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मत्स्य पुराण (मत्स्यपुराण)

Matsya Purana (Matsyapurana )

अध्याय 150 - Adhyaya 150

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देवताओं और असुरोंकी सेनाओंमें अपनी-अपनी जोड़ीके साथ घमासान युद्ध, देवताओंके विकल होनेपर भगवान् विष्णुका युद्धभूमिमें आगमन और कालनेमिको परास्त कर उसे जीवित छोड़ देना

सूतजी कहते हैं-ऋषिगण । तदनन्तर ( रणभूमिमें असुर सेनानी) ग्रसनको सम्मुख उपस्थित देखकर यमराज क्रोधसे क्षुब्ध हो उठे। उन्होंने ग्रसनके ऊपर अग्निके समान तेजस्वी वाणोंकी वर्षा प्रारम्भ कर दी। अत्यन्त पराक्रमी ग्रसन भी बहुसंख्यक बाणोंके प्रहारसे घायल होकर भयंकर धनुषको प्रत्यचा चढ़ाकर अत्यन्त भीषण पाँच सौ बाणोंसे यमराजको बींध डाला। उन | बाणोंके आघातसे ग्रसनके प्रबल पुरुषार्थका भलीभाँति विचार कर यमराज पुनः घोर बाणवृष्टिद्वारा ग्रसनको | पीड़ा पहुँचाने लगे। तब दानवेश्वर ग्रसनने गगनमण्डलमें फैलती हुई यमराजकी उस बाणवृष्टिको अपने वाणोंकी वर्षासे छिन्न-भिन्न कर दिया। इस प्रकार अपनी उस बाणवृष्टिको विफल हुई देखकर यमराज अपने बाणसमूहोंके विषयमें विचार करने लगे। तत्पश्चात् उन्होंने उस ग्रसनके रथपर बड़े वेगसे अपना भयंकर मुद्रर फेंका। उस मुद्ररको अपनी ओर आते देख दानवनन्दन ग्रसनने रथसे उछलकर ऊपर-ही-ऊपर | यमराजके उस मुद्गरको बायें हाथसे पकड़ लिया और उसी मुगरको लेकर क्रोधपूर्वक बड़े वेगसे यमराजके भैंसेपर दे मारा, जिसके आघातसे वह धराशायी हो गया। तब यमराज उस गिरते हुए भैंसेकी पीठसे उछलकर अलग हो गये। फिर तो उन्होंने भालेसे ग्रसनके मुखपर गहरी चोट पहुँचायी। तब भालेके प्रहारसे मूच्छित होकर ग्रसन भूतलपर गिर पड़ा। ग्रसनको धराशायी हुआ देखकर भयंकर पराक्रमी जम्भने भिन्दिपाल (ढेलवाँस) से यमराजके हृदयपर प्रहार किया। उस प्रहारसे घायल होकर यमराज मुखसे खून उगलने लगे ॥ 111 ॥ इस प्रकार यमराजको घायल हुआ देखकर धनेश्वर कुबेरने हाथमें गदा लेकर दस लाख यक्षोंके साथ क्रोधपूर्वक जम्भपर धावा किया।तब क्रोधपूर्वक कुबेरको आक्रमण करते देखकर दानवोंकी सेनासे घिरा हुआ बुद्धिमान् जम्भ प्रेमीद्वारा कही गयी मधुर वाणीकी तरह वचन बोला इतनेमें ही ग्रसनकी चेतना लौट आयी। फिर तो उसने यमराजपर ऐसी गदाका प्रहार किया, जो बड़ी वजनदार थी, जिसमें मणि और सुवर्ण जड़े हुए थे तथा जो शत्रुओंका विनाश करनेवाली थी। उस अप्रत्याशित गदाको अपनी ओर आती देखकर महिषवाहन यमराजने क्रोधपूर्वक उस गदाका प्रतिरोध करनेके लिये अपने उस दण्डको छोड़ दिया, जो संसारका विनाश करनेमें समर्थ और अत्यन्त भयंकर था तथा जिससे अग्निके समान लपटें निकल रही थीं। वह दण्ड आकाशमें गदासे टकराकर मेघकी सी गर्जना करने लगा। फिर तो दण्ड और गदामें दो पर्वतोंकी भाँति दुःसह संघर्ष छिड़ गया। उन दोनों अस्त्रोंके टक्करसे उत्पन्न हुए शब्दसे सारी दिशाएँ जड़ हो गर्यो और जगत् प्रलयके आगमनकी आशङ्कासे व्याकुल हो गया। क्षणमात्र पश्चात् शब्द शान्त हो गया और उन दोनोंके मध्य जलती हुई उल्काके समान प्रकाश होने लगा। उन दोनोंके संघर्षसे आकाशमण्डल अत्यन्त भयंकर दीख रहा था। तदनन्तर दण्डने गदाको तोड़-मरोड़कर ग्रसनके मस्तकपर ऐसा कठोर आघात किया, जैसे दुराचारीका अनिष्ट उसकी श्रीका नाश करके उसे समाप्त कर देता है। उस प्रहारसे व्याकुल हुए ग्रसनको सारी दिशाएँ अन्धकारमयी दिखायी देने लगी अर्थात् उसकी आँखों-तले अँधेरा छा गया। वह चेतनारहित होकर भूतलपर गिर पड़ा और उसका शरीर पृथ्वीकी धूलसे धूसरित हो गया। तत्पश्चात् दोनों सेनाओंमें भयंकर हाहाकार मच गया ॥ 12-21 ॥

तदनन्तर दो घड़ीके पश्चात् जब ग्रसनकी चेतना वापस लौटी तब उसने देखा कि उसका शरीर ध्वस्त हो गया है और उसके आभूषण तथा वस्त्र अस्त व्यस्त हो गये हैं। फिर तो वह भी ऐसा करनेवालेसे बदला चुकानेका विचार करने लगा। वह मन-ही-मन सोचने लगा- मुझ जैसे बली पुरुषके जीते-जी स्वामीके | परिभवके लक्षण दिखायी पड़ रहे हैं मेरे पराजित हो जानेपर मेरे आश्रित रहनेवाली सेनाएँ भी नष्ट हो | जायँगी। अयोग्य पुरुष ही स्वछन्दाचारी हो सकता है,किंतु जो पुरुष सैकड़ों बार योग्य घोषित किया जा चुका है, वह स्वच्छन्द नहीं हो सकता। (अर्थात् जिसकी जगत्में कोई प्रतिष्ठा नहीं है, वह स्वेच्छानुसार कार्य कर सकता है, किंतु जो सैकड़ों बार लब्धप्रतिष्ठ हो चुका है, उसे स्वामीके अधीन रहकर ही कार्य करना चाहिये।) ऐसा विचारकर महाबली ग्रसन वेगपूर्वक उठ खड़ा हुआ। उसका शरीर पर्वतके समान विशाल था। वह भयंकर विचारसे युक्त था और क्रोधवश दाँतोंसे होंठको दबाये हुए था। इस प्रकार वह शीघ्रतापूर्वक रथपर सवार हो हाथमें कालदण्डके सदृश मुद्रर लेकर रणभूमिमें यमराजके निकट आ पहुँचा। युद्धस्थलमें यमराजके सम्मुख आकर ग्रसनने उस भयानक मुगरको बड़े वेग से घुमाकर यमराजके मस्तकपर फेंक दिया। उस प्रकाशमान मुद्ररको आते हुए देखकर यमराजके नेत्र चकमका गये। तत्पश्चात् महाबली यमराजने अपने स्थानसे हटकर उस दुर्धर्ष मुद्ररको लक्ष्यसे वञ्चित कर दिया। यमराजके दूर हट जानेपर उस मुद्ररने यमराजके हजारों पराक्रमी एवं भयंकर कर्म करनेवाले किंकरोंको पीस डाला। तत्पश्चात् उस भयंकर किंकर-सेनाको मारी गयी देखकर यमराजको परम क्षोभ हुआ। तब वे नाना प्रकारके अस्त्रोंका प्रहार करनेके लिये उद्यत हो गये ॥ 22-30 3 ॥

