मार्कण्डेयजीने कहा— कुन्तीनन्दन! आपने जो मुझसे पूछा है, उसे मैं कह रहा हूँ, सुनिये ! इसी बीच रुद्रदेव नर्मदा तटपर आये। वहाँ जो तीनों लोकोंमें विख्यात माहेश्वर नामक स्थान है, उस स्थानपर बैठकर महादेव त्रिपुर-संहारके विषयमें सोचने लगे। उन्होंने मन्दराचलको गाण्डीव धनुष वासुकि सर्पको धनुषकी प्रत्यञ्चा, कार्तिकेयको तरकस, विष्णुको श्रेष्ठ बाण, बाणके अग्रभागमें अग्निको और पुच्छ भागमें वायुको प्रतिष्ठित करके चारों वेदोंको घोड़ा बनाया। इस प्रकार उन्होंने सर्वदेवमय रथका निर्माण किया। दोनों अश्विनीकुमारोंको वागडोर और रथकी धुरीके रूपमें साक्षात् वज्रधारी इन्द्रको नियुक्त किया। उनकी आज्ञाको स्वीकार कर कुबेर तोरणके स्थानपर स्थित हुए। दाहिने हाथपर यम और बायें हाथपर भयंकर काल स्थित हुए। करोड़ों देवगण और लोकविश्रुत गन्धर्वगण रथके चक्के हुए तथा श्रेष्ठ प्रजापति ब्रह्मा सारथि बने। इस प्रकार शिवजी सर्वदेवमय रथका निर्माण कर उसपर स्थाणुरूपमें | एक हजार वर्षोंतक स्थित रहे। जब तीनों पुर अन्तरिक्षमें | एक साथ सम्मिलित हुए, तब उन्होंने तीन पर्वोंवाले तीन बाणोंसे उनका भेदन किया। जिस समय भगवान् रुद्रने उस बाणको त्रिपुरके ऊपर चलाया, उस समय वहाँकी स्त्रियाँ तेजोहीन हो गयीं और उनका पातिव्रत्य बल नष्ट हो गया तथा उस नगरमें हजारों प्रकारके उपद्रव उत्पन्न होने लगे ॥ 1-10 ॥
उस समय वे स्त्रियाँ भी त्रिपुर-नाशके लिये कालस्वरूप हो गयीं। काष्ठमय घोड़े अट्टहास करने लगे। चित्ररूपमें निर्मित जीव आँखको खोलने और बंद करने लगे वहाँकै निवासी स्वप्नमें अपनेको लाल वखसे अलंकृत देखने लगे उन्हें स्वप्नमें सभी वस्तुएँ विपरीत | दिखायी पड़ने लगीं। वे इस प्रकार इन उत्पातोंको देखनेलगे। शंकरजीके कोपसे उनके बल और बुद्धि नष्ट हो गये। तदनन्तर प्रलयकालके समान प्रचण्ड सांवर्तक वायु बहने लगा। वायुसे प्रेरित आगकी भयंकर लपटें भी इधर-उधर व्याप्त होने लगीं। जिससे वहाँ वृक्ष-समूह जलने लगे और पर्वतके शिखर गिरने लगे। सभी ओर लोग व्याकुल होकर चेतनारहित हो गये। चतुर्दिक् भयंकर हाहाकार मच गया। सभी उद्यान नष्ट हो गये। वहाँ सब कुछ शीघ्र ही छिन्न-भिन्न हो गया। शंकरजीद्वारा सभी दुःखमग्न कर दिये गये। तीन शिखाओंवाले बाणोंसे वृक्ष, वाटिकाएँ और विविध प्रासाद जलने लगे। यह प्रदीप्त अग्नि दसों दिशाओंमें फैल गया। उस समय दसों दिशाएँ मैनशिलसमूहके समान दीखने लगीं। अग्निदेव अनेकों प्रकारकी सैकड़ों शिखाओंसे युक्त प्रज्वलित हो उठे, जिससे जला हुआ वह सम्पूर्ण त्रिपुर पलाशपुष्पके समान लाल रंगका दिखायी पड़ रहा था ॥ 11 – 19 ॥ उस समय धुएँके कारण एक घरसे दूसरे घरमें जाना सम्भव नहीं था। सभी लोग शंकरजीकी क्रोधाग्निसे जलते हुए अत्यन्त दुःखके कारण चीत्कार कर रहे थे। इस प्रकार सभी दिशाओंमें धधकता हुआ त्रिपुरनगर जल | रहा था। राजभवनोंके शिखरोंके अग्रभाग हजारों टुकड़ों में टूटकर गिर रहे थे। विविध मणियोंसे जटित अनेकों विमान और रमणीय घर उद्दीप्त आगसे जल रहे थे। वहाँके निवासी वृक्षोंके समूहोंमें, घरोंके छज्जोंके नीचे तथा सभी देवगृहोंमें जलते हुए इधर-उधर दौड़ रहे थे । आगकी चपेटमें आकर वे सभी विविध स्वरोंमें क्रन्दन कर रहे थे। वहाँ पर्वतशिखरके समान अङ्गारसमूह दिखायी दे रहे थे। पर्वतशिखरके समान विशाल गजराज इधर उधर जल रहे थे। सभी देवाधिदेव शंकरकी यों स्तुति कर रहे थे— 'प्रभो! हमलोगोंकी रक्षा कीजिये।' वे अग्निसे जलते हुए स्नेहके कारण एक-दूसरेका आलिङ्गन कर उसी प्रकार जलते हुए नष्ट हो रहे थे। इस प्रकार वहाँ सैकड़ों-हजारों दानव जल रहे थे ॥ 20-26 ॥
हंसों और बतखोंसे परिपूर्ण एवं कमलोंसे युक्त पुष्करिणी, बगीचे तथा बावलियाँ, जो एक योजन लम्बी चौड़ी और खिले हुए कमलोंसे व्याप्त थीं, अग्निसे जलती हुई दिखायी दे रही थीं। वहाँ रत्नोंसे विभूषित पर्वतशिखरके समान राजभवन अग्निके द्वारा भस्म होकर गिर रहे थे। वे जलशून्य मेघके समान दिखायी दे रहे थे। शंकरजीके क्रोधसे प्रेरित अग्नि श्रेष्ठ स्त्री, बालक, वृद्ध, गौ, पक्षीऔर घोड़ोंमें फैलकर निर्दयतापूर्वक जला रहे थे। हजारों जागे हुए एवं अनेकों सोये हुए व्यक्ति, जो पुत्रका गाढ़ आलिङ्गन किये हुए थे, त्रिपुराग्निसे जल रहे थे। वहाँ प्रचण्ड अग्निके कारण प्रलयकालीन संताप परिव्याप्त था। उस त्रिपुराग्निसे कुछ लोग पत्नीकी गोदमें छिपे हुए ही भस्म हो गये तो कुछ लोग माँ-बापसे चिपके हुए ही जलकर भस्मसात् हो गये। उस प्रज्वलित त्रिपुरमें अप्सराओंके समान सुन्दरी स्त्रियाँ अग्निकी ज्वालाओंसे झुलसकर पृथ्वीपर गिर रही थीं। कोई मोतीकी मालाओंसे | अलंकृत विशाल नेत्रोंवाली षोडशवर्षीया नायिका धूऐँसे व्याकुल होकर पृथ्वीपर गिर पड़ी। कोई इन्द्रनील मणिसे अलंकृत स्वर्णके समान कान्तिवाली स्त्री पतिको गिरा हुआ देखकर उसीके ऊपर गिर पड़ी। कोई सूर्यके समान तेजस्विनी नारी घरमें ही स्थित रहकर सो रही थी, वह अग्निकी ज्वालासे चेतनारहित होकर धराशायी हो गयी। उसी समय अतिशय बलशाली एक दानव हाथमें तलवार लेकर उठ खड़ा हुआ, किंतु अग्निसे जलकर वह भी | पृथ्वीपर गिर पड़ा। मेघके समान श्यामवर्णकी दूसरी स्त्री, जो हार और केयूरसे अलंकृत तथा श्वेतवस्त्र पहने हुए अपने दुधमुँहे बच्चेको सुलाये हुए थी, वह उस बच्चेको जलते हुए देखकर मेघके शब्दके समान रोने लगी। इस प्रकार शंकरजीके कोपसे प्रेरित वह अग्नि त्रिपुरको जला रही थी ll 27–393 ll
