सूतजी कहते हैं - ऋषियो ! तदनन्तर एक वर्ष व्यतीत होनेपर ताराके उदरसे एक कुमार प्रकट हुआ। वह बारहों सूर्योके समान तेजस्वी, दिव्य पीताम्बरधारी, दिव्य आभूषणोंसे विभूषित तथा चन्द्रमाके सदृश कान्तिमान था वह सम्पूर्ण अर्थशास्त्रका ज्ञाता, उत्कृष्ट बुद्धिसम्पन्न तथा हस्तिशास्त्र (हाथीके गुण-दोष तथा चिकित्सा आदि विवेचनापूर्ण शास्त्र) का प्रवर्तक था। वही शास्त्र 'राजपुत्रीय' (या पालकाप्य) -नामसे विख्यात है, इसमें गज | चिकित्साका विशद वर्णन है। सोम राजाका पुत्र होनेके कारण वह राजकुमार राजपुत्रे तथा बुधके नामसे प्रसिद्ध हुआ। उस बलवान् राजकुमारने जन्म लेते ही सभी | तेजस्वी पदार्थोंको अभिभूत कर दिया। उसके जातकर्म संस्कारके उत्सवमें ब्रह्मा आदि सभी देवता देवर्षियोंके | साथ बृहस्पतिके घर पधारे। चन्द्रमाने उस पुत्रको ग्रहण| कर लिया और उसका नाम 'बुध' रखा। तत्पश्चात् सर्वव्यापी ब्रह्माने ब्रह्मर्थियोंके साथ उसे भूतलके राज्यपर | अभिषिक्त कर सर्वप्रधान बना दिया और ग्रहोंकी समता प्रदान की। फिर सभी देवताओंके देखते-देखते ब्रह्मा वहीं अन्तर्हित हो गये। बुधने इलाके गर्भसे एक धर्मात्मा पुत्र उत्पन्न किया। वह पुरूरवा नामसे विख्यात हुआ। यह सम्पूर्ण लोगोंद्वारा वन्दित हुआ। उन्होंने अपने प्रभावसे एक सौसे भी अधिक अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान किया। उस राजा पुरूरवाने हिमवान् पर्वतके रमणीय शिखरपर भगवान् विष्णुकी आराधना करके लोकोंका ऐश्वर्य प्राप्त किया तथा ये सातों द्वीपोंके अधिपति हुए। उन्होंने केशि आदि करोड़ों दैत्योंको विदीर्ण कर दिया। उनके रूपपर मुग्ध होकर उर्वशी उनकी पत्नी बन गयी सम्पूर्ण लोकोंको हित-कामनासे युक्त पुरूरवाने पर्वत, वन और काननोंसहित सातों द्वीपोंकी पृथ्वीका धर्मपूर्वक पालन किया कीर्ति तो 1 (मानो) सदा उनकी चँवर धारण करनेवाली सेविका थी। भगवान् विष्णुकी कृपासे देवराज इन्द्रने उन्हें अपना अर्धासन प्रदान किया था ॥ 1-14 ॥
पुरूरवा धर्म, अर्थ और कामका समानरूपसे ही पालन करते थे। पूर्वकालमें एक बार धर्म, अर्थ और काम कुतूहलवश यह देखनेके लिये राजाके निकट आये कि यह हमलोगोंको समानरूपसे कैसे देखता है। उनके मनमें राजाके चरित्रको जाननेकी अभिलाषा थी। राजाने उन्हें भक्तिपूर्वक अध्यं पाद्य आदि प्रदान किया। तत्पश्चात् स्वर्णजटित तीन दिव्य आसन लाकर उनपर उन्हें बैठाया और उनकी पूजा की। इसके बाद उन्होंने पुनः धर्मकी थोड़ी अधिक पूजा कर दी। इस कारण अर्थ और काम राजापर अत्यन्त क्रुद्ध हो उठे। अर्थने राजाको शाप देते हुए कहा- 'तुम लोभके कारण नष्ट हो जाओगे।' कामने भी कहा— 'राजन् ! गन्धमादन पर्वतपर स्थित कुमारवनमें तुम्हें उर्वशीजन्य वियोगसे उन्माद हो जायगा।' धर्मने कहा- 'राजेन्द्र ! तुम दीर्घायु और धार्मिक होगे। तुम्हारी संतति करोड़ों प्रकारसे वृद्धिको प्राप्त होती रहेगी और जबतक सूर्य, चन्द्रमा तथा तारागणकी सत्ता विद्यमान है, तबतक उनका भूतलपर विनाश नहीं होगा।' 