मनुने पूछा- धार्मिकश्रेष्ठ राजाको राक्षस, विष और रोगको दूरकर स्वस्थ करनेवाली जिन औषधियोंका दुर्गमें संग्रह करना चाहिये, उनका वर्णन कीजिये ॥ 1 ॥ मत्स्यभगवान्ने कहा- बिल्वाटको जवाखार पाटला, बाहिक ऊपणा, श्रीपनों और शल्लकी-इन ओषधियोंका काढ़ा उत्तम प्रोक्षण है। विषग्रस्त प्राणीद्वारा उसका सेवन करनेसे वह तुरंत ही विषरहित हो जाता है। उसी प्रकार इनके द्वारा सेवन करनेसे यव, सैन्धव, पानीय, वस्त्र, शय्या, आसन, जल, कवच, आभरण, छत्र, चामर और गृह आदि विषरहित हो जाते हैं। शेलु पाटली, अतिविषा, शिगु मूर्वा, पुनर्नवा, समंगा, वृषमूल, कपित्थ, वृषशोषित तथा महादन्तशठ— इन औषधियोंके काड़ेका सेवन भी उसी प्रकार विषनाशक होता है। लाह, प्रियंगु, मंजीठ, समान भागमें इलायची, हरे जेठीमधु और मधुरा — इन्हें नकुल- पित्तसे संयुक्त करके गायके सॉंगमें रखकर सात राततक पृथ्वीमें गाड़ दे। इसके बाद उसे सुवर्णजटित मणिकी अंगूठीमें रखकर हाथमें धारण करले। उसका स्पर्श करनेसे विषयुक्त प्राणी तुरंत ही निर्विष हो जाता है। जटामांसी, शमीके पत्ते, तुम्बी, श्वेत सरसों, कपित्थ, कुछ और मंजीठ- इन ओषधियोंको कुत्ते | अथवा कपिला गौके पित्तके साथ भावना दे। यह सौम्याक्षिप्त नामक दूसरी विपनाशक ओषधि है। इसे भी पूर्ववत् मणि एवं रत्ननिर्मित अंगूठीमें रखकर धारण करना चाहिये। इसी प्रकार मूषिका और लाहको भी हाथमें बाँधनेसे विषका शमन होता है ॥1-10 ॥
हरे, जरामांसी, मोजिला हरिद्रा, महुआ, मधु अक्षत्वक्, सुरसा और लाह- इन्हें भी पूर्ववत् कुत्तेके पित्तसे संयुक्त करके पृथ्वीमें गाड़ दे। फिर इनके लेपसे वाजों तथा पताकाओंपर लेप कर दे तो (विषाक्त प्राणी) उन्हें सुनकर देखकर और सूंघकर तुरंत विपरहित हो जाता है। तीनों कटु (आँवला, हर्रे, बहेरा), पाँचों नमक, मंजीत दोनों रजनी, छोटी इलायची त्रिवृताका पत्ता, विडंग, इन्द्रवारुणि, मधूक, वेतस तथा मधु—इन सबको सींगमें स्थापित कर दे, फिर वहाँसे निकालकर गर्म जलमें मिला दे। इसके द्वारा विष-भक्षणसे उद्भूत पित्तदोष उत्पन्न करनेवाला ज्वर शान्त हो जाता है। श्वेत धूप, सरसों, एलवालुक, सुवेगा, तस्कर, सुर और अर्जुनके पुष्प- इन औषधियोंका धूपवास करनेवाले घरमें स्थित | स्थावर-जङ्गम सभी विषको नष्ट कर देता है। जहाँ वह धूप जलाया जाता है, वहाँ कीट, विष, मेढ़क, रेंगनेवाले सर्पादि जीव तथा कर्मोंकी कृत्या—ये कोई भी नहीं रह सकते। चन्दन, दुग्ध, पलाश-वृक्षकी छाल, मूर्वा, एलावालुक, सरसों, नाकुली, तण्डुलीयक एवं काकमाचीका काढ़ा सभी प्रकारके विषयुक्त जलमें कल्याणकारी होता है। रोचनापत्र, नेपाली, केसरतिलक—इन ओषधियोंको धारण करनेसे मनुष्यको विषका कष्ट नहीं होता, विषदोष नष्ट हो जाता है और वह इसके प्रभावसे स्त्री, पुरुष और राजाका प्रिय हो जाता है । ll 11 - 193 ॥
