मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन्! जहाँ प्रचुर मात्रामें घास भूसा और लकड़ी वर्तमान हो, स्थान रमणीय हो, पड़ोसी राजा विनम्र हो, वैश्य और शूद्रलोग अधिक मात्रामें रहते हों, जो शत्रुओंद्वारा हरण किये जाने योग्य न हो एवं कुछ विप्रों तथा अधिकांश कर्मकरोंसे संयुक्त हो,देवस्थान रहित सुन्दर हो, अनुरक्तजनोंसे समन्वित हो, जहाँके निवासी करके भारसे पीड़ित न हो, पुष्प और फलकी बहुतायत हो, आपत्तिके समय वह वासस्थान शत्रुओंके लिये अगम्य हो, जहाँ निरन्तर समानरूपसे राजाके सुख-दुःखके भागी एवं प्रेमीजन निवास करते हों, जो सर्प, बाघ और चोरसे रहित हो तथा सरलतासे उपलब्ध हो, इस प्रकारके देशमें राजाको अपने सहायकों सहित निवास करना चाहिये। वहाँ बुद्धिमान् राजाको धन्य या धनुदुर्ग (जहाँ चारों ओरसे मरुभूमि हो), महीदुर्ग नरदुर्ग, दुर्ग, जलदुर्ग तथा पर्वतदुर्ग इन छ: दुर्गोमेंसे किसी एककी रचना करनी चाहिये। राजन्! इन सभी दुर्गामें गिरि (पर्वत) दुर्ग श्रेष्ठ माना गया है । वह गिरिदुर्ग खाई, चहारदीवारी तथा ऊँची अट्टालिकाओंसे युक्त एवं तोप आदि सैकड़ों प्रधान यन्त्रोंसे घिरा होना चाहिये। उसमें किंवाइसहित मनोहर फाटक लगा हो, जिससे हाथीपर बैठा हुआ पताकासमेत राजा नगरमें प्रविष्ट हो सके ।। 1-9 ॥
वहाँ चार लम्बी-चौड़ी गलियों बनवानी चाहिये। जिनमें एक गलीके अग्रभागमें सुदृढ़ देव मन्दिरका निर्माण कराये दूसरी गलीके आगे राजमहल बनानेका विधान है। तीसरी गलीके अग्रभागमें धर्माधिकारीका आवासस्थान हो। चौथी गलीके अग्रभागमें दुर्गका मुख्य प्रवेशद्वार हो। उस दुर्गको चौकोना, आयताकार, गोलाकार, मुक्तिहीन, त्रिकोण, यवमध्य, अर्धचन्द्राकार अथवा वज्राकार बनवाना चाहिये। नदी तटपर बनाये गये अर्धचन्द्राकार दुर्गको उत्तम माना जाता है। विद्वान् राजाको अन्य स्थानोंपर ऐसे दुर्गका निर्माण नहीं करना चाहिये। राजाको राजमहलके दाहिने भागमें कोशगृह बनवाना चाहिये। उसके भी दाहिने भागमें गजशाला बनवानेका विधान है। गजोंकी शाला पूर्व अथवा उत्तराभिमुखी होनी चाहिये। अग्निकोणमें आयुधागार बनवाना उचित है। धर्मज्ञ उसी दिशामें रसोईघर तथा अन्यान्य कर्मशालाओंको भी रचना करे। राजभवनकी बायीं ओर पुरोहितका भवन होना चाहिये| तथा उसी स्थलपर एवं उसी दिशामें मन्त्रियों और वैद्यका निवासस्थान एवं कोशागार बनानेका विधान है। उसी स्थानके समीप गौओं तथा अश्वोंके निवासकी व्यवस्था करनी