उधर ग्रसनने उस सेनाको किकरोंसे व्याप्त देखकर | ऐसा समझा कि यमराजकी मायाद्वारा रचे गये ये हजारों यमराज ही हैं। फिर तो ग्रसन सेनाको रोककर उसपर अस्त्रोंको वृष्टि करने लगा। उस समय वह कल्पान्तके समय क्षुब्ध हुए भयंकर समुद्रकी भाँति क्रोधसे विह्वल हो उठा था उसने कुछ किंकरोंको त्रिशूलसे और कुछको सीधे जानेवाले बाणोंसे विदीर्ण कर दिया। कुछको गढ़के प्रहारसे और कुछको मुद्रोंकी वर्षा पीस डाला। कुछ भयंकर भालोंके प्रहारसे घायल कर दिये गये। दूसरे बहुत से उसकी बाहुओंपर लटके हुए थे। इधर किंकरोंमेंसे बहुत से लोग शिलाओंद्वारा | तथा अन्य कुछ लोग ऊँचे-ऊँचे वृक्षोंद्वारा ग्रसनपरप्रहार कर रहे थे। कुछ उसके शरीराङ्गोंमें दाँतोंसे काट रहे थे। दूसरे किंकर उसकी पीठपर मुक्केसे प्रहार कर रहे थे। इस प्रकार घोरकर्मा किंकरोंद्वारा पीछा किये जानेपर ग्रसन अत्यन्त क्रुद्ध हो गया। उसने अपने शरीरको भूतलपर गिराकर हजारों किंकरोंको उसके नीचे पीस डाला। फिर उठकर कुछ किंकरोंको मुक्कैसे पीटकर मौतके घाट उतार दिया। इस प्रकार किंकरोंके साथ युद्ध करनेसे ग्रसन थकावटसे चूर हो गया था। तब ग्रसनको थका हुआ तथा अपनी सेनाको मारी गयी | देखकर महिषवाहन यमराज हाथमें दण्ड लेकर आ पहुँचे। ग्रसनने सम्मुख आये हुए यमराजके वक्षःस्थलपर गदासे प्रहार किया। तब शत्रुसूदन यमराजने ग्रसनके उस प्रहारकी कुछ भी परवाह न कर उसके रथके अग्रभागमें जुते हुए बाघोंपर क्रोधपूर्वक दण्डसे प्रहार किया। उस दण्डप्रहारसे आधे बाघोंके मारे जानेपर वह रथ आधे बाघोंद्वारा ही खींचा जा रहा था ॥ 31-41 ।।

उस समय दैत्यराज ग्रसनका वह रथ पुरुषके संशयग्रस्त चित्तकी भाँति अस्थिर हो गया था। अतः दैत्यराज ग्रसन रथको छोड़कर भूतलपर आ गया और पैदल ही आगे बढ़कर यमराजको दोनों भुजाओंसे पकड़कर युद्ध करने लगा। तब यमराज भी शस्त्रोंको छोड़कर बाहुयुद्धमें प्रवृत्त हो गये। बलाभिमानी प्रसन यमराजके कमरबंदको पकड़कर उन्हें घूमते हुए दीपककी भाँति वेगपूर्वक घुमाने लगा। तब यमराज भी अपनी दोनों भुजाओंसे दैत्यके गलेको पकड़कर उसे वेगपूर्वक भूतलसे ऊपर खींचकर बड़ी देरतक घुमाते रहे। तत्पश्चात् वे दोनों परस्पर एक-दूसरेको पीड़ित करते हुए मुक्कोंसे प्रहार करने लगे। उस समय दैत्येन्द्र ग्रसनके विशालकाय होनेके कारण यमराजकी भुजाएँ शिथिल हो गयीं। तब वे उस दैत्यके कंधेपर अपना मुख रखकर विश्राम करनेकी | इच्छा करने लगे। यमराजको इस प्रकार थका हुआ देखकरग्रसन उन्हें बलपूर्वक पृथ्वीपर पटककर बारम्बार रगड़ने लगा और पैरोंकी ठोकरों और घूँसोंसे तबतक मारता रहा, जबतक यमराजके मुखसे बहुत-सा रक्त बहने लगा। तत्पश्चात् दानवराजने यमराजको प्राणहीन देखकर उन्हें छोड़ दिया। फिर गम्भीर गर्जना करनेवाला दैत्यराज ग्रसन विजयी होकर सिंहनाद करता हुआ अपनी सेनामें पहुँचकर पर्वतकी भाँति अटल होकर खड़ा हो गया । ll 42 - 49ई ॥

उधर क्रोधसे भरे हुए जम्भने अपने मर्मभेदी बाणोंद्वारा कुबेरके सारे मार्ग (दिशाएँ) अवरुद्ध कर दिये और उनकी सेनाको काटना आरम्भ किया। यह देखकर धनेश क्रोधसे भर उठे। उन्होंने युद्धभूमिमें अग्निके समान वर्चस्वी एक हजार बाणोंसे दानवराज जम्भके हृदयको बींध दिया। फिर सौ बाणोंसे सारथिको, दस बाणोंसे ध्वजको, पचहत्तर बाणोंसे उसके दोनों हाथोंको, दस बाणोंसे धनुषको एक बाणसे (उसके वाहन) सिंहको और दस तीखे बाणोंसे पुनः उस दानवराजको बींध दिया। इन सब बाणोंमें मोरके पंख लगे हुए थे तथा ये तेलमें डालकर साफ किये हुए और सीधे लक्ष्यवेध करनेवाले थे। धनेशके उस अत्यन्त दुष्कर कर्मको देखकर जम्भका मन कुछ भयभीत हो उठा। फिर उसने हृदयमें धैर्य धारण कर शत्रुओंके मर्मको विदीर्ण करनेवाले तीखे बाणोंको हाथमें लिया। उस समय दानवराज जम्भ क्रोधसे भरा हुआ था। उसने अपने धनुषको कानतक खींचकर तीखे बाणोंसे कुबेरके वक्षःस्थलको बाँध दिया। फिर उनके सारथिके हृदयपर एक सुदृढ़ बाणसे आघात किया और तेलमें सफाये हुए एक बाणसे उनकी प्रत्यञ्चाको काट दिया। तदनन्तर क्रूरकर्मा दानवराज जम्भने तीखे एवं मर्मभेदी दस भयंकर बाणोंसे कुबेरके वक्षःस्थलको पुनः घायल कर दिया। तब बुरी तरह घायल हुए कुबेर मूच्छित हो गये। क्षणमात्रके बाद कुबेरकी मूर्च्छा भंग हुई, तब उन्होंने धैर्य धारणकर अपने भयंकर धनुषको वेगपूर्वक खींचकर हजारों तीखे बाणोंकी वर्षा करते हुए दिशाओं, विदिशाओं, आकाश, पृथ्वी औरअसुरकी सेनाओंको ढक दिया। यहाँतक कि उस बाणवर्षासे सूर्यमण्डल भी आच्छादित हो गया ॥ 50–60 3 ॥