कोई चन्द्रके समान कान्तिवाली एवं हीरक और वैदूर्यसे अलंकृत सज्जन नायिका अपने पुत्रको गोदमें लेकर काँपती हुई जलकर पृथ्वीपर गिर पड़ी। कोई कुन्द पुष्प एवं चन्द्रमाके समान कान्तिवाली स्त्री क्रीडा करती हुई अपने घरमें ही सो रही थी, वह घरके जलनेपर अग्निशिखासे पीड़ित हो जाग उठी और सबको जलता हुआ देखकर 'हा! मेरा पुत्र कहाँ चला गया?' ऐसा कहती हुई जलते हुए पुत्रका आलिङ्गन कर पृथ्वीपर गिर पड़ी। उदयकालीन सूर्यके समान कान्तिसे युक्त एवं लक्ष्मीके मुखके समान शोभायमान मुखवाली कोई स्त्री भागती हुई जलकर पृथ्वीपर गिर गयी। | कोई स्वर्णके समान कान्तिवाली नीलरत्नोंसे अलंकृत स्त्रीधुएँसे व्याकुल होकर पृथ्वीपर सो गयी। अन्य स्त्री अपनी सखीका हाथ पकड़कर कह रही हैं- 'सखि! बालिका जल रही है। कोई अनेक दिव्य रत्नोंसे अलङ्कृत नारी अग्निको देखकर मोहित हो गयी, तब वह सिरपर हाथ जोड़कर अग्निसे प्रार्थना करने लगी- 'भगवन् यदि अपकारी पुरुषोंसे पैर है तो घरके पिंजरे में कोयलके समान आबद्ध स्त्रियोंने तुम्हारा क्या अपराध किया है? अरे पापी! तुम तो बड़े निर्दयी और निर्लज्ज हो। स्त्रियोंके प्रति यह तुम्हारा कैसा क्रोध है! अरे कायर! न तो तुममें कुशलता है, न लज्जा है और न सत्यता है।' वह ऐसे आक्षेपयुक्त वाक्योंसे अग्निको उलाहना देने लगी। (फिर दूसरी कहने लगी- ) 'क्या तुमने यह नहीं सुना है कि शत्रुकी स्त्रियाँ भी अवध्य होती हैं? क्या जलाना और नाश करना ये ही तुम्हारे गुण हैं? तुम्हारेमें स्त्रियोंके प्रति दया, भय अथवा उदारता नहीं है। म्लेच्छगण भी स्त्रियोंको जलती हुई देखकर उनपर दया करते हैं। तुम तो म्लेच्छों से भी बढ़कर हृदयशून्य दुर्निवार कष्ट हो। दुराचारिन् ! इन स्त्रियोंको मारनेसे तुम्हें क्या मिलेगा? क्या जलाना और मारना ये ही तुम्हारे गुण हैं? दुष्ट हुताशिन् ! तुम बड़े दयाहीन, निर्लज्ज, अभागा, कठोर और कपटी हो। अरे निर्दय ! तुम क्यों बलपूर्वक स्त्रियोंको जला रहे हो ?' इस प्रकार वे स्त्रियाँ अनेकों प्रकारसे विलाप करती हुई चीत्कार कर रही थीं? अन्य कुछ स्त्रियाँ बालशोकसे मोहित होकर विलाप कर रही थीं। यह निष्ठुर अग्नि क्रुद्ध होकर | पुराने शत्रुके समान हमलोगोंको जला रहा है। पुष्करिणियों और कुओंके भी जल सूख गये। अरे म्लेच्छ हमलोगोंको जलाकर तुम किस गतिको प्राप्त होगे? इस प्रकार उनका प्रलाप सुनकर अग्निदेव सहसा मूर्तिमान् होकर उठ खड़े हुए और इस प्रकार बोले ॥ 40-56 ॥
अग्निदेवने कहा- मैं अपनी इच्छा के अनुसार तुमलोगों का विनाश नहीं कर रहा हूँ, अपितु मैं आदेशका | पालक हूँ। मैं अनुग्रहका कर्ता नहीं हूँ। मैं रुद्रके क्रोधसे आविष्ट होकर इच्छानुसार विचरण कर रहा हूँ। तदनन्तर सिंहासनपर बैठा हुआ महातेजस्वी बाग त्रिपुरको जलता |हुआ देखकर बोला-'मैं देवताओंद्वारा विनष्ट कर दिया | गया। उस स्वल्पबलशाली दुराचारियोंने शंकरसे निवेदनकिया और महात्मा शंकरने भी बिना विचारे ही मुझे जला दिया। उन त्रिलोचनको छोड़कर अन्य कोई भी मेरा विनाश नहीं कर सकता। तब वह सिंहासनसे उठ खड़ा हुआ और त्रिभुवनपति शंकरके लिङ्गको सिरपर धारणकर मित्र, पुत्र, बहुमूल्य रत्नों, स्त्रियों और अन्यान्य अनेक प्रकारके