मत्स्यभगवान्ने कहा—दान सभी उपायोंमें सर्वश्रेष्ठ है। प्रचुर दान देनेसे मनुष्य दोनों लोकोंको जीत लेता है। राजन् ! ऐसा कोई नहीं है जो दानद्वारा वशमें न किया जा सके। दानसे देवतालोग भी सदाके लिये मनुष्योंके वशमें हो जाते हैं। नृपोत्तम! सारी प्रजाएँ दानके बलसे ही पालित होती हैं। दानी मनुष्य संसारमें सभीका प्रिय हो जाता है। दानशील राजा शीघ्र ही शत्रुओंको जीत लेता है। दानशील ही संगठित शत्रुओंका | भेदन करनेमें समर्थ हो सकता है। यद्यपि निर्लोभ तथा समुद्रके समान गम्भीर स्वभाववाले मनुष्य स्वयं दानको अङ्गीकार नहीं करते, तथापि वे (भी दानी व्यक्तिके) पक्षपाती हो जाते हैं। अन्यत्र किया गया दान भी अन्य लोगोंको अपने वशमें कर लेता है, इसलिये | लोग सभी उपायोंमें श्रेष्ठतम दानकी प्रशंसा करते हैं।दान पुरुषोंका कल्याण करनेवाला तथा परम श्रेष्ठ है । लोकमें दानशील व्यक्तिकी सर्वदा पुत्रकी भाँति प्रतिष्ठा होती है। दानपरायण पुरुषश्रेष्ठ केवल एक भूलोकको ही अपने वशमें नहीं करते, प्रत्युत वे अत्यन्त दुर्जय देवराज इन्द्रके लोकको भी, जो देवताओंका निवासस्थान है, जीत लेते हैं ॥ 1-8 ॥