ऋषियोंने पूछा-सूजी गृहस्थादि आश्रमोंमें सभी युगोंमें क्रियायोगकी सिद्धि किस प्रकार सम्भव है, क्योंकि क्रिया (भक्ति) योगको हजारों ज्ञान-योगकी अपेक्षा विशिष्ट माना गया है ॥ 1 ॥ सूतजी कहते हैं ऋपियो। अब में देवार्थकथनरूप | क्रियायोगका वर्णन कर रहा हूँ। यह भोग और मोक्ष-— दोनोंको देनेवाला है तथा भूलोकके अतिरिक्त इसकी अन्य लोकोंमें सत्ता नहीं है। इन देवताओंकी प्रतिमा प्रतिष्ठा के प्रसङ्ग-क्रममें प्रतिमा निर्माण और उनके अङ्गभूत यहकी विधि भी निर्दिष्ट है, जिसके अनुष्ठानसे प्राणी बन्धनसे मुक्त हो जाता है। अब भगवान् विष्णुकी जैसी प्रतिमा श्रेष्ठ मानी जाती है उसका वर्णन कर रहा हूँ। उनकी प्रतिमाका रूप शान्त हो, हाथोंमें शङ्ख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण किये हुए हो, उसका सिर छत्रके समान गोल, गला शङ्खके समान, आँखें सुन्दर नासिका कुछ ऊँची, कान सीपी सदृश, भुजाएँ विशाल और ऊरु प्रशान्त चढ़ाव उतारवाले होने चाहिये। विष्णु भगवान्की प्रतिमा कहीं तो आठ भुजाओंवाली होती है और कहीं चार भुजाओंवाली किंतु गृहस्थको अपने भवनमें दो भुजाओंकी (विष्णु) प्रतिमा पुरोहितद्वारा स्थापित करानी चाहिये। अष्टभुज मूर्तिमें आयुधोंके यथास्थान क्रमको सुनिये भगवान् श्रीहरिके दाहिनी ओरके चार हाथोंमें क्रमशः (नीचेसे ऊपरकी ओर) खड्ग, गदा, बाण और कमल तथा बायें हाथमें क्रमश: (नीचेसे ऊपर) धनुष, ढाल, शङ्ख और चक्र स्थापित करना चाहिये। अब चतुर्भुजमूर्तिके हाथोंमें आयुधकी स्थिति बतला रहा हूँ। समृद्धिको इच्छा रखनेवालेको भगवान् वासुदेवकी प्रतिमामें दाहिनी ओरके दोनों हाथोंमें क्रमशः नीचेसे ऊपर गदा और पद्म तथा बायीं ओर क्रमशः नीचेसे ऊपर शङ्ख और चक्र रखना चाहिये। कृष्णावतारकी प्रतिमामें बायें हाथमें गदा ठीक मानी गयी है। दाहिने हाथमें स्वेच्छानुसार शङ्ख और चक्रको ऊपर-नीचे रखना चाहिये ॥ 2-10॥विष्णु भगवान् के दोनों चरणोंके मध्यमें नीचेकी ओर पृथ्वीको मूर्ति और दाहिनी ओर प्रणाम करते हुए गरुड़की मूर्ति रखनी चाहिये। बायीं ओर हाथमें कमल लिये हुए सुन्दर मुखवाली लक्ष्मीकी स्थापना करनी चाहिये। कल्याणकामी पुरुष गरुड़को आगे भी स्थापित कर सकता है। प्रतिमाके दोनों ओर हाथमें कमल लिये श्री और पुष्टिकी मूर्ति भी बनानी चाहिये प्रतिमाके ऊपर विद्याधरोंसे चित्रित गोलाकार तोरणका निर्माण करना चाहिये। देवताओंके नगाड़े बजाते हुए गन्धर्व-दम्पत्तिको भी वहाँ चित्रित करना चाहिये। साथमें वहीं यह लता और पत्तोंसे युक्त कल्पलतासे समन्वित हो और व्याघ्र सिंहोंकी भी प्रतिमासे सम्पन्न स्तुति करते हुए बड़े बड़े देवगण सामने खड़े हों। इस प्रकार विष्णुकी प्रतिमा हो तथा प्रतिमाकी पीठिकाका विस्तार प्रतिमामानके तृतीयांशसे निर्मित