सूतजी कहते हैं-ऋषियो। त्रिपुरनिवासी दानवोंका शील तो भ्रष्ट ही हो गया था, उनमें दुष्टता भी कूट कूटकर भर गयी थी। उन दुरात्माओंने लोकों एवं तपोवनोंका विनाश करना आरम्भ किया। वे आकाशमें जाकर सिंहनाद करते, जिसे सुनकर सारे जीव-जन्तु भयभीत हो जाते थे। इस प्रकार जब सारी त्रिलोकी | भयके कारण किंकर्तव्यविमूढ़ हो गयी और सर्वत्र अन्धकार सा छा गया, तब भयसे डरे हुए आदित्य, वसु, साध्य, पितृ-गण और मरुद्रण- ये सभी संगठित होकर प्रपितामह ब्रह्माकी शरणमें पहुँचे। वहाँ पञ्चमुख ब्रह्मा स्वर्णमय कमलासनपर आसीन थे। ये देवगण उनके निकट जाकर उन्हें नमस्कार कर (दानवोंके अत्याचारका) वर्णन करने लगे-निष्पाप पितामह त्रिपुरनिवासी दानव आपके ही वरदानसे सुरक्षित होकर हमलोगों को सेवकोंको तरह कष्ट दे रहे हैं, अतः आप उन्हें मना कीजिये। पितामह! जैसे बादलोंके उमड़नेपर हंस और सिंहको दहाड़से मृग भयभीत होकर भागने लगते हैं. उसी प्रकार दानवोंके भयसे हमलोग इधर-उधर लुक-छिप रहे हैं पापरहित ब्रह्मन् यहाँतक कि दानवोंद्वारा खदेड़े जानेके कारण हमलोगोंको अपने पुत्रों तथा पत्रियोंके नामतक भूल गये हैं। लोभ एवं मोहसे अंधे हुए दानवगण देवताओंके निवासस्थानोंको तोड़ते | फोड़ते तथा ऋषियोंके आश्रमोंको विध्वस्त करते हुए| घूम रहे हैं। यदि आप शीघ्र ही दानवद्वारा विध्वंस किये जाते हुए लोककी रक्षा नहीं करेंगे तो सारा जगत् देवता, मनुष्य और आश्रम से रहित हो जायगा ॥1-93 ll
जब देवताओंने पद्मयोनि ब्रह्मासे इस प्रकार निवेदन किया, तब चन्द्रमाके समान गौरवर्ण मुखवाले सामर्थ्यशाली ब्रह्माने इन्द्रादि देवताओंसे कहा- 'बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ देवगण! मैंने मयको जो वर दिया था, उसका यह अन्त समय आ पहुंचा है, जिसे मैंने पहले ही उन लोगोंसे कह दिया था। श्रेष्ठ देवताओ! उनका निवासस्थान वह त्रिपुर तो | एक ही बाणके प्रहारसे नष्ट हो जानेवाला है उसपर बाण-वृष्टिकी आवश्यकता नहीं हैं, किंतु श्रेष्ठ देवगण! मैं यहाँ तुमलोगोंमेंसे किसीको भी ऐसा नहीं देख रहा है, जो एक ही बाणके आघातसे दानवोंसहित त्रिपुरको नष्ट कर सके। देवाधिदेव प्रजापति शङ्करके अतिरिक्त अन्य कोई अल्प पराक्रमी वीर एक ही बाणसे त्रिपुरका विनाश नहीं कर सकता। इसलिये यदि तुमलोग तथा अन्यान्य देवगण भी एक साथ होकर दक्ष यज्ञके विध्वंसक भगवान् शङ्करके पास चलकर उनसे याचना करें तो वे त्रिपुरका विनाश कर देंगे। इन पुरोंका विष्कम्भ सौ-सौ योजनोंका बना हुआ है, अतः पुष्य नक्षत्रके योगमें जब ये तीनों एक साथ सम्मिलित होंगे, उसी क्षण भगवान् शङ्कर एक ही बाणके आघातसे इसका विध्वंस कर सकते