ऋषियोंने पूछा- सूतजी ! आपने जो यह सारा विषय पूर्णरूपसे वर्णन किया है, उसे तो हमलोगोंने सुना, परंतु देव-गृह कैसे होते हैं? (यह जाननेकी विशेष उत्कण्ठा हो रही है।) अतः आप पुनः (पूर्वकथित) ज्योतिश्चक्रका कुछ और विस्तारसे वर्णन कीजिये ॥ 1 ॥
सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! अब मैं जिस प्रकार देव-गृह एवं सूर्य, चन्द्रमा और अग्रिके गृह होते हैं तथा जैसी सूर्य और चन्द्रमाकी गति होती है, वह सब बतला रहा हूँ। (ब्रह्माकी रात्रि व्यतीत होनेपर प्रातःकाल अव्यक्तयोनि ब्रह्माने देखा कि जगत्की कोई वस्तु दीख नहीं रही है। सारा जगत् रात्रिके अन्धकारसे आच्छत्र है (कहीं प्रकाशका चिह्नमात्र भी अवशेष नहीं है।) ब्रह्माद्वारा अधिष्ठित इस जगत्में केवल चार पदार्थ अवशिष्ट थे, तब लोकोंके तत्त्वार्थको सिद्ध करनेवाले स्वयम्भू भगवान् ब्रह्मा खद्योत (जुगनू ) - के रूपमें विचरण करते हुए प्रकाशको आविर्भूत करनेके लिये विचार करने लगे। (उस समय उन्हें स्मरण हुआ कि) कल्पकालके आदिमें अग्रि तत्त्व जल और | पृथ्वीमें सम्मिलित हो गया था। यह जानकर उन्होंने तीनोंको एकत्र कर प्रकाश करनेके लिये तीन भागों में विभक्त कर | दिया। इस प्रकार इस लोकमें जो पाचक नामक अनि है, उसेपार्थिव अग्रि कहते हैं। जो अनि सूर्यमें स्थित होकर ताप पैदा करती है, वह शुचि अग्रि कहलाती है। उदरमें स्थित अग्नि विद्युत्से उत्पन्न हुई मानी जाती है। उसे सौम्य कहते हैं। इस वैद्युतानिका इन्धन जल है। कोई अग्नि अपने तेजसे ही बढ़ती है और कोई बिना इन्धनके भी उद्दीत होती है। काहरूपी इन्धनसे जलनेवाली अग्रिका नाम निर्मध्य' है। यह अग्रि जलके संयोगसे शान्त हो जाती है। पचमान अग्रि ज्यालाओंसे संयुक्त रहता है और प्रभाहीन रहना सौम्य अग्निका लक्षण है। जो श्वेत मण्डलमें स्थित रहकर ऊष्मारहित हो प्रकाशित नहीं होती, सूर्यकी वह कान्ति सूर्यके अस्त हो जानेपर अपने चतुर्थाश अग्रिमें प्रवेश कर जाती है, इसी कारण रातमें अग्रिका प्रकाश अधिक होता है ।। 2-10 ॥
पुनः सूर्योदय होनेपर अग्रिकी ऊष्मा अपने तेजके चतुर्थांशसे सूर्यमें प्रविष्ट हो जाती है, इस कारण दिनमें सूर्य पूर्णरूपसे तपते हैं। प्रकाशता, उष्णता, सूर्य और अग्निका तेज- इन सबके परस्पर अनुप्रवेश करनेके कारण दिन रातकी पूर्ति होती है। पृथ्वीके उत्तरवर्ती तथा दक्षिणवर्ती अर्धभागमें सूर्यके उदय होनेपर रात्रि पुनः जलमें प्रवेश कर जाती है। इस प्रकार दिनके समय रात्रिके जलमें प्रवेश करनेके कारण दिनमें जल लाल रंगका दीख पड़ता है। पुनः सूर्यके अस्त हो जानेपर दिन जलमें प्रवेश करता है। इसी कारण जल रातमें उज्ज्वल और चमकीला