सूतजी कहते हैं-ऋषियो। सूर्यपुत्रमनुके भीतर अवस्थित मत्स्यरूपधारी भगवान् विष्णुसे पूछा 'देवेश अब मैं आपसे तालाब, बगीचा, कुआँ, बावली, पुष्करिणी तथा देवमन्दिरकी प्रतिष्ठा आदिकी विधि पूछ रहा हूँ। नाथ! इन कार्यों में ऋत्विज् कैसे होने चाहिये ? वेदी किस प्रकारकी बनती है? दक्षिणाका प्रमाण कितना होता है? समय कौन-सा उत्तम होता है ? स्थान कैसा होना चाहिये? आचार्य किन-किन गुणोंसे युक्त हों तथा कौन-से पदार्थ प्रशस्त माने गये हैं- यह सब हमें यथार्थरूपसे बतलाइये ॥1-3॥
मत्स्यभगवान्ने कहा— महाबाहु राजन्! सुनो तालाब आदिकी प्रतिष्ठाका जो विधान है, उसका वेदवक्ताओंने पुराणों में इस रूपमें वर्णन किया है। उत्तरायण आनेपर शुभ शुक्लपक्षमें ब्राह्मणद्वारा कोई पवित्र दिन निश्चित करा ले। उस दिन ब्राह्मणोंका वरण करे और तालाबके समीप, जहाँकी भूमि पूर्वोत्तर दिशाकी ओर ढालू हो, चार हाथ लम्बी और उतनी ही चौड़ी चौकोर सुन्दर वेदी बनाये। वेदी सब ओर समतल हो और उसका मुख चारों दिशाओंमें हो। फिर सोलह हाथका मण्डप तैयार कराये, जिसके चारों ओर एक-एक दरवाजा हो। वेदीके सब ओर कुण्डोंका निर्माण कराये। नृप नन्दन! कुण्डोंकी संख्या नौ सात या पाँच होनी चाहिये, इससे कम बेशी नहीं कुण्डौकी लम्बाई-चौड़ाई एक-एक अरति की हो तथा वे सभी तीन-तीन मेखलाओंसे सुशोभित हों। उनमें यथास्थान योनि और मुख भी बने होने चाहिये। योनिको लम्बाई एक बित्ता और चौड़ाई छः-सात अङ्गुलकी हो तथा कुण्डकी गहराई एक हाथ, मेखलाएँ तीन पर्व रे ऊँची होनी चाहिये। ये चारों ओरसे एक समान—एक रंगकी बनी हों। सबके समीप ध्वजा और पताकाएँ लगायी जायें।मण्डपके चारों ओर क्रमश: पीपल, गूलर, पाकड़ और बरगदकी शाखाओंके दरवाजे बनाये जायें। वहाँ आठ होता, आठ द्वारपाल तथा आठ जप करनेवाले ब्राह्मणोंका वरण किया जाय। वे सभी ब्राह्मण वेदोंके पारगामी विद्वान् होने चाहिये सब प्रकारके शुभ लक्षणोंसे सम्पन्त्र, मन्त्रोंके ज्ञाता, जितेन्द्रिय, कुलीन, शीलवान् एवं श्रेष्ठ ब्राह्मणको ही इस कार्यमें पुरोहित-पदपर नियुक्त करना चाहिये। प्रत्येक कुण्डके पास कलश, यह सामग्री, पंखा, दो चंवर और दो दिव्य एवं विस्तृत ताम्रपात्र प्रस्तुत रहें ॥4- 13 ॥