चाहिये। अक्षोंकी पंक्ति उत्तराभिमुखी अथवा दक्षिणाभिमुखी हो सकती है, अन्य दिशाभिमुखी निन्दित मानी गयी है। जहाँ अश्व रखे जायें वहाँ रातभर दीपक जलते रहना चाहिये। अश्वशाला में मुर्गा, बंदर, मर्कट तथा बछड़ेसहित गौ भी रखनेका विधान है। अश्वोंका कल्याण चाहनेवाला अश्वशालामें बकरियोंको भी रखे। गौ, हाथी और अश्वादि शालाओंमें उनके गोवर निकालनेकी व्यवस्था सूर्य अस्त हो जानेपर नहीं करनी चाहिये। राजा उन-उन स्थानोंमें यथायोग्य समझकर क्रमश: सभी सारथियोंको आवासस्थान प्रदान करे। इसी प्रकार सबसे बढ़कर योद्धाओं, शिल्पियों और कालमन्त्रके वेत्ताओंको दुर्गमें उत्तम निवास स्थान दे। इसी प्रकार राजाको गौ-वैद्य, अश्व-वैद्य तथा गज-वैद्यको भी रखना चाहिये; क्योंकि दुर्गमें कभी रोगोंकी प्रबलता हो सकती है। दुर्गमें चारणों, संगीतज्ञों और ब्राह्मणोंके स्थानका विधान है। ll 10 -- 26 ॥
इनके अतिरिक्त दुर्गमें निरर्थक बहुत से व्यक्तियोंको नहीं रखना चाहिये राजन् दुर्गमें विविध प्रकारके शस्त्राखसे युक्त एवं हजारोंको मारने में समर्थ योद्धाओंको रखना चाहिये; क्योंकि उन्होंसे रक्षा होती है। राजाको दुर्गमें गुप्तद्वार भी बनवाना चाहिये। राजन्! दुर्गमें सभी प्रकारके अख शखोंके संग्रहकी विशेष प्रशंसा की गयी है। नृपश्रेष्ठ राजन् ! राजाको दुर्गमें धनुष, ढेलवाँस, तोमर, बाण, तलवार, कवच, लाठी, गुङ (हाथीको फँसानेका एक फंदा), हुड (चोरोंको फँसानेका खूँटा), परिघ, पत्थर, बहुसंख्यक मुद्रर, त्रिशूल, पट्टिश, कुठार, प्रास (भाला), शूल, शक्ति, फरसा, चक्र, चर्मके साथ ढाल, कुदाल, रस्सी, बेंत, पीठक, भूसी, हँसिया, कोयला इन सबका संचय करना चाहिये। दुर्गमें सभी प्रकारके शिल्पीय पात्रोंका भी संचय रहना चाहिये। वह सभी प्रकारके वादों तथा ओषधियोंका भी संचय करे।यहाँ प्रचुरमा घास-भूसा, ईंधन, गुड, सभी प्रकारके तेल तथा गोरसका भी संचय हो। राजाको दुर्गमें वसा, मज्जा, हड्डियाँसहित स्नायु, गोवर्मसे बने नगाड़े, धान्य, तम्बू, जौ, गेहूँ, रत्न, सभी प्रकारके वस्त्र, लौह, कुरथी, मूंग, उड़द, चना, तिल, सभी प्रकारके अन्न, धूल गोवर, सन, भोजपत्र, जस्ता, लाह, पत्थर तोड़नेकी छेनी तथा अन्य भी जो कुछ पदार्थ हों, उनका संचय करना चाहिये। सर्पोंके विषसे भरे पड़े साँप सिंह आदि हिंसक जन्तु, मृग तथा पक्षी रखे जाने चाहिये, किंतु वे एक-दूसरेसे सुरक्षित रहे। महाभाग! राजाको विरोधी जीवोंकी रक्षाके लिये यत्नपूर्वक पृथक् पृथक् स्थान बनवाना चाहिये। राजाको प्रजाकी कल्याण भावनासे कही गयी अथवा न कही गयी सम्पूर्ण राजवस्तुओंको दुर्गमें गुप्तरूपसे संग्रहीत करना चाहिये ॥ 27- 42 ॥