तब शीघ्रतापूर्वक बाण संधान करनेवाले जम्भने भी युद्धस्थलमें परम पुरुषार्थ प्रकट करके कुबेरके एक-एक बाणको बहुसंख्यक बाणोंसे काट गिराया। दानवेन्द्रके उस | कर्मको देखकर धनेश अत्यन्त कुपित हो उठे तब वे नाना प्रकारके बाणोंकी वृष्टि करके उसकी सेनाका विध्वंस करने लगे। कुबेरके दुष्कर कर्मको देखकर दानवराज जम्भने लौहनिर्मित एवं स्वर्णजटित भयंकर मुगरको लेकर कुबेरके अनुचर हजारों यक्षोंको चकनाचूर कर दिया। दैत्यद्वारा मारे जाते हुए वे सभी यक्ष भयंकर चीत्कार करते हुए कुबेर के रथको घेरकर खड़े हो गये। उन यक्षोंको दुःखी देखकर कुबेरने अपना भीषण त्रिशूल हाथमें लिया और उससे शीघ्र ही हजारों दैत्योंको मौतके हवाले कर दिया। इस प्रकार दैत्योंका विनाश होते देखकर दानवराज जम्भ क्रोधसे भर गया और उसने देवताओंका मर्दन करनेवाले तेज धारसे युक्त फरसेसे कुबेरके महान् रथको उसी प्रकार तिल-तिल करके काट डाला, जैसे चूहा रेशमी वस्त्रको कुतर डालता है। इससे कुबेर परम क्रुद्ध हो उठे, तब उन्होंने पैदल ही अपनी उस भयंकर गदाको, जो बड़े-बड़े युद्धोंमें गर्वीले शत्रुओंका विनाश करनेवाली, सभी प्राणियोंके लिये अधृष्य, बहुत वर्षोंसे पूजित, नाना प्रकारके चन्दनोंके अनुलेपसे युक्त, दिव्य पुष्पोंसे सुवासित, निर्मल लौहकी बनी हुई, वजनदार, अमोघ और स्वर्णभूषित थी, हाथमें लेकर जम्भके मस्तकको लक्ष्य बनाकर छोड़ दिया ॥ 61-71 ॥

विद्युत्समूहसे विभूषित-जैसी उस गदाको अपनी ओर आती देखकर दैत्यराज जम्भ उसको नष्ट करनेके लिये बाणोंकी वृष्टि करने लगा। यद्यपि प्रचण्ड पराक्रमी जम्भ स्वर्णनिर्मित बाजूबन्दोंद्वारा विभूषित भुजाओंसे चक्रों, कुणपों, भालों, भुशुण्डियों और पट्टिशोंका प्रहारकर रहा था तथापि चमकती हुई वह भयंकर गदा उन सभी आयुधोंको विफल कर जम्भके वक्षःस्थलपर उसी प्रकार गिरी, मानो पर्वतकी कन्दरामें विशाल उल्का आ गिरी हो। उस गदाके आघातसे अत्यन्त घायल हुआ जम्भ रथके कूवरपर गिर पड़ा। उसके शरीर के छिद्रोंसे खूनको धारा बहने लगी, जिससे वह चेतनारहित हो गया ॥ 72-75 ।।

जम्भको मरा हुआ समझकर भयंकर गर्जना करनेवाला क्रोधी कुजम्भ कुबेरके वाक्यसे अत्यन्त कुपित हो उठा। उसने यक्षराजके चारों ओर बाणोंका जाल बिछा दिया। तदनन्तर बलवान् यक्षराजने तीखे अर्धचन्द्र बाणोंके प्रहारसे उस बाणजालको छिन्न-भिन्न कर दिया और वे उस दैत्यपर बाणोंकी वृष्टि करने लगे; परन्तु दैत्यराज कुजम्भने अपने तीखे बाणोंसे उस बाणवृष्टिको काट दिया। उस बाणवृष्टिको विफल हुई देखकर धनेशने अपनी उस दुर्धर्ष शक्तिको हाथमें उठाया, जिसमें स्वर्णनिर्मित घंटियोंके शब्द हो रहे थे। उन्होंने अपने रत्ननिर्मित बाजूबंद के कान्तिसमूहले सुशोभित हाथसे उस शक्तिको आजमाकर वेगपूर्वक कुजम्भके ऊपर छोड़ दिया। उस शक्तिने कुजम्भके दारुण हृदयको उसी प्रकार विदीर्ण कर दिया, जैसे निर्धन पुरुषकी अभिलषित धनाशा नष्ट हो जाती है। इस प्रकार वह | शक्ति उसके हृदयको विदीर्ण करके भूतलपर जा गिरी, जिससे भयंकर आकृतिवाला वह दानव दो घड़ीतक मूच्छित पड़ा रहा। (मूर्च्छा भङ्ग होनेपर) उस दैत्यने एक लम्बे एवं तेज मुखवाले पट्टिशको हाथमें लिया। उसने उस पट्टिशसे कुबेरके स्तनोंके मध्यभागको इस प्रकार विदीर्ण कर दिया जैसे दुर्जन पुरुष अपने मर्मभेदी कठोर वाक्यसे सत्पुरुषके हृदयको विदीर्ण कर देता है। उस पट्टिशके आघातसे धनेश मूच्छित हो गये और रथके पिछले भागमें बूढ़े बैलकी तरह लुढ़क पड़े ।। 76 - 85 ॥

