सूतजी कहते हैं— ऋषियो! इस प्रकार असुरशिल्पी मयने त्रिपुर नामक दुर्गका निर्माण किया, परंतु अन्ततोगत्वा परस्पर बँधे हुए वैरवाले देवताओं और असुरोंके लिये वह दुर्ग दुर्गम हो गया। उस समय वे सभी शस्त्रधारी दैत्य जो यमराजके समान भयंकर थे, मयके आदेश से | अपनी स्त्रियों और पुत्रोंके साथ हर्षपूर्वक उन गृहों मेंप्रविष्ट हुए। जैसे अनेकों सिंह वनको, अनेकों मगरमच्छ सागरको और क्रोध एवं अत्यन्त कठोरता परस्पर सम्मिलित होकर शरीरको अपने अधिकारमें कर लेते हैं, वैसे ही उन महाबली देव शत्रुओंद्वारा वह पुर व्याप्त हो गया। इस प्रकार वह त्रिपुर असंख्य (अरबों) दैत्योंसे भर गया। उस समय सुतल और पाताल (दानवोंके निवासस्थान) से निकलकर आये हुए दानव तथा (देवताओंक भयसे छिपकर ) पर्वतोंपर जीवन निर्वाह करनेवाले दैत्य भी, जो काले बादलकी-सी कान्तिवाले थे, (शरणार्थीक रूपमें) वहाँ उपस्थित हुए। त्रिपुरमें आश्रय लेनेके कारण जो असुर जिस वस्तुकी कामना करता था, उसकी उस कामनाको मय दानव मायाद्वारा पूर्ण कर देता था। जिनके सुडौल शरीरपर चन्दनका अनुलेप लगा था, जो निर्मल आभूषण, वस्त्र, माला और अङ्गरागसे अलंकृत थे तथा मतवाले गजेन्द्रसरीखे दीख रहे थे, ऐसे दानव चाँदनी रातोंमें एवं सायंकालके समय कमलसे सुशोभित सरोवरोक तटपर, आमके बगीचों और तपोवनोंमें अपनी पत्नियोंके साथ निरन्तर हर्षपूर्वक विहार करते थे ॥ 1-9 ॥
इस प्रकार मयद्वारा निर्मित उस स्थानपर निवास करते हुए वे महासुर आनन्दका उपभोग कर रहे थे। उन्होंने स्वयं ही धर्म, अर्थ और कामके सम्पादनमें अपनी बुद्धि लगायी। त्रिपुरमें निवास करनेवाले उन | देव शत्रुओंका समय ऐसा सुखमय व्यतीत हो रहा था, जैसे स्वर्गवासियोंका व्यतीत होता है वहाँ पुत्र पितृगणोंकी तथा पत्नियाँ पतियोंकी सेवा करती थीं। वे परस्पर कलह नहीं करते थे। उनमें परम प्रेम था। किसी प्रकारका अधर्म प्रबल होनेपर भी त्रिपुर निवासियोंको बाधा नहीं पहुँचाता था। वे दैत्य शिव मन्दिरमें शङ्करजीकी अर्चना करते हुए वेदोक्त माङ्गलिक शब्दों एवं आशीर्वादोंका उच्चारण करते थे। त्रिपुरमें आनन्द मनानेवाले दानवेन्द्रोंके अपने नूपुरकी झनकारसे मिश्रित वेणु एवं वीणाके शब्द तथा सुन्दरी नारियोंके । चित्तको व्याकुल कर देनेवाले हास सदा सुनायी पड़ते थे।