'यों कहकर वे सभी अन्तर्हित हो गये और राजा राज्यका - उपभोग करने लगे ॥ 15 - 21 ॥राजराजेश्वर पुरूरवा प्रतिदिन देवराज इन्द्रको देखनेके लिये (अमरावतीपुरी) जाया करते थे। एक बार वे सूर्यके साथ रथपर चढ़कर गगनतलके दक्षिण भागमें विचरण कर रहे थे, उसी समय उन्होंने दानवराज केशिद्वारा चित्रलेखा और उर्वशी नानी अप्सराओंको आकाशमार्गसे ले जायी जाती हुई देखा। तब विविधास्त्रधारी यशोऽभिलाषी बुध नन्दन पुरूरवाने समरभूमिमें वायव्यास्त्रका प्रयोग करके उस दानवराज केशिको पराजित कर दिया, जिसने संग्राममें इन्द्रको भी परास्त कर दिया था। तत्पश्चात् राजाने उर्वशीको ले जाकर इन्द्रको समर्पित कर दिया, जिससे उनको देवोंके साथ प्रगाढ़ मैत्री हो गयी तभीसे इन्द्र भी राजाके मित्र हो गये। फिर इन्द्रने प्रसन्न होकर राजाको समस्त लोकोंमें श्रेष्ठता, अत्यधिक बल, पराक्रम, यश और सम्पत्ति प्रदान की। साथ ही भरत मुनिद्वारा उनके यशका गान भी कराया गया। उर्वशी | पुरूरवाके प्रेमसे उनके महान् चरित्रका गान करती रहती थी। एक बार भरत मुनिद्वारा प्रवर्तित 'लक्ष्मीस्वयंवर' नाटकका अभिनय हुआ । उसमें इन्द्रने मेनका, उर्वशी और रम्भा तीनोंको नाचनेका आदेश दिया। उनमें उर्वशी लक्ष्मीका रूप धारण करके लयपूर्वक नृत्य कर रही थी। (पर) नृत्यकालमें पुरूरवाको देखकर अनुरागसे सुधबुध खो जानेके कारण भरत मुनिने उसे पहले जो कुछ अभिनयका नियम बतलाया था, वह सारा का सारा उसे विस्मृत हो गया। तब भरत मुनिने क्रोधके वशीभूत हो उसे शाप देते |हुए कहा- 'तुम इसके वियोगसे भूतलपर पचपन वर्षतक सूक्ष्मलताके रूपमें उत्पन्न होकर रहोगी और पुरूरवा वहीं पिशाचयोनिका अनुभव करेगा। ll 22-31 ll
तत्पक्षात् उर्वशीने पुरूरवाके पास जाकर चिरकालके लिये उनका पतिरूपमें वरण कर लिया। भरत मुनिद्वारा दिये गये शापकी निवृत्तिके पश्चात् उर्वशीने बुधपुत्र पुरुषवाके संयोगसे आठ पुत्रोंको जन्म दिया। उनके नाम थे— आयु, दृढायु, अश्वायु, धनायु, धृतिमान्, वसु, शुचिविद्य और शतायु ये सभी दिव्य बल पराक्रमसे सम्पन्न थे। इनमें आयुके नहुष, वृद्धशर्मा, रजि, दम्भ और विपाप्मा नामक पाँच महारथी वीर पुत्र उत्पन्न हुए। रजिके सौ पुत्र पैदा हुए, जो राजेय नामसे विख्यात हुए। रजिने पापरहित भगवान नारायणको आराधना को उनकी तपस्यासे | प्रसन्न हुए भगवान् विष्णु राजाको अनेकों पर प्रदान किये,|जिससे ये उस समय देवों, असुरों और मनुष्यों के विजेता हो गये। तदनन्तर प्रह्लाद और इन्द्रका भयंकर | देवासुर संग्राम छिड़ गया, जो तीन सौ वर्षोंतक चलता रहा; परंतु उन दोनोंमें कोई किसीपर विजय नहीं पा रहा था। तब देवताओं और असुरोंने मिलकर