दिखायी पड़ता है। इसी क्रमसे भूमिके दक्षिणोत्तर अर्धभागमें सूर्यके उदय एवं अस्तके समय दिन और रात क्रमशः जलमें प्रवेश करते हैं। जो ये सूर्य तप रहे हैं, वे अपनी किरणोंद्वारा जलको सोखते हैं। सूर्यमें स्थित अग्रिका रंग लाल रंगके घड़के समान है। उसमें हजारों किरणें हैं। वह अपनी सहस्रों नाडियोंसे नदी, समुद्र, हृद और कुएँसे जलको ग्रहण करता है। सूर्यकी उन्हीं हजारों किरणोंसे शीत, वर्षां और गरमीका प्रादुर्भाव होता है ॥ 11-18 ॥
उन सहस्रों किरणोंमें विचित्र आकृतिवाली चार सौ नाडियाँ जलकी वर्षा करनेवाली हैं। उनमेंचन्दना, मेध्या, केलना, चेतना, अमृता और जीवनाये सभी किरणें विशेषरूपसे वृष्टि करनेवाली हैं। सूर्यकी तीन सौ किरणें हिमसे उत्पन्न हुई कही जाती हैं। उन्हें चन्द्रमा, तारा और सभी ग्रह पीते रहते हैं। ये मध्य नाडियाँ कहलाती है। इनके अतिरिक्त अन्य ह्रादिनी आदि नाडियाँ हिमकी सृष्टि करनेवाली हैं। शुक्ला, ककुभ, गौ और विश्वभृत् नामकी जो नाडियाँ हैं, वे सभी शुक्ला नामसे कही जाती हैं। इनकी भी संख्या तीन सौ है। ये धूपको उत्पन्न करनेवाली हैं। वे सभी मनुष्यों, देवताओं और पितरोंका भरण-पोषण करती हैं। ये किरणें ओषधियों (एवं अन्नों) द्वारा सभी मनुष्योंको, स्वधाद्वारा पितरोंको और अमृतके माध्यमसे देवताओंको सदा तृप्त करती रहती हैं। सूर्य वसन्त और ग्रीष्म ऋतुमें शनैः-शनैः अपनी तीन सौ किरणोंसे ताप उत्पन्न करते हैं। इसी प्रकार वर्षा और शरद् ऋतुमें चार सौ किरणोंके माध्यमसे वर्षा करते हैं। पुनः हेमन्त और शिशिर ऋतुमें तीन सौ किरणोंद्वारा बर्फ गिराते हैं। यही सूर्य ओषधियोंमें बल, स्वधामें सुधा और अमृतमें अमरत्वका आधान करते हैं अर्थात् तीनों पदार्थों में तीन तरहके गुण उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार सूर्यकी ये हजारों किरणें लोगोंका प्रयोजन सिद्ध करनेवाली हैं। ऋतुओंके क्रमानुसार जलकी शीतलता और उष्णतामें परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार उद्दीप्त एवं श्वेत वर्णवाला वह लोकसंज्ञक मण्डल नक्षत्र, ग्रह और सोमकी प्रतिष्ठा एवं योनि है। इन सभी चन्द्र, नक्षत्र और ग्रहोंको सूर्यसे उत्पन्न हुआ जानना चाहिये ॥ 19-28 ॥
सूर्यकी जो सुषुम्रा नामकी किरण है, वह क्षीण हुए चन्द्रमाको पुनः बढ़ाती है। पूर्वदिशामें जो हरिकेश नामकी किरण है, वह नक्षत्रोंकी जननी है। दक्षिण दिशामें स्थित विश्वकर्मा नामकी किरण बुधको तृप्त करती है। पश्चिम | दिशामें जो विश्वावसु नामक किरण है, उसे शुक्रकी योनि (उत्पत्तिस्थान) कहा जाता है। जो संवर्धन किरण है, वह लोहित (मंगल) की योनि है। छठी किरणको अश्वभू कहते हैं, वह बृहस्पतिको योनि है पुनः सुराट् नामक किरण शनैश्चरकी वृद्धि करती है। चूँकि ये (चन्द्र, नक्षत्र और ग्रह कभी नष्ट नहीं होते, इसीलिये इनकी नक्षत्रता मानी गयी है। उपर्युक्त नक्षत्रोंके क्षेत्र सूर्यपर आकर गिरते हैं और सूर्य अपनी किरणोंद्वारा उन क्षेत्रोंको ग्रहण करते हैं, इससे उनकी नक्षत्रता सिद्ध होती है।