इस प्रकार देवताओंकी अर्चना और ब्राह्मणोंको नमस्कार करनेवाले तथा धर्म, अर्थ एवं कामके साधक उन दैत्योंका महान् समय व्यतीत होता गया। तदनन्तर अलक्ष्मी ( दरिद्रता), असूया (गुणोंमें दोष निकालना), तृष्णा, बुभुक्षा (भूख), कलि और कलह- ये सब एक साथ मिलकर त्रिपुरमें प्रविष्ट हुए। इन भयदायक दुर्गुणोंने सायंकाल त्रिपुरमें प्रवेश किया था। इन्होंने राक्षसोंपर ऐसा अधिकार जनाया, जैसे भयंकर व्याधियाँ शरीरोंको काबू कर लेती हैं। त्रिपुरके भीतर प्रवेश करते हुए इन दुर्गुणोंको मयने स्वप्रमें दानवोंके शरीर में भयानक रूपसे प्रविष्ट होते हुए देख लिया। तब सहस्र किरणधारी एवं उज्ज्वल प्रकाश करनेवाले सूर्यके उदय होनेपर मयने (तारक और विद्युन्मालीके साथ) दो सूर्योंसे युक्त बादलको तरह सभाभवनमें प्रवेश किया। वहाँ वे मेरुगिरिके शिखरके समान सुन्दर स्वर्णमण्डित रमणीय आसनपर आसीन हो गये। उस समय वे ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो सुमेगिरिके शिखरपर बादल उमड़ आये हों। मय दानवके निकट एक ओर तारकासुर और दूसरी ओर दानवश्रेष्ठ विद्युन्माली बैठे हुए थे, जो हाथीके बच्चेकी तरह दीख रहे थे । 10-22 ॥ तत्पश्चात् युद्धस्थलमें अत्यन्त घायल होनेके कारण जिनके क्रोध शेष रह गये थे, वे सभी देवशत्रु दानव वहाँ आकर यथास्थान बैठ गये। इस प्रकार उन सबके सुखपूर्वक आसनपर बैठ जानेके पश्चात् मायाके उत्पादक मयने उन दानवोंसे इस प्रकार कहा- 'अरे दाक्षायणीके पुत्रो! तुमलोग आकाशमें विचरण करनेवाले तथा आकाशचारियों में विशेषरूपसे गर्जना करनेवाले हो। मैंने यह एक भयानक स्वप्र देखा है, उसे तुमलोग ध्यानपूर्वक सुनने मैंने स्वप्रमें चार स्वियों और तीन पुरुषोंको पुरमें प्रवेश करते हुए देखा है। उनके रूप भयानक थे तथामुख क्रोधाग्रिसे उद्दीप्त हो रहे थे, जिससे ऐसा लगता था मानो वे त्रिपुरके विनाशक हैं। वे अतुल पराक्रमशाली प्राणी क्रोधसे भरे हुए थे और पुरोंमें प्रवेश करके अनेकों शरीर धारणकर दानवोंके शरीरोंमें भी घुस गये हैं। यह त्रिपुर नगर अन्धकारसे आच्छन्न हो गया है और गृह तथा तुमलोगोंके साथ ही सागरके जलमें डूब गया है। एक सुन्दरी स्त्री नंगी होकर उलूकपर सवार थी तथा उसके साथ एक पुरुष था, जिसके ललाटमें लाल तिलक लगा था। उसके चार पैर और तीन नेत्र थे। वह गधेपर चढ़ा हुआ था। उसने उस स्त्रीको प्रेरित किया, तब उसने मुझे नींदसे जगा दिया। इस प्रकारकी अत्यन्त भयावनी नारीको मैंने स्वत्रमें देखा है दितिपुत्रो! मैंने इस प्रकारका स्वप्न देखा है और यह भी देखा है कि यह स्वप्न असुरोंके लिये किस प्रकार कष्टदायक होगा। इसलिये यदि तुमलोग हमें अपना उचितरूपसे राजा मानते हो और यह समझते हो कि इनका कथन हितकारक होगा तो मन लगाकर मेरी बात सुनो। तुमलोग किसीकी असूया (झूठी निन्दा) मत करो काम, क्रोध, ईर्ष्या, असूया आदि दुर्गुणोंको एकदम छोड़कर सत्य, दम, धर्म और मुनिमार्गका आश्रय लो। शान्तिदायक अनुष्ठानोंका प्रयोग करो और महेश्वरकी पूजा करो। सम्भवतः ऐसा करनेसे स्वप्रकी शान्ति हो जाय। असुरो (ऐसा प्रतीत हो रहा है कि) त्रिनेत्रधारी देवाधिदेव भगवान् रुद्र निश्चय ही हमलोगोंपर कुपित हो गये हैं; क्योंकि हमारे त्रिपुरमें भविष्यमें घटित होनेवाली घटनाएँ अभीसे दीख पड़ रही हैं। अतः तुमलोग कलहका परित्याग तथा सरलताका आश्रय लेकर इस दुःस्वप्रके परिणामस्वरूप आनेवाले कालकी प्रतीक्षा करो' ॥ 23-36 ॥