हो। देवता, दानव तथा किन्नरोंकी प्रतिमा नौ ताल परिमाणको होनी चाहिये। अब मैं कौन सी प्रतिमा कितनी ऊँची, नीची, मोटी और लम्बी हो, यह बतलानेके लिये मापविवरण बतला रहा हूँ। जालीके भीतरसे सूर्यकी किरणोंके प्रविष्ट होनेपर जो उड़ता धूलिकण स्पष्ट दिखायी पड़ता है, उसे 'त्रसरेणु' कहते हैं। इन आठ असरेणुओंके बराबर एक बालाग्र होता है उससे आठगुने बड़े आकारके पदार्थकी लिख्या और आठ लिख्याकी एक यूका होती है। आठ यूकाका एक यव और आठ यवोंके मापका एक अंगुल होता है। अपनी अंगुलीके परिमाणसे बारह अंगुलका मुख होता है और मुखके परिमाणानुसार ही देवताके सभी अवयवोंकी कल्पना करनी चाहिये ॥ 11-19 ॥
देव-प्रतिमा सुवर्ण, चाँदी, ताँबा, रत्न, पत्थर, देवदार, लोहा-सीसा, पीतल, तांबा और कांसमिश्रित अथवा शुभ काशोंकी बनी हुई प्रशस्त मानी गयी है। गृहस्थोंके घरोंमें अंगूठे के एक पर्वसे लेकर एक बीते प्रमाणमात्र ही प्रतिमा स्थापित करनी चाहिये क्योंकि विद्वानोंने इससे बड़ीको गृहस्थके लिये प्रशस्त नहीं माना है।किंतु देवमन्दिरोंमें सोलह बीतेतककी प्रतिमा प्रतिष्ठित की जा सकती है, पर उससे बड़ी वहाँ भी नहीं। इन प्रतिमाओंको अपनी आर्थिक स्थितिके अनुसार उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ कोटिकी बनानी चाहिये। मन्दिरके प्रवेशद्वारको जो ऊँचाई हो उसे आठ भागों में विभक्त कर दे उसमें एक भाग छोड़कर शेष दो भागोंसे प्रतिमा बनवाये। फिर उन दो भागोंको संख्याको तीन भागोंमें विभक्त कर दे। उसके एक भागके बराबर पीठिका 1 बनाये वह न बहुत ऊँची हो, न बहुत नीची फिर प्रतिमाके मुखमानको नौ भागों में विभक्त करे। उसमें चार अङ्गलमें ग्रीवा तथा एक भागके द्वारा हृदय होना चाहिये। उसके नीचेके एक भागमें सुन्दर नाभि बनानी चाहिये। वह गहराई और विस्तारमें एक अंगुलकी कही गयी है। नाभिके नीचे एक भागमें लिंग, दो भागों में विस्तृत ऊरु, चार अंगुलमें घुटने, दो भागसे जंघे और चार अंगुलके पैर हो उसी प्रकार मूर्तिका सिर चौदह अंगुलका बनाना चाहिये यह तो मूर्तिको ऊँचाई बतायी गयी, अब उसकी मोटाई सुनिये। ब्राह्मणगण! अब क्रमशः सभी अवयवोंका विस्तार सुनिये ॥ 20-30 ॥ प्रतिमाके ललाटको मोटाई चार अंगुल, नासिकाकी चार अंगुल दाढ़ीकी दो अंगुल और ओठकी भी दो अंगुल जाननी चाहिये। यदि ललाटका विस्तार आठ अंगुल हो तो उतनेमें ही दोनों भौहोंको भी बनानी चाहिये भौंहोंकी रेखा आधे अंगुलको हो। वह बीचमें धनुषाकार हो। दोनों छोरोंपर उसके अग्रभाग उठे हुए हों, बनावट चिकनी तथा सुन्दर होनी चाहिये। आँखोंकी लम्बाई दो अंगुल, चौड़ाई एक अंगुल, उनके मध्य भागमें ऊंची रखाभ एवं शुभ लक्षणोंसे युक्त पुतलियाँ होनी चाहिये। तारकाके आधे भागसे पाँचगुनी दृष्टि बनानी चाहिये। दोनों भौहोंके मध्य में दो अंगुलका अन्तर रखना चाहिये, नासिकाका मूलभाग एक अंगुल में रहे। इसी प्रकार नीचे की ओर झुकी हुई नासिकाके अग्रभाग एवं दोनों पुटोंको बनाना चाहिये। नासिकाके पुटोंके छिद्र आधे अंगुलके बताये गये हैं। कपोल दो अंगुलके हों जो कानकि मूल भागतक विस्तृत हों।