उन नरवाहन कुबेरको मूर्च्छित हुआ देखकर निर्ऋतिदेवने हाथमें तलवार लेकर निशाचरोंकी सेनाके | साथ वेगपूर्वक भयंकर पराक्रमी कुजम्भपर आक्रमणकिया। तब दुर्धर्ष राक्षसेश्वर निर्ऋतिको आक्रमण करते देख कुजम्भने उन राक्षसेन्द्रका वध करनेके लिये अपनी सेनाओंको ललकारा। भल्ल आदि नाना प्रकारके अस्त्रोंको धारण करनेसे भयंकर रूपवाली उस सेनाको आगे बढ़ते देखकर आभूषणोंकी कान्तिसे उद्भासित होते हुए निर्ऋतिदेव रथसे वेगपूर्वक कूद पड़े और गोली कान्तिवाले म्यानसे तलवार खींचकर उससे शत्रुओंके विचित्र आकारवाले मुखोंको कमल पुष्पकी तरह काटने लगे। उस समय दाँतोंसे होंठको चबाने एवं भौहें चढ़ी होनेके कारण उनका मुख भयंकर दीख रहा था और प्रचण्ड क्रोधके कारण उनके नेत्र लाल हो गये थे। इस प्रकार लम्बी भुजाओंवाले निर्ऋति रणभूमि में आगे-पीछे, ऊपर-नीचे चारों ओर घूम-घूमकर उस विशाल तलवारसे दानवोंको टुकड़े-टुकड़े कर रहे थे। इस प्रकार अपनी सेनाको समाप्तप्राय देखकर कुजम्भने कुबेरको छोड़कर राक्षसेश्वर निर्ऋतिपर धावा बोल दिया ll 86 - 92 ॥

इधर जब जम्भकी मूर्च्छा भंग हुई, तब उसने कुबेरके अनुचर हजारों यक्षोंको जीते जी पकड़कर पाशोंसे बाँध लिया तथा दानवोंने उनके अनेकों प्रकारके मूर्तिमान् रत्नों वाहनों और हजारों दिव्य विमानोंको अपने अधीन कर लिया। उधर जब कुबेरकी चेतना लौटी तब उस दशाको देखकर क्रोधवश उनके नेत्र लाल हो गये और वे लम्बी एवं गरम साँस लेने लगे। तत्पश्चात् उन्होंने दिव्य गारुडास्त्रका ध्यान करके उस बाणका धनुषपर संधान किया और फिर उस शत्रुनाशक बाणको दानवोंकी सेनापर छोड़ दिया। पहले तो उनके धनुषसे धुएँकी पङ्कियाँ प्रकट हुई। तदनन्तर उससे जलती हुई करोड़ों चिनगारियाँ निकलने लगीं। तत्पश्चात् उस अस्त्रने आकाशको चारों ओरसे लपटोंसे व्याप्त कर दिया। फिर वह नाना प्रकारके रूपोंमें फैलकर दुर्निवार हो गया। उस समय अन्धकारसे आच्छादित होनेके कारण सारा जगत् रूपरहित-सा दिखायी पड़ने लगा। तब आकाशमण्डलमें स्थित देवगण उस उत्कृष्ट तेजकी प्रशंसा करने लगे।यह देखकर परम पराक्रमी दानवराज जम्भ सिंहनाद करता हुआ पैदल ही वेगपूर्वक कुबेरपर चढ़ दौड़ा ॥ 93 100 ॥ इस प्रकार उस दैत्यको अपनी ओर आता हुआ देखकर कुबेर घबरा उठे और रणभूमिसे भाग खड़े हुए। भागते समय उनका रत्नजटित उद्दीप्त मुकुट इस प्रकार भूतलपर गिर पड़ा मानो आकाशसे सूर्यका बिम्ब गिर पढ़ा हो 'रणभूमिसे स्वामीके पलायन कर जानेपर उनके आभूषणोंके समक्ष उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए वीरोंका संग्रामके मुहानेपर मर जाना उचित है। ऐसा निश्चयकर दुर्धर्ष यक्ष हाथोंमें नाना प्रकारके शस्त्रास्त्र धारणकर युद्धकी अभिलाषासे युक्त हो उस मुकुटको घेरकर खड़े हो गये; क्योंकि कुबेरके अनुचर वे वीरवर यक्ष स्वाभिमानके धनी थे। तदनन्तर उन्हें इस प्रकार युद्धोन्मुख देखकर प्रचण्ड पुरुषार्थी दानवराज जम्भ अमर्षसे भर गया। तब उसने पर्वतकी-सी गम्भीर एवं भयंकर आकारवाली भुशुण्डि लेकर उससे मुकुटके रक्षक निशाचरोंको पीस डाला। इस प्रकार उनका संहार कर उस देवशत्रु दानवने उस मुकुटको अपने रथपर रख लिया। तत्पश्चात् सिंहके समान पराक्रमी दैत्येन्द्र जम्ध युद्धभूमिमें कुबेरको जीतकर सैनिकोंके सभी आभूषणों, सम्पत्तियों तथा मूर्तिमान् रनोंको लेकर अपनी सेनाकी ओर चला गया। इधर कुबेर बाल बिखेरे हुए दीनभावसे देवराज इन्द्रके निकट चले गये ll 101-108 ।।

उधर असुरनन्दन राक्षसेश्वर निर्ऋति अपनी अमोघ राक्षसी मायाका आश्रय लेकर कुजम्भके साथ भिड़े हुए थे। उन्होंने जगत्‌को अन्धकारमय बनाकर राजकुम्भको मोहमें डाल दिया। उससे दानवोंकी सेनामें किसीको कुछ सूझ नहीं पड़ता था। वे एक पगसे दूसरे पगतक भी चलने में | असमर्थ हो गये थे तब उन्होंने अनेकों अस्त्रोंकी वर्षा करकेघने कुहासेके अन्धकारसे व्याकुल हुए वाहनोंवाली दानवोंकी उस विशाल सेनाका संहार कर दिया। इस प्रकार दैत्योंके मारे जाने एवं कुजम्भके किंकर्तव्यविमूढ हो जानेपर प्रलयकालीन मेघके समान शरीरवाले दानवेन्द्र महिषने उल्कासमूहसे सुशोभित सावित्र नामक अवको प्रकट किया। उस प्रतापशाली सावित्र नामक परमास्त्रके प्रकट होते ही सारा निविड़ अन्धकार नष्ट हो गया। तत्पश्चात् उस अस्त्रसे चिनगारियाँ निकलने लगीं, जिन्होंने सम्पूर्ण अन्धकारको नष्ट कर दिया। उस समय सारा जगत् शरद् ऋतुमें खिले हुए लाल कमलसमूहोंसे व्याप्त निर्मल सरोवरकी भाँति शोभा पाने लगा। इस प्रकार अन्धकारके नष्ट हो जानेपर जब दैत्येन्द्रोंको पुनः नेत्रज्योति प्राप्त हो गयी, तब वे क्रूर मनसे देवसेनाओंके साथ अद्भुत संग्राम करने लगे। क्रोधसे भरे हुए दैत्य शस्त्रोंका प्रहार तो कर ही रहे थे, साथ ही उन्होंने भुजंगास्त्रका भी प्रयोग किया ॥ 109-116ई ॥

