सूतजी कहते हैं- ऋषियो। ब्रह्मा आदि देवताओंद्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर देवाधिदेव महेश्वरने प्रजापति ब्रह्मासे यह कहा- 'अरे! आप देवताओंको यह महान् भय कहाँसे आया? देवगण! आपलोगोंका स्वागत है आपलोगों के मनमें जो अभिलाषा 1 हो, उसे कहिये। मैं उसे अवश्य प्रदान करूंगा; क्योंकि आपलोगोंके लिये मुझे कुछ भी अदेय नहीं है। श्रेष्ठ देवगण! मैं सदा आपलोगोंका कल्याण ही करता रहता हूँ। यहाँतक कि जो महान्, अत्यन्त उग्र एवं घोर तप करता हूँ, वह भी आपलोगोंके लिये ही करता हूँ। जो आपलोगोंसे विद्वेष करते हैं, वे मेरे भी घोर शत्रु हैं। इसलिये जो आपलोगोंको कष्ट देनेवाले हैं, वे कितने ही घोर पराक्रमी क्यों न हों, मुझे उनका अन्त और आपका श्रेयःसम्पादन करना है।' महादेवजीद्वारा प्रेमपूर्वक इस प्रकार कहे जानेपर ब्रह्मासहित समस्त भाग्यशाली देवताओंने महाभाग शङ्करजीसे कहा- 'भगवन्! भयंकर पराक्रमी उन असुरोंने अत्यन्त भीषण तप किया है, जिसके प्रभावसे वे हमें कष्ट दे रहे हैं। इसलिये हमलोग आपको शरणमें आये हैं। त्रिलोचन! (आप तो जानते ही हैं) दितिका पुत्र मय स्वभावतः कलहप्रिय है। उसने ही पीले रंगके फाटकवाले उस त्रिपुर नामक दुर्गका निर्माण किया है। उस त्रिपुरदुर्गका आश्रय लेकर दानव वरदानके प्रभावसे निर्भय हो गये हैं। महादेव! वे हमलोगोंको इस प्रकार कष्ट दे रहे हैं, मानो अनाथ नौकर हों। उन दानवोंने नन्दन आदि जितने उद्यान थे, उन सबको विनष्ट कर दिया तथा रम्भा आदि सभी श्रेष्ठ अप्सराओंका अपहरण कर लिया। महेश्वर! वे इन्द्रके वाहन तथा दिशागज कुमुद, अञ्जन, वामन और ऐरावत आदि गजेन्द्रोंको भी छीन ले गये। इन्द्रके रथमें जुतनेवाले जो मुख्य अश्व थे, उन्हें भी वे असुर हरण कर ले गये | और अब वे घोड़े दानवोंके रथमें जोते जाते हैं।(क) हमलोगोंके पास जितने रथ, जितने हाथी, जितनी स्त्रियाँ और जो कुछ भी धन था, हमारा वह सब दैत्योंने अपहरण कर लिया है और अब हमलोगों के जीवनमें भी सन्देह उत्पन्न हो गया हैं' ॥ 1-12 ॥
इन्द्र आदि देवताओंद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर त्रिनेत्रधारी, वरदायक वृषवाहन, देवेश्वर शङ्करने देवताओंसे कहा- 'देवगण! अब आपलोगोंका दानवोंसे उत्पन्न हुआ महान् भय दूर हो जाना चाहिये। मैं उस त्रिपुरको जला डालूँगा, किंतु मैं जो कह रहा हूँ, वैसा उपाय कीजिये । यदि आपलोग मेरे द्वारा दानवोंसहित उस त्रिपुरको जला देनेकी इच्छा रखते हैं तो मेरे लिये समस्त साधनोंसे सम्पन्न एक रथ सुसज्जित कीजिये। अब देर मत कीजिये।' दिग्वासा शङ्करजीद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर ब्रह्मासहित उन देवताओंने महादेवजीसे 'बहुत अच्छा' कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। फिर