ठुड्डीका अग्रभाग एक अंगुलमें तथा विस्तार दो अंगुलमें होना चाहिये। आधे अंगुलमें भौंहोंकी रेखा होनी चाहिये, जोप्रणालीके समान हो। नीचे तथा ऊपरके ओठ आधे आधे अंगुलके हों। उसी प्रकार नासिकाके दोनों पुट निष्पाव (सेमके बीज) के तुल्य मापके बनाये जायें। ओठके बगलमें मुखका कोना और नेत्र ज्योति दोनों समान आकारका हों और कानके मूलसे छ: अंगुल दूरपर बनावे। दोनों कानोंकी बनावट भाँहोंके समान हो और उनकी ऊँचाई चार अंगुलकी हो। कानोंके पार्श्वभाग दो अंगुलके हों और उनका विस्तार एक अंगुल मात्रका हो। दोनों कानोंके ऊपर मस्तकका विस्तार बारह अंगुलका होना चाहिये ॥ 31-40 ॥
ललाटके पीछेका आधा भाग अठारह अंगुलका कहा गया है और इसके मस्तकतकका विस्तार छत्तीस अंगुल होता है। केश समूहका विस्तार बयालीस अंगुलका होता है। केशोंके अन्तर्भागसे दाढ़ीतकका विस्तार सोलह अंगुलका होता है। दोनों कंधोंका विस्तार चौबीस अंगुलका हो। ग्रीवाकी मोटाई आठ अंगुलकी उत्तम मानी गयी है। ब्रह्माने स्तन और ग्रीवाका मध्यभाग एक तालके बराबर बताया है। दोनों स्तनोंमें बारह अंगुलका अन्तर माना जाता है। स्तनोंके मण्डल दो अंगुल कहे गये हैं। दोनों चूचुक उस मण्डलके भीतर यवके बराबर बताये जाते हैं। वक्षःस्थलकी चौड़ाई दो ताल कही गयी है। दोनों कक्ष बाहु (भुजा) और स्तनके मध्यमें छः अंगुलके होने चाहिये। दोनों पैर चौदह अंगुल तथा उनके अँगूठे तीन अँगल हों। अँगूठेका अग्रभाग उन्नत होना चाहिये और उसका विस्तार पाँच अंगुलका हो। उसी प्रकार अँगूठेके समान ही प्रदेशिनी अंगुलीको भी लम्बी बनाना चाहिये। उससे सोलहवें अंशसे अधिक मध्यमा अंगुली हो, अनामिका मध्यमा अंगुलीकी अपेक्षा आठवाँ भाग न्यून हो और अनामिकासे आठवें भागमें न्यून कनिष्ठिका हो। इन दोनों अंगुलियोंमें तीन पर्व बनाने चाहिये। पैरोंकी गाँठ दो अंगुलकी मानी गयी है। दोनों एड़ियाँ दो-दो अंगुलमें रहनी चाहिये, किंतु गाँठकी | अपेक्षा इसमें एक कला अधिक रहे। अँगूठेमें दो पोर बनने चाहिये, उसका विस्तार दो अंगुलका हो प्रदेशिनीका विस्तार तीन अंगुलका बताया गया है। द्विजगण! कनिष्ठिका क्रमशः आठवें भागसे कम रहे।विशेषतया अँगूठेकी मोटाई एक अंगुलकी हो। शेष अंगुलियोंकी मोटाई उसके आधे भागके तुल्य रखनी चाहिये ।। 41-52 ll
