मत्स्यभगवान् ने कहा- राजन्! (रत्न-धन-) वस्त्रादि धरोहरको हड़प जानेवाले व्यक्तिको उसके मूल्यके अनुरूप दण्ड देनेपर राजाका धर्म नष्ट नहीं होता जो व्यक्ति रखी हुई धरोहरको वापस नहीं करता और जो बिना धरोहर रखे ही माँगता है, वे दोनों ही चोरके समान दण्डनीय हैं। उनसे मूल्यसे दुगुना धन दिलाना चाहिये जो कोई उपधी-ढोका डालकर या छल-कपटसे दूसरेके धनको चुरा लेता है, उसे अनेकों वधोपायोंद्वारा सहायकोंसहित प्राण दण्ड देना चाहिये। जो व्यक्ति दूसरेसे माँगकर ली गयी वस्तुको समयपर वापस नहीं करता तो उसे बलपूर्वक पकड़कर वह वस्तु दिला देने अथवा पूर्वसाहस का दण्ड देनेका विधान है। जो कोई अनजानमें किसी दूसरेकी वस्तुको बेंच देता है, वह तो निर्दोष है, किंतु जो जानते हुए दूसरेकी वस्तुको बेचता है वह चोरके समान दण्डनीय है। जो मूल्य लेकर विद्या या शिल्पज्ञानको नहीं देता, उसे धर्मज्ञ राजाको रकमवापसीका दण्ड देना चाहिये। जो ब्रह्मभोजका अवसर प्राप्त होनेपर अपने पड़ोसियोंको भोजन नहीं कराता उसे एक माशा सुवर्णका दण्ड देना चाहिये। अपराधियोंको दण्ड देनेमें व्यतिक्रमका विधान नहीं है। जो निमन्त्रित ब्राह्मण अपने घरपर रहते हुए भी बिना किसी कारणके भोजन करने नहीं जाता उसे एक सौ आठ माशा सुवर्णका दण्ड देना चाहिये। जो किसी वस्तुको देनेकी प्रतिज्ञा कर उसे नहीं देता; उसे राजा एक सुवर्ण मुद्राका दण्ड दे। जो नौकर अभिमानवश आज्ञापालन तथा कहा हुआ कर्म नहीं करता, उसे राजा आठ कृष्णलको दण्ड दे और उसका वेतन भी रोक दे। जो स्वामी अपने नौकरको उसके संचित धन तथा वेतनको समयपर नहीं देता और कुसमयमें उसे छोड़ देता है, उसे सौ मुद्राका दण्ड देना चाहिये ॥ 1-10॥जो मनुष्य सत्यतापूर्वक किये गये दश ग्रामर अन्नके बँटवारेको लोभके कारण पुनः असत्य बतलाता है, उसे देशसे निकाल देना चाहिये। किसी वस्तुको खरीदने या बेंचने के बाद यदि कुछ मूल्य शेष रह जाता है तो उसे दस दिनके भीतर दे देना या ले लेना चाहिये। यदि दस दिन बीत जाने के बाद कोई शेष मूल्यको न देता है न दिलाता है तो राजा उन न देने और दिलानेवाले दोनोंको छः सौ मुद्राओंका दण्ड दे। जो व्यक्ति अपनी दोषसे युक्त कन्याको बिना दोष सूचित किये किसीको दान कर देता है तो स्वयं राजा उसे छियानवे पणोंका दण्ड दे। जो मनुष्य बिना दोषके ही किसी दूसरेकी कन्याको दोषयुक्त बतलाता है और उस कन्याके दोषको दिखाने में असमर्थ हो जाता है तो राजा उसे सौ मुद्राका दण्ड दे। जो व्यक्ति अन्य कन्याको दिखलाकर वरको दूसरी कन्याका दान करता है तो राजाको उसे उत्तम साहसिक दण्ड देना चाहिये जो वर अपने दोषको न बतलाकर किसी कन्याका पाणिग्रहण करता है तो वह | कन्या देनेके बाद भी न दी हुईके समान है। राजाको उसपर दो सौ मुद्राओंका दण्ड लगाना चाहिये। जो एक ही कन्याको किसीको दान कर देनेके बाद फिर किसी दूसरेको दान करता है, उसे भी राजाको उत्तम साहसका दण्ड देना चाहिये जो अपने मुखसे 'निश्चय ही मैं इतने मूल्यपर अमुक वस्तु आपको दे दूंगा' ऐसी प्रतिज्ञा कर फिर लोभके कारण उसे दूसरेके हाथ बेंच देता है, वह छः सौ मुद्राओंके दण्डका भागी होता है। जो व्यक्ति कन्याका मूल्य लेकर विक्रय नहीं करता या प्रतिज्ञासे हटता है तो उसे लिये हुए मूल्यसे दुगुने द्रव्यका दण्ड देना चाहिये, यह धर्मकी व्यवस्था है। मूल्यका कुछ भाग देनेके पश्चात् यदि लेनेवाला व्यक्ति उसे लेना नहीं चाहता तो उसे मध्यम साहसका दण्ड देना चाहिये और उसे दिये हुए द्रव्यको लौटा देना चाहिये जो गोपाल वेतन | लेकर गायको दुहता है और उसकी ठीकसे रक्षा नहीं करता उसे राजाको सौ सुवर्ण मुद्राओंका दण्ड देना चाहिये। राजा दण्ड देनेके बाद विराम ले ले। तदनन्तर | राजाद्वारा चिह्नित अपराधीको काले लोहेकी जंजीरसे आवद्ध कर दिया जाय और पुनः किसी अपने ही | कार्यपर नियुक्त कर लिया जाय ॥ 11-23॥ग्रामके बाहर चारों ओरसे सौ धनुपके विस्तारकी और नगरके लिये उससे दुगुने या तिगुने विस्तारकी ऐसी प्राचीर बनाये जिसके भीतरकी वस्तुको ऊँट भी न देख सके। उसमें कुत्ते तथा सूअरके मुख घुसने योग्य सभी छिद्रोंको बंद करा देना चाहिये। यदि पशु बिना घेरेके खेतके अन्नको हानि पहुँचाते हैं तो राजाको पशुके चरवाहेको दण्ड नहीं देना चाहिये। दस दिनके भीतरकी व्यायी गायद्वारा तथा देवताके उद्देश्यसे छोड़े गये वृषद्वारा घेरा रहनेपर भी यदि खेतके अन्नकी हानि होती है तो उसके लिये पशुपालक दण्डनीय नहीं है—ऐसा मनुने कहा है। इन उपर्युक्त कारणोंके अतिरिक्त अन्य प्रकारसे नष्ट हुए द्रव्यके दशांशका दण्ड लगाना चाहिये। कोई