवल जल पीकर तपस्या करता रहा। इसके बाद उसने प्रतिदिन अपने शरीरसे सोलह माशा मांस काट-काटकर अग्निमें हवन करना प्रारम्भ किया, जिससे उसका शरीर मांसरहित हो गया। इस प्रकार उसके मांसरहित हो जानेपर वह तपःपुञ्ज सा दीख पड़ने लगा। उसके तेजसे चारों ओर सभी प्राणी संतप्त हो उठे। समस्त देवगण उसकी तपस्यासे भयभीत हो उद्विग्र हो गये। इसी अवसरपर ब्रह्मा उसकी भीषण तपस्यासे परम प्रसन्न हो गये। तब वे तारकासुरको वर प्रदान करनेके लिये स्वर्गलोकसे चल पड़े और उस पर्वतराज पारियात्रपर जा पहुँचे। वहाँ वे देवाधिदेव उस पर्वतकी कन्दरामें स्थित तारकके निकट जाकर उससे मधुर वाणीमें बोले ॥ 11-15 ll
ब्रह्माजीने कहा- पुत्र! तुम्हें अब तप करनेकी आवश्यकता नहीं, वह पूरी हो चुकी अब तुम्हारे लिये कुछ भी असाध्य नहीं है। अब तुम्हारे मनमें जो रुचे, वह उत्तम वर माँग लो।ब्रह्माद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर परम पराक्रमी दैत्यराज तारकने स्वयम्भू भगवान् ब्रह्माको प्रणाम किया और विनम्रभावसे हाथ जोड़कर कहा ।।16-17 ।।
तारक बोला- सभी प्राणियोंके मनमें निवास करनेवाले देव! आप सभी जीवोंकी चेष्टाको जानते हैं। प्रायः प्रत्येक मनुष्य अपने शत्रुसे बदला लेनेकी भावनासे उसे जीतनेका इच्छुक रहता है। हमलोगोंका जातिधर्मानुसार देवताओंक साथ वैर है। उन क्रूरकर्मी देवताओंने धर्मको तिलाञ्जलि देकर प्रायः दैत्योंको निःशेष कर दिया है। मैं उनका उन्मूलन करनेवाला हो जाऊँ― ऐसा मेरा विचार है। साथ ही मैं समस्त प्राणियों तथा परम तेजस्वी अस्त्रोंद्वारा अवध्य हो जाऊँ यही उत्तम वर मेरे हृदयमें स्थित है। देवेश! मुझे यही वर दीजिये। मुझे किसी अन्य वरकी अभिलाषा नहीं है। यह सुनकर सुरनायक ब्रह्म उस दैत्यराजसे बोले-'दै कोई भी देहधारी जीव मृत्युसे नहीं बच सकता, अर्थात् जो जन्म धारण करता है, उसकी मृत्यु अवश्य होती है, इसलिये जिससे तुम्हें मृत्युकी आशङ्का न हो, उसीसे अपनी मृत्युका वर माँग लो।' तब गर्वसे मूढ़ हुए महासुर दैत्यराज तारकने भलीभाँति सोच-विचारकर सात दिनके बालकके हाथसे अपनी मृत्युका वर माँगा । तदनन्तर देवाधिदेव ब्रह्मा उसके मनके अभिलाषानुसार उसे वर देकर स्वर्गलोकको चले गये। इधर दैत्यराज तारक भी अपने निवासस्थानको लौट आया। तब सभी दैत्याधिपति तपस्याको पूर्ण करके लौटे हुए उस दैत्यराज तारकको घेरकर इस प्रकार बातें करने लगे, जैसे स्वर्गलोकमें देवगण इन्द्रको घेरकर बातें करते हैं॥ 18-25 ll