जाँघके आगे के भाग चौदह अंगुल और मध्यभाग अठारह अंगुल रहे। घुटनेका मध्यभाग इक्कीस अंगुलका हो घुटनेकी ऊँचाई एक अंगुल तथा मण्डल तीन अंगुल विस्तृत हो। ऊरुओंका मध्यभाग अट्ठाईस अंगुल हो । इसके एकतीस अंगुल ऊपर अण्डकोश तीन अंगुल और लिंग दो अंगुल हो तथा उसका विस्तार छ: अंगुल हो । मणिबन्धसे नीचे केशोंकी रेखा रखनी चाहिये। मणिकोशका विस्तार चार अंगुलका हो। कटिप्रदेशका विस्तार अठारह अंगुल हो। स्त्रियोंकी मूर्तिमें कटिका विस्तार बाईस अंगुलका तथा स्तनोंका बारह अंगुल होना चाहिये। नाभिका मध्यभाग बयालीस अंगुलका होना चाहिये। पुरुषके कटिप्रदेश पचपन अंगुल तथा दोनों कक्षोंके ऊपर छः अंगुलके स्कन्धोंके बनानेकी विधि है। आठ अंगुलके विस्तारमें ग्रीवाका निर्माण कहा गया है और इसकी लम्बाई बारह कलाकी होनी चाहिये ॥ 53-60 ॥
दोनों भुजाओंको लम्बाई बयालीस अंगुल हो । बाहुके मूलभाग सोलह अंगुलके होने चाहिये। बाहुके ऊपरी अंशतक अठारह अंगुल होना चाहिये। दूसरा पर्व (पोर) इसकी अपेक्षा एक अंगुल कम कहा गया है। वाहुके मध्यभागका विस्तार अठारह अंगुल तथा नीचेका हाथ (करतलके पूर्वतक) सोलह अंगुलका कहा गया है। हाथके अग्रभागका मान छः कलाका माना गया है। हथेलीका विस्तार सात अंगुल हो और उसमें पाँच अंगुलियाँ बनी हों। अनामिका अंगुली मध्यमाकी अपेक्षा सप्तमांश कम रहती है। कनिष्ठा उससे भी पञ्चमांश न्यून तथा मध्यमाके पाँचवें भागसे न्यून तर्जनी होनी चाहिये। अंगूठा तर्जनीके उद्गमसे नीचा होना चाहिये, किंतु लम्बाई में उतना ही होना चाहिये। अंगूठेका विस्तार चार अंगुलका जानना चाहिये। शेष अंगुलियोंके विस्तार क्रमशः एक-एक भागसे न्यून होते हैं। मध्यमा अंगुलीके पोरोंकेमध्यभागमें दो अंगुलका अन्तर रहना चाहिये। इसी प्रकार अन्य अंगुलियोंके पोरोंमें एक-एक यवकी कमी होती जाती है। अंगूठेके पोरोंका मध्यभाग तर्जनीके समान ही रहना चाहिये। अगला पोर दो यवसे अधिक कहा गया । अंगुलियोंके पर्वार्धमें नखोंको चिकना, सुन्दर तथा आगेकी ओर कुछ लालिमायुक्त बनाना चाहिये। मध्यभागमें पीछेकी ओर कुछ नीचा तथा बगलमें अंशमात्र ऊँचा बनावे। उसी प्रकार कंधोंके ऊपर दस अंगुलमें केशोंकी बल्लीका निर्माण करना चाहिये। स्त्री प्रतिमाओंको कुछ पतली तथा उनके स्तन, ऊरु एवं जाँघोंको स्थूल बनाना चाहिये। उनके उदरप्रदेशकी लम्बाई चौदह अंगुल तथा वे अनेक आभूषणोंसे विभूषित हों और उनकी भुजाओंको कुछ मृदु एवं मनोहर | आकृतियुक्त बनाना चाहिये। मुखाकृति अपेक्षाकृत लम्बी हो। अलकावलि उत्तम ढंगसे रचित हो। नासिका, ग्रीवा और ललाट साढ़े तीन अंगुल होने चाहिये। अधर | पल्लवोंका विस्तार आधे अंगुलका प्रशस्त माना गया है। दोनों नेत्र अधर-पल्लवोंसे चार गुने अधिक होने चाहिये। ग्रीवाकी वलि आधे अंगुलकी ऊँची बनानी चाहिये। इस | प्रकार सभी देवताओंकी प्रतिमाओं एवं स्त्री-प्रतिमाओंके निर्माणमें नौ तालका परिमाण बतलाया गया है, जो समस्त | पापोंको नष्ट करनेवाला कहा गया है ॥ 61-75॥