पदार्थोंको छोड़कर नगरद्वारसे बाहर निकला। वह लिङ्गको सिरपर | धारण कर गगनमण्डलमें जा पहुँचा और देवदेवेश त्रिभुवनपति शिवकी स्तुति करते हुए कहने लगा- 'देव! मैंने अपनी पुरीका परित्याग कर दिया है। शंकर! यदि मैं वस्तुतः वध करने योग्य हूँ तो महादेव! आपकी कृपासे मेरा यह लिङ्ग विनष्ट न हो। देव! मैंने परमभक्तिके साथ सदा इसकी पूजा की है, अतः यदि मैं आपके कोपके कारण वध्य हूँ तो यह लिङ्ग विनष्ट न हो। महादेव! आपके कोपसे मेरा यह जल जाना प्रशस्त ही है। महादेव! प्रत्येक जन्ममें मैं आपके... चरणोंमें ही लीन हूँ, अतः देवाधिदेव परमेश्वर! मैं तोटक छन्दद्वारा आपकी स्तुति कर रहा हूँ ॥ 57-66 ॥
आप शिव, शंकर, शर्व और हरको नमस्कार है। भव, भीम, महेश्वर और सर्वभूतमयको प्रणाम है। आप कामदेवके शरीरके नाशक, त्रिपुरान्तक, अन्धक, त्रिशूलधर, आनन्दप्रिय, कान्त, विरक्त और सुर-असुर-सिद्धगणोंसे नमस्कृत हैं, आपको नमस्कार है। मैं अश्व, वानर, सिंह और गजेन्द्रके से मुखोंवाले, अतिशय छोटे, विस्तृत विशालमुखोंसे युक्त और सैकड़ों भुजाओंसे सम्पन्न बहुत से अजेय असुरोंद्वारा प्राप्त करनेके लिये अशक्यरूपसे विख्यात हूँ। शिवजीकी भक्तिमें लीन रहनेवाला वही मैं भवके चरणों में प्रणिपात कर रहा हूँ। चञ्चल चन्द्रकलासे सुशोभित देव! आपको नमस्कार है। ये पुत्र, स्त्री, अश्वादि वैभव मेरे नहीं हैं, मेरे लिये तो आपका चिन्तन ही एकमात्र शरण है। मैं सैकड़ों शरीर (जन्म) धारण कर पीड़ित हो चुका हूँ। आगे महानरकमें पड़नेकी सम्भावना है। न जन्मसे छुटकारा मिलेगा, न पापबुद्धि ही निवृत्त होगी, शुद्ध कर्ममें लगा हुआ भी मन उसे छोड़ देता है, काँपता है, भ्रमित होता है और भयभीत होता है। मेरे ही कुकर्म अच्छे कर्मोंसे मुझे हटाते हैं।जो मनुष्य संयत होकर पवित्र मनसे इस दिव्य तोटकछन्दमें रचित स्तोत्रको पढ़ता है, उसके लिये भी रुद्र बाणके समान वरदायक होते हैं। उस समय स्वयं महेश्वरदेव इस महादिव्य स्तोत्रको सुनकर उसपर प्रसन्न हो गये और इस प्रकार बोले ॥67-73 ॥
भगवान् महेश्वरने कहा— वत्स! तुम्हें डरना नहीं चाहिये। दानव! तुम पुत्र, मित्र, बन्धु, पत्नी और भृत्यजनोंके साथ सुवर्णनिर्मित नगरमें निवास करो। बाण! आजसे तुम देवताओंद्वारा अवध्य हो गये। अब तुम लोकमें सर्वथा निर्भय, अव्यय और अक्षय होकर विचरण करो। |पाण्डुनन्दन ! इस प्रकार देवाधिदेवने बाणको पुनः वर प्रदान किया। तदनन्तर रुद्रने अग्निको जलानेसे मना कर दिया। इस प्रकार महात्मा शंकरने बाणासुरके तृतीय पुरकी रक्षा की। वह पुर रुद्रके तेजके प्रभावसे गगनमण्डलमें घूमने लगा। इस प्रकार महात्मा शंकरने त्रिपुरको जलाया। वह ज्वालामालासे प्रदील होकर पृथ्वीतलपर गिर पड़ा। उनमेंसे एक पुर त्रिपुरान्तकके श्रीशैलपर गिरा और द्वितीय उस अमरकण्टक पर्वतपर गिरा। राजेन्द्र ! उनके जल जानेपर उसपर करोड़ों रुद्र