सूतजी कहते हैं—ऋषियो ! इस प्रकार सोच विचारकर (महाशिल्पी) मय दानव दिव्य उपायोंके प्रभावसे बननेवाले तथा मनके संकल्पानुसार चलनेवाले त्रिपुर नामक दुर्गकी रचना करनेको उद्यत हुआ। उसने सोचा कि इस मार्गमें परकोटा बनेगा, यहाँ अथवा वहाँ गोपुर (नगरका फाटक) रहेगा, यहाँ अट्टालिकाका दरवाजा तथा यहाँ महलका मुख्य द्वार रखना उचित है। इधर विशाल राजमार्ग होना चाहिये, यहाँ दोनों और पगडंडियाँसे युक्त सड़कें और गलियाँ होनी चाहिये, यहाँ चबूतरा रखना ठीक है, यह स्थान अन्तःपुरके योग्य है, वहीं शिव मन्दिर रखना अच्छा होगा, यहाँ वट वृक्षसहित तहागों, बावलियों और सरोवरोंका निर्माण उचित होगा। यहाँ बगीचे, सभाभवन और वाटिकाएँ रहेंगी तथा यहाँ दानवोंके निकलनेके लिये मनोहर मार्ग रहेगा। इस प्रकार नगर रचनाएँ निपुण मयने केवल मनःसंकल्पमात्रसे उस दिव्य त्रिपुर नगरकी रचना कर डाली थी, ऐसा हमने सुना है। मयने जो काले लोहेका पुर निर्मित किया था, उसका अधिपति तारकासुर हुआ। वह उसपर अपना आधिपत्य जमाकर वहाँ निवास करने लगा दूसरा जो पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान कान्तिमान् रजतमय पुर निर्मित हुआ, उसका स्वामी विद्युन्माली हुआ यह विद्युत्समूहोंसे युक्त बादलकी तरह जान पड़ता था मयद्वारा जिस तीसरे स्वर्णमय पुरकी रचना हुई, उसमें सामर्थ्यशाली मय स्वयं गया और उसका अधिपति हुआ। जिस प्रकार तारकासुरके पुरसे विद्युन्मालीका पुर सौ योजनकी दूरीपर था, उसी प्रकार विद्युन्माली और मयके पुरोंमें भी सी योजनका अन्तर था। मय दानवका विशाल पुर मेरुपर्वतके समान दोख पड़ता था । ll 1-1030 llजिस प्रकार पूर्वकालमें त्रिलोचन भगवान् शंकरने पुष्पककी रचना की थी, उसी प्रकार मय दानवने केवल पुष्यनक्षत्रके संयोगसे कालकी व्यवस्था करके त्रिपुरका निर्माण किया। पुरकी रचना करता हुआ मय जिस-जिस मार्गसे एक पुरसे दूसरे पुरमें जाता था, वहाँ-वहाँ वरुणकी दी हुई मालाद्वारा उत्पन्न चमत्कारसे सोने, चाँदी और लोहेके सैकड़ों-हजारों भवन स्वयं ही बनते जाते थे। उन देव शत्रुओंके पुर रत्नखचित होनेके कारण विशेष शोभा पा रहे थे। वे सैकड़ों महलोंसे युक्त थे। उनमें ऊँचे-ऊँचे कूटागार (छतके ऊपरकी कोठरियाँ) बने थे। उनमें सभी लोग स्वच्छन्द विचरण करते थे। वे (सुन्दरतामें) सभी लोकोंका अतिक्रमण करनेवाले थे। उनमें उद्यान, बावली, कुआँ और कमलोंसे युक्त सरोवर शोभा पा रहे थे। उनमें अशोक वृक्षके बहुतेरे वन थे, जिनमें कोयलें कूजती रहती थीं। उनमें बड़ी बड़ी चित्रशालाएँ और उत्तम अटारियाँ बनी थीं। मयने क्रमशः सात, आठ और दस तल्लेवाले भवनोंका बड़ी सुन्दरताके साथ निर्माण किया था। उनपर बहुसंख्यक ध्वज और पताकाएँ फहरा रही थीं। वे मालाकी लड़ियोंसे अलंकृत थे। उनमें लगी हुई क्षुद्र घण्टिकाओंके शब्द हो रहे थे। वे उत्कृष्ट गन्धयुक्त पदार्थोंसे सुवासित थे। उन्हें समुचितरूपसे उपलिप्त किया गया था। उनमें पुष्प, नैवेद्य आदि पूजन-सामग्री सँजोयी गयी थी और जलपूर्ण कलश स्थापित थे। वे यज्ञजन्य धुएँसे अन्धकारित हो रहे थे। उस त्रिपुर नामक पुरमें आकाशसरीखे नीले तथा हंसोंकी पङ्क्तिके समान उज्ज्वल भवन कतारों में सुशोभित हो रहे थे। उनमें लटकती हुई मोतियोंकी झालरें ऐसी प्रतीत होती थीं, मानो चन्द्रमाकी शोभाका उपहास कर रही हैं ॥11- 20 ॥
वे नित्य मल्लिका, चमेली आदि सुगन्धित पुष्पों तथा गन्ध, धूप आदिसे अधिवासित होनेसे पाँचों इन्द्रियोंके सुखोंसे समन्वित सत्पुरुषोंकी तरह सुशोभित हो रहे थे। उस त्रिपुरमें सोने, चाँदी और लोहेके प्राचीर बने हुए थे, | जिनमें मणि, रत्न और अंजन (काले पत्थर) जड़े हुए थे।वे ऐसे प्रतीत होते थे मानो पर्वतोंकी चहारदीवारी हो। उस एक-एक पुरमें सैकड़ों गोपुर बने थे, जिनपर ध्वजा और पताकाएँ फहरा रही थीं। वे पर्वत-शिखरके समान दीख रहे थे। उस त्रिपुरमें नूपुरोंकी झनकार होती थी, जिससे वे अत्यन्त रमणीय लग रहे थे। उन पुरोंका सौन्दर्य स्वर्गसे भी बढ़कर था। उनमें कन्यापुर भी बने हुए थे। वे बगीचों, विहारस्थलों, तड़ागों, वटवृक्षके नीचे बने चबूतरों, सरोवरों, नदियों, वनों और उपवनोंसे सम्पन्न थे । वे दिव्य भोगकी सामग्रियों और नाना प्रकारके रत्नोंसे परिपूर्ण थे। उस त्रिपुरके बाहर निकलनेवाले मार्गोंपर पुष्प बिखेरे गये थे, जिससे वे बड़े सुन्दर लग रहे थे। उनमें मायाको निवारण करनेवाले उपकरणोंद्वारा सैकड़ों गहरी खाइयाँ बनायी गयी थीं। अद्भुत पराक्रमयुक्त कर्म करनेवाले मयके द्वारा निर्मित उस उत्तम दुर्गकी रचनाका वृत्तान्त सुनकर देवराज इन्द्रके शत्रु अनन्त पराक्रमी हजारों दैत्य वहाँ आ पहुँचे। उस समय वह त्रिपुर गर्वीले शत्रुओंका मान मर्दन करनेवाले, जनताके लिये कष्टदायक तथा पर्वतीय गजेन्द्रोंके समान विशालकाय असुरोंसे उसी प्रकार खचाखच भर गया, जैसे अधिक जलवाले | बादलोंसे आकाश आच्छादित हो जाता है ॥ 21 - 28 ॥