पशु फसलको खाकर यदि वहीं बैठा हुआ मिलता है। तो उसके स्वामीके ऊपर उक्त दण्डसे दुगुना दण्ड लगाना चाहिये। यदि खेतका स्वामी क्षत्रिय है और वैश्यका पशु हानि पहुँचाता है तो उसे हानिका दस गुना दण्ड देना चाहिये। यदि किसीके घर, तालाब, बगीचे या खेतको कोई दूसरा छीन लेता है तो उसे पाँच सौ | मुद्राका तथा बिना जाने यदि इनको हानि पहुँचाता है तो दो सौ मुद्राका दण्ड देना चाहिये। किसी खेत आदिकी सीमा बाँधनेके समय यदि कोई सीमाका उल्लङ्घन करता है या सम्मति देता है तो उसकी जीभ काट लेनी चाहिये। जो सीमाका उल्लङ्घन करनेवाले व्यक्तिकी बातोंका शपथपूर्वक समर्थन करता है, उसे उत्तम साहसका दण्ड देना चाहिये- ऐसा स्वायम्भुव मनुने कहा है॥ 24-32 ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य — इन तीनों वर्णोंके लोग समाजमें अपनी स्थितिके बिना किसी विशेषताके क्रमसे यदि निषिद्ध कार्य करते हैं तो उन सबसे प्रायश्चित्त करवाना चाहिये। यदि कोई अनजानमें स्त्रीका वध कर देता है तो उसे शूद्र हत्या व्रतका पालन करना चाहिये। सर्पादिकी हत्या कर धन-दान करनेमें असमर्थ द्विजको पाप-शान्तिके लिये एक-एक कृच्छ्रव्रतका आचरण करना चाहिये। फल देनेवाले वृक्षों, फूली हुई लताओं, गुल्मों, वल्लियों तथा फूले हुए वृक्षोंको काटनेपर सौ ऋचाओंका जप करना चाहिये। एक सहस्र अथवा एक गाड़ीमें भर जानेके योग्य हड्डीवाले जीवोंकी हत्या करनेवालेको शूद्रहत्याका प्रायश्चित्त करना चाहिये।हड्डीवाले जानवरोंकी हत्या करनेपर ब्राह्मणको कुछ | दान देना चाहिये और जो बिना हड्डीके हैं उनकी हिंसा करनेपर प्राणायामसे शुद्धि हो जाती है। अन्नादिसे एवं रससे उत्पन्न होनेवाले तथा फलों और पुष्पोंमें पैदा होनेवाले जन्तुओंकी हिंसा करनेपर घृत-पान ही प्रायश्चित्त है। जुताईसे उत्पन्न हुई तथा वनमें स्वतः उगी हुई ओषधियोंको बिना आवश्यकताके काटनेपर एक दिनका दुग्धव्रत करना चाहिये। हिंसासे उत्पन्न हुआ पातक इन व्रतोंसे दूर किया जा सकता है। अब चोर-कर्मसे उत्पन्न हुए पापको दूर करनेके लिये उत्तम व्रत सुनिये ॥ 33 -40 ।। यदि ब्राह्मण अपनी जातिवालोंके घरसे इच्छापूर्वक धान्य, अन्न और धनकी चोरी करता है तो वह अर्धकृच्छ्रव्रतसे शुद्ध होता है। मनुष्य, स्त्री, खेत, घर, कूप और बावलीके जलका हरण करनेपर शुद्धिके लिये चान्द्रायणव्रतका विधान है। दूसरेके घरसे थोड़ी मूल्यवाली वस्तुओंकी चोरी करनेपर उससे शुद्ध होनेके लिये कृच्छ्रसांतपन-व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये। भक्ष्य, भोज्य, वाहन, शय्या, आसन, पुष्प, मूल और फलकी चोरी करनेपर उसका प्रायश्चित्त पञ्चगव्य-पान है। तृण, काष्ठ, वृक्ष, सूखा अन्न, गुड, वस्त्र, चमड़ा तथा मांसकी चोरी करनेपर तीन राततक उपवास करना चाहिये। मणि, मोती, प्रवाल, ताँबा, चाँदी, लोहा, काँसा तथा पत्थरकी चोरी करनेपर बारह दिनोंतक अन्नके कणोंका भोजन करना चाहिये। सूती, रेशमी, ऊनी वस्त्र, दो तथा एक खुरवाले पशु, पक्षी, सुगन्धित द्रव्य, ओषधि तथा रस्सीकी चोरी करनेपर तीन दिनतक केवल जल पीकर रहना चाहिये। ब्राह्मणको इन व्रतोंद्वारा चोरीसे उत्पन्न हुए पापका निवारण करना चाहिये। अगम्या स्त्रीके साथ समागम करनेसे उत्पन्न हुए पापको इन व्रतोंद्वारा नष्ट करना चाहिये। अपनी जातिको परायी स्वोके साथ समागम करके गुरुतल्प व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये अर्थात् गुरुकी स्त्रीके साथ समागम करनेपर जो प्रायश्चित्त कहा गया है, उसका अनुष्ठान करना चाहिये। मित्र तथा पुत्रकी स्त्री, कुमारी कन्या, नीच जातिको स्त्री (चाण्डाली), फुफेरी तथा मौसेरी बहन और भाईकी कन्याके साथ समागम करनेपर चान्द्रायण व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये ।। 41-50 ॥बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि जो स्त्रियाँ अपनी जातिकी हों तथा जो पतितोंकी अनुगामिनी हों, उनके साथ भार्याके समान समागम न करे। मनुष्यसे भिन्न योनि ऋतुमती स्त्री तथा योनिद्वारसे अन्यत्र अथवा जलमें वीर्यपात करके पुरुषको कृच्छ्र सान्तपन नामक व्रतका | अनुष्ठान करना चाहिये बैलगाड़ीपर, जलमें तथा दिनमें स्त्री-पुरुषके मैथुनको देखकर ब्राह्मणको वस्वसहित स्नान करना चाहिये। ब्राह्मण यदि अज्ञानसे चाण्डाल और अन्त्यज स्त्रियोंके साथ सम्भोग, उनके यहाँ भोजन और उनका दिया हुआ दान ग्रहण करता है तो वह पतित हो जाता है और जान-बूझकर करता है तो वह उन्होंके समान हो जाता है। ब्राह्मणद्वारा दूषित स्त्रीको उसका पति एक घरमें बंद कर दे। इसी प्रकार दूसरेकी स्त्रियोंसे समागम करनेवाले पुरुषको भी यही व्रत करना चाहिये। | यदि वह स्त्री पुनः किसी परकीय पुरुषसे दूषित होती है तो उसे शुद्ध करनेके लिये कृच्छ्रचान्द्रायण व्रतका अनुष्ठान बताया गया है। जो द्विज एक रात भी शूद्र स्त्रीके साथ समागम करता है तथा उसका दिया हुआ अन्न भोजन करता है, वह तीन वर्षोंतक निरन्तर गायत्रीजप करनेसे शुद्ध होता है। चारों वर्णोंके पापियोंके लिये यह प्रायश्चित्त कहा गया है। अब पतितोंके संसर्गमें होनेवाले पापके लिये यह प्रायश्चित्त सुनिये ll 51-58 ।।