तदनन्तर कुजम्भने अपना भयंकर धनुष और सर्प विषके समान विषैले बाणोंको लेकर शीघ्र ही राक्षसराजकी सेनापर धावा किया। तब अनुचरोंसहित राक्षसेन्द्र निर्ऋतिने उस दैत्यको आक्रमण करते देखकर उसे विषैले सर्पोके समान भीषण एवं तीखे बाणोंसे बींध दिया। उस समय वे इतनी फुर्तीसे बाण चला रहे थे कि बाणका लेना, संधान करना और छोड़ना दीख ही नहीं पड़ता था । विचित्र कर्म करनेवाले राक्षसेश्वरने बड़ी फुर्तीसे अपने | बागद्वारा उस देवद्रोही दैत्यके बागसमूहको काट दिया और एक अत्यन्त तेज बाणसे उसके ध्वजको भी काट गिराया। साथ ही एक भाला मारकर उसके सारथिको भी रथपर बैठनेके स्थानसे नीचे गिरा दिया। युद्धस्थलमें राक्षसेश्वरके उस कर्मको देखकर कुजग्भके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये, तब उस दानवने वेगपूर्वक रथसे कूदकर शरत्कालीन आकाशकी भाँति निर्मल तलवार और उदयकालीन चन्द्रमाके समान दस चिह्नोंसे सुशोभित ढाल हाथमें उठा लिया। फिर तो वह दैत्य रणभूमिमें बड़े पराक्रमसे राक्षसेश्वरकी ओर झपटा। उसे निकट आया हुआ देखकर राक्षसेश्वरने उसके हृदयपर मुदरसे प्रहार किया। उस प्रहारसे कुजम्भ क्षतिग्रस्त होकर विक्षुब्ध हो उठा। उस समय वह धैर्यशाली दानव निश्चेष्ट होकर पर्वतकी | तरह खड़ा रह गया। दो घड़ीके बाद आश्वस्त होनेपरअत्यन्त दुर्जय दानवेश्वरने रथपर आरूढ़ हो बायें हाथसे राक्षसेश्वरको पकड़ लिया। तब क्रोधसे भरा हुआ दैत्य कुजम्भ निर्ऋतिके बालोंको पकड़कर और घुटनोंसे दबाकर खड़ा हो गया तथा तलवारसे उनका सिर काट लेनेके लिये उद्यत हो गया। इसी बीच जलेश वरुणदेवने शीघ्र ही अपने पाशसे दानवेन्द्रकी दोनों भुजाओंको बाँध दिया। इस प्रकार दोनों भुजाओंके बंध जानेपर दैत्यका पुरुषार्थ विफल कर दिया गया । ll 117- 128 ॥

तदनन्तर पाशधारी वरुणने दयाको तिलाञ्जलि देकर उस दैत्यपर गदासे प्रहार किया। उस गदाघातसे घायल होकर कुजम्भ (मुख, नाक, कान आदि) छिद्रोंसे रक्त वमन करने लगा। उस समय उसका रूप ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो विद्युत्समूहोंसे आच्छादित मेघ हो । कुजम्भको ऐसी दशामें पड़ा देखकर तीक्ष्ण दाढ़ोंसे युक्त एवं विकराल मुखवाला महिषासुर अपने गहरे मुखको फैलाकर वरुण और निर्ऋति- इन दोनों देवताओंको निगल जानेका प्रयास करने लगा। तब वे दोनों देव उस दैत्यके क्रूर अभिप्रायको समझकर भयभीत हो गये और बड़ी शीघ्रतासे महिषासुरके रथ मार्गको छोड़कर हट गये। फिर भयसे व्याकुल होकर दोनों बड़े वेगसे दो भिन्न दिशाओंकी और भाग चले। उनमें निर्ऋतिने तो तुरंत ही भागकर इन्द्रकी शरण ग्रहण की। उधर कुपित महिषासुरने वरुणका पीछा किया। इस प्रकार वरुणको मौतके मुखमें पड़ा हुआ देखकर शोतरश्मि चन्द्रमाने अपने सोमास्त्रको प्रकट किया, जो हिमसमूहसे व्याप्त होनेके कारण अत्यन्त दुःसह था। उसी समय चन्द्रमाने अपने दूसरे अनुपम अस्त्र वायव्यास्त्रका भी प्रादुर्भाव किया। चन्द्रमाद्वारा छोड़े गये उस वायव्यास्त्र एवं सूखे हिमास्त्रसे सभी दानव व्यथित हो उठे। वे शीतसे जर्जर हो गये और उनका पुरुषार्थ जाता रहा। चन्द्रमाद्वारा चलाये गये अस्त्रोंसे महान् हिमराशिके गिरनेसे समस्त दानव न तो एक पग चल सकते थे और न अन ही उठाने में समर्थ थेll ll 129 - 137 ll

इस प्रकार चारों ओर असुर सैनिकोंके शरीर शोतसे ठिठुर गये। शीतसे काँपते हुए मुखवाला महिष भी प्रयत्नहीन हो गया। वह अपने दोनों हाथोंसे दोनों काँखोंको दबाकर नीचे मुख किये हुए बैठ गया। इस प्रकार चन्द्रमासे | पराजित हुए वे सभी दैत्य बदला चुकानेमें असमर्थ हो गये।तब वे युद्धकी अभिलाषाको दूर छोड़कर जीवनकी रक्षाके लिये खड़े रहे। इसी बीच क्रोधसे उद्दीत हुए कालनेमिने दैत्योंको ललकारते हुए कहा- 'भो भो शृङ्गारसे सुसज्जित शूरवीरो! तुम सभी शस्त्रास्त्रके पारगामी | विद्वान् हो। तुमलोगोंमेंसे एक-एक भी अपनी भुजाओंसे सारे जगत्को तौल सकता है तथा प्रत्येक व्यक्ति सम्पूर्ण चराचर जगत्‌को निगल जानेमें समर्थ है। सब-के-सब प्रबल पराक्रमी देवता एक साथ मिलकर भी यत्नपूर्वक तुमलोगोंमेंसे किसी एककी सोलहवीं कलाकी समता नहीं कर सकते। फिर भी तुमलोग समरभूमिमें देवताओंसे पराजित होकर क्यों भागे जा रहे हो? ठहरो! ऐसा करना शूरवीरोंके लिये, विशेषतया दैत्यवंशियोंके लिये उचित नहीं है। सारे संसारका संहार करनेमें समर्थ हमलोगोंका राजा तारकासुर यहाँ उपस्थित नहीं है। वह क्रुद्ध होकर इस युद्धसे भागे हुए लोगोंके प्राणोंका हरण कर लेगा' ।। 138 - 144 3 ॥

उस समय शीतके प्रभावसे उन दैत्योंकी श्रवणशक्ति और वाक् चातुरी नष्ट हो गयी थी, वे मूक हो गये थे तथा उनके दाँत कटकटा रहे थे। महासुर कालनेमिने उन दैत्योंको इस प्रकार शीतद्वारा व्यथित और चेतनारहित देखकर इस कार्यको कालद्वारा प्रेरित माना। फिर तो उसने आसुरी मायाका आश्रय लेकर अपने विशाल शरीरका विस्तार किया और उससे आकाशमण्डल, दिशाओं और विदिशाओंको व्याप्त कर लिया। फिर उस दानवेन्द्रने अपने शरीरमें दस हजार सूर्योका निर्माण किया। उसने मायाके बलसे दसों दिशाओंको प्रचण्ड अग्निसे पूर्ण कर दिया, जिससे क्षणमात्रमें सारी त्रिलोकी अग्निको लपटोंसे व्याप्त हो गयी। उस ज्वालासमूहसे चन्द्रमा शान्त हो गये। तदनन्तर कालनेमिकी मायासे दानवेन्द्रोंकी वह सेना क्रमशः शीतरूपी दुर्दिनके नष्ट हो जानेपर शोभा पाने लगी। इस प्रकार दानवोंकी सेनाको चेतनायुक्त | देखकर जगत्के एकमात्र नेत्रस्वरूप सूर्य क्रोधसे तिलमिला उठे, तब उन्होंने अरुणसे कहा ।। 145 - 151 ।।