जीवक, ऋषभक, काकोल, इमली, आटरूप शालपर्णी, पृचिपर्णी, मुद्रपर्णी, माषपर्णी, दोनों प्रकारकी मेदा, दोनों प्रकारको शारिवा, तीनों बलाएँ (एक ओषधि), वीरा, श्वसन्ती, वृष्या, बृहती, कण्टकारिका, शृङ्गी, शृङ्गाटकी, द्रोणी, वर्षाभू, कुश, रेणुका, मधुपर्णी, दोनों विदारी, महाक्षीरा, महातपा धन्वन, सहदेवी, कटुक, रेड़, विष, शतपर्णी, मृद्वीका, फल्गु, खजूर, यष्टिका, शुक्र, अतिशुक्र, काश्मरी, छत्र, अतिछत्र, वीरण, ईख और ईखसे होनेवाली अन्य वस्तुएँ, फाणित आदि, सिंही, सहदेवी, विश्वदेव, अश्वरोधक, महुआ, पुष्पहंसा, शतपुष्पा, मधूलिका, शतावरी, महुआ, पिप्पल, ताल, आत्मगुसा, कटफल, दार्विका, राजशीर्षकी, श्वेत सरसों, धनिया, ऋष्यप्रोक्ता, उत्कटा, कालशाक, पद्मबीज, गोवली. मधुवल्लिका, शीतपाकी, कुलिंगाक्षी, काकजिड़ा, उरुपुष्पका, दोनों पर्वत और त्रपुष, गुंजातक, पुनर्नवा,कसेस्कर, काश्मीरी, बिल्व, शालूक, केसर, सभी प्रकारको भूमियाँ, शमी, अन्न, दुग्ध, शहद, मड्डा, तेल, मज्जा, वसा, घी, कदम्ब, अरिष्टक, अक्षोट, बादाम, सोम और बाणक इन सबको तथा इसी प्रकार अन्य पदार्थोंको मधुर जानना चाहिये। राजा इन सबका पूर्णरूपसे दुर्गमें संग्रह करे ।। 43-54 ॥
अनार, आम्रातक, इमली, अम्लवेतस सुन्दर बेर, बड़हर, करमर्द, करूपक, विजौरा, कण्डूर, मालती, राज-बन्धुक, दोनों कोलकों और अमड़ोंके पत्ते, पारावत, नागरक, प्राचीन अरुक, कैथ, आँवला, चुक्रफल, दन्तशत, जामुन, मक्खन, सौवीरक, रुषोदक, सुरा, आसव आदि मद्य, माँड, मट्ठा, दही एवं ऐसे सभी प्रकारके श्वेत पदार्थोंको खट्टा समझना चाहिये। राजा इनका तथा ऐसे अन्यान्य पदार्थोंका अपने दुर्गमें संचय करे। सैन्धव, उद्भिद पाठेय पाक्य, सामुद्र (साँभर), लोमक, कुप्य, सौवर्चल, अविल्व, बालकेय, यव, भौम, क्षार, कालभस्म ये सभी लवणके भेदोपभेद हैं। राजा इन सबका तथा अन्य लवणोंका दुर्गमें संग्रह करे। पीपर, पीपरका मूल, चव्य, शीता, सौंठ, कुबेरक, मिर्च, सहजना, भिलावा, सरसों, कुष्ठ, अजमोदा, ओंगा, हींग, मूली, धनियाँ, सौंफ, अजवाइन, मंजीठ, जवीर, कलमालिका, कणिज्झक, लहसुन, पालाके आकारवाला जलीय तृण, हरड़, कायस्था, वयःस्था, हरताल, मैनसिल, गिलोय, रुदंती, रोहिष, केशर, जया, रेड़ी, नरकट, शल्लकी, भारंगी, सभी प्रकारके पित्त और मूत्र, हरें, आवश्यक मूल, मुलहठी, अतिविष, छोटी इलायची, तेजपात आदि कटु ओषधियाँ हैं। राजश्रेष्ठ ! राजा दुर्गमें प्रयत्नपूर्वक इनका संग्रह करे।