पतितके साथ यज्ञानुष्ठान, अध्यापन, यौन-सम्बन्ध, भोजन, एक वाहनपर गमन तथा आसनपर उपवेशन करनेसे भला मनुष्य (भी) एक वर्षमें पतित हो जाता है। जो मनुष्य इन कर्मोंमें जिस पतितका संसर्ग प्राप्त करता है, उसे उस संसर्गदोषको शुद्धिके लिये उसी पतितके व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये। उसके सपिण्ड भाई बन्धुओंको जातिवालोंके साथ किसी निन्दित दिनको | सायंकालके समय गुरुके समीप उस पतितके लिये उदक क्रिया करनी चाहिये। दासी उक्त व्यक्तिके लिये प्रेतकी तरह जलपूर्ण घट रखे, परिवारवालोंके साथ एक दिन रातका उपवास करे और अशौचके समान व्यवहार करे। परिवारवालोंके लिये उसके साथ वार्तालाप करना और एक आसनपर बैठना निषिद्ध है। इस पाप कर्मको जातिको भी उन्हें नहीं प्रकट करना चाहिये- यह लोककी मर्यादा है। जिस प्रकार ज्येष्ठ भाईके न रहनेपर उसके हिस्सेकी प्राप्ति छोटे भाईको होती है, उसी प्रकार अधिक गुणवान् | होनेपर भी छोटे भाईको उसका फल भोगना पड़ता है।जो पापाचारी प्राणी निश्चित की गयी मर्यादाको तोड़ देते हैं, उन्हें राजा पृथक् पृथक् जाति-क्रमके अनुसार उत्तम साहसका दण्ड दे राजन् यदि क्षत्रिय होकर ब्राह्मणको कटु वचन कहता है तो उसे सौ मुद्राका दण्ड देना चाहिये। यदि वैश्य है तो उसे दो सौ मुद्राका और यदि शूद्र है तो उसे प्राण दण्ड देना चाहिये। यदि ब्राह्मण क्षत्रियको कटु बातें कहे तो उसे पचास पण, वैश्यको कहे तो पचीस पण तथा शूदको कहे तो भारह पणका दण्ड देना चाहिये। यदि वैश्य क्षत्रियको कटु वचन कहता है तो उसे उत्तम साहसका दण्ड देना चाहिये और शूद्र क्षत्रियको कटूक्ति सुनाता है तो उसकी जीभ काट लेनी चाहिये ।। 59-68 ॥
क्षत्रिय यदि वैश्यको बुरा-भला कहता है तो उसे पचास और शूद्रको कहता है तो पचीस दमका दण्ड | देना चाहिये। ऐसा करनेसे उसका धर्म क्षीण नहीं होता। शूद्र यदि वैश्यको कटु वचन कहे तो उसे उत्तम साहसका दण्ड देना चाहिये और वैश्य होकर शुद्रको बुरा-भला कह रहा है तो वह पचास दमके दण्डका भागी होता है। यदि कोई अपने वर्णवालेको कटुति सुनाता है तो उसे बारह दमका दण्ड देना चाहिये तथा | अकथनीय बातें कहनेपर वह दण्ड दुगुना हो जाता है। यदि द्विजातिसे भिन्न जातिवाला किसी द्विजातिको कठोर वाणीसे बुरा-भला कहता है तो उसकी जीभ काट लेनी चाहिये और उसे परम नीच समझना चाहिये। अधिक द्रोहवश नाम, जाति तथा घरकी निन्दा करनेवालेके मुखमें लोहेकी बारह अंगुल लम्बी जलती हुई शलाका | डाल देनी चाहिये। राजाको द्विजातिको धर्मोपदेश करनेवाले शूद्रके मुख और कानमें खौलता हुआ तेल डाल देना चाहिये। वेद, देश, जाति और शारीरिक कर्मको निष्फल बतलानेवाला राजाद्वारा दुगुने साहसके दण्डका भागी होता है। जो मनुष्य स्वयं पापाचारी होकर दूसरे वर्णकी निन्दा करता है, उसे राजा जातिके अनुरूप उत्तम | साहसका दण्ड दे जो राजाके बनाये हुए नियमको अवहेलना करते हैं अथवा राजाकी निन्दा करते हैं, उन सबको दुगुने साहसका दण्ड देना चाहिये। जो व्यक्ति 'मैंने प्रेमवश अथवा प्रमादसे ऐसा कहा है, अब पुनः ऐसा नहीं कहूंगा' ऐसा कहकर अपराध स्वीकार कर लेता है, वह आधे दण्डका पात्र है ।। 69-78 ॥कोई काना हो, लँगड़ा हो अथवा अन्धा हो, उसे सत्यतापूर्वक उसी प्रकारका कहनेपर भी उसे एक कार्यापणका दण्ड देना चाहिये। माता पिता, ज्येष्ठ भाई, वशुर तथा गुरु-इनकी निन्दा करनेवाले तथा गुरुजनोंके मार्गको नष्ट करनेवालेको सौ कार्षापणका दण्ड देना चाहिये जो माननीय श्रेष्ठ लोगोंको मार्ग नहीं देता, उसे उस पापकी शान्तिके लिये राजा एक कृष्णलका दण्ड दे द्विजातिसे भिन्न जातिवाला व्यक्ति किसी द्विजातिका जिस अङ्गसे अपकार करता है, उसके उसी अङ्गको शीघ्र ही बिना कुछ विचार किये कटवा देना चाहिये। राजा सामने गर्वपूर्वक धूकनेवाले, पेशाब करनेवाले तथा अपानवायु छोड़नेवाले व्यक्तिका क्रमशः दोनों होंठ, लिङ्ग और गुदाद्वार कटवा दे। यदि कोई नीच जातिवाला व्यक्ति उत्कृष्ट व्यक्तिके साथ आसनपर बैठना