तो वे एक उत्तम रथका निर्माण करनेमें लग गये। उन्होंने पृथ्वीको रथ, रुद्रके दो पार्श्वचरोंको, दोनों कूबर मेरुको रथका शिर: स्थान और मन्दरको धुरा बनाया। सूर्य और चन्द्रमा रथके सोने-चाँदीके दोनों पहिये बनाये गये। ब्रह्मा आदि ऐश्वर्यशाली देवोंने शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष दोनोंसे रथकी दोनों नेमियाँ बनायीं। देवताओंने कम्बल और अश्वतर नामक नागोंसे परिवेष्टित कर दोनों बगलके पक्ष यन्त्र बनाये। शुक्र, बृहस्पति, बुध, मङ्गल तथा शनैश्वर ये सभी देवश्रेष्ठ उसपर विराजित हुए। उन देवताओंने गगन-मण्डलको रथका सौन्दर्यशाली वरूथ बनाया। सर्पोंके नेत्रोंसे उसका त्रिवेणु बनाया गया, जो सुवर्ण-सा चमक रहा था। वह मणि, मुक्ता और इन्द्रनील मणिके समान आठ प्रधान देवताओंसे घिरा था ।। 13- 22 ll
गङ्गा, सिन्धु, शतदु चन्द्रभागा, इरावती, वितस्ता, विपाशा, यमुना, गण्डकी, सरस्वती, देविका तथा सरयू इन सभी श्रेष्ठ नदियोंको उस रथमें वेणुस्थानपर नियुक्त किया गया। धृतराष्ट्रके वंशमें उत्पन्न होनेवाले जो नाग थे, वे बाँधनेके लिये रस्सी बने हुए थे जो वासुकि और रैवतके वंशमें उत्पन्न होनेवाले नाग थे, वे सभी दर्पसे पूर्ण और शीघ्रगामी होनेके कारण नाना प्रकारके सुन्दर | मुखवाले बाण बनकर धनुषके तरकसोंमें अवस्थित हुए।| सबसे उग्र स्वभाववाली सुरसा, देवशुनी, सरमा, कद्रू, विनता, शुचि, तृपा, बुभुक्षा तथा सबका शमन करनेवाली मृत्यु ब्रह्महत्या, गोहत्या, बालहत्या और प्रजाभय-ये सभी उस समय गदा और शक्तिका रूप धारण कर उस देवरथमें उपस्थित हुई। कृतयुगका जूआ बनाया गया। चातुर्होत्र यज्ञके प्रयोजक लीलासहित चारों वर्ण स्वर्णमय कुण्डल हुए। उस युग सदृश जूएको रथके शीर्षस्थानपर रखा गया और उसे बलवान् धृतराष्ट्र नागद्वारा कसकर बाँध दिया गया। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद ये चारों वेद चार घोड़े हुए। अन्नदान आदि जितने प्रमुख दान हैं, वे सभी उन घोड़ोंके हजारों प्रकारके आभूषण बने पद्मद्वय, तक्षक, कर्कोटक, धनञ्जय-ये नाग उन घोड़ोंके बाल बाँधनेके लिये रस्सी हुए। ओंकारसे उत्पन्न होनेवाली मन्त्र, यज्ञ और क्रतुरूप क्रियाएँ, उपद्रव, उनकी शान्तिके लिये प्रायश्चित, पशुबन्ध आदि इष्टियाँ, यज्ञोपवीत आदि संस्कार- ये सभी उस सुन्दर लोकरथमें शोभा वृद्धि के लिये मणि, मुक्ता और मूँगेके रूपमें उपस्थित हुए। ओंकारका चाबुक बना और वषट्कार उसका अग्रभाग हुआ सिनीवाली (चतुर्दशीय अमा), कुहू (अमावास्याकी अधिष्ठात्री देवी), राका (शुद्ध पूर्णिमा तिथि) तथा शुभदायिनी अनुमति (प्रतिपदयुक्ता पूर्णिमा)- ये सभी घोड़ोंको रथमें जोतनेके लिये रस्सियाँ और बागडोर बनीं। उसमें काले, पीले, श्वेत और लाल रंगकी निर्मल पताकाएँ लगी थीं, जो