ऋषियोंने पूछा- सबको मान देनेवाले सूतजी! भगवान् महेश्वर पुरारि (त्रिपुरके शत्रु) किस कारण हो गये तथा उन देवाधिदेवने उसे कैसे दग्ध किया? यह आप | हमलोगोंको विस्तारपूर्वक बतलाइये। हम सब लोग परम सम्मानपूर्वक आपसे बारंबार पूछ रहे हैं कि मय दानवकी मायाद्वारा विनिर्मित उस त्रिपुर दुर्गको भगवान् शंकरने एक हो वाणसे जिस प्रकार जला दिया था, हमलोगोंसे उस | प्रसङ्गका विस्तारसे वर्णन कीजिये ॥ 1-2 ॥सूतजी कहते हैं-ऋषियो! भगवान् शंकरने जिस प्रकार त्रिपुरको विदीर्ण किया था (उसका वर्णन कर रहा हूँ), सुनिये। मय नामक एक महान् मायावी असुर | था। वह विभिन्न प्रकारकी मायाओंका उत्पादक था। वह संग्राममें देवताओं द्वारा पराजित हो गया था, इसलिये घोर तपस्यामें संलग्न हो गया। द्विजवरो! उसे तपस्या करते | देख दो अन्य दैत्य भी अनुग्रहवश उसीके कार्यके उद्देश्यसे उग्र तपस्यामें जुट गये। उनमें एक महाबली विद्युन्माली और दूसरा महापराक्रमी तारक था। ये दोनों मयके तेजसे आकृष्ट होकर उसीके पार्श्वभागमें बैठकर तपस्या कर रहे थे। उस समय तपस्यासे उद्भासित होते हुए वे तीनों ऐसा प्रतीत हो रहे थे, मानो लौकिक रूपमें मूर्तिमान् तीनों अग्नियाँ हों। वे तीनों दानव त्रिलोकीको संतप्त करते हुए तपस्यामें संलग्र थे। वे हेमन्त ऋतुमें जलमें शयन करते, ग्रीष्म ऋतुमें पञ्चानि तापते और वर्षा ऋतुमें आकाशके नीचे खुले मैदानमें खड़े रहते थे। इस प्रकार वे सबको परम प्रिय लगनेवाले अपने शरीरको सुखा रहे थे और मात्र फल, मूल, फूल और जलके आहारपर जीवन व्यतीत कर रहे थे अथवा वे कभी-कभी निराहार भी रह जाते थे। उनके वल्कलॉपर कीचड़ जम गया था और वे स्वयं विमल देहधारी होकर भी गंदे सेवारके कीचड़ोंमें निमग्र रहते थे। इस कारण उनके शरीरका मांस गल गया था। वे इतने दुर्बल हो गये थे कि उनके शरीरकी नसें बाहर उभड़ आयी थीं। उनकी तपस्याके प्रभावसे सारा जगत् निष्प्रभ हो गया- काँप उठा। सर्वत्र उदासी छा गयी। सभीके स्वर मन्द पड़ गये। इस प्रकार उन तीनों दानवरूपी अग्नियोंसे त्रिलोकीको जलते देखकर जगद्वन्धु पितामह ब्रह्मा उनके समक्ष प्रकट हुए॥3- 113ll
तब वे दैत्य अपने पितामहको सहसा सम्मुख उपस्थित देखकर अत्यन्त साहस करके बोले और उनकी स्तुति करने लगे। उस समय ब्रह्माके नेत्र और मुख हर्षसे खिल उठे थे। तब उन्होंने तपस्याके प्रभावसे सूर्यके समान प्रभावशाली उन दानवोंसेकहा- 'बच्चो! मैं तुमलोगोंकी तपस्यासे संतुष्ट होकर तुम्हें वर देनेके लिये आया हूँ। तुमलोगोंकी जो अभिलाषा हो, उसे कहो और अपना अभीष्ट वर माँग लो।' वर देनेके लिये उत्सुक पितामहको इस प्रकार कहते हुए देखकर असुरोंके शिल्पी मयके नेत्र अत्यन्त हर्षसे उत्फुल्ल हो उठे। तब उसने कहा- 'देव! प्राचीनकालमें घटित हुए तारकामय संग्राममें देवताओंने दैत्योंको पराजित कर दिया था। उन्होंने अस्त्रोंके प्रहारसे कुछको तो मौतके घाट उतार दिया था और कुछको बुरी तरहसे घायल कर दिया था। उस समय देवताओंके साथ वैर बँध जानेके कारण हमलोग भयसे कम्पित होकर चारों दिशाओंमें भागते फिरे, परंतु हम शरणार्थियोंको यह ज्ञात न हुआ कि | हमारे लिये शरणदाता