दैत्योंके उस महान् साम्राज्यपर दैत्यनन्दन तारकके अवस्थित होनेपर छहों ऋतुएँ शरीर धारण कर अपने अपने कालके अनुसार सभी गुणोंसे युक्त हो उपस्थित हुई सभी लोकपाल उसका किंकर बनकर रहने लगे। कान्ति, द्युति, धृति, मेधा और श्री- ये सभी देवियाँ गुणयुक्त होकर निष्कपट भावसे उस दानवराजकी ओर देखती हुई उसे घेरकर खड़ी रहती थीं। जब वह दैत्यराज शरीरमें काला अगुरुका लेप कर बहुमूल्य मुकुटसे विभूषित हो|और मनोहर बाजूबंद बांधकर विशाल सिंहासनपर बैठता तब श्रेष्ठ अप्सराएँ उसपर निरन्तर पंखा झलती रहती थीं और क्षणमात्रके लिये भी उससे पृथक नहीं होती थीं मुनिवरो उसके महलमें चन्द्रमा और सूर्य दीपके स्थानपर, वायुदेव पंखोंके स्थानपर तथा कृतान्त उसके अग्रेसरके स्थानपर नियुक्त हुए। इस प्रकार (सुखपूर्वक) बहुत-सा समय व्यतीत हो जानेपर एक दिन उत्कृष्ट वरप्राप्सिसे गर्वित हुआ दैत्यराज तारकासुर अपने मन्त्रियोंसे बोला ॥ 26-31 ॥
तारकने कहा— अमात्यो! स्वर्गलोकपर आक्रमण किये बिना मुझे इस राज्यसे क्या लाभ? देवताओंसे बैरका बदला चुकाये बिना मेरे हृदयमें शान्ति कहाँ? अभी भी देवगण स्वर्गलोकमें यज्ञांशोंका उपभोग कर रहे हैं। विष्णु लक्ष्मीको नहीं छोड़ रहा है और निर्भय होकर स्थित है। स्वर्गलोकमें क्रीडागारोंमें मदिराकी गन्धसे युक्त दुबले-पतले शरीरवाले श्रेष्ठ देवगण सुन्दरी देवाङ्गनाओंद्वारा आलिङ्गित किये जा रहे हैं। कोई भी व्यक्ति यदि जन्म लेकर अपना पुरुषार्थ नहीं प्रकट करता तो उसका जन्म लेना व्यर्थ है, उससे तो जन्म न लेनेवाला ही विशिष्ट है। जो पुरुष माता-पिताकी कामनाओंको पूर्ण नहीं करता, अपने बन्धुओंका शोक नष्ट नहीं करता और हिमके समान उज्ज्वल कीर्तिका अर्जन नहीं करता, वह जन्म लेकर भी मरे हुएके समान है ऐसा मेरा विचार है इसलिये श्रेष्ठ देवताओंको जीतने तथा त्रिलोकीकी लक्ष्मीका अपहरण करनेके लिये शीघ्र ही मेरा आठ पहियेवाला रथ, अजेय दैत्यसैन्यसमूह, स्वर्णपत्र जटित ध्वज और मुक्ताकी लड़ियोंसे सुशोभित छत्र तैयार किया जाय ॥ 32-37॥
दैत्यराज तारककी बात सुनकर उसके सेनानायक महाबली ग्रसन नामक दानवने उसके आज्ञानुसारकार्य करना आरम्भ किया। उसने तुरंत ही गम्भीर शब्द करनेवाली भेरी बजाकर दैत्योंको बुलाया। फिर आठ पहियोंसे विभूषित रथमें एक हजार घोड़े जोत दिये गये। ( वह उसपर सवार हुआ।) वह रथ चार योजन विस्तारवाला और अनेकों क्रीडागृहोंसे युक्त था। उसपर श्वेत वस्त्रका आच्छादन पड़ा हुआ था तथा वह गीतों और वाद्योंकी मधुर ध्वनिसे मनोहर लग रहा था। उस समय वह ऐसा दीख रहा था, मानो देवराज इन्द्रदेवका विमान हो उस समय दस करोड़ दैत्याधिपति उपस्थित थे, वे सभी दैत्य प्रचण्ड पराक्रमी थे उनका अगुआ जम्भ था। इसके बाद कुजम्भ महिष, कुंजर, मेघ कालनेमि, निमि मथन, जम्भक और शुम्भ नामक दस दैत्येन्द्र सेनानायक थे। इनके