तदनन्तर प्रत्येक देवताके लिये नाना प्रकारकी चरू (पुरोडास, खीर, दही, अक्षत आदि उत्तम भक्ष्य पदार्थ) उपस्थित करे। विद्वान् आचार्य मन्त्र पढ़कर उन सामग्रियोंको पृथ्वीपर सब देवताओंको समर्पित करे। तीन अरनिके बराबर एक यूप (यज्ञस्तम्भ ) स्थापित किया जाए, जो किसी दूधवाले वृक्ष (वट, पाकड़ आदि) की शाखाका बना हुआ हो। ऐश्वर्य चाहनेवाले पुरुषको यजमानके शरीरके बराबर ऊँचा यूप स्थापित करना चाहिये। उसके बाद पचीस ऋत्विजोंका वरण करके उन्हें सोनेके आभूषणोंसे विभूषित करे। सोनेके बने कुण्डल, बाजूबंद, कड़े, अठी, पवित्री तथा नाना प्रकारके वस्त्र- ये सभी आभूषणादि प्रत्येक ऋत्विज्को बराबर-बराबर दे और आचार्यको दूना अर्पण करे। इसके सिवा उन्हें शय्या तथा अपनेको प्रिय लगनेवाली अन्यान्य वस्तुएँ भी प्रदान करे सोनेका बना हुआ कछुआ और मगर, चाँदीके मत्स्य और दुण्डुभ (गिरगिट), ताँबेके केंकड़ा और मेढक तथा लोहेके दो सूंस बनवाये (और सबको सोनेके पात्रमें रखे)। राजन्! इन सभी वस्तुओंको पहलेसे ही बनवाकर ठीक रखना चाहिये। इसके बाद यजमान वेद विद्वानोंको बतायी हुई विधिके अनुसार सर्वौषधिमिश्रित जलसे स्नान करके श्वेत वस्त्र और श्वेत माला धारण करे। फिर श्वेत चन्दन लगाकर पत्नी और पुत्र-पौत्रोंके साथ पश्चिम द्वारसे यज्ञमण्डपमें प्रवेश करे। उस समय माङ्गलिक शब्द होने चाहिये और भेरी आदि बाजे बजने चाहिये ॥ 14-20 तदनन्तर विद्वान् पुरुष पाँच रंगके चूणसे मण्डल बनायेऔर उसमें सोलह अरोंसे युक्त चक्र चिह्नित करे। उसके गर्भ में कमलका आकार बनाये। चक्र देखनेमें सुन्दर और चौकोर हो। चारों ओरसे गोल होनेके साथ ही मध्यभागमें अधिक शोभायमान दीख पड़ता हो। बुद्धिमान् पुरुष उस चक्रको वेदीके ऊपर स्थापित कर उसके चारों ओर प्रत्येक दिशामें मन्त्रपाठपूर्वक ग्रहों और लोकपालोंकी स्थापना करे। फिर मध्यभागमें वरुण सम्बन्धी मन्त्रका उच्चारण करते हुए एक कलश स्थापित करे और उसीके ऊपर ब्रह्मा, शिव, विष्णु, गणेश, लक्ष्मी तथा पार्वतीकी भी स्थापना करे। इसके पश्चात् सम्पूर्ण लोकोंकी शान्तिके लिये भूतसमुदायको स्थापित करे। इस प्रकार पुष्प, नैवेद्य और फलोंके द्वारा सबकी स्थापना करके उन सभी जलपूर्ण कलशोंको वस्त्रोंसे आवेष्टित कर दे। फिर पुष्प और चन्दनके द्वारा उन्हें अलङ्कृत कर द्वार-रक्षाके लिये नियुक्त ब्राह्मणोंसे स्वयं आचार्य वेदपाठ करनेके लिये प्रेमसे कहे। पूर्व दिशाकी ओर दो ऋग्वेदी, दक्षिणद्वारपर दो यजुर्वेदी, पश्चिमद्वारपर दो सामवेदी तथा उत्तरद्वारपर दो अथर्ववेदी विद्वानोंको रखना चाहिये। यजमान मण्डलके दक्षिणभागमें उत्तराभिमुख होकर बैठे और ऋत्विजोंसे पुनः आचार्य कहें- 'आप यज्ञ प्रारम्भ करें।' तत्पश्चात् वे जप करनेवाले ब्राह्मणोंसे कहें- 'आपलोग उत्तम मन्त्रका जप करते रहें।' इस प्रकार सबको प्रेरित करके मन्त्रज्ञ पुरुष अग्रिका पर्युक्षण (चारों ओर जल छिड़क कर वरुण सम्बन्धी मन्त्रोंका उच्चारण कर घी और समिधाओंकी आहुति दे ऋत्विजोंको भी वरुण-सम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा सब ओरसे हवन करना चाहिये। ग्रहोंके निमित्त विधिवत् आहुति | देकर उस यज्ञ कर्ममें इन्द्र, शिव, मरुद्रण, लोकपाल और विश्वकर्माके निमित्त भी विधिपूर्वक होम करे ॥ 21-32॥