चाहता है तो राजा उसकी कमरमें एक चिह्न बनाकर अपने राज्यसे निर्वासित | कर दे या उसके गुदाभागको कटवा दे। इसी प्रकार यदि | कोई निम्न जातिवाला किसी उच्च जातीय व्यक्तिके केशोंको पकड़ता है तो उसके हाथको बिना विचार किये ही कटवा देना चाहिये। इसी प्रकारका दण्ड दोनों पैरों, नासिका, गला तथा अण्डकोशके पकड़नेपर भी देना चाहिये। यदि कोई किसीके चमड़ेको काट देता है और उससे रक्त निकलने लगता है तो उसे शतमुद्राका दण्ड देना चाहिये। मांस काट लेनेवालेको छः निष्कोंका दण्ड तथा हड्डी तोड़नेवालेको देशनिकालाका दण्ड देना चाहिये। यदि कोई व्यक्ति किसीके अङ्गको तोड़-फोड़ देता है तो राजाको चाहिये कि उसके उसी अङ्गको कटवा दे तथा उसे उतने द्रव्यका भी दण्ड दे, जितना उस आहत व्यक्तिके उठने-बैठनेके व्ययके लिये अपेक्षित हो। गाय, हाथी, अश्व और ऊँटकी हत्या करनेवालेका आधा हाथ और आधा पैर काट लेना चाहिये। राजाको पशु तथा छोटे जानवरोंकी हत्या करनेपर अपराधीको उनके मूल्यके दुगुने पणका दण्ड देना चाहिये। मृग तथा पक्षियोंकी हत्या करनेपर पचास पणका दण्ड करनेका विधान है। कृमि तथा कोटोंके मारनेपर एक मासा चाँदीका दण्ड लगाना उचित है तथा उसके अनुकूल मूल्य भी उसके स्वामीको दिलाना चाहिये ॥ 79-89 ॥दण्डको बहला रहा हूँ। फलयुक्त वृक्षको काटनेपर अपराधीको सुवर्णका दण्ड देना उचित है। यदि वह वृक्ष किसी सीमा, मार्ग अथवा जलाशयके समीप है तो उसे दुगुना दण्ड देना चाहिये। फलरहित वृक्षको भी काटने पर मध्यमसाहसका दण्ड देनेका विधान है। गुल्मों, लताओं तथा वल्लियोंको काटनेपर एक मासा सुवर्णका दण्ड देना चाहिये। बिना किसी आवश्यकताके तृणको भी नष्ट करनेवाला व्यक्ति एक कार्षापणके दण्डका भागी होता है। किसी प्राणीको कष्ट पहुँचानेवालेको कृष्णलके तिहाई भागका दण्ड देना चाहिये। राजन् वृक्षादिके काटे जानेपर राजा देश तथा कालके अनुसार उचित मूल्यका दण्ड दे और उस दण्डको वृक्षादिके स्वामीको दिला दे। यदि चालककी असावधानीसे रथ मार्गसे विचलित हो जाता है। तो ऐसे अवसरपर यदि वह चालक निपुण नहीं है तो उसके स्वामीको दण्ड देना चाहिये और यदि चालक निपुण है तो उसीके ऊपर दण्ड लगाना चाहिये, किंतु यदि वह घटना किसी विशेष परिस्थितिवश घटित हुई हो तो चालकको भी दण्ड नहीं देना चाहिये। जो किसीके द्रव्यको जानकर या अनजानमें अपहरण कर लेता है, उसे राजाके सम्मुख दण्ड स्वीकार कर उसके स्वामीको संतुष्ट करना चाहिये। अन्यथा उसपर एक पण दण्ड लगानेका विधान है। जो व्यक्ति किसी कुएँपरसे रस्सी अथवा घड़ा चुरा लेता है या उस कुएँको तोड़ता फोड़ता है, उसके ऊपर एक मासा सुवर्णका दण्ड लगाना उचित है और उसीसे कुएँकी क्षतिपूर्ति करानी चाहिये। दस घड़ेसे अधिक अन्न चुरानेवालेको प्राण दण्ड देना चाहिये यदि दस घड़ेसे कम अन्न चुराता है तो उसने जितना अन्न चुराया है, उससे ग्यारहगुना अधिक मूल्यका दण्ड उसपर लगाना चाहिये। उसी प्रकार दस घड़ेसे अधिक खाद्य सामग्री, अन्न एवं पानादिकी चोरी करनेपर उसी प्रकारके दण्डका विधान है। उसे प्राणदण्ड नहीं देना चाहिये। सुवर्ग, चाँदी आदि धातुओं,' उत्तम वस्त्रों, कुलीन पुरुषों, विशेषतया कुलीन स्त्रियों, बड़े-बड़े पशुओं, हथियारों, ओषधियों तथा मुख्य-मुख्य रत्नोंकी चोरी करनेपर चोर प्राण दण्डका पात्र होता है ।। 90 - 1013 ॥
दही, दूध, तक्र (छाँछ- मट्ठा), जल, रस, बाँस एवं पैदल आदिके पात्र, लवंग, सभी प्रकारके मिट्टीके मिट्टी और भस्मको चोरी करनेवालेके लिये राजादेश एवं कालके अनुसार दण्डकी व्यवस्था करे। ब्राह्मणके घरसे गाय, भैंस और घोड़ेकी चोरी करनेवालेको तुरंत ही आधे भैरवाला कर देना चाहिये। सूत, कपास, आसव, गोवर, गुड़, मछली, पक्षी, तेल, घी, मांस, मधु, नमक, मदिरा, भात एवं इनसे बनी हुई अन्यान्य वस्तुओं तथा सभी प्रकारके पकवानोंकी चोरी करनेवालेको उस वस्तुके मूल्यसे दुगुना दण्ड देना चाहिये। पुष्प, कच्चा अन्न, गुल्म, लता, वल्ली तथा अधिक अन्नकी चोरी करनेवालेको पाँच मासा सुवर्णका दण्ड देना उचित है। प्रचुरमात्रामें अन्न, शाक, मूल और फलकी चोरी करनेवाले संतानहीनको सौ मुद्राका तथा संतानवालेको दो सौ पणका दण्ड देना चाहिये। चोर जिस-जिस अङ्गोंकी सहायतासे चोरी करनेकी चेष्टा करता है, राजा उसके उस अङ्गको कटवा दे। यदि कोई अकिंचन ब्राह्मण मार्गमें चलते हुए दो ईख, दो कन्द (मूली), दो खीरे, दो तरबूजे, दो अन्य फल, दो मुट्ठी सभी प्रकारके अन्न अथवा साग ले लेता है तो वह चोरीके दोषसे दूषित नहीं होता। भोजनके लिये वृक्षसे उत्पन्न हुए फल, मूल और जलौनी लकड़ीको काट लेना | अथवा गौको खिलानेके लिये घास उखाड़ लेना चोरी नहीं है—ऐसा मनुजीने कहा है। देवताकी वाटिकासे भिन्न दूसरेके खेतमें उत्पन्न हुए पुष्पको देवताकी पूजाके लिये तोड़नेवाला दण्डका पात्र नहीं होता, उसे दण्ड नहीं देना चाहिये ll 102 – 113 ll