अतिरिक्त अन्य भी सैकड़ों दैत्य थे जो पृथ्वीका मर्दन करनेमें समर्थ थे। ये सभी दैत्येन्द्र पर्वतके समान विशाल शरीरवाले, प्रचण्ड पराक्रमी, नाना प्रकारके आयुधोंका प्रयोग करनेमें निपुण और अनेकविध शस्त्रास्त्रोंकी प्रयोगविधिमें पारंगत थे। तारकासुरका स्वर्णभूषित ध्वज अत्यन्त भयंकर था। शत्रुका विनाश करनेवाले सेनापति ग्रसनका ध्वज मकरके आकारसे युक्त था। जम्भका ध्वज लौहनिर्मित था और उसपर पिशाचके मुखका चिह्न बना हुआ था। कुजम्भके ध्वजपर हिलती हुई पूँछवाला गधा अङ्कित था। महिषके ध्वजपर स्वर्णनिर्मित शृगालका चित्र था। शुम्भका ध्वज काले लोहेका बना हुआ अत्यन्त ऊँचा था और उसपर फौलादका बना काकका आकार चित्रित था ॥ 38-47 ॥
इसी प्रकार अन्य दैत्योंके ध्वजोंपर भी अनेकों प्रकारके आकारका विन्यास किया गया था। ग्रसनके रथमें सौ शीघ्रगामी व्याघ्र जुते हुए थे, जिनके गलेमें सोनेकी मालाएँ पड़ी थीं और जो क्षुद्रघंटिकाओंसे सुशोभित थे। जम्भका दुर्जय रथ भी सौ सिंहोंद्वारा खींचा जा रहा था। कुम्भका रथ पिशाच सदृश मुखवाले च-सदृश | गधोंसे युक्त था। महिषका रथ ऊँटों कुंजरका घोड़ों, मेकाचीतों और कालनेमिका भयंकर हाथियोंसे संयुक्त था। दैत्यनायक निमि एक ऐसे रथपर सवार था जिसमें मतवाले गजराज जुते हुए थे, जो पर्वतके समान विशालकाय और चार दाँतोंसे युक्त थे, जिनके गण्डस्थलोंसे मदकी धारा बह रही थी, जो मेघ सदृश भयंकर गर्जना करनेवाले और युद्धकलामें शिक्षित थे जिसके शरीर में श्वेत चन्दनका अनुलेप लगा था और जो अनेकों प्रकारके उज्ज्वल पुष्पोंकी मालाओंसे सुशोभित था, वह मधन नामक दैत्येन्द्र हाथमें पाश लिये हुए उस सैन्यसमूहको दक्षिण दिशामें स्थित श्वेत चामरोंसे विभूषित रथपर शोभा पा रहा था। उसके रथमें सौ हाथ लम्बे शरीरवाले स्वर्णाभरणोंसे विभूषित काले रंगके घोड़े जुते हुए थे। जम्भक क्षुद्र घंटिकाओंसे सुशोभित ऊंटपर सवार था। शुम्भ नामक दानव कालके समान भयंकर एवं श्वेत वर्णवाले एक विशालकाय मेषपर आरूढ़ था। दूसरे भी दानववीर नाना प्रकारके वाहनोंपर चढ़कर चल रहे थे ।।48- 55 ॥
वे सभी अद्भुत पराक्रमपूर्ण कर्म करनेवाले, कुण्डल और पगड़ीसे विभूषित, अनेक प्रकारके दुपट्टोंसे सुशोभित, नाना प्रकारकी मालाओंसे सुसज्जित और अनेकविध सुगन्धित पदार्थोंसे सुवासित थे। उनके आगे-आगे वंदीगण स्तुति गान कर रहे थे। उनके साथ अनेकों प्रकारके युद्धके बाजे बज रहे थे और वे सभी अग्रेसर महारथी अनेकविध शृङ्गारसे सुसज्जित थे। उस सेनामें प्रधान प्रधान असुर पराक्रमपूर्ण कथाओंके कहने सुननेमें आसक्त थे। दैत्यसिंह तारकासुरकी वह सेना मतवाले एवं पराक्रमी हाथियों, घोड़ों और रोंसे