हैं।' यह सुनकर दुःखित देवताओंने कहा कि 'हमलोग चलेंगे।' तब ब्रह्मा उन्हें साथ लेकर शङ्करजीकी सभामें आये वहीं उन्होंने देखा कि भूत एवं भविष्यके स्वामी तथा गिरिपर शयन करनेवाले त्रिशूलपाणि शङ्कर पार्वतीदेवी तथा महात्मा नन्दीके साथ विराजमान हैं। उन अजन्मा महादेवके शरीरका वर्ण अनिके समान उद्दीप्त था। उनके नेत्र अग्निकुण्डके सदृश लाल थे। उनके शरीरसे सहस्तें अग्रियों और सूर्योके समान प्रभा टिक रही थी। वे अग्रिके से रंगवाली विभूति विभूषि उनके ललाटपर बालचन्द्र शोभा पा रहा था और मुख (पूर्णिमाके) चन्द्रमासे भी अधिक सुन्दर दीख रहा था। तब देवगण उन अजन्मा नीललोहित महादेवके निकट गये और पशुपति, पार्वती-प्राणवल्लभ, वरदायक शम्भुकी इस प्रकार स्तुति करने लगे ॥ 10-21 ॥देवताओंने कहा- भगवन्! आप भव-सृष्टिके उत्पादक और पालक, शर्व-प्रलयकालमें सबके संहारक, रुद्र- समस्त प्राणियोंके प्राणस्वरूप, वरद - वरप्रदाता, पशुपति समस्त जीवोंके स्वामी आ-बहुत ऊँचे, | एकादश रुद्रोंमेंसे एक और कपर्दी – जटाजूटधारी हैं, | आपको नमस्कार है। आप महादेव - देवताओंके भी पूज्य, भीमभयंकर त्र्यम्बक त्रिनेत्रधारी, एकादश रुद्रोंमें अन्यतम, शान्त–शान्तस्वरूप, ईशान नियन्ता, भयन भयके विनाशक और अन्धकघाती अन्धकासुरके वधकर्ताको प्रणाम है। नीलग्रीव-ग्रीवामें नील चिह्न धारण करनेवाले, भीमभयदायक, वेधाः ब्रह्मस्वरूप, वेधसा | स्तुतः - ब्रह्माजीके द्वारा स्तुत, कुमारशत्रुनिघ्न कुमार कार्तिकेयके शत्रुओंको मारनेवाले, कुमारजनक स्वामी कार्तिक के पिता विलोहित लाल रंगवाले, धूम धूम्रवर्ण, वर जगत्को ढकनेवाले, क्रथन-प्रलयकारी, नीलशिखण्ड-नीली जटावाले, शूली— त्रिशूलधारी, दिव्यशायी-दिव्य समाधिमें लीन रहनेवाले, उरग सर्पधारी, त्रिनेत्र तीन नेत्रोंवाले, हिरण्यवसुरेता–सुवर्ण आदि धनके उगमस्थान, अचिन्त्य अतवर्य, अम्बिकाभतां पार्वतीपति, सर्वदेवस्तुत सम्पूर्ण | देवद्वारा स्तुत, वृषध्वज-बैल-चिह्नसे युक्त ध्वजवाले, मुण्डमुण्डधारी, जटी जटाधारी, ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्यसम्पत्र, सलिले तप्यमान जलमें तपस्या करनेवाले, ब्रह्मण्य ब्राह्मण-भक्त, अजित अजेय, विश्वात्मा विश्वके आत्मस्वरूप विश्वमक् विश्वके सष्टा विश्वमावृत्य तिष्ठते संसारमें व्याप्त रहनेवाले, दिव्यरूप दिव्यरूपवाले प्रभु सामर्थ्यशाली, दिव्यशम्भु अत्यन्त मङ्गलमद, अभिगम्य- शरण लेने योग्य, काम्य- अत्यन्त सुन्दर, स्तुत्य- स्वतन करनेयोग्य, सर्वदा अर्च्य सदा पूजनीय, भक्तानुकम्पी भोंपर दया करनेवाले और यन्मनोगतं नित्यं दिशते- मनकी अभिलाषा पूर्ण करनेवालेको अभिवादन है। ll 22-29 ॥