राजन्! जो अपनेको मारनेके लिये उद्यत सींगवाले, नखवाले तथा दाढ़वाले पशुको मारता है, वह पापसे लिप्त नहीं होता। गुरु, बालक, वृद्ध अथवा शास्त्रज्ञ ब्राह्मण ही क्यों न हो, यदि वह अपनेको मारनेके लिये आ रहा हो तो उसे बिना विचार किये ही मार डालना चाहिये; * क्योंकि आततायीका वध करनेपर वधकर्ताको कोई पाप नहीं लगता। प्रकटरूपमें अथवा गुप्तरूपमें भी पाप करनेवाला पापका भागी होता है। दूसरोंके घर तथा खेतका अपहरण करनेवाले, अगम्या स्त्रीके साथ समागम करनेवाले, आग लगानेवाले, विष देनेवाले, हथियार लेकर मारनेके लिये उद्यत, अभिचारपरायण, राजाके विरोधमें विद्रोह करनेवालेइनको धर्मज्ञोंने लोकमे आततायी बतलाया है। यदि भिक्षुक, परायी स्त्री तथा चारण आदि निषेध करनेपर भी घरमें घुस जाते हैं तो उन्हें दुगुना दण्ड देना चाहिये। तीर्थ, जंगल या घरमें परायी स्त्रियोंके साथ वार्तालाप करनेवाले तथा नदीको धाराका भेदन करनेवालेको पकड़कर बंद कर देना चाहिये। 'परायी स्त्रीके साथ सम्भाषण नहीं करना चाहिये'- ऐसी निषेधाज्ञा घोषित कर दे। निषेध होनेपर भी यदि कोई सम्भाषण करता है तो वह एक सुवर्ण मुद्दाके दण्डका भागी होता है। किंतु यह दण्ड चारणों, स्त्रियों तथा अन्तःपुरमें प्रवेश कर नृत्य गीतादिद्वारा अपनी जीविका चलानेवालेको नहीं देना चाहिये। ऐसे लोग यदि अन्तःपुरके लोगोंके साथ सम्भाषण करते हैं या वहाँ घूमते-फिरते हैं तो उन्हें तथा घरसे निकालकर बाहर घूमती हुई सभी दासियोंको नाममात्रका दण्ड देना चाहिये। जो व्यक्ति किसी कुमारी कन्याके साथ बलात्कार करता है, वह तुरंत ही मार डालने योग्य है यदि कोई किसी कामुकी कुमारी कन्याके साथ व्यभिचार करता है तो उसे दो सौ पणका दण्ड देना चाहिये और वहाँ जो संरक्षणकर्ता पुरुष है, उसे भी यही दण्ड देना चाहिये ।। 114- 125 ॥
जो ऐसे व्यभिचारोंको सम्भव बनाने में अवकाश देता है, उसे परायी स्त्रीके साथ व्यभिचार करनेवालेके समान ही दण्ड देना चाहिये। जो मनुष्य दूसरेकी स्त्रीके साथ बलात्कार करता है, उसे प्राणदण्ड देना चाहिये और इसमें उस स्त्रीका कोई भी अपराध नहीं मानना चाहिये। जो कन्या पिताके घरपर तीसरी बार रजस्वला होकर स्वयं पतिका वरण कर लेती है, वह राजाद्वारा दण्डनीय नहीं होती। जो अपने देशमें कन्यादान देकर पुनः उसे लेकर | परदेशमें भाग जाता है, उसे प्राणदण्ड देना चाहिये; क्योंकि वह स्त्री-चोर है। द्रव्यहीना, विधवा स्त्रीको ग्रहण करनेवाला अपराधी नहीं माना जाता, किंतु सम्पत्तिसहित विधवाको स्वीकार करनेवाला शीघ्र ही दण्डका भागी होता है। जो कन्या अपनी जाति अथवा योग्यतासे उत्कृष्ट व्यक्तिसे प्रेम करती है तो उसे उसी व्यक्तिको दे देना चाहिये, किंतु जो कन्या किसी कम योग्यतावालेसे प्रेम करती है, उसे विशेष संयमके साथ घरमें ही रखे। यदि नीच जातिवाला जघन्य पुरुष उत्तम जातिकी कन्याके साथ प्रेम करता है तो उसे प्राण दण्ड देना चाहिये। इसी प्रकार यदि उत्तम जातिकी स्त्री किसी नीच जातिके पुरुषके साथ प्रेम करती है तो वह भी प्राण-दण्डके योग्य है।जो स्त्री अपने जाति भाइयों के बलसे गवली होकर अपने पतिको छोड़ देती है, उसे घरसे निकालकर अनेक व्यक्तियोंसे युक्त संस्थानमें रख दे। राजा सवर्ण पुरुषद्वारा दूषित कुलटा स्त्रीको सभी अधिकारोंसे वञ्चित कर मलिन बना दे और भोजनमात्रका प्रबन्ध कर घरमें पड़ा रहने दे। उत्तम कुल एवं जातिमें उत्पन्न हुई स्त्री यदि दूषित हुई हो तो उसकी दस चोटियाँ रखकर शेष बाल कटवा दे और नित्य मैला वस्त्र पहननेको दे। यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य क्रमशः क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रकी स्त्रीके साथ दुराचार करते हैं तो वे राजाद्वारा उत्तमसाहस नामक दण्डके भागी होते हैं। यदि ब्राह्मण वैश्य स्त्रीके साथ और क्षत्रिय अन्त्यज-स्त्रीके साथ पापाचरण करते हैं तो उन्हें मध्यमसाहसका दण्ड देना चाहिये और यदि वैश्य शुद्रा स्त्रीके साथ व्यभिचार करता है तो उसे भी पूर्वोक्त रीतिके अनुसार उत्तमसाहसका दण्ड मिलना चाहिये। राजन्! यदि शुद अपनी जातिकी स्त्रीके साथ समागम करता है तो उसे राजाद्वारा सौ मुद्राओंका दण्ड मिलना चाहिये। इसी प्रकार सवर्णा स्त्रीके साथ पापाचरण करनेसे वैश्यको दो सौ, क्षत्रियको तीन सौ तथा ब्राह्मणको चार सौ मुद्राओंका दण्ड देनेका विधान है। ये दण्ड अरक्षित स्त्रीके साथ पापाचरण करनेपर बताये गये हैं, किंतु सुरक्षित स्त्रियोंके साथ दुराचार करनेपर इससे अधिक दण्ड देना चाहिये ।। 126 - 138 ।।