सूर्य बोले- अरुण मेरे रथको शीघ्र यहाँ ले चलो जहाँ कालनेमिका रथ खड़ा है वहाँ (मेरा उसके साथ) शूरवीरोंवर विनाश करनेवाला भीषण संग्राम होगा। जिनके बलपर हमलोग निर्भर थे, वे चन्द्रदेव तो इस बुद्धमें परास्त | हो गये। इस प्रकार कहे जानेपर गरुडके अग्रज अरुणनेक्षेत कलंगियोंसे विभूषित एवं प्रयत्नपूर्वक वशमें किये गये अधोंसे जुते हुए रथको आगे बढ़ाया। तत्पश्चात् जगत्‌को उद्भासित करनेवाले महाभाग भगवान् सूर्यने अपना विशाल धनुष तथा सर्पकी-सी कान्तिवाले दो दिव्य वाणको हाथमें लिया। उनमेंसे एक बाणको संचारास्त्रसे संयुक्त करके चलाया तथा दूसरेको इन्द्रजालसे युक्त करके छोड़ दिया। संचारास्त्रके प्रयोगसे क्षणमात्रमें ही लोगोंके रूपोंका परिवर्तन हो गया। देवता दानवोंके और दानव देवताओंके रूपमें बदल गये। फिर तो दानव देवताओंको आत्मीय मानकर दैत्योंपर ही फुर्तीसे प्रहार करने लगे। प्रलयकालमें कृतान्तके समान क्रोधसे भरा हुआ कालनेमि किन्होंको तीखी तलवारसे, किन्होंको बाणोंकी वृष्टिसे, किन्हींको भयंकर गदाओंसे और किन्होंको भीषण कुठारोंसे मार गिराया तथा किन्होंके मस्तकों, भुजाओं और सारथिसहित रथोंको धराशायी कर दिया। उस प्रचण्ड वेगशाली दैत्यने किन्हींको रथके वेगपूर्वक धक्केसे पीस दिया तथा किन्होंको क्रोधपूर्वक कठोर मुक्केके प्रहारसे यमलोकका पथिक बना दिया ।। 152 - 160 ॥

उस समय देवताओंसे पराजित हुए बहुत-से दैत्योंको अपने रूपकी प्राप्ति हो चुकी थी, परंतु क्रोधसे भरा हुआ कालनेमि उनके रूपको नहीं जानता था इस प्रकार रणभूमिमें अपने पक्षके उन दैत्योंको मारा गया देखकर दानवराज नेमि दैत्यने कालनेमिसे कहा- 'कालनेमि ! मैं नेमि नामक असुर हूँ, देवता नहीं हूँ। तुम मुझे पहचानो । मायासे मोहित होनेके कारण तुमने युद्धस्थलमें बहुत से प्रचण्ड पराक्रमी दैत्योंका सफाया कर दिया है। देवताओंने इस युद्धमें दस लाख दुर्जय दैत्योंको मौतके घाट उतार दिया है। इसलिये अब तुम शीघ्रतापूर्वक सभी अस्त्रोंके निवारण करनेवाले ब्रह्मास्त्रका प्रयोग करो।' इस प्रकार नेमिद्वारा समझाये जानेपर दैत्यराज कालनेमिका चित्त सम्भ्रमके कारण व्याकुल हो गया, तब उसने बाणको ब्रह्मास्त्र से अभिमन्त्रित करके धनुषपर संधान किया तथा उस सुरकण्टक दैत्येन्द्रने स्वयं उसे छोड़ भी दिया। फिर तो उस अस्त्रके तेजसे चराचरसहित त्रिलोकी व्याप्त हो गयी। देवताओंको सारी सेना भयभीत हो गयी तथा युद्धभूमिमें संचारास्त्र स्वयं शान्त हो गया। उस अस्त्रके विफल हो जानेपर सूर्यका तेज नष्ट हो गया, तब उन्होंने महेन्द्रजालका आश्रय लेकर अपने | शरीरको करोड़ों रूपोंमें प्रकट किया । ll 161- 168 ॥उन रूपोंसे निकलती हुई किरणोंके गिरनेसे तीनों लोक आक्रान्त हो गये। उससे मज्जा और रक्तसे रहित दानवोंकी सेना संतप्त हो उठी। तत्पश्चात् सामर्थ्यशाली सूर्यदेवने चारों ओर अग्निकी अत्यन्त घोर वृष्टि की और दानवेन्द्रोंके नेत्रोंको अंधा कर दिया। हाथियोंकी मज्जाएँ गल गयीं और वे चुपचाप धराशायी हो गये। धूपसे पीड़ित हुए थोड़े लम्बी साँस खीचने लगे। प्याससे व्याकुल हुए रथी भी इधर-उधर पानीकी खोज करते हुए छायादार वृक्षों और पर्वतोंकी गुफाओंकी शरण लेने लगे। उस समय दावाग्नि प्रज्वलित हो उठी, जिसकी भयंकर ज्वालाने वृक्षोंको जलाकर भस्म कर दिया। जलाभिलाषी लोग सामने ही हिलोरें लेते हुए जलसे भरे हुए जलाशयको देखकर सामने स्थित रहनेपर भी दावाग्निसे पीड़ित होनेके कारण प्राप्त नहीं कर सकते थे, अतः जल न पाकर मुख फैलाये हुए भूतलपर गिरकर चेतनारहित हो जाते थे। भूतलपर जगह-जगह मरे हुए दैत्येश्वर दिखायी पड़ते थे। कहीं-कहीं टूटे हुए रथ तथा मरे हुए हाथी और घोड़े पड़े हुए थे। कहीं कुछ लोग बैठकर रक्त उगल रहे थे और कुछ दौड़ लगा रहे थे, जिनके शरीरसे रक्त, मज्जा और चर्बी टपक रही थी। कहीं हजारोंकी संख्यामें मरे हुए दानव दीख रहे थे। दानवेन्द्रोंके उस महान् विनाशके उपस्थित होनेपर कालनेमि क्रोधसे विह्वल हो उठा। प्रचण्ड क्रोधके कारण उसके नेत्र लाल हो गये। उसकी शरीरकान्ति प्रलयकालीन मेघके समान हो गयी। वह उमड़ते हुए सैकड़ों जलाशयोंके सदृश उछल पड़ा और गम्भीररूपसे ताल ठोंककर एवं सिंहनाद करके जगत्के प्राणियोंके हृदयोंको कम्पित कर दिया। फिर उसने आकाशमण्डलको आच्छादित कर सूर्यकी मायाको नष्ट कर दिया। तदनन्तर दानवेन्द्रकी सेनापर शीतल जलकी वर्षा होने लगी। दैत्यगण उस वृष्टिका अनुभव कर क्रमशः उसी प्रकार समाश्वस्त हो गये, जैसे भूतलपर सूखते हुए बीजाङ्कुर जलकी वृष्टिसे हरे-भरे हो जाते हैं । ll 169 - 180 ।।

