सूतजी कहते हैं-ऋषियो! अब मैं देवप्रतिमाके अभिषेक तथा अर्घ्यकी उत्तम विधि संक्षेपमें बतला रहा हूँ, सुनिये। दधि, अक्षत, कुशका अग्रभाग, दुग्ध, दूर्वा, मधु, यव और सरसों-इन आठ वस्तुओं तथा फलोंके मिलानेसे अर्ध बनता है। हाथीशाला, अश्वशाला, चौराहा, विमौट, शूकरद्वारा खोदे गये गड्ढे, अग्निकुण्ड, तीर्थस्थान एवं गोशालाकी मिट्टीको मन्त्रवेत्ता ब्राह्मण 'उद्धृतासि वराहेण' ( तै0 आर0) आदि मन्त्रको उच्चारण करते हुए कलशमें डाले। तत्पश्चात् 'शं नो देवी0', (वाजस0 सं0 36 । 10) 'आपो हि ष्ठा0' इन दो मन्त्रोंका उच्चारण कर जल छोड़े। तत्पश्चात् गायत्रीमन्त्रका उच्चारण करते हुए उस घड़े में गोमूत्र, फिर 'गन्धद्वारां0' (ऋक्परि0 श्रीसू0 8) इस मन्त्रसे गोवर, 'आप्यायस्व0' (वाजस0 सं0 12 । 144) मन्त्रसे दुग्ध, 'दधिक्राव्णः 0' (वाजस0 23 । 32) मन्त्रसे दही और 'तेजोऽसि0' (वाजस0 22 । 1) मन्त्रसे घृत, 'देवस्य त्वा सवितुः 0' (वाजस0 सं01।19) से जलको छोड़कर सबको मिश्रितकर कुशद्वारा चलावे तो वह पञ्चगव्य होता है। इस पञ्चगव्यद्वारा प्रतिमाको स्नान करानेके उपरान्त शुद्ध दहीद्वारा 'दधिक्राव्णः 0' (वाजस0 सं0 23 । 32 ) इस मन्त्रसे अभिषेक-संस्कार करना चाहिये। फिर "आप्यायस्व0' (वाजस0 सं0 12 । 114) इस मन्त्रका उच्चारण कर दुग्धसे, 'तेजोऽसि शुक्र0' (वाजस0 सं0 22 1) इस मन्त्रद्वारा घृतसे, 'मधुवाता0' (वाजस0 सं0) इस मन्त्रद्वारा मधुसे तथा पुष्पमिश्रित जलसे और 'सरस्वत्यै0' (वाजस0 सं0) इस मन्त्रका उच्चारण करते हुए ओषधियोंसे प्रतिमाका संस्कार करना चाहिये। फिर 'हिरण्याक्ष0' इस मन्त्रसे रत्नमिश्रितजलसे, 'देवस्य त्वा0' (वाजस0 सं0 1।10) इस मन्त्रका उच्चारण कर कुशोदकसे तथा 'अग्न आयाहि0 (साम0 सं0 1 । 1) इस मन्त्रका उच्चारण कर प्रतिमाको स्नान करावे ॥ 1-10 ॥ इसके बाद गायत्री मन्त्रद्वारा सुगन्धित जलसे | अभिमन्त्रित करे। फिर एक हजार या पांच सौ या उसके आधे ढाई सौ या एक सौ पचीस या एक सौ या चौंसठ या उसके आधे बत्तीस या उसके आधे सोलह या आठ या अल्प वित्तवाला पुरुष चार कलशोंसे स्नान-क्रिया | सम्पन्न करे। ये कलश यथाशक्ति सुवर्ण, चाँदी, ताँबा, | पीतल, कांसा या मिट्टी के बने होने चाहिये। सहदेई, बच व्याघ्री, बला, अतिबला, शङ्खपुष्पी, सिंही तथा आठवीं सुवर्चला ये महौषधियाँ हैं, इनका महास्नानके समय प्रयोग करना चाहिये। जौ, गेहूँ, तिन्नी, तिल, साँवा, धान, प्रिय तथा चावल-ये अन्न भी स्नानकार्यमें उपयोगी कहे गये हैं। स्वस्तिक, पद्म, शङ्ख, उत्पल, कमल, श्रीवत्स, दर्पण और नन्द्यावर्त- इन आठ चित्रोंकी गोबर और शुद्ध मिट्टीसे कलापूर्ण रचना करें, फिर उन्हें पाँच प्रकारके रंग, पाँच प्रकारके चूर्ण, दूर्वा और काला तिलसे भर दे। तत्पश्चात् नीराजन