'सूतजी कहते हैं-ऋषियो। इस प्रकार युद्धभूमिमें तारकासुरके मारे जानेपर दानवराज मय प्रमथोंको खदेड़कर भयभीत हुए दानवोंको सब तरहसे सान्त्वना देते हुए बोला- 'अरे असुरेन्द्रो इस समय तुम सभी महाबली दानवोंका जो कर्तव्य है, उसे मैं बतला रहा हूँ, सब लोग ध्यान देकर सुनो। चन्द्रवदन दानवो जिस समय चन्द्रमा पुष्य नक्षत्रसे समन्वित होंगे, उस समय एक क्षणके लिये तीनों पुर एकमें मिल जायेंगे। यह चन्द्रमाका पुष्य नक्षत्रसे सम्बन्ध होनेपर त्रिपुरके सम्मिलित होनेका काल मैंने ही निर्धारित कर रखा है, अतः उस समय तुमलोग निर्भय होकर नारदजीद्वारा बतलाये गये उपायोंका प्रयोग करो; क्योंकि उस समय जो कोई देवता त्रिपुरोंके सम्मिलित होनेका पता लगा लेगा, वह एक ही सुदृढ बाणसे इस त्रिपुरको चूर्ण कर डालेगा। इसलिये असुरो ! तुमलोगों में जितनी प्राणशक्ति है, जितना बल है और देवताओंके साथ जितना वैर-विद्वेष है, वह सब हृदयमें विचारकर इस त्रिपुरकी रक्षामें जुट जाओ। तुमलोग एकमात्र महेश्वरके भीषण रथको पूरी शक्ति लगाकर ऐसा विमुख कर दो, जिससे वे बाण न छोड़ सकें। इस प्रकार हमलोगोंद्वारा त्रिपुरकी रक्षा सम्पन्न कर लेनेपर देवताओंको विवश होकर पुनः आनेवाले पुष्ययोगकी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।' मयका ऐसा कथन सुनकर यमराजके समान भीषण त्रिपुरनिवासी दानव बारम्बार सिंहनाद कर मयसे बोले- 'राजन्! हम सब लोग प्रयत्नपूर्वक आपके कथनका पालन करेंगे और ऐसा कर्म कर दिखायेंगे, जिससे रुद्र त्रिपुरपर बाज नहीं छोड़ सकेंगे। हमलोग आज ही उस रुद्रका वध करनेके लिये संग्रामभूमिमें जा रहे हैं या तो हमारा त्रिपुर कल्पपर्यन्त निश्चलरूपसे सर्वदाके लिये आकाशमें स्थिर रहेगा अथवा नारायणके तीन पदकी तरह यह दानवोंसे खाली हो जायगा। आप हमलोगोंको जिस कार्यमें नियुक्त कर देंगे, | हमलोग उस कर्तव्यका कदापि त्याग नहीं करेंगे। आज मानव जगत्को देवता अथवा दैत्यसे रहित ही देखेंगे।'पुलकित शरीरवाले दैत्य हर्षपूर्वक इस प्रकार कह रह थे। इस प्रकार वे देवशत्रु दानव त्रिपुरके भीतर मन्त्रणा करके सायंकाल होनेपर प्रसन्न होकर स्वच्छन्दाचारमें प्रसक्त हो गये ॥ 1-14 ॥
उसी समय बारम्बार मोतीके निकलनेका भ्रम उत्पन्न करनेवाले एवं महामणिके समान भगवान् चन्द्रमा उदयाचलके शिखरपर दीख पड़े। वे अन्धकारका विनाश करके आकाशमण्डलमें आगे बढ़ रहे थे। उस समय जैसे कुमुदिनीसे सुशोभित विशाल सरोवरमें हंस, वैदूर्यके शिखरपर बैठा हुआ महान् सिंह और भगवान् विष्णुके विस्तीर्ण वक्षःस्थलपर लटकता हुआ हार शोभा पाता है, उसी तरह महर्षि अत्रिके नेत्रसे उत्पन्न हुए चन्द्रमा अथाह आकाशमें स्थित होकर अपनी चाँदनीसे बलपूर्वक सारे लोकोंको सींचते एवं प्रकाशित करते हुए सुशोभित हो रहे थे। इसप्रकार सायंकालमें शीतरश्मि चन्द्रमाके उदय होनेपर जब त्रिपुरमें चाँदनी फैल गयी, तब असुरगण अपने अपने गृहोंको सजाने लगे। गलियों, सड़कों, महलों और गृहोंमें तेलसे भरे हुए दीपक जला दिये गये, जो चम्पाके पुष्पकी भाँति सुशोभित हो रहे थे। उसी प्रकार | देवालयों में भी तेलसे परिपूर्ण दीपक जलाये गये। दानवोंके गृह धन-सम्पत्तिसे परिपूर्ण तो थे ही, उनमें अनेक प्रकारके रत्न भी जड़े हुए थे, जिससे वे जलते हुए दीपकोंको चन्द्रोदय होनेपर ग्रहोंकी तरह अधिक उद्दीप्त कर रहे थे । ll 15- 30 ॥
वे भवन बाहरसे तो चन्द्रमाकी किरणोंसे प्रकाशित थे और भीतर जलते हुए दीपकोंसे उद्दीप्त हो रहे थे,
जिससे वे त्रिपुरके अन्धकारको उसी प्रकार पीकर नष्ट
कर रहे थे, जैसे उपद्रवोंके प्रकोपसे कुल नष्ट हो जाताहै। रात्रिके समय जब चन्द्रमाकी उज्वल छटा पूरे त्रिपुरमें फैल गयी तब दानवगण रात बितानेके लिये अपनी पत्नियोंके साथ अपने-अपने गृहोंमें चले गये। इधर रात बीती और कोयले कूजने लगीं ॥। 31-44 ॥कुछ देर बाद त्रिपुरमें युद्धके मुहानेपर शङ्करजीके घोड़ोंद्वारा पराजित किये गये शत्रुओंकी क्षीण कीर्तिकी तरह उन देवशत्रुओंके नगरमें एकाएक चतुर्थ प्रहरकी क्षीण चाँदनी दीख पड़ने लगी। उस समय कुन्दके पुष्पसमूहोंसे निर्मित हारके समान उज्ज्वल वर्णवाले चन्द्रमा किरणजालके क्षीण हो जानेके कारण निर्जल बादलकी तरह दीखने लगे। चाँदनीके नष्ट हो जानेपर चन्द्रमाकी शोभा उसी प्रकार जाती रही, जैसे धन सम्पत्तिसे सम्पन्न मनुष्य भाग्यके नष्ट हो जानेपर शोभाहीन हो जाता है। उस समय तपाये हुए स्वर्णमय चक्रके समान बिम्बवाले सूर्य अपने सारथि अरुणकी प्रभासे चन्द्रमाकी कान्तिको तिरस्कृत कर उदयाचलके अग्र शिखरपर स्थित हुए और आकाशमण्डलमें अन्धकाररूपी नदीको पार करते हुए शोभा पा रहे थे ll 45-47 ॥