माता, फूफी, सास, मामी, चचेरी बहन, चाचीकी सखी, शिष्यकी स्त्री, बहिन, उसकी सखी तथा भाईकी स्त्री-इन सबके साथ समागम करनेपर पूर्वकथित दण्डसे | दुगुना दण्ड देना चाहिये। भानजेकी स्त्री, राजाकी पत्नी, संन्यासिनी तथा उच्चवर्णको स्त्री- ये सभी अगम्या मानी गयी हैं इन सबके साथ समागम करनेवाले व्यक्तिके लिंगको कटवाकर तत्पश्चात् उसे प्राण दण्ड देना चाहिये। इसी प्रकार चाण्डालको स्त्री तथा कुत्तेको खानेवालोंकी स्त्रीके साथ व्यभिचार करनेवालेको प्राण दण्ड देना चाहिये। गौको छोड़कर अन्य तिर्यग् योनियों में सम्भोग करनेवाले व्यक्तिको मुण्डनका दण्ड देकर उस पशुके लिये घास तथा जल देनेका दण्ड देना चाहिये।मानवश्रेष्ठ गौके साथ भोग करनेवाले व्यक्तिको सुवर्णका दण्ड लगाना चाहिये। वेश्याके साथ समागम करनेवाले ब्राह्मणको वेश्याको दिये गये शुल्कके बराबर अर्थ- दण्ड देना चाहिये। वेश्या यदि वेतन स्वीकार करनेके उपरान्त लोभवश अन्यत्र चली जाती है तो उसे दुगुना दण्ड देनेके उपरान्त लिये हुए शुल्कका दूना अर्थ दण्ड भी देना चाहिये। राजन् यदि कोई वेश्याको दूसरे के बहानेसे किसी दूसरेके पास लिवा जाता है तो उसे एक मासा सुवर्णका दण्ड देना चाहिये। जो वेश्याको लानेके बाद उसके साथ सम्भोगादि नहीं करता, उसे दूना दण्ड देकर उस वेश्याको दूना शुल्क दिलाना चाहिये। ऐसा करनेसे राजाका धर्म क्षीण नहीं होता। यदि अनेक व्यक्ति एक वेश्याके साथ समागम करनेको उपस्थित हों तो राजा उनको दूना दण्ड दे और वे सब पृथक्-पृथक् उस वेश्याको दूना द्रव्य दण्डरूपमें अधिक दें। माता, पिता, स्त्री, पुरोहित और यजमान ये पतित होनेपर भी नहीं छोड़े जाते, पर यदि कोई मनुष्य इनमेंसे किसीको छोड़ता है तो वह छः सौ सुवर्ण मुद्राओंका दण्डभागी होता है। पतित होनेपर गुरुजन भी त्याज्य हो सकते हैं, किंतु माता नहीं छोड़ी जा सकती। गर्भकालमें धारण-पोषण करनेके कारण माताका गौरव गुरुजनोंसे भी अधिक है ।। 139 - 150 ।।
अनध्यायके दिन भी अध्ययन करनेवाले ब्राह्मणको तीन कार्षापणका दण्ड देना चाहिये और अध्यापकको दुगुना | दण्ड देनेका विधान है। इसी प्रकार उन्हें अपने-अपने आचारोंका उल्लङ्घन करनेपर भी दण्ड देना चाहिये। जिन जिन अपराधोंमें केवल दण्डकी चर्चा की गयी है और कोई परिमाण नहीं निश्चित किया गया है, वहाँ सुवर्णका एक कृष्णल दण्डरूपमें समझना चाहिये। स्त्री, पुत्र, सेवक, | शिष्य तथा सगा भाई—ये यदि अपराध करते हैं तो इन्हें रस्सीसे बाँधकर बाँसकी छड़ीसे शरीरके पिछले भागपर दण्ड देना चाहिये; किंतु सिरपर किसी प्रकार भी चोट न लगने दे। इन कहे गये स्थानोंके अतिरिक्त अन्य स्थानोंपर प्रहार करनेवालेको चोरी करनेके समान पाप लगता है। जो दूतीको बुलाकर प्रकटरूपमें या गुप्तरूपमें निषिद्धाचरण करता है, उसके | लिये राजा स्वेच्छानुसार दण्डकी व्यवस्था करे। धोबीको चाहिये कि वह कोमल काठके पोठकोंपर वस्त्रको धीरे धीरे साफ करे। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो उसे एक | मासे सुवर्णका दण्ड देना चाहिये। राजाकी ओरसे रक्षा आदि | स्थानों पर नियुक्त किये गये लोग यदि देव भागको हड़पलेते हैं या किसानोंसे कर लेकर उसे दूसरे कार्यों में लगा देते हैं तो राजा उनका सर्वस्व छीनकर उन्हें निर्वासनका दण्ड दे। जो लोग अपने पदपर नियुक्त होकर अन्य कर्मचारियों के कार्यों को हानि पहुँचाते हैं, वे सभी निर्दय, क्रूरात्मा, कर्मके अपराधी और धनकी गर्मीसे उन्मत्त हो जाते हैं, राजाको चाहिये कि उन्हें निर्धन बना दे। यदि राजाके सेवकगण कूटनीतिसे शासन करनेवाले, प्रजावर्गको राजाके विरुद्ध भड़कानेवाले, स्त्री, बालक और ब्राह्मणकी हत्या करनेवाले हों तो राजा उन्हें प्राण दण्ड दे। चाहे अमात्य हो या प्रधान न्यायकर्ता, यदि वह अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता तो राजा उसका सर्वस्व छीनकर उसे अपने देशसे बाहर निकाल दे ब्रह्महत्यारा, मद्यपायी, चोर तथा गुरु स्त्रीगामी इन महापातकी पुरुषोंको राजा पृथक-पृथक प्राण दण्डकी व्यवस्था करे। ऐसे महापापियोंको राजा प्राण-दण्ड दे, किंतु ब्राह्मणको चिह्नित करके अपने देशसे निकाल दे। उक्त चिह्नका आकार बताता हूँ, सुनिये। यदि ब्राह्मण गुरुपत्नीके साथ समागम करता है तो उसके शरीर में भगका आकार, मदिरापायी हो तो सुराध्वजका चिह्न, चोरीके अपराधमें कुत्तेके पैरोंका चिह्न तथा ब्रह्मघातीके शरीरमें बिना सिरके पुरुषका चिह्न बनाना चाहिये। राजन् ! ऐसे मोर पापियोंके साथ उनकी जातिवाले, सम्बन्धी तथा भाई-बन्धुओंको विशेषतया सम्भाषण, सहभोज तथा | विवाहादि सम्बन्ध त्याग देना चाहिये ।। 