तत्पश्चात् दुर्जय एवं महान् असुर कालनेमि मेयरूप होकर देवताओंकी सेनाओंपर भीषण शस्त्रवृष्टि करने लगा। प्रचण्ड पराक्रमी दैत्येन्द्रोंकी उस बाणवर्षासे पीड़ित हुए देवगणोंको शीतसे पीड़ित | गौओंकी तरह कोई आश्रयस्थान नहीं दीख रहा था।वे अस्त्र छोड़कर अपने-अपने हाथियों और घोड़ोंकी पीठॉपर चिपककर छिप गये। कहीं-कहीं भयभीत हुए देवगण रथोंमें लुक-छिप रहे थे। कुछ अन्य देवताओंके शरीर भयसे सिकुड़ गये थे, वे भयवश अपने हाथसे मुखको ढके हुए दसों दिशाओंमें इधर-उधर भाग-दौड़ कर रहे थे। इस प्रकार उस देव-विनाशक भीषण-संग्राममें शस्योंके आघातसे जिनकी संधियाँ -भिन्न हो गयी थीं, भुजाएँ कट गयी थी, मस्तक विदीर्ण हो गये थे तथा जंघा और जानु कट गये थे, ऐसे सैनिक, टूटे हुए हरसेवाले रथ और चूर-चूर हुए ध्वजाओंकी कतारें भूतलपर पड़ी हुई दीख रही थीं। जिनके शरीरोंसे बहते हुए रक्तसे गड्ढे भर जाते थे, ऐसे विदीर्ण अङ्गवाले घोड़ों और पर्वत सदृश विशालकाय गजराजोंसे पटी हुई वह रणभूमि विकृत और बीभत्स दिखायी पड़ रही थी। इस प्रकार उस युद्धमें महाबली महासुर कालनेमि दैत्यने दो ही घड़ीमें एक लाख गन्धर्वो, पाँच लाख यक्षों, साठ हजार राक्षसों, तीन लाख वेगशाली किंनरों और सात लाख प्रधान प्रधान पिशाचोंको कालके हवाले कर दिया। इनके | अतिरिक्त उसने निर्भय होकर अन्य देवजातियोंके असंख्य | वीरोंका संहार किया तथा अश्वविद्यानिपुण कालनेमिने विचित्र ढंगले अबेकि प्रहारसे करोड़ों देवताओंको यमलोकका पथिक बना दिया ।। 181 - 191 ॥

उस समय इस प्रकारकी भयंकर पराजय और | देवताओंका संहार उपस्थित होनेपर चित्र-विचित्र अस्त्र और उबल कवचसे सुसज्जित हो दोनों देवता अश्विनीकुमार क्रोधमें भरे हुए समरभूमिमें आगे बढ़े और कृतान्त एवं अग्निके समान पराक्रमी उस दैत्यपर प्रहार करने लगे। उस भगवनी आकृतिले भयंकर असुरको भूमि सम्मुख | पाकर एक-एकने तीखे अग्रभागवाले साठ-साठ बाणोंसे उसके मर्मस्थानोंपर आघात किया। उन दोनों अश्विनीकुमारोंके बाण प्रहारसे उसका चित्त कुछ दुःखी हो गया। फिर उसने आठ अरोंवाले चक्रको हाथमें लिया, जो तेलसे सफाया हुआ तथा रणमें अन्तकके समान विकराल था। उसने उस चक्रसे के रथके कुवरको कार गिराया। तत्पश्चात् उस दैत्यने धनुष और सर्पके समान जहरीले बाणोंको उठाया और आकाशमण्डलको बाणोंसे आच्छादित करके| उन दोनों देववैद्योंके मस्तकोंपर बाणवृष्टि प्रारम्भ की। तब उन दोनों देवोंने भी अपने तीखे अस्त्रोंसे उस दैत्यके बाणोंके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। उन दोनोंके उस कर्मको देखकर आश्चर्यचकित हुआ कालनेमि कुद्ध हो उठा। फिर तो उसने बड़े क्रोधसे अपने भयंकर मुद्गरको, जिसका सर्वाङ्गभाग लोहेका बना हुआ था तथा कालदण्डके समान अत्यन्त भीषण था, हाथमें लिया और बड़े वेगसे घुमाकर उसे अश्विनीकुमारोंके रथपर फेंक दिया। आकाशमार्गसे उस मुद्गरको अपनी ओर आते देखकर दोनों अश्विनीकुमार अपने-अपने रथको छोड़कर बड़े वेगसे भूतलपर कूद पड़े। तब स्वर्णसमूहसे सुसज्जित एवं पर्वतके समान विशाल उस मुद्गरने उन दोनों रथोंको चूर-चूर करके पृथ्वीको विदीर्ण कर दिया। उसके उस कर्मको देखकर विचित्र ढंगसे युद्ध करनेवाले देववैद्य अश्विनीकुमारोंने दानवेन्द्रोंको विमुख करनेवाले वज्रास्त्रका प्रयोग किया। फिर तो अत्यन्त भीषण वज्रमयी वृष्टि होने लगी । 192 - 202 ॥ उस समय दैत्येन्द्र कालनेमि भयंकर वज्र प्रहारोंसे आच्छादित हो उठा। क्षणमात्रमें ही सभी सैनिकोंके देखते-देखते उसके रथ, ध्वज, धनुष, चक्र और स्वर्णनिर्मित कवचके तिलके समान टुकड़े-टुकड़े हो गये। अश्विनीकुमारोंद्वारा किये गये उस दुष्कर कर्मको देखकर भयंकर पराक्रमी एवं महाबली दानवेन्द्र कालनेमिने उस युद्धके मुहानेपर नारायणास्त्रका प्रयोग किया और उस | अस्त्रके तेजसे वज्रास्त्रको शान्त कर दिया। उस वज्रास्त्रके शान्त हो जानेके बाद कालनेमि दोनों अश्विनीकुमारोंको जीते-जी पकड़ लेनेका प्रयत्न करने लगा। तब वे दोनों अश्विनीकुमार भयभीत होकर पैदल ही रणभूमिसे भागकर इन्द्रके रथके निकट जा पहुँचे। उस समय उनके शरीर काँप रहे थे और उन्होंने अस्त्रका भी त्याग कर दिया था। उस समय महाबली एवं क्रूर स्वभाववाला दैत्यराज कालनेमि भी दैत्योंकी सेनाके साथ अश्विनीकुमारोंका पीछा करते हुए इन्द्रके रथके निकट पहुँचा। उसे देखकर सभी प्राणी विह्वल हो गये और सबके मनमें भय छा गया। | दैत्यराज कालनेमिके उस क्रूर कर्मको देखकर सभी प्राणियोंनेमहेन्द्रकी पराजय मान ली, जो सम्पूर्ण लोकोंका विनाश करनेवाली थी। उस समय प्रधान प्रधान पर्वत विचलित हो उठे, आकाशमण्डलसे उल्काएँ गिरने लगीं, दसों दिशाओंमें बादल गरजने लगे और महासागरोंमें ज्वार उठने लगा । ll 203-210॥