पूर्वद्वारपर नियुक्त ऋग्वेदी ब्राह्मण शान्तिसूक्त, * रुद्रसूक्त, पवमानसूक्त (ऋग्वेद 3 4 । 5 आदि), सुमङ्गलसूक्त (ऋ0 2।4।21) तथा पुरुषसूक्त (10।90) का पृथक् पृथक् जप करें। दक्षिणद्वारपर स्थित यजुर्वेदी विद्वान् इन्द्र (अ0 16), रुद्र, सोम, कूष्माण्ड (2014- 16 ), अग्नि (अ0 2) तथा सूर्य-सम्बन्धी (अ0 35) सूक्तोंका जप करें।राजन्। पश्चिमद्वारपर रहनेवाले सामवेदी ब्राह्मण वैराजसाम (2।29।80), पुरुषसूक्त (613-31), सुपर्णसूत (साम0 3 । 2। 1-3), रुद्रसंहिता, शिशुसूक्त, पञ्चनिधनसूक्त, गायत्रसाम, ज्येष्ठसाम (12।29), बामदेव्याम (5625) बृहत्साम (122 । 34), रौरवसाम, रथन्तरसाम (1 । 223), गोव्रत, काण्व, सूक्तसाम, रक्षोघ्न (3 । 12 । 39) और यमसम्बन्धी सूठोंका गान करें। उत्तरद्वारके अथर्ववेदी विद्वान् मन ही मन भगवान् वरुणदेवकी शरण ले शान्ति और पुष्टि सम्बन्धी मन्त्रोंका जप करें। इस प्रकार पहले दिन मन्त्रीद्वारा देवताओंकी स्थापना करके हाथी और घोडेके पैरोंके नीचेको, जिसपर रथ चलता हो ऐसी सड़ककी, बाँबीकी, दो नदियोंके संगमकी, गोशालाकी, साक्षात् गौओंके पैरके नीचेकी तथा चौराहेकी मिट्टी (सप्तमृत्तिका) लेकर कलशोंमें छोड़ दे। उसके बाद सर्वोषधि, गोरोचन, सरसोंके दाने, चन्दन और गूगल भी छोड़े। फिर पञ्चगव्य (दधि, दूध, घी, गोबर और गोमूत्र) मिलाकर उन कलशोंके जलसे यजमानका विधिपूर्वक अभिषेक करे इस प्रकार प्रत्येक कार्य महामन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक विधिसहित करना चाहिये ॥ 33-396 ॥
श्रेष्ठ मुनियो ! इस प्रकार शास्त्रविहित कर्मद्वारा रात्रि व्यतीत करके निर्मल प्रभातका उदय होनेपर व्रती हवनके अन्तमें ब्राह्मणोंको सौ, अड़सठ, पचास, छत्तीस अथवा पचीस गौ दान करे। राजन्! तदनन्तर ज्योतिषीद्वारा बतलाये गये शुद्ध एवं सुन्दर लग्न आनेपर वेदपाठ, संगीत तथा नाना प्रकारके बाजोंकी मनोहर ध्वनिके साथ एक गौको सुवर्णसे अलङ्कृत करके तालाबके जलमें उतारे और उसे सामगान करनेवाले ब्राह्मणको दान कर दे। तत्पश्चात् पञ्चरत्नोंसे युक्त सोनेका पात्र लेकर उसमें पूर्वोक्त मगर और मछली आदिको रखे और उसे किसी बड़ी नदीसे मँगाये