(शौनक आदि) ऋषियोंने पूछा-सूतजी! देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षस इन सबकी उत्पत्ति कैसे हुई? इसका यथार्थरूपसे विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ॥1 ॥
सूतजी कहते हैं-द्विजवरो प्रचेता-पुत्र दक्षसे पूर्व उत्पन्न हुए लोगोंकी सृष्टि संकल्प, दर्शन और स्पर्शमात्रसे हुई है. ऐसा कहा जाता है; किंतु दसके पश्चात् स्त्री-पुरुषके संयोगद्वारा सृष्टि प्रचलित हुई है। पूर्वकालमें जब ब्रह्माने दक्षको आज्ञा दी कि तुम प्रजाओंकी सृष्टि करो, तब दक्षने पहले-पहल जैसी सृष्टि रचना की, उसे (मैं) उसी प्रकार (वर्णन करता हूँ, आपलोग ) अग करें। जब (संकल्प, दर्शन और स्पर्शद्वारा देव, ऋषि और नागोंकी सृष्टि करनेपर जीवलोकका विस्तार नहीं हुआ, तब दक्षने पाञ्चजनीके गर्भसे एक हजार पुत्रको पैदा किया, जो 'ह' नामसे विख्यात हुए। उन हर्यश्वनामक दस पुत्रोंको नाना प्रकारके जीवोंकी सृष्टि करनेके लिये उत्सुक देखकर महाभाग नारदने निकट आये हुए उन लोगोंसे कहा-'श्रेष्ठ ऋषियो। पहले आपलोग सर्वत्र घूमकर पृथ्वीके विस्तार तथा उसके ऊपर और नीचेके भागको जान लें, तब विशेषरूपसे सृष्टि रचना कीजिये।' नारदजीकी बात सुनकर वे लोग विभिन्न दिशाओंकी ओर चले गये और आजतक भी वे उसी प्रकार नहीं लौटे, जैसे नदियाँ समुद्रमें मिलकर पुनः वापस नहीं आतीं। इस प्रकार हर्यश्व नामक पुत्रोंके नष्ट हो जानेपर प्रभावशाली प्रजापति दक्षने वीरिणीके गर्भसे पुनः एक हजार पुत्रोंको उत्पन्न किया, जो शबल नामसे प्रसिद्ध हुए। जब ये द्विजवर सृष्टि रचनाके लिये एकत्र | होकर नारदजीके निकट पहुँचे, तब उन्होंने उन अनुगतोंसे भी पुनः वही पूर्ववत् बात कही-ऋषियो आपलोग पहले सब ओर घूमकर पृथ्वीके विस्तारको समझिये और अपने भाइयोंका पता लगाकर लौटिये, तत्पश्चात् विशेषरूपसे सृष्टि रचना कीजिये।' तब जिस मार्गसे भाई लोग गये थे, उसी मार्गसे वे लोग भी चले, उसी मार्गसे चले गये (और पुनः वापस नहीं आये। तभीसे छोटा भाई बड़े भाईको ढूँढ़ने नहीं जाता। यदि जाता है तो वह दुःखभागी होता है। इसलिये ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये ॥ 2- 11 ॥
तदनन्तर उन पुत्रोंके भी विनष्ट हो जानेपर प्रचेतानन्दन प्रजापति दक्षने वीरिणीके गर्भसे साठ कन्याएँ उत्पन्न कीं। उनमेंसे दक्षने दस धर्मको, तेरह कश्यपको, सत्ताईस चन्द्रमाको चार अरिष्टनेमिको दो भृगुनन्दन शुक्रको दो बुद्धिमान् कृशाक्षको और दो कन्याएँ अङ्गिराको प्रदान कर दीं। अब आपलोग इन देवमाताओंके नाम तथा जिस प्रकार इनकी संतानोंका विस्तार हुआ, वह सब आदिसे ही विस्तारपूर्वक सुनिये। इनमेंसे मरुत्वती, वसु, यामी, लम्बा, भानु, अरुंधती, संकल्पा, मुहूर्ता, साध्या और सुन्दरो विश्वा ये दस धर्मकी पत्नियाँ बतलायी गयी हैं। अब इनके पुत्रोंके भी नाम सुनिये- विश्वाने (दस) विश्वेदेवको साध्याने (बारह) साध्योंको, मरुत्वतीने (उनचास) मरुतोंको, वसुने आठ वसुओंको, भानुने (बारह) सूर्योको, मुहूर्ताने मुहूर्तकको लम्बाने घोषको, यामीने नागवीथीको|और संकल्पाने संकल्पको जन्म दिया। अरुन्धतीके गर्भसे भूतलपर होनेवाले समस्त जीव-जन्तुओं की उत्पत्ति हुई। अब वसुओंकी सृष्टिके विषयमें सुनिये ये जो प्रभाशाली देवता सम्पूर्ण दिशाओंमें व्याप्त हैं, वे सभी 'वसु' नामसे विख्यात हैं। अब इनके सृष्टि-विस्तारका वर्णन सुनिये आप, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास- ये आठ वसु कहे गये हैं। इनमें आप नामक वसुके शान्त, दण्ड, शाम्ब और मणिवक्त्र नामक चार पुत्र हुए, जो सब-के-सब यज्ञ - रक्षाके अधिकारी हैं। (शेष वसुओंमें) ध्रुवका पुत्र फाल हुआ सोमसे वर्षाकी उत्पत्ति हुई धरके कल्याणिनीके गर्भसे द्रविण और हव्यवाह नामके दो पुत्र बतलाये जाते हैं तथा हरिकी कन्या मनोहराने उन्हीं धरके संयोगसे प्राण, रमण और शिशिर नामक तीन पुत्र प्राप्त किये। शिवाने अनलसे मनोजव तथा अविज्ञातगति नामक दो पुत्रोंको प्राप्त किया, जो प्रायः अग्रिके सदृश ही गुणवाले थे। अग्निपुत्र कुमार (कार्तिकेय) सरकंडेके झुरमुटमें पैदा हुए थे। इनके अनुज शाख, विशाख और नैगमेय नामसे प्रसिद्ध हैं। कृतिकाकी संतति होनेके कारण ये कार्तिकेय नामसे भी विख्यात हैं। प्रत्यूष वसुके विभु तथा देवल नामके दो पुत्र हुए, जो आगे चलकर महान् ऋषि हुए। प्रभासका पुत्र विश्वकर्मा हुआ, जो शिल्पविद्यामें निपुण और प्रजापति हुआ। वह प्रासाद (अट्टालिका) भवन, उद्यान, प्रतिमा, आभूषण, वापी, सरोवर, बगीचा और कुएँ आदिके निर्माणकार्यमें देवताओंके बढ़ईरूपसे विख्यात हुआ ll 12-28 ॥
अजैकपाद अहिर्बुध्य, विरूपाक्ष रेवत, हर, बहुरूप, सुरराज त्र्यम्बक, सावित्र, जयन्त, पिनाकी और अपराजित ये एकादश रुद्र गणेश्वर नामसे प्रख्यात हैं। श्रेष्ठ त्रिशूल धारण करनेवाले इन ब्रह्माके मानस पुत्ररूप गणेश्वरोंके चौरासी करोड़ पुत्र उत्पन्न हुए, जो सब के सब अक्षय माने गये हैं। सुरभीके गर्भसे उद्भूत ये एकादश रुद्रोंके पुत्र-पौत्र आदि, जो गणेश्वर कहे जाते हैं, सभी दिशाओं में (चराचर जगत्की) रक्षा करते हैं ॥ 29-32 ॥