प्रतिष्ठित हुए। वह जलता हुआ गिरा था, इस कारण ज्वालेश्वर नामसे प्रसिद्ध हुआ । उसकी दिव्य ज्वालाएँ ऊपरको उठती हुई स्वर्गलोकतक जा पहुँचीं। उस समय देवों और असुरोंके द्वारा किया गया भयंकर हाहाकार व्याप्त हो गया। तब रुद्रने अमरकण्टक पर्वतपर उत्तम माहेश्वरपुरमें शरको स्तम्भित कर दिया। पाण्डुनन्दन। (इस प्रकार अमरकण्टकपर्वतपर जो व्यक्ति रुद्रकोटिकी अर्चना करता है) वह तीस करोड़ एक हजार वर्षपर्यन्त चौदहों भुवनोंका उपभोग कर अन्तमें पृथ्वीपर जन्म लेकर धार्मिक राजा होता है। वह एकच्छत्र सम्राट् होकर पृथ्वीका उपभोग करता है— इसमें संदेह नहीं है ।। 74-84 ।।
महाराज! यह अमरकण्टक पर्वत ऐसा पुण्यजनक है। जो व्यक्ति चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहणके समय अमरकण्टक पर्वतपर जाता है, वह अश्वमेध यज्ञसे दसगुना फल प्राप्त करता है और वहीं महेश्वरका दर्शन करके स्वर्गलोकको प्राप्त करता है—ऐसा मनीषियोंने कहा है। सूर्यग्रहणके अवसरपर अमरकण्टकपर जानेसे ब्रह्महत्याएँ निवृत्त हो | जाती हैं। इस प्रकार अमरकण्टक पर्वतपर अशेष पुण्यप्राप्त होता है। जो मनसे भी उस अमरकण्टकपर्वतका स्मरण करता है, उसे निःसंदेह सौ चान्द्रायणव्रतसे भी | अधिक फल मिलता है। अमरकण्टक पर्वत तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। यह पुण्यमय श्रेष्ठ पर्वत सिद्धों और गन्धर्वोंसे सेवित, विविध वृक्षों और लताओंसे व्याप्त तथा अनेक प्रकारके पुष्पोंसे सुशोभित है। यह महान् पर्वत हजारों मृगों और व्याघ्रोंसे सेवित है। जहाँ देवी पार्वतीके साथ महादेव, ब्रह्मा, विष्णु तथा विद्याधरोंके साथ इन्द्र सदा उपस्थित रहते हैं, वह अमरकण्टक पर्वत ऋषियों, किन्नरों और यक्षोंके द्वारा सदा सेवित रहता है। श्रेष्ठ सर्पोंके साथ वासुकि वहाँ क्रीड़ा करते रहते हैं। जो मनुष्य अमरकण्टक पर्वतकी प्रदक्षिणा करता है, वह पौण्डरीक यज्ञका फल प्राप्त करता है। वहाँ सिद्धोंद्वारा सेवित ज्वालेश्वर नामक तीर्थ है, उसमें स्नानकर मानव स्वर्गलोकको प्राप्त करते हैं और जो वहाँ शरीरका त्याग करते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता । महाराज ! चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहणके अवसरपर जो व्यक्ति ज्वालेश्वरमें प्राणोंका परित्याग करता है, उसे जो फल प्राप्त होता है, उसे सुनिये। वह व्यक्ति सभी कर्मोंसे विनिर्मुक्त तथा ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न हो प्रलयकालपर्यन्त रुद्रलोकको प्राप्त करता है। सुव्रत ! अमरकण्टकपर्वतके दोनों तटोंपर करोड़ों ऋषिगण तपस्यामें रत रहते हैं। यह अमरकण्टकपर्वत चारों ओरसे एक योजनमें विस्तृत है। अकाम हो या सकाम, जो मनुष्य नर्मदाके शुभदायक जलमें स्नान करता है, वह सभी पापोंसे छुटकारा पा -लेता है और रुद्रलोकको प्राप्त करता है । ll 85-99 ।।