151 - 1643 ।। राजा महापापी पुरुषोंकी सम्पत्तिको अपने अधीन कर ले और उसमेंसे दण्डभागको वरुणके उद्देश्य से जलमें छोड़ दे। धार्मिक राजाको सपत्नीक चोरको प्राण | दण्ड नहीं देना चाहिये, किंतु चुरायी हुई वस्तुके साथ ही | यदि सपत्नीक चोर पकड़ा जाता है तो उसे भी राजा बिना किसी विचारके प्राण दण्ड दे। ग्रामोंमें भी जो कोई चोरोंको भोजन, पात्र तथा रहनेका आश्रय देनेवाले हों तो इन सभीको प्राण दण्ड देना चाहिये। राष्ट्रमें राजाके अधिकारी तथा अधीनस्थ सामन्तगण यदि दुष्ट हो गये हों या बुरे अवसरपर तटस्थ रहते हों तो वे भी चोरोंके समान दण्डके भागी होते हैं। ग्राममें किसी विनाशके उपस्थित होनेपर, किसी घर आदिके गिरनेके अवसरपर या मार्ग में किसी रमणीपर अत्याचार किये जानेपर राजाके जो अधिकारी या सामन्त अपनी शक्तिके अनुसार उसकी रक्षाके लिये नहीं दौड़ते, वे परिवार तथा साधनसहित निर्वासित | कर देने योग्य हैं। राजाके कोशको अपहृत करनेवालों,|शत्रु पक्षसे मिले रहनेवालों तथा शत्रुओंका उपकार करनेवालोंको विविध वधोपायोंद्वारा मरवा डालना चाहिये। जो चोर रातमें सेंध लगाकर चोरी करते हैं, राजाको उनके हाथोंको काटकर तीखे शूलपर बैठा देना चाहिये। तड़ागका भेदन करनेवालेको राजा जलमें डुबोकर मृत्युदण्ड दे। जो व्यक्ति तालाबमें भरे हुए जलकी चोरी करता है या उसमें जलके आनेके मार्गोंको रोक देता है, उसे पूर्ववत् साहस दण्ड देना चाहिये। कोष्ठागार, आयुधागार तथा देवागारोंको तोड़नेवाले पापाचारियों एवं पापयुक्त किंवदन्तीसे लिप्त पुरुषोंको राजा शीघ्र ही प्राण दण्ड दे ॥165- 174 ॥
जो किसी आपत्तिके न होनेपर भी सड़कपर मल आदि अपवित्र वस्तुओंको फेंकता है, उसे एक कार्षापणका दण्ड देना चाहिये और उसीसे उस गंदी वस्तुको हटवाना चाहिये। यदि आपत्तिग्रस्त, वृद्ध, गर्भिणी स्त्री अथवा बालक ऐसा अपराध करते हैं तो उन्हें कहकर मना कर दे, उनसे सफाई न कराये, ऐसी मर्यादा है। जो वैद्य झूठी दवा करता है या वैद्य न होकर भी दवा देता है, उसे प्रथम साहसका दण्ड देना चाहिये। जिसकी दवा निकृष्ट है, उसे मध्यम साहसका दण्ड तथा जिसकी दवा अत्यन्त अवगुणकारी है, उसे उत्तमसाहसका दण्ड देना चाहिये। छत्र ध्वजाके दण्डों तथा प्रतिमाओंको तोड़नेवालेको पाँच सौ मुद्राका दण्ड देना चाहिये और उन्होंसे इन सबका प्रतिशोध भी कराना चाहिये। अदूषित वस्तुओंको दूषित करने या तोड़नेवालेको तथा मणि आदि मूल्यवान् वस्तुओंको नष्ट करनेवालेको प्रथमसाहसका दण्ड देना चाहिये। किसी वस्तुके मूल्यमें जो कमी या वृद्धि करता है, उसे क्रमशः पूर्व और मध्यम साहसका दण्ड देना चाहिये। राजाको अपराधियोंके सभी प्रकारके दण्डोंकी व्यवस्था मुख्य सड़कपर करनी चाहिये जिससे उस दण्डको भुगतनेवाले पापात्माको सभी लोग देख सकें। दुर्गकी चहारदीवारी खाइयों तथा दरवाजोंको तोड़नेवालेको राजा तुरंत अपने पुरसे बाहर निकाल दे वशीकरण, अभिचार आदि करनेवालेको राजा दो सौ पणका दण्ड दे। घटिया बीज बेचनेवाले, बोये हुए खेतको जोतनेवाले तथा खेतोंकी मेड़को तोड़नेवालेको विकृत मृत्युका || दण्ड देना चाहिये। नराधिप। अच्छी धातुमें नकली धातुमिलानेवाले पापात्मा एवं अन्यायी सोनारको छुरेसे खण्ड खण्ड काट डालना चाहिये। जो बनियेसे वस्तु लेकर उसका दाम नहीं चुकाता, अच्छी वस्तुको बुरी बतलाता है और वस्तुको बाजारमें छिपाकर बेंचता है, उसे मध्यम साहसका दण्ड देना चाहिये। इसी प्रकार कूटनीतिका प्रयोग करनेवालेको उत्तम साहसका दण्ड देनेका विधान है। इन सभी अपराधियोंको राजा अलग-अलगसे उत्तम साहसका दण्ड दे। शास्त्र, यज्ञ, तपस्या, देश, देवता तथा सतीकी निन्दा करनेवाला पुरुष उत्तम साहसके दण्डका पात्र है। अनेक व्यक्ति किसी एक व्यक्तिके प्रति कठोर दण्डनीय अपराध करते हैं तो उन सबको दुगुना दण्ड | देना चाहिये ॥175-188॥