नागरमोथा, चन्दन, हीबेर कृतहारक, दारूहल्दी, हल्दी, नलद, खुश, नक्तमाल, कदम्ब, दूर्वा, परवल, वच, चिरायता, भूतुम्बी, विषा, अतिविषा, तालीसपत्र, तगर, छितवन, खैर, काली गूलर, दिव्या, सुरोद्भवा, षड्ग्रन्थी, रोहिणी, जटामासी, पर्पट, दन्ती, रसांजन, भृंगराज, पतंगी, परिपेलव, दुःस्पर्शा, अगुरुद्वय, कामा, श्यामाक, गंधनाकुली, तुषपर्णी, व्याघ्रनख, मंजीठ, चतुरंगुला, केला, अंकुरास्फीता, तालास्फीता, रेणुकबीज, बेतका अग्रभाग, बेत, तुम्बी, कैंकरासींगी, लोध्रपुष्पिणी, मालती, करकृष्णा, वृश्चिका, जीविता, पर्णिका तथा गुडुच— यह तिक्त औषधियोंका समूह है। राजा इनका तथा इसी प्रकारके अन्य तिक्त पदार्थोंका दुर्गमें संग्रह रखे ।। 55 - 743 ।।
हरें, बहेड़ा, आँवला, मालकागुन, धायके फूल, मोचरस, अर्जुन, असन, अनन्ता, कामिनी, तुबरिका, श्योणाक, जायफल, भोजपत्र, शिलाजीत, पाटलवृक्ष, लोहबान, समंगा, त्रिवृता, मूल, कपास, गेरु, अंजन, विद्रुम, शहद, जलकुम्भी, कुमुदिनी, कमल, बरगद, गूलर, पीपल, पालाश, शीशम, शमी, प्रियाल, पीलु, कासारि, शिरीष, पद्म, बेल, अरणी, पाकड़, श्यामाक, बक, धन, राजादन, करीर, धनिया, प्रियक, कंकोल, अशोक, बेर, कदंब, दोनों प्रकारके खैर-इन वृक्षोंके पत्ते, सारभाग (सत्त्व), मूल तथा पुष्प काषाय माने गये हैं। राजश्रेष्ठ ! राजाको ये काषाय ओषधियाँ दुर्गमें रखनी चाहिये। राजन्! मारने एवं घायल करनेवाले कीट-पतंग तथा वायु, धूम, जल तथा मार्गको दूषित करनेवाली ओषधियोंको, जिन्हें मैं आगे बतलाऊँगा, राजाको दुर्गमें रखनी चाहिये।राजाको प्रयत्नपूर्वक सभी विषोंका संग्रह करना चाहिये तथा विष-प्रभावको शान्त करनेवाली विचित्र | ओषधियोंको भी धारण करना उचित है। राक्षस, भूत तथा पिशाचोंके प्रभावको नष्ट करनेवाले, पापनाशक, पुष्टिकारक पदार्थों तथा कलाविज्ञ पुरुषोंको भी दुर्गमें प्रयत्नपूर्वक स्थापित करना चाहिये । राजाको चाहिये कि उस दुर्गमें डरकर भागे हुए, उन्मत्त, क्रुद्ध, | अपमानित तथा पापी दुष्ट अनुचरोंको न ठहरने दे । सभी प्रकारके यन्त्र, अस्त्र तथा अट्टालिकाओंके समूहसे संयुक्त, सभी प्रकारके अन्न तथा ओषधियोंसे | सुसम्पन्न और व्यवसायी जनोंसे परिपूर्ण दुर्गमें राजाको सदैव सुखपूर्वक निवास करना चाहिये ॥ 75–87 ।।