वायुके वेगसे फहरा रही थीं। छहों ऋतुओंसंहित संवत्सरका धनुष बनाया गया। अम्बिकादेवी उस धनुषकी कभी जीर्ण न होनेवाली सुदृढ़ प्रत्यञ्चा हुई। भगवान् रुद्र कालस्वरूप हैं। उन्होंको संवत्सर कहा जाता है, इसी कारण अम्बिकादेवी कालरात्रिरूपसे उस धनुषको कभी न कटनेवाली प्रत्यञ्चा बनीं। त्रिलोचन भगवान् शङ्कर जिस बाणसे अन्तर्भागसहित त्रिपुरको जलानेवाले थे, वह श्रेष्ठ बाण विष्णु, सोम, अग्नि- इन तीनों देवताओंके संयुक्त तेजसे निर्मित हुआ था। उस बाणका मुख अग्नि और फाल अन्धकारविनाशक चन्द्रमा थे। चक्रधारी विष्णुका तेज समूचे बाणमें व्याप्त था। इस प्रकार वह बाण तेजका समन्वित रूप था। उस बाणपर नागराज वासुकिने उसके पराक्रमकी वृद्धि एवं तेजकी स्थिरताके लिये अत्यन्त उग्र विष उगल दिया था ।। 23-43 ।।इस प्रकार देवगण दिव्य प्रभावसे उस दिव्य रथका निर्माण कर लोकाधिपति शङ्करके निकट जाकर इस प्रकार बोले— 'दानवरूप शत्रुओंके विजेता भगवन्! हमलोगोंने आपके लिये इस रथकी रचना की है। यह इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओंकी आपत्तिसे रक्षा करेगा। सुमेरुगिरिके शिखरके समान उस उत्तम त्रैलोक्यरथको देखकर भगवान् शङ्करने उसकी प्रशंसा करके देवताओंकी प्रशंसा की और पुनः उस रथका निरीक्षण करने लगे। वे बार-बार रथके प्रत्येक भागको देखते और बार-बार उसकी प्रशंसा करते थे। तत्पश्चात् देवताओंके अधीश्वर स्वयं भगवान् शङ्करने इन्द्रसहित देवताओंसे कहा 'देवगण! आपलोगोंने जिस प्रकार मेरे लिये रथकी सारी सामग्रियोंसे युक्त इस रथका निर्माण किया है, इसीकी मर्यादाके अनुकूल शीघ्र ही किसी सारथिका भी विधान कीजिये।' देवाधिदेव शङ्करके ऐसा कहनेपर देवगण ऐसे व्याकुल हो गये, मानो वे बाणोंसे बींध दिये गये हों। उन्हें बड़ी चिन्ता हुई। वे कहने लगे कि अब क्या किया जाय। भला, चक्रधारी भगवान् विष्णुके अतिरिक्त दूसरा कौन देवता महादेवजीके सदृश हो सकता है, किंतु वे तो उनके बाणपर स्थित हो चुके हैं। यह सोचकर जैसे गाड़ीमें जुते हुए बैल पर्वतोंसे टकरा जानेपर हॉफने लगते हैं, वैसे ही सभी देवता लम्बी साँस लेने लगे और कहने लगे कि यह कार्य कैसे सिद्ध होगा? इतनेमें ही उन देवताओंके बीच देवदेव अग्रज ब्रह्मा बोल उठे 'सारथि में होऊँगा' ऐसा कहकर उन्होंने लोकनाथ शङ्करके रथमें जुते हुए घोड़ोंकी बागडोर पकड़ ली। उस समय ब्रह्माको हाथमें चाबुक लिये हुए सारथिके स्थानपर स्थित देखकर गन्धर्वोसहित देवताओंने महान् सिंहनाद किया। तदनन्तर पितामह ब्रह्माको रथपर स्थित देखकर विश्वेश्वर भगवान् शङ्कर 'उपयुक्त सारथि मिला' ऐसा कहकर रथपर आरूढ़ हुए। भगवान् शंकरके रथपर चढ़ते ही घोड़े उनके भारसे व्याकुल हो गये। वे घुटनोंके बल पृथ्वीपर गिर पड़े और उनके मुखमें धूल भर गयी। इस प्रकार जब शङ्करजीने देखा कि अश्वरूपधारी वेद भयवश भूमिपर गिर पड़े हैं तब उन्होंने उन्हें उसी प्रकार उठाया जैसे मुद आर्त एवं दुःखी पितरोंका उद्धार करता है। तत्पश्चात् रथकी | भयंकर घरघराहटके साथ सिंहनाद होने लगा। देवगण समुद्रकी गर्जनाके समान जय-जयकार करने लगे ॥ 