इस प्रकार मय दानवका भाषण सुनकर सभी दानव क्रोध और ईष्यके वशीभूत हो गये तथा विनाशकी ओर जाते हुए-से दीखने लगे अलक्ष्मीद्वारा प्रभावित हुए वे असुर अपने भावी विनाशको संनिकट देखते हुए भी | परस्पर एक-दूसरेकी ओर देखकर वहीं क्रोधसे भर गये।उनकी आँखें लाल हो गयीं। तदनन्तर दैव (भाग्य) से परिच्युत हुए त्रिपुरनिवासी दानव सत्य और धर्मका परित्याग कर निन्द्य कर्मोंमें प्रवृत्त हो गये। वे पवित्र ब्राह्मणोंसे द्वेष करने लगे। उन्होंने देवताओंकी अर्चना छोड़ दी। वे गुरुजनोंका मान नहीं करते थे और परस्पर क्रोधपूर्ण व्यवहार करने लगे। वे कलहमें प्रवृत्त होकर अपने धर्मका उपहास करने लगे और 'मैं ही सब कुछ हूँ' ऐसा कहते हुए परस्पर एक-दूसरेकी निन्दा करने लगे। वे गुरुजनोंसे कड़े शब्दोंमें बोलते थे। स्वयं सत्कृत होनेपर भी उन्होंने अपनेसे नीची कोटिवालोंसे बोलना भी छोड़ दिया। उनकी आँखों में अकस्मात् आँसू उमड़ आते थे और वे उत्कण्ठित से जो जाते थे। वे रातमें दही, सत्तू, दूध और कैथका फल खाने लगे। जूठे मुँह रहकर घिरे स्थानमें हुए शयन करने लगे। उनका शौचाचार ऐसा विनष्ट हो गया कि वे मूत्र त्यागकर जलका स्पर्श तो करते, परंतु बिना पैर धोये ही बिछौनोंपर शयन करने लगे। वे अकस्मात् भयसे इस प्रकार संकुचित हो जाते थे, जैसे बिलावको देखकर चूहे हो जाते हैं। उन्होंने स्त्री सहवासके बाद शरीरकी शुद्धि करना छोड़ दिया और गोपनीय कार्योंमें भी निर्लज्ज हो गये। वे त्रिपुरनिवासी दैत्य पहले सुशील थे, पर अब बड़े क्रूर हो गये तथा देवताओं और तपस्वियोंको कष्ट देने लगे। मयके मना करनेपर भी वे विनाशकी ओर बढ़ने लगे। उनके मनमें कलहकी इच्छा जाग उठी, जिससे वे ब्राह्मणोंका अपकार ही करते थे। इस प्रकार जो पहले देवताओंके वशीभूत थे, वे दानवगण सम्प्रति त्रिपुरका आश्रय पानेसे संक्रुद्ध होकर वैभ्राजके नन्दन, चैत्ररथ, अशोक, वराशोक, सर्वर्तुक आदि वनों, देवताओंके निवास स्थान स्वर्ग तथा तपस्वियोंके वनोंका विध्वंस करने लगे। उस समय देव मन्दिर और आश्रम नष्ट कर दिये : गये। देवताओं और ब्राह्मणोंके उपासक मार डाले गये ।इस प्रकार देवराज इन्द्रके शत्रुओंद्वारा विध्वस्त किया हुआ जगत् ऐसा लगने लगा, जैसे टिड्डीदलोंद्वारा नष्ट की हुई अन्नकी फसल हो ॥ 37–50 ॥