इस लोकसे परलोकमें जानेवाले पुण्यात्माओंका उद्धार करनेके कारण ये किरणें तारका नामसे प्रसिद्ध हैं तथा शुक्ल वर्णकी होनेके कारण शुक्ला भी कही जाती हैं। दिव्य (स्वर्गीय) एवं पार्थिव (भौमिक) सभी प्रकारके वंशोंके तेजके संयोगसे सम्पन्न होनेके कारण सूर्यको 'तपन' कहा जाता है। 'सवति (सूते) अर्थात् 'सु' धातु 'उत्पत्ति अथवा चेतनाभाव' के अर्थमें प्रयुक्त होती है। *इसलिये (भूमि) जल-तेजके उत्पादक होने के कारण सूर्य सविता कहलाते हैं। इसी प्रकार 'चदि आह्लादने' यह बढ़र्थक धातु आह्लादित करनेके अर्थमें भी प्रयुक्त | होती है। इसका शुक्लत्व, अमृतत्व और शीतत्व आदि अन्य अनेकों अर्थोंमें प्रयोग किया जाता है। (इसी धातुसे चन्द्र या चन्द्रमा शब्द निष्पन्न हुआ है।) ।। 29-37 ॥
सूर्य और चन्द्रमाके दिव्य मण्डल गगनतलमें उद्भासित होते हैं। वे सुन्दर श्वेत रंगवाले, जल और तेजसे सम्पन्न एवं कुम्भ-सदृश गोलाकार हैं। उनमें सभी मन्वन्तरोंके ऋषि एवं सूर्यादि ग्रह कर्मदेवताके रूपसे निवास करते हैं। ये ही उनके स्थान हैं, इसीसे उन्हें देव-गृह कहा जाता है। वे देव गृह उन्हों देवोंके नामसे प्रसिद्ध होते हैं सूर्य सौर नामक स्थानमें तथा चन्द्रमा सौम्य स्थानमें प्रवेश करते हैं। शुक्र शौक स्थानमें प्रवेश करते हैं, जो सोलह अरोंसे युक्त और अत्यन्त कान्तिमान् है। इसी प्रकार बृहस्पति बृहत्त्व स्थानमें, मंगल लोहित स्थानमें, शनैश्वर शनैश्वर स्थानमें, बुध बुधस्थानमें और राहु भानुस्थानमें प्रवेश करते हैं। सभी नक्षत्र नाक्षत्र स्थानमें प्रवेश करते हैं। इस प्रकार इन सभी ज्योतियोंको उन पुण्यात्माओंके देव गृह जानने चाहिये। ये सभी स्थान प्रलयपर्यन्त स्थित रहते हैं। सभी मन्वन्तरोंमें वे ही देवस्थान होते हैं। सभी देवता पुनः पुनः उन्हीं अपने-अपने स्थानों में निवास करते हैं। अतीतकालीन स्थानीय देवता अतीतकि साथ, भविष्यत्कालीन स्थानीय देवता भावी देवताओंक साथ और वर्तमानकालीन स्थानीय देवता वर्तमान देवताओंके साथ वर्तमान रहते हैं ।। 38- 45 ई ॥