कौन है तथा हमारा कल्याण कैसे होगा। इसलिये मैं अपनी तपस्याके प्रभावसे तथा आपकी भक्तिके बलपर एक ऐसे दुर्गका निर्माण करना चाहता हूँ, जिसका पार करना देवताओंके लिये भी कठिन हो। सुकृती पुरुषोंमें श्रेष्ठ पितामह! मेरे द्वारा निर्मित उस त्रिपुरमें पृथ्वी, जल एवं अग्रि निर्मित तथा सुरक्षित दुर्गाका और मुनियोंक प्रभावसे दिये गये शापों, देवताओंके अस्त्रों और देवोंका प्रवेश न हो सके। प्रजापते! यदि आपको अच्छा लगे तो वह त्रिपुर सभीके लिये अलङ्घनीय हो जाय ll 12- 203 ॥
तब असुरोंके विश्वकर्मा (महाशिल्पी) मयद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर विश्व स्रष्टा ब्रह्मा दैत्यगणोंके अधीश्वर मयसे हँसते हुए बोले— 'दानव! (तुझ जैसे) असदाचारीके लिये सर्वामरत्वका विधान नहीं है, अतः तुम तृणसे ही अपने दुर्गका निर्माण करो।' उस समय पितामहकी ऐसी बात सुनकर मय दानवने हाथ जोड़कर पुनः पद्मयोनि ब्रह्मासे कहा- 'जो एक ही बारके छोड़े गये एक ही बाणसे उस दुर्गको जला दे वही युद्धस्थलमें हम सबको मार सके, शेष प्राणियोंसे हमलोग अवध्य हो जायें।' तदनन्तर मयसे 'एवमस्तु— ऐसा ही हो' कहकर भगवान् ब्रह्मा स्वप्रमें प्राप्त हुए धनकी तरह वहीं अन्तर्हित हो गये। पितामह के चले जानेपर सूर्यके समान प्रभावशाली भय आदि दानव भी अपने स्थानको चले गये। वे महाबली | दानव तपस्या तथा वरदानके प्रभावसे अत्यन्त शोभित हो [ रहे थे। कुछ समय बाद दानवश्रेष्ठ महाबुद्धिमान् मयदानव दुर्गकी रचना करनेके लिये उद्यत हो विचार करने लगा। मेरे द्वारा निर्मित होनेवाला यह त्रिपुर दुर्ग कैसा बनाया जाय, जिससे उस दिव्य पुरमें निस्संदेह मेरे अतिरिक्त अन्य कोई निवास न कर सके तथा उसके द्वारा छोड़े गये एक बाणसे यह पुर बींधा न जा सके। देवगण उसे नष्ट करनेकी चेष्टा करेंगे ही, किंतु मुझे तो अपनी बुद्धिसे विचार कर लेना चाहिये। उनमें एक-एक पुरका विस्तार सौ योजनका करना है तथा उनके विष्कम्भ (स्तम्भ या शहतीर) भी एक-एक सौ योजनके बनाने हैं ll 21-303 ॥
इन पुरोंका निर्माण पुष्य नक्षत्रके योगमें होगा। इसी पुष्य नक्षत्रके योगमें ये तीनों पुर आकाशमण्डलमें परस्पर मिल जायँगे। जो मनुष्य पुष्य नक्षत्रके योगमें इन तीनों पुरोंको परस्पर मिला हुआ पा लेगा, वही एक बाणके प्रहारसे इन्हें नष्ट कर सकेगा। उनमेंसे एक पुर भूतलपर लौहमय दूसरा गगनतलमें रजतमय और तीसरा रजतमय पुरसे ऊपर सुवर्णमय होगा। इस प्रकार तीनों पुरोंसे युक्त होनेके कारण वह त्रिपुर नामसे विख्यात होगा। इनके अन्तर्भागमें सौ योजन विस्तारवाले विष्कम्भ (बाधक स्तम्भ) रहेंगे, जिससे यह दूसरोंद्वारा दुष्प्राप्य होगा। वह त्रिपुर अट्टालिकाओं, एक ही बारमें सौ मनुष्योंका वध करनेवाले यन्त्रों, चक्र, त्रिशूल, उपल और ध्वजाओं, मन्दराचल और सुमेरु गिरि-सरीखे द्वारों और शिखर-सदृश परकोटोंसे सुशोभित होगा। उनमें तारक लौहमय पुरकी और मय सुवर्णमय पुरकी रक्षा करेंगे तथा | आकाशस्थित रजतमय पुरकी रक्षामें विद्युन्माली नियुक्त रहेगा। ऐसी दशामें एकमात्र भगवान् शंकरको छोड़कर दूसरा कौन इस त्रिपुरका विनाश करनेमें समर्थ हो सकेगा 31-36 ॥