व्याप्त होनेके कारण अत्यन्त भयंकर दीख रही थी। उसमें ध्वजाएँ फहरा रही थीं और बहुत से पैदल सैनिक भी थे। इस प्रकार वह सेना देवताओंसे टक्कर लेनेके लिये प्रस्थित हुई। इसी अवसरपर देवदूत वायु दानवोंकी उस सेनाको प्रस्थित होते हुए देखकर इन्द्रको सूचित करनेके लिये स्वर्गलोकमें जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने महात्मा महेन्द्रकी दिव्य सभायें जाकर | देवताओंके बीच उस उपस्थित हुए कार्यको सूचना दी।उसे सुनकर उस समय महाबाहु देवराज इन्द्रने पहले तो अपनी आँखें बंद कर लीं, फिर वे बृहस्पतिसे इस प्रकार बोले । ll 56-62 ॥
इन्द्रने कहा गुरुदेव ! देवताओंका दानवोंके साथ यह अत्यन्त भयंकर संघर्ष आ पहुँचा है। अब इस विषयमें क्या करना चाहिये, उपायसहित वह नीति बतलाइये। इन्द्रके इस वचनको सुनकर वाणीके अधीश्वर उदार बुद्धिवाले महान् भाग्यशाली बृहस्पति इस प्रकार बोले 'सुरश्रेष्ठ (इस प्रकारकी) चतुरंगिणी सेनापर विजय पानेकी इच्छा रखनेवालोंके लिये सामपूर्वक नीति बतलायी गयी है-यही सनातनी स्थिति है। नीतिके साम, भेद, दान और दण्ड-ये चार अङ्ग हैं। राजनीतिके प्रयोगमें क्रमश: देश, काल और शत्रुकी योग्यता आदिका क्रम देखना चाहिये। इनमें दैत्योंपर सामनीतिका प्रयोग तो हो नहीं सकता; क्योंकि उन्हें आश्रय प्राप्त हो चुका है (वे मदमत्त हैं), जातिधर्मके अनुसार भेदनीतिका प्रयोग करके उनमें फूट भी नहीं डाला जा सकता तथा जिन्हें लक्ष्मी प्राप्त है, उन्हें दान देनेसे भी क्या लाभ होगा? अतः इनपर एकमात्र दण्डका ही उपाय उपयुक्त प्रतीत हो रहा है। यदि आपको मेरी बात रुचती हो तो | इसीका अवलम्बन कीजिये क्योंकि दुर्जनोंकि साथ की गयी सामनीति एकदम निरर्थक होती है। क्रूर लोग महात्माओंद्वारा प्रयुक्त की गयी सामनीतिको भयवश की हुई मानते हैं, अतः उनके साथ की गयी सरलता, उदारबुद्धिका प्रयोग और दयानीतिका विपरीत परिणाम होता है। दुर्बलोग सामनीतिको भी सदा भयभीत होनेके कारण प्रयुक्त की हुई मानते हैं। इसलिये दुर्जनोंपर आक्रमण करनेके लिये पुरुषार्थका ही आश्रय लेना श्रेयस्कर है। दुर्जनेोंकि आक्रान्त हो जानेपर ही उनपर प्रयुक्त की हुई क्रिया फलवती होती है यह सत्पुरुषोंका महान् व्रत है। सुजन कभी (कुसङ्गवश) अपने उत्तम स्वभावका त्याग करनेकी इच्छा कर सकता है, परंतु दुर्जन कभी भी सुजन नहीं हो सकता। मेरी बुद्धिमें तो ऐसा ही आ रहा है, अब आपलोग इस विषयमें जैसा विचार करें इस प्रकार कहे जानेपर इन्द्रने बृहस्पति से कहा- 'ऐसा ही होगा।' फिर वे अपने कर्त्तव्यके विषयमें भलीभाँति | सोच-विचार कर उस देवसभामें बोले ॥ 63-73 ।।