हल्दी, मंजीठ, किणिही, पिप्पली और नीमके चूर्णका लेप करनेसे सभी प्रकारके विषसे पीड़ित शरीर विपरहित हो जाता है। शिरोष वृक्षका फल, पत्ता, पुष्प, छाल और जड़ इन सबको गोमूत्रमें घिसकर तैयार की गयी ओषधि सभी प्रकारके विषकर्ममें हितकारी कही गयी है। सर्वोत्कृष्ट शूरवीर राजन्! इसके उपरान्त सर्वश्रेष्ठ ओषधियोंका वर्णन कर रहा हूँ, सुनिये। राजन्। वन्ध्या कर्कोटकी, विष्णुक्रान्ता, उत्कटा, शतमूली, सिता, आनन्दाबला, मोचा, पटोलिका, सोमा, पिण्डा, निशा, दग्धरुहा, स्थलपद्म, विशाली, शंखमूलिका, चाण्डाली, हस्तिमगधा, गोपर्णी, अजापर्णी, करम्भिका, रक्ता, महारक्ता, बर्हिशिखा, कौशातकी, नक्तमाल, प्रियाल, सुलोचनी, वारुणी, वसुगन्धा, गन्धनाकुली, ईश्वरी, शिवगन्धा, श्यामला, वंशनालिका, जतुकाली, महाश्वेता, श्वेता, मधुयष्टिका, वज्रक, पारिभद्र, सिन्दुवारक, जीवानन्दा, वसुच्छिद्रा, नतनागर, कण्टकारि, नाल, जाली, जाती, वटपत्रिका, सुवर्ण, महानीला, कुन्दुरु, हंसपादिका, मण्डूकपर्णी, दोनों प्रकारकी वाराही, तण्डुलीयक, सर्पाक्षी (नकुलकंद), लवली, ब्राह्मी, विश्वरूपा, सुखाकरा, रुजापहा, वृद्धिकरी, शल्यदा, पत्रिका, रोहिणी, रक्तमाला, आमलक, वृन्दाक, श्यामा, चित्रफला, काकोली, क्षीरकाकोली, पीलुपर्णी, केशिनी, वृश्चिकाली, महानागा, शतावरी, गरुड़ी, वेगा, जलकुमुदिनी, स्थलोत्पल, महाभूमिलता, उन्मादिनी, सोमराजी, सभी प्रकारके रत्न विशेषकर मरकत आदि बहुमूल्य रत्न, अनेक प्रकारकी कीटज मणियाँ, जीवोंसे उत्पन्न होनेवाली मणियाँ इन सभीको प्रयत्नपूर्वक दुर्गमें संचित करे । इसी प्रकार राक्षस, विष, कृत्या, वैताल आदिकी नाशक- विशेषकर मनुष्य, सर्प, गौ, गर्दभ, ऊँट, साँप, तीतर, श्रृंगाल, नेवला, मेढक, सिंह, बाघ, रीछ, बिलाव, गैड़ा, वानर, कपिंजल, हस्ती, अश्व, महिष और हरिण आदि जीवोंसे सम्बन्ध रखनेवाली उपयोगी वस्तुओंका भी राजा संचय करे। इस प्रकार इन सभी बहुमूल्य पदार्थोंसे युक्त रहनेपर वह सुरक्षित रहता है। तब राजा उनमें बने हुए अत्यन्त निर्मल, उपर्युक्त लक्षणोंसे सम्पन्न तथा गुणयुक्त भवनमें निवास करे ॥20- 38 ॥