44-57 llतदनन्तर सामर्थ्यशाली वरदायक ब्रह्मा ओंकारमय बाइकको हाथमें लेकर थोड़ोंको पुचकारते हुए पूर्ण बेगसे आगे बड़े फिर तो ये घोड़े पृथ्वीको अपने साथ समेटते तथा आकाशको ग्रसते हुएकी तरह बड़े वेग से दौड़ने लगे। उनके मुखोंसे ऐसे दीर्घ निःश्वास निकल रहे थे, मानो फुफकारते हुए सर्प हो। शङ्करजीकी प्रेरणा से ब्रह्माद्वारा हाँके जाते हुए वे घोड़े प्रलयकालिक वायुकी तरह अत्यन्त वेगसे दौड़ रहे थे। शिवजीकी इच्छासे उस रथमें ध्वजको ऊँचा उठाने में निपुण नन्दी वृषभ उस अनुपम ध्वजयष्टिके ऊपर स्थित हुए। सूर्यके समान प्रभावशाली शुक्र और बृहस्पति- ये दोनों देवता हाथमें दण्ड धारण करके रुद्रका प्रिय करनेकी इच्छासे रथके पहियोंकी रक्षा कर रहे थे। उस समय शत्रुओंका समूल विनाश करनेवाले अनन्त भगवान् शेषनाग हाथमें बाण धारण कर रथकी तथा ब्रह्माके आसनकी रक्षामें जुटे हुए थे। यमराज तुरंत अपने अत्यन्त भयंकर भैंसेपर, कुबेर सौंपपर और देवराज इन्द्र ऐरावत हाथीपर चढ़कर आगे बढ़े। वरदायक गुह कार्तिकेय सैकड़ों चन्द्रवाले तथा किंनरकी भाँति कूजते हुए अपने मयूरपर सवार होकर पिताके उस रथकी रक्षा कर रहे थे। तेजस्वी भगवान् नन्दीश्वर शूल लेकर रथके पीछेसे दोनों पार्श्वभागोंकी रक्षा करते थे। उस समय वे ऐसा प्रतीत होते थे, मानो लोकका विनाश कर देना चाहते हों। अग्निके समान कान्तिमान् प्रमथगण, जो अग्निकी लपटोंसे युक्त पर्वत सदृश दीख रहे थे, शङ्करजीके रथके पीछे चलते हुए ऐसे लगते थे जैसे महासागर में नाकगण तैर रहे हों। भृगु, भरद्वाज, वसिष्ठ, गौतम, ऋतु पुलस्त्य, पुलह, मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पराशर, अगस्त्य — ये सभी तपस्वी एवं ऐश्वर्यशाली महर्षि विचित्र छन्दालंकारोंसे विभूषित वचनद्वारा अजन्मा एवं अजेय शङ्करकी स्तुति कर रहे थे। सुमेरुगिरिके सहयोग से सम्पन्न हुआ वह रथ आकाशमें विचरनेवाले पंखधारी पर्वतकी तरह त्रिपुरकी ओर बढ़ रहा था। हाथी, पर्वत, सूर्य और मेघके समान कान्तिवाले प्रमथगण जलधर बादलको भाँति गर्जना करते हुए बड़े गर्वके साथ देवताओं द्वारा | सब ओरसे सुरक्षित उस रथके पीछे-पीछे चल रहे थे।वह अत्यन्त उद्दीप्त श्रेष्ठ रथ प्रलयकालमें मकर, तिमि (एक प्रकारके महामत्स्य) और तिमिंगिलों (उसे निगलनेवाले महामत्स्य) - से व्याप्त भयंकर रूपसे उमड़े हुए समुद्रकी तरह आगे बढ़ रहा था। उससे वज्रपातकी तरह गड़गड़ाहट और बादलकी गर्जनाके सदृश शब्द हो रहा था ॥ 58–71 ॥