इन्द्र ने कहा- स्वर्गवासियो आपलोग सावधानीपूर्वक मेरी बात सुनें आपलोग यज्ञके भोक्ता, संतुष्ट आत्मावाले, अत्यन्त सात्त्विक, अपनी महिमामें स्थित और नित्य जगत्का पालन करनेवाले हैं, तथापि दानवेश्वरगण अकारण ही आपलोगोंको पीड़ा पहुँचाते रहते हैं। उनपर साम आदि तीन नीतियोंके प्रयोगसे कोई लाभ है नहीं, अतः दण्डनीतिका ही विधान करना चाहिये। इसलिये अब आपलोग युद्धकी तैयारी कीजिये और मेरी सेना सुसज्जित की जाय। देवगण! आपलोग संगठित होकर शस्त्रोंको धारण कीजिये, अस्त्र- देवताओंकी पूजा कीजिये और सवारियोंको सुसज्जित करके रथोंको जोत दीजिये। इन्द्रद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर देवताओंमें जो प्रधान देव थे, वे लोग शीघ्र ही यमराजको सेनापतिके पदपर नियुक्त कर सेनाको संगठित करनेमें जुट गये। उस युद्धमें समस्त देवताओंके साथ दस हजार घोड़े सजाये गये, जो नाना प्रकारके आश्चर्ययुक्त गुणोंसे युक्त थे तथा जिनके गलेमें सोनेके घण्टे शोभा पा रहे थे। मातलिने देवराजके दुर्जय रथको सजाकर तैयार किया। यमराज अपने महिषपर सवार होकर सेनाके अग्रभागमें स्थित हुए। उस समय उनके नेत्र महाप्रलयके समय प्रचण्ड ज्वालासे धधकते हुए आकाशकी तरह धधक रहे थे और वे चारों ओरसे प्रचण्ड पराक्रमी किंकरोंसे घिरे हुए थे। अग्निदेव हाथमें शक्ति लिये हुए छागपर आरूढ हो उपस्थित हुए। अपने महान् वेगका विस्तार करनेवाले पवनदेवके हाथमें अङ्कुश शोभा पा रहा था। स्वयं भगवान् वरुण भुजगेन्द्रपर सवार थे जो राक्षसोंके अधीश्वर, आकाशचारी और भयंकर रूपवाले हैं, जिनके हाथमें तेज तलवार शोभा पा रही थी, गदा जिनका आयुध है, जो सिंहके समान भयंकर रूपसे दहाड़नेवाले हैं, वे धनाध्यक्ष देवाधिदेव कुबेर पालकीपर बैठकर समरमें उपस्थित हुए ॥74-84 ॥
चतुरङ्गिणी सेनाके साथ चन्द्रमा, सूर्य और दोनों अश्विनीकुमार भी सम्मिलित हुए। स्वर्णनिर्मित आभूषणोंसे विभूषित गन्धर्वगण अपने अधिपतियों के साथ उपस्थित हुए। उनके आसन स्वर्णनिर्मित थे, उनके उपरनोंमें सोनेकी पच्चीकारी की गयी थी, वे चित्र-विचित्र कवच, रथ और आयुधसे युक्त थे, उनके सिरोंपर स्वर्गीय मयूरपिच्छ शोभा पा रहा था और उनके ध्वजोंपर वैदूर्यमणिकी मकराकृति बनी हुई थी।इधर महान् पराक्रमी राक्षसोंके उपरने जपा-कुसुमके समान लाल रंगके थे। उनके बाल भी लाल थे। उनकी ध्वजाओंपर गोधके आकार बने हुए थे। वे निर्मल लोहेके बने हुए आभूषणोंसे विभूषित थे। उनके हाथमें मूसल, गदा और तलवार शोभा पा रहे थे। वे पगड़ी बाँधे हुए रथपर सवार थे। वे हाथीके समान विशालकाय थे और मेघके समान भयंकर गर्जना कर रहे थे, जो ऐसा लग रहा था मानो भयंकर उल्कापात अथवा वज्रपात हो रहा