अदिति के आठवें पुत्र विवस्वान् सूर्य देवता माने गये हैं। प्रभाशाली एवं धर्मात्मा चन्द्रदेव वसु कहे गये हैं। भृगुनन्दन शुक्रको, जो असुरोंके पुरोहित हैं, कर्मानुसार दैत्य समझना चाहिये।महर्षि के पुत्र परम तेजस्वी बृहस्पति देवकि आचार्य हैं। मनोहर रूपवाले बुध चन्द्रमा पुत्र है। शनैश्वर रूप कहे गये हैं। ये सूर्यके संयोगसे उत्पन्न हुए संज्ञाके पुत्र हैं। लाल रंगके अधिपति मंगल नवयुवक (माने गये) हैं। स्वयं अग्निदेव ही रूपमें विकेशी (भूमि) के गर्भसे उत्पन्न हुए थे। नक्षत्र नामवाली सत्ताईस नक्षत्राभिमानी देवियाँ दाक्षायणीकी कन्या मानी गयी हैं। राहु सिंहिकाका पुत्र है। यह सभी प्राणियोंको कष्ट देनेवाला राक्षस है। इस प्रकार सूर्य, चन्द्र, ग्रह और नक्षत्रोंके अभिमानी देवताओंका वर्णन किया गया। साथ ही उनके स्थान तथा स्थानी देवता भी बतलाये गये। सहस किरणधारी सूर्यका स्थान दिव्य, श्वेत वर्णवाला तथा अग्निके समान तेजस्वी है। चन्द्रमाका स्थान तैजस एवं जलमय है। बुधका स्थान जलमय है और वह सूर्यकी किरणरूपी गृहमें स्थित है। शुक्रदेवका स्थान सोलह किरणोंसे युक्त एवं जलमय है। मंगल नौ किरणोंसे युक्त हैं, उनका स्थान जलमय है। बृहस्पतिका स्थान बारह किरणोंसे युद्ध है और उसकी कान्ति हल्दीके समान पीली है। शनैश्चरका स्थान आठ किरणोंसे युक्त, प्राचीन, लौहमय एवं काले रंगका है। राहुका स्थान लोहेका बना है, वह प्राणियोंको कष्ट देनेवाला है। ताराएँ सुकृतीजनोंका आश्रय स्थान हैं। इनकी किरणें स्वर्णमयी हैं। जीवोंका निस्तार करनेके कारण ये तारका कहलाती हैं और शुक्लवर्ण होनेके कारण इनका शुक्ला भी नाम है ॥ 46-56 ll
सूर्यके व्यासका विस्तार नौ हजार योजन है और इनका सम्पूर्ण मण्डल इस (व्यास) से तिगुना अर्थात् सत्ताईस हजार योजन है। चन्द्रमाका विस्तार सूर्यके विस्तारसे दुगुना बतलाया जाता है। चन्द्रमाका सम्पूर्ण मण्डल विपुलतामें सूर्य मण्डलसे तिगुना है। सबके ऊपर तारकाओंके मण्डल हैं। उनका विस्तार आधे योजनका बतलाया जाता है। उनसे नीचे अन्य गणोंके स्थान हैं। राहु उनकी तुलनामें समान होते हुए भी उनके नीचेसे भ्रमण करता है। ब्रद्याद्वारा निर्मित वह तीसरा स्थान तमोमय है। उसे पृथ्वीकी छायाको ऊपर उठाकर मण्डलाकार बनाया गया है। राहु पूर्णिमा आदि पर्वोंमें सूर्यमण्डलसे निकलकर चन्द्रमण्डलमें चला जाता है और सूर्य-सम्बन्धी अमावास्या आदि पर्वोंमें पुनः चन्द्रमण्डलसे निकलकर सूर्यमण्डलमें चला आता है। वह अपनी कान्तिसे प्राणियोंको कष्ट पहुँचाता है, इसीलिये उसे स्वर्भानु कहते हैं।व्यास और बाह्यवृत्त— दोनोंके योजन- परिमाणमें शुक्रका परिमाण चन्द्रमाके सोलहवें भागके बराबर बतलाया जाता है। बृहस्पतिका परिमाण शुक्रके परिमाणसे एक चतुर्थांश कम जानना चाहिये। शनि और मंगल— ये दोनों प्रमाणमें बृहस्पतिसे चतुर्थाश कम बतलाये गये हैं। बुध इन दोनों ग्रहोंसे विस्तार और मण्डलमें चौथाई कम है। आकाशमण्डलमें तारा, नक्षत्र आदि जितने शरीरधारी हैं, वे सभी विस्तार और मण्डलके हिसाबसे बुधके समकक्ष हैं। तारा और नक्षत्र परस्पर एक-दूसरेसे कम हैं ॥