देवाधिदेव ब्रह्मासे पूछा- 'ब्रह्मन्! इन दोनोंमें कौन (पक्ष) विजयी होगा ?' यह सुनकर ब्रह्माने उत्तर दिया- 'जिस पक्षमें राजा रजि रहेंगे ( वही विजयी होगा)।' तब दैत्योंने | राजाके पास जाकर अपनी विजयके लिये उनसे प्रार्थना की कि 'आप हमारे सहायक हो जायें।' उनकी प्रार्थना सुनकर रजिने कहा- 'यदि मैं आप लोगोंका स्वामी हो जाऊँ तभी उपयुक्त सहायता हो सकेगी।' परंतु असुरोंने उस प्रस्तावको स्वीकार नहीं किया, किंतु देवताओंने उसे स्वीकार करते हुए कहा- 'राजन् ! आप हमलोगोंके स्वामी हो जायँ और संग्राममें शत्रुओंका संहार करें। तदनन्तर राजा रजिने उन सभी असुरोंको मौतके घाट उतार दिया, जो इन्द्रद्वारा अवध्य थे। इस कर्मसे प्रसन्न होकर देवराज इन्द्र राजाके पुत्र बन गये। तब राजा रजि इन्द्रको राज्य समर्पित कर स्वयं तपस्या करनेके लिये चले गये ।। 32-42 ।।
तत्पश्चात् तपस्या, बल और गुणोंसे सम्पन्न रजिपुत्रोंने इन्द्रके वैभव, यज्ञभाग और राज्यको बलपूर्वक छीन लिया। इस प्रकार रजि पुत्रद्वारा सताये गये एवं राज्यसे भ्रष्ट हुए दीन-दुःखी इन्द्र बृहस्पतिके पास जाकर बोले-'गुरुदेव ! मैं रजिके पुत्रोंद्वारा सताया जा रहा हूँ, मुझे अब यज्ञमें भाग नहीं मिलता तथा मेरा राज्य जीत लिया गया, अतः धिषणाधिप ! (बृहस्पते) पुनः मेरी राज्य प्राप्तिके लिये | किसी उपायका विधान कीजिये।' तब बृहस्पतिने ग्रह | शान्तिके विधानसे तथा पौष्टिक कर्मद्वारा इन्द्रको बलसम्पन्न बना दिया और रजि पुत्रोंके पास जाकर उन्हें मोहमें डाल दिया। उन वेदज्ञ बृहस्पतिने वेदोंद्वारा बहिष्कृत जिनधर्मका आश्रय लेकर उन्हें वेदश्वी (वेद यजुर्वेद, सामवेद) से परिभ्रष्ट कर दिया। तदुपरान्त इन्द्रने उन्हें हेतुवाद (तर्कवाद नास्तिक्य) से समन्वित और वेदवाड़ा जानकर अपने वज्रसे उन सभी धर्मबहिष्कृत रज-पुत्रका संहार कर डाला। अब मैं नहुषके सात धार्मिक पुत्रोंका वर्णन कर रहा है। उनके नाम है-यति ययाति संचाति, उद्धार, पाचि शर्माति और मेघजाति। ये सातों वंश - विस्तारक थे । ll 43-50॥(इनमें सबसे) ज्येष्ठ यति जब अपनी कुमारावस्था में हो वैखानसका रूप धारण करके योगी हो गये, तब दूसरे पुत्र ययाति सदा एकमात्र धर्मका ही आश्रय लेकर राज्यभार सँभालने लगे। उस समय दानवराज वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठा तथा शुक्राचार्यकी कन्या व्रतपरायणा देवयानी— ये दोनों ययातिकी पत्नियाँ हुई। इनके गर्भसे राजा ययातिके पाँच पुत्र उत्पन्न हुए थे, जिनका मैं नाम निर्देशानुसार वर्णन कर रहा हूँ। देवयानीने यदु और तुर्वसु नामक दो पुत्रोंको जन्म दिया तथा शर्मिष्ठाने द्रुह्यु, अनु और पूरु नामक तीन पुत्रोंको पैदा किया। इनमें यदु और पूरु ये दोनों वंशका विस्तार करनेवाले हुए। नहुषनन्दन राजा ययाति सत्यपराक्रमी एवं अजेय थे। उन्होंने (धर्मपूर्वक) पृथ्वीका पालन किया और विधिपूर्वक अनेकों यज्ञोंका अनुष्ठान किया तथा जितेन्द्रिय होकर अत्यन्त भक्तिपूर्वक देवों और पितरोंकी अर्चना करके सारी प्रजाओंपर अधिकार जमा लिया। इस प्रकार नहुष पुत्र राजा ययाति अनेकों वर्षोंतक धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करते रहे। इसी बीच वे रूपको विकृत कर देनेवाली | महान् भयंकर वृद्धावस्थासे ग्रस्त हो गये। बुढ़ापाके वशीभूत हुए राजा ययातिने अपने यदु पूरु, तुर्वसु, द्रुह्यु और अनु | नामक पुत्रोंसे ऐसी बात कही 'पुणे यद्यपि युवावस्थाके | साथ-साथ मेरी कामनाएँ भी चली गयीं, तथापि मैं पुनः युवा होकर युवतियोंके साथ विहार करना चाहता हूँ, इस विषयमें तुमलोग मेरी सहायता करो।। 51-59 ॥ यह सुनकर देवयानीके ज्येष्ठ पुत्र यदुने राजासे कहा— 'पिताजी! हमलोगोंको अपनी युवावस्थाद्वारा आपकी कौन सी सहायता करनी है।' तब ययातिने अपने पुत्रोंसे कहा— 'तुमलोग मेरा बुढ़ापा ले लेना, तत्पश्चात् मैं तुमलोगोंकी जवानीसे विषयका उपभोग करूँगा । पुत्रो! दीर्घकालव्यापी अनेकों यज्ञोंके अनुष्ठान तथा महर्षि शुक्राचार्यके शापसे मेरे काम और अर्थ नष्ट हो गये हैं, इसी कारण मैं उनसे तृप्त नहीं हो सका हूँ। इसलिये तुमलोगोंमेंसे कोई अपने शरीरद्वारा इस बुढ़ापेको स्वीकार करे और मैं उसके अभिनव शरीरकी प्राप्तिसे युवा | होकर विषयोंका उपभोग करूँ। 'परंतु जब यदु आदि चार पुत्रोंने पिताकी वृद्धावस्थाको ग्रहण करना स्वीकार नहीं किया, तब राजर्षि ययातिने उन्हें शाप दे दिया- ऐसा हमलोगोंने सुन रखा है। तत्पश्चात् सबसे कनिष्ठ पुत्र सत्यपराक्रमी पूरुने राजासे कहा- 'पिताजी! आप अपना बुढ़ापा मुझे दे दीजिये और मेरे नूतन शरीरको प्राप्तिसे युवा होकर सुखोंका उपभोग कीजिये| मैं आपकी वृद्धावस्था स्वीकार करके आपके आज्ञानुसार राजकार्य सँभालूँगा।' पूरुके यों कहनेपर राजर्षि ययातिने अपने तपोबलका आश्रय लेकर उस महात्मा पुत्र पूरुके शरीरमें अपने बुढ़ापेको स्थापित किया और वे स्वयं पूरुकी युवावस्थाको लेकर तरुण हो गये। तदनन्तर ययातिकी | वृद्धावस्थासे युक्त हुए पूरु राजकाजका संचालन करने लगे। इस प्रकार एक सहस्र वर्ष व्यतीत होनेपर भी अजेय ययाति कामोपभोगसे अतृप्त से ही बने रहे। तब उन्होंने अपने पुत्र पूरुसे कहा- 'बेटा! अकेले तुम्हींसेमैं पुत्रवान् हूँ और तुम्हीं मेरे वंशविस्तारक पुत्र हो । आजसे यह वंश पूरुवंशके नामसे लोकमें विख्यात होगा।' तदनन्तर राजसिंह ययाति | पूरुको राज्यपर अभिषिक्त करके स्वयं उससे उपराम हो गये और बहुत समय बीतनेके पश्चात् कालधर्म - मृत्युको प्राप्त हो गये। श्रेष्ठ ऋषियो! अब मैं जिस वंशमें भरत वंशकी वृद्धि करनेवाले भारत नामसे प्रसिद्ध नरेश हो चुके हैं, उस पूरुवंशका वर्णन करने जा रहा हूँ, आपलोग समाहितचित्त होकर श्रवण कीजिये ॥ 60-71 ॥