हो। यक्षलोग काला वस्त्र पहने हुए थे और उनके हाथोंमें भयंकर धनुष-बाण शोभा पा रहे थे। वे बड़े भयंकर और स्वर्ण एवं रत्ननिर्मित आभूषणोंसे विभूषित थे। उनकी ध्वजाओंपर तबके उलूक बने हुए थे। निशाचरोंकी सेना गैंडेके चमड़ेका उपरना धारण किये हुए बड़ी शोभा पा रही थी। उनकी ध्वजाओंमें गीधोंके पंख लगे हुए थे। वे हड्डीके आभूषणोंसे विभूषित थे। वे आयुधरूपमें मूसल धारण किये हुए थे, जिससे देखने में बड़े भयंकर लग रहे थे। उनकी सेनामें बहुत से प्राणियोंके भयंकर शब्द हो रहे थे। किंनरगण श्वेत वस्त्र धारण किये हुए थे। उनकी श्वेत पताकाओंपर बाणके चिह्न बने हुए थे। वे प्रायः मतवाले गजराजोंपर सवार थे और तेज तोमर उनके अस्त्र थे । ll 85-913 ॥
जलेश्वर वरुणको ध्वजापर चाँदीका बना हुआ हंस अङ्कित था, जिसे मुक्तासमूहों सुशोभित किया गया था। वह भयंकर धूमसे घिरे हुए अग्नि ध्वज जैसा दीख रहा था। कुबेरकी ध्वजापर पद्मरागमणि एवं बहुमूल्य रत्नोंसे वृक्षकी आकृति बनायी गयी थी। यमराजके महान् ध्वजपर काष्ठ और लोहेसे भेड़ियेका चिह्न अङ्कित किया गया था। वह ऊँचा ध्वज ऐसा लग रहा था मानो आकाशको पार कर जाना चाहता है। राक्षसेशके ध्वजपर प्रेतका मुख शोभा पा रहा था। अमित तेजस्वी चन्द्रदेव और सूर्यदेवके ध्वजपर सोनेके सिंह बने हुए थे। अधिनीकुमारोंके पर रत्नद्वारा कुम्भका आकार बना हुआ था। इन्द्रके ध्वजपर सोनेका हाथी बना हुआ था, जिसे चित्र-विचित्र रत्नोंसे सजाया गया था और वह श्वेत चँवरसे सुशोभित था। नाग, यक्ष, गन्धर्व, महोरग और निशाचरोंसे भरी हुई देवराज इन्द्रकी वह सेना त्रिभुवनमें अजेय थी। इस प्रकार उस देव सेनामें देवताओंको संख्या तैंतीस करोड़ थी। उस समय स्वर्गलोक में सहस्रनेत्रधारी महाबली पाकशासन इन्द्र ऐरावत नामक गजराजपर, जो हिमालयके समान विशालकाय था, जिसके श्वेत कान चँवरके समान हिल रहे थे, जिसके गलेमें स्वर्णनिर्मित कमलोंकी निर्मल एवं सुन्दर माला लटक रही थी, जिसके उज्जवल मस्तकपर कुङ्कुमसे पत्रभंगीकीरचना की गयी थी तथा जिसके कपोलपर भ्रमरसमूह क्रीड़ा करते हुए मँडरा रहे थे, बैठे हुए शोभा पा रहे थे। वे चित्र-विचित्र आभूषण और वस्त्र पहने हुए थे, चमकीले वस्त्रोंके बने हुए विशाल छत्रसे सुशोभित थे, उनके बाजूबंदकी फैलती हुई प्रभा भुजाके अग्रभागको सुशोभित कर रही थी और हजारों वंदी उनकी स्तुति कर रहे थे। इसी प्रकार जो घोड़ों और हाथियोंके सैन्यसमूहसे व्याप्त, श्वेत छत्र और ध्वजसमूहोंसे सुशोभित, अजेय पैदल सैनिकोंसे भरी हुई तथा नाना प्रकारके आयुध धारण करनेवाले योद्धाओंसे युक्त होनेके कारण दुस्तर वह देवसेना भी अत्यन्त शोभा पा रही थी ॥ 92 - 101 ॥