हुए जलसे भर दे। फिर उस पात्रको दही-अक्षतसे -विभूषितकर वेद और वेदाङ्गोंके विद्वान् चार ब्राह्मण हाथसे पकड़े और अथर्ववेदके मन्त्रोंसे उसे खान कराये, फिर यजमानकी प्रेरणासे उसे उत्तराभिमुख उलटकर तालाबके जलमें डाल दें। इस प्रकार'पुनममेति' तथा 'आपो हि ष्ठा मयो0' इत्यादि मन्त्रोंके द्वारा उसे जलमें डालकर पुनः सब लोग यज्ञमण्डपमें आ जायँ और यजमान सदस्योंकी पूजा कर सब और देवताओंके उद्देश्यसे बलि अर्पण करे। इसके बाद लगातार चार दिनोंतक हवन होना चाहिये। राजसिंह चौथे दिन चतुर्थी-कर्म करना उचित है। उसमें भी यथाशक्ति दक्षिणा देनी चाहिये। तदनन्तर वरुणसे क्षमा-प्रार्थना करके यज्ञ सम्बन्धी जितने पात्र और सामग्री हों, उन्हें ऋत्विजोंमें बराबर बाँट देना चाहिये। फिर मण्डपको भी विभाजित करे। सुवर्णपात्र और शय्या व्रतारम्भ करानेवाले ब्राह्मणको दान कर दे। इसके बाद अपनी शक्तिके अनुसार एक हजार एक सौ आठ, पचास अथवा बीस ब्राह्मणोंको भोजन कराये। पुराणों ( एवं कल्पसूत्रों) में तालाबकी प्रतिष्ठाके लिये यही विधि बतलायी गयी है। सभी कुआँ बावली और पुष्करिणीके लिये भी यही विधि है। देवताओंकी प्रतिष्ठामें भी ऐसा ही विधान समझना चाहिये । प्रासाद ( महल अथवा मन्दिर) और बगीचे आदिके प्रतिष्ठा कार्यमें केवल (कुछ) मन्त्रोंका ही भेद है। विधि विधान प्रायः एक-से ही हैं। उपर्युक्त विधिका यदि पूर्णतया पालन करनेकी शक्ति न हो तो आधे व्ययसे भी यह कार्य सम्पन्न हो सकता है। यह बात ब्रह्माजीने कही है। किंतु इस अल्प विधानमें भी मनुष्यको कृपणताका त्याग कर एकानि ब्राह्मणकी भाँति दान | आदि करना चाहिये ॥ 40-52 ll
जिस पोखरेमें केवल वर्षाकालमें ही जल रहता है, वह अग्निष्टोम यज्ञके बराबर फल देनेवाला होता है। जिसमें शरत्कालतक जल रहता हो, उसका भी यही फल है। हेमन्त और शिशिरकालतक रहनेवाला जल क्रमशः वाजपेय और अतिरात्र नामक यज्ञका फल देता है। वसन्तकालतक टिकनेवाले जलको अश्वमेध यज्ञके समान फलदायक बतलाया गया है तथा जो जल ग्रीष्मकालतक वर्तमान रहता है, वह राजसूय यज्ञसे भी अधिक फल देनेवाला होता है ।। 53-54 ll
महाराज जो मनुष्य पृथ्वीपर इन विशेष धर्मोका पालन
करता है, वह शुद्धचित्त होकर शिवजीके लोकमें जाता है और यहाँ अनेक कल्पांतक दिव्य आनन्दका अनुभव करता है।वह पुनः परार्ध (ब्रह्माजीकी पिछली आधी आयु)-तक देवाङ्गनाओंके साथ अनेक महत्तम लोकोंका सुख | भोगनेके पश्चात् ब्रह्माजीके साथ ही योगबलसे श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होता है ॥ 55-56 ॥