जिस व्यक्तिपर कलहका आरोप हो, उसे दूना दण्ड देना चाहिये। जो ब्राह्मण अपने आचार-विचारसे अधम हो गया हो, उसे राजा अपने देशसे निकाल दे। भक्ष्य पदार्थोंको छोड़कर जो लहसुन, प्याज, सूअर, ग्रामीण मुरगे, पाँच नखवाले जीवों तथा अन्य अभक्ष्य पदार्थोंको खाता है, उस ब्राह्मणको शीघ्र ही अपने राष्ट्रसे निकाल देना चाहिये। अभक्ष्य पदार्थोंको खानेसे शूद्रको एक कृष्णलका दण्ड देना चाहिये तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यको क्रमशः चौगुना, तिगुना तथा दुगुना दण्ड देनेका विधान है। जो अभक्ष्य भक्षणके लिये उत्साहित करता है, उसे दूना दण्ड देना चाहिये। जो मनुष्य 'मैं देता हूँ' ऐसा कहकर अभक्ष्य वस्तुओंके भक्षणमें दूसरेको प्रवृत्त करता है, उसे भी चौगुना दण्ड मिलना चाहिये। संदेशको न देनेवाला तथा समुद्रमें बने हुए अड्डेको नष्ट करनेवाले व्यक्तियोंको राजा पचास मुद्राका दण्ड दे जो श्रेष्ठ होकर अस्पृश्यका स्पर्श करता है, अयोग्य होकर योग्य कार्यमें हाथ लगाता है, पशुओंके पुंस्त्वका अपहरण करता है, दासीके गर्भको नष्ट करता है, शूद्र और संन्यासियोंके घर देव कार्य और पितृकार्यमें भोजन करता है तथा निमन्त्रण स्वीकार करनेपर भोजन करने नहीं जाता ये सभी राजाद्वारा सौ पण कार्यापण दण्डके भागी हैं। अपने घरमें पौडोत्पादक वस्तु रखनेवालेको एक कृष्णलका दण्ड देना चाहिये। पिता और पुत्रके पारस्परिक विरोधमें साक्षी देनेवालोंको दो सौ पणका दण्ड लगाना चाहिये। यदि कोई माननीय व्यक्ति यह अपराध करता है तो उसपर एक सौ आठ पणका दण्ड लगाना चाहिये ॥189 - 197॥तराजू, शासन, मानदण्ड और धर्मकटिके प्रति कूटनीतिका प्रयोग करनेवाले तथा ऐसे व्यक्तिके साथ व्यवहार करनेवालेको उत्तम साहसका दण्ड देना चाहिये। विष देनेवाली, आग लगानेवाली, पति, गुरुजन एवं अपने बच्चोंकी हत्या करनेवाली स्त्रीको कान, ओठ और नाकसे रहित करके पशुओंद्वारा मरवा डालना चाहिये। जो गाँव, खेत और घरमें आग लगानेवाले तथा राजपत्नीके साथ व्यभिचार करनेवाले हैं, उन्हें घास-फूसको अग्निमें जला देना चाहिये जो (राजाका अधिकारी) राजाज्ञाको घटा-बढ़ाकर लिखता है तथा दूसरेकी स्त्रीके साथ अपराध करनेवाले एवं चोरको छोड़ देता है, उसे उत्तम साहसका दण्ड देना चाहिये। जो व्यक्ति अभक्ष्य वस्तु खिलाकर ब्राह्मणको दूषित करता है, उसे उत्तम साहसका दण्ड देना चाहिये। इसी प्रकार क्षत्रियको विधर्मी करनेवालेको मध्यम, वैश्यको प्रथम तथा शूद्रको अर्धसाहसका दण्ड देना चाहिये। मृतकके शरीरपर लगे हुए आभूषण तथा आदिको बेचनेवाले, गुरुको पीटनेवाले, राजाके वाहन और आसनपर बैठनेवालेको उत्तम साहसका दण्ड देना चाहिये। जो व्यक्ति न्यायद्वारा या युद्धमें पराजित होनेपर भी अपनेको 'मैं पराजित नहीं हूँ'- ऐसा मानता है, उसे आता हुआ देखकर राजाको चाहिये कि उसे पुनः जीतकर दुगुने पणका दण्ड दे। जो व्यक्ति अपराध होनेपर सूचनाद्वारा बुलानेसे नहीं आता है और जो बिना बुलाये ही आकर सम्मुख उपस्थित होता है तथा जो अपराधी दण्ड देनेवालेके हाथसे छुड़ाकर भाग जाता है-ऐसे हीन लोगोंको पौरुषपूर्वक दण्ड देनेवाला न्यायकर्ता आर्थिक दण्ड दे। जो व्यक्ति दूत होनेपर अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, उसे उपर्युक्त दण्डका आधा दण्ड देना | चाहिये। दण्ड या नियमनके लिये बाँधकर ले जाते समय यदि कोई अपराधी भाग जाता है तो उसे आठगुना दण्ड देना चाहिये। जो पुरुष सामान्य वाद-विवादमें किसीके नख या बालको काट लेता है, वह मध्यम दण्डका भागी होता है ।। 198- 208 ॥
जो व्यक्ति बलपूर्वक अवध्य अपराधोके बन्धनोंको खोल देता है तथा जो मृत्यु दण्डके अपराधीको छोड़ देता है, वह दुगुने दण्डका भागी होता है। राजाके जो सभासद उपस्थित विषयोंमें कुशलतासे मनोयोग नहीं देते, उन्हें दूना दण्ड देना चाहिये। राजा ऐसे अपराधियोंको तीसगुना अधिक दण्ड दे और जलमें फेंकवा दे।थोडेसे अपराधमें अधिक दण्ड देनेवाले तथा भीषण अपराधमें अल्प दण्ड देनेवाले न्यायकर्ताको जितना कम या अधिक दण्ड हो, उसे अपने घरसे पूर्ण करना या अपराधीको लौटाना चाहिये। अवध्य अपराधीका वध करनेमें जितना पाप लगता है उतना ही पाप वध्यको छोड़ देनेमें लगता है। राजाको इन दोनों दशाओंमें समानरूपसे | पापभागी होना पड़ता है। सभी प्रकारके पापोंमें अपराधी पाये गये ब्राह्मणको मृत्युदण्ड नहीं देना चाहिये, उसे सम्पूर्ण सम्पत्तिके साथ अपने राष्ट्रसे निर्वासित कर देना चाहिये। कभी भूलकर भी ब्राह्मणका वध नहीं करना चाहिये; क्योंकि इससे अधिक पाप होता है। इसलिये राजाको ब्रह्महत्यासे बचना चाहिये। अदण्डनीय पुरुषोंको | दण्ड देने तथा दण्डनीयको दण्ड न देनेसे राजा महान् | अयशका भागी बनता है और मरनेपर नरकगामी होता है। इसलिये राजा मनुष्यके अपराधको भलीभाँति जानकर तथा यथासमय ब्राह्मणोंकी अनुमति लेकर दण्डनीयोंके प्रति दण्डकी कल्पना करे और जो जिस प्रकारके दण्डका पात्र हो, उसकी भलीभाँति समीक्षा कर उसे | उसी प्रकारका समुचित दण्ड दे ॥ 209 - 216 ॥