आरतीको विधिसे नीराजन कर बुद्धिमान् पुरुष 'गङ्गाका जल सभी पापोंका विनाशक और शुभदायक होता है' इस भावके मन्त्रसे आचमन करावे। तदनन्तर—'देव! आपके लिये बने हुए ये युगल वस्त्र देवनिर्मित सूत्रद्वारा बने हुए, यज्ञ तथा दानसे समन्वित, विविध वर्णोंवाले एवं परम रमणीय हैं, इन्हें आप ग्रहण करें, ' इस भावके मन्त्रका उच्चारण करते हुए यत्नपूर्वक दो वस्त्र समर्पित करे। इसके बाद हाथमें कुश लेकर प्रयत्नपूर्वक निम्नलिखित मन्त्रका उच्चारण करते हुए कपूर और केसरमिश्रित चन्दन लगाना चाहिये। मन्त्र इस प्रकार है-'देव! मैं आपके शरीर और चेशको किसी प्रकार भी नहीं जानता, अतः मेरे द्वारा समर्पित किये गये गन्धको ग्रहणकर आप स्वयं ही अनुलेपन कर लें' ॥ 11-23 ॥ इसके बाद चालीस दीप प्रदान करना चाहिये और प्रदक्षिणा भी करनी चाहिये। उस समय निम्नाङ्कित
मन्त्रका उच्चारण करे- 'देव! आप ही सूर्य औरचन्द्रमाको ज्योति बिजली अग्नि और सभी प्रकारको ज्योति हैं, आप इस दोपको ग्रहण करें। फिर 'देव! यह वनस्पतियोंका अति उत्तम रस, दिव्य गन्धयुक्त और उत्तम गन्ध है, मैंने इसे भक्तिपूर्वक अर्पित किया है। आप इस धूपको ग्रहण करें।' इस मन्त्रका उच्चारणकर विचक्षण पुरुष धूपदान करे। तत्पश्चात् 'बहुमूल्य आभूषणोंसे विभूषित देव! आपको नमस्कार हैं।' इस भावके मन्त्रद्वारा आभूषण अर्पित करना चाहिये। इस प्रकार सात राततक महोत्सव कर श्वेत वस्त्रधारी यजमान पञ्चरत्नयुक्त तथा श्वेत वस्त्रसे परिवेष्टित चार, आठ, दो अथवा एक देवकुम्भके जलसे— 'देवस्य त्वा0-' (वाजस0 सं0 1।10) इस मन्त्रसे या आथर्वण तथा साममन्त्रोंसे या नवग्रहयज्ञोंमें अभिषेकके समय प्रयुक्त होनेवाले मन्त्रोंसे अभिषेक करे। फिर स्नानकर देवताओंकी पूजा करनेके बाद स्थापना करानेवालेको वस्त्र, अलंकार एवं आभूषद्वारा पूजा करे। तत्पश्चात् सभी यज्ञपात्रों, मण्डपकी सामग्रियों तथा मण्डपमें अन्य जो कुछ भी दातव्य वस्तुएँ हों, उन्हें आचार्यको देना चाहिये; क्योंकि गुरुके प्रसन्न होनेपर सभी देवगण प्रसन्न हो जाते हैं। इस देवप्रतिमाके स्थापन कार्यको शीलरहित, दम्भी और पाखंडीसे नहीं कराना चाहिये, प्रत्युत सदा श्रुतियोंके पारगामी एवं गृहस्थाश्रममें रहनेवाले ब्राह्मणद्वारा ही कराना उचित है। जो व्यक्ति केवल भक्तिके कारण वैदिक धर्मो में परायण विद्वान् पण्डितोंको छोड़कर अपने पाखण्डी गुरुको इस कार्यमें नियुक्त करता है, उसका कुल शीघ्र ही अपूज्य और नष्ट हो जाता है, उस स्थानपर पिशाचोंका आधिपत्य हो जाता है तथा लोग प्रतिमाको थोड़े ही दिनों बाद अपूज्य समझने लगते हैं। वैदिक ब्राह्मणोंद्वारा करायी गयी स्थापनासे देव प्रतिमा कुलमें कल्याणकारिणी होती है और चिरकालतक लोग उसकी पूजा करते हैं ॥ 24-35 ll