57-66 ।। इस प्रकार उन सभी ज्योतिर्गणोंका मण्डल पाँच, चार, तीन, दो अथवा एक योजनमें विस्तृत है। तारकाओंके मण्डल सबसे ऊपर हैं। उनका प्रमाण आधा योजन है। इनसे कम विस्तारवाला अन्य कोई नहीं है। इनके ऊपर जो क्रूर और सात्विक ग्रह स्थित हैं, उन्हें शनैश्वर, बृहस्पति और मंगल समझना चाहिये। ये सभी मन्द गतिवाले हैं। इनके नीचे चन्द्र, सूर्य, बुध और शुक्र—ये चार अन्य महान् ग्रह विचरण करते हैं। ये सभी शीघ्रगामी हैं। जितने नक्षत्र हैं, उतने ही करोड़ तारकाएँ हैं सूर्य सभी ग्रहोंके निचले भागमें गमन करते हैं। सूर्यके ऊपरी भागमें चन्द्रमा अपने मण्डलको विस्तृत करके चलते हैं। नक्षत्रमण्डल चन्द्रमासे ऊपर भ्रमण करता है। इसी प्रकार नक्षत्रोंसे ऊपर बुध, बुधसे ऊपर शुक्र, शुक्रसे ऊपर मंगल, मंगलसे ऊपर बृहस्पति और देवाचार्य बृहस्पतिके ऊपर शनैश्वर स्थित है। शनैश्चरसे ऊपर सप्तर्षि मण्डलको जानना चाहिये। सप्तर्षियोंसे ऊपर ध्रुव हैं और ध्रुवसे ऊपर सारा आकाशमण्डल है। नक्षत्रमण्डलसे ऊपर प्रत्येक ग्रह दो लाख योजनोंके अन्तरपर स्थित है। ताराओं और ग्रहोंके अन्तर परस्पर एक-दूसरेके ऊपर स्थित हैं। आकाशमण्डलमें सूर्य, चन्द्रमा और ग्रहगण दिव्य तेजसे युक्त हो निश्चित क्रमानुसार चलते हुए नक्षत्रोंसे मिलते हैं ॥ 67-763 ।।
चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह और नक्षत्र अपने-अपने नीचे ऊँचे गृहोंमें स्थित होते हैं। इसी क्रमसे इनका समागम और वियोग भी होता है। उस अवसरपर सभी प्राणी इन्हें | एक साथ देखते हैं। इस प्रकार स्थित रहकर ये परस्परसंयुक्त होते हैं। विद्वान्लोग इनके इस सम्बन्धको अमिश्रित ही मानते हैं। इसी प्रकार पृथ्वी, ज्योतिर्गणों, द्वीप, समुद्र, पर्वत, वर्ष, नदी तथा उनमें निवास करनेवाले प्राणियोंकी स्थिति है। ज्योतिर्गणोंका यह स्थितिक्रम सूर्यके कारण ही है। (मण्डलाकार घूमते समय) उन गणोंके मध्यमें आवर्त-सा दीख पड़ता है। वह बीचमें ध्रुवके आ जानेसे संक्षिप्त हो जाता है। वह चारों ओर ऊँचाईपर गोलाकार फैला रहता है। परमेश्वरने लोकोंकी प्रयोजन-सिद्धिके लिये उसे बनाया है। ब्रह्माने कल्पके आदिमें बहुत सोच विचारकर इसे स्थापित किया है। इस प्रकार यह सम्पूर्ण ज्योतिर्मण्डलकी स्थिति है। प्रधान (प्रकृति) - का यह विश्वरूप परिणाम अत्यन्त अद्भुत है। कोई भी इसकी यथार्थ गणना नहीं कर सकता। मनुष्य अपने चर्मचक्षुओंसे इन ज्योतिर्गणोंके गमनागमनको नहीं देख सकता ।। 77- 84 ॥