उस समय पञ्चभूतोंके उस विकारको देखकर | शेषशय्यापर शयन करते हुए भगवान् गरुडध्वज योगनिद्राका त्याग कर सहसा जाग पड़े। लक्ष्मी अपने दोनों हाथोंसे जिनके चरणकमलोंकी निरन्तर सेवा करती रहती हैं, जिनके शरीरकी कान्ति शरत्कालीन आकाश एवं नीले कमल सी सुन्दर है, जिनका वक्षःस्थल कौस्तुभ मणिसे उद्भासित होता रहता है, जो चमकीले बाजूबंदसे प्रकाशित होते रहते हैं, उन सर्वव्यापी भगवान्ने देवताओंकी अस्त व्यस्तताका विचार कर गरुडका आह्वान किया। बुलाते ही हाथीके समान विशाल शरीरवाले गरुडके उपस्थित होनेपर भगवान् उनपर सवार होकर स्वयं देवताओंके निकट गये, उस समय उनके नाना प्रकारके दिव्यास्त्रोंका प्रचण्ड प्रकाश फैल रहा था। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि नूतन मेघकी सौ कान्तिवाले एवं उत्कट पुरुषार्थी दानवेन्द्रोंद्वारा खदेड़े जाते हुए देवराज इन्द्र उसी प्रकार भाग रहे हैं, जैसे भयंकर अभाग्यसे युक्त विस्तृत परिवारसे घिरा हुआ पुरुष कष्ट पाता है। फिर तो उस सुन्दर अवसरपर भगवान्ने तुरंत ही इन्द्रकी रक्षाके लिये निर्मल कर्म किया। उस समय दैत्योंको आकाशमें एक ज्योतिर्मण्डल दिखायी पड़ा, जो उदयाचलपर स्थित उष्ण कान्तिवाले सूर्यके समान चमक रहा था। तब दानवगण उस तेजके प्रभावको जाननेके इच्छुक हो उठे। इतनेमें ही उन्हें प्रलयकालीन अग्निकी भाँति भयंकर गरुड दीख पड़े। तत्पश्चात् गरुडपर बैठे हुए मेघसमूहकी सी कान्तिवाले अविनाशी भगवान् अच्युतका दर्शन हुआ। उन्हें देखकर असुरेन्द्रोंका मन हर्षसे परिपूर्ण हो गया (और वे कहने लगे) 'यही तो देवताओंका सर्वस्व है। इसे जीत लेनेपर देवताओंको पराजित हुआ ही समझना चाहिये। यही वह दैत्यसमूहका विनाश करनेवाला शत्रुसूदन केशव है। इसीका आश्रय ग्रहण कर देवगण लोकोंमें यज्ञ-भागके भोक्ता बने हुए हैं' ॥ 211 - 221 ॥

ऐसा कहकर कालनेमि प्रभृति दस महारथी दैत्य तथा वे सभी दानव युद्धस्थलमें आते हुए भगवान् विष्णुको चारों ओरसे घेरकर उनपर विविध प्रकारके अस्त्रोंसे प्रहार करने लगे।उस समय कालनेमिने भगवान् जनार्दनको साठ वाणोंसे, निमिने सौ बाणोंसे, मथनने असी बाणोंसे, जम्भकने सत्तर और शुम्भने दस बाणोंसे बींध दिया। शेष सभी प्रयत्नशील दैत्येधरोंसे एक-एकने रणभूमिमें गरुडसहित भगवान् विष्णुको दस-दस बाणोंसे चोटें पहुँचायें। तब उनके उस कर्मको सहन न कर दानवोंके विनाशक भगवान् विष्णुने एक-एक दानवको सीधे चोट करनेवाले छः-छः बाणोंसे घायल कर दिया। यह देखकर कालनेमिके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये। तब उसने पुनः कानतक खींचकर छोड़े गये तीन बाणोंसे भगवान् विष्णुके हृदयपर चोट की तपाये हुए सुवर्णकी सी कान्तिवाले कालनेमिके वे वाण विष्णुके हृदयपर उसी प्रकार शोभित हो रहे थे मानो फैलती हुई कान्तिवाले कौस्तुभ मणिको उद्दीत किरणें हों उन बागोंके आघातसे कुछ कष्टका अनुभव कर श्रीहरिने अपना मुद्रर उठाया और उसे लगातार वेगपूर्वक घुमाकर उस दानवपर फेंक दिया। वह मुद्रर अभी उसके निकटतम पहुँचा भी न था कि क्रोधसे भरे हुए दानवराजने अपने हाथकी फुर्ती दिखलाते हुए आकाशमार्गमें ही सैकड़ों बाणोंके प्रहारसे उसे तिल-तिल करके काट डाला। यह देखकर विशेषरूपसे | कुपित हुए भगवान् विष्णुने भयंकर भाला हाथमें लिया और | उससे उस दैत्यके हृदयपर गहरी चोट पहुँचायी (जिसके आघातसे वह मूच्छित हो गया) ।। 222-231 ।।

क्षणभरके पश्चात् जब उसकी चेतना लौटी, तव महासुर कालनेमिने तीखे अग्रभागवाली शक्ति हाथमें ली, जिसमें स्वर्णनिर्मित क्षुद्र घंटिकाएँ बज रही थीं। उस शक्तिसे दैत्य कालनेमिने भगवान् विष्णुकी बाय भुजाको विदीर्ण कर दिया। शक्तिके आघातसे घायल हुई भगवान् विष्णुकी भुजा रक्त बहाती हुई ऐसी शोभा पा रही थी। मानो पद्मरागमणिके बने हुए बाजूबंदसे विभूषित की गयी हो। तब कुपित हुए भगवान् विष्णुने विशाल धनुष और सतरह तीखे एवं मर्मभेदी बाणोंको हाथमें लिया। उनमेंसे उन्होंने नौ बाणोंसे उस दैत्यके हृदयको, चार बाणोंसे उसके सारथिको, एक बाणसे ध्वजको, दो वाणोंसे प्रत्यञ्चासहित धनुषको और एक वाणसे उसकी दाहिनी भुजाको बींध दिया। उस समय भगवान् विष्णुके बाणोंसे उस दैत्यका हृदय गम्भीररूपसे घायल हो गया था, उससे रक्तकी मोटी धाराएँ निकल रही | थीं, उसका मन पीडासे व्याकुल हो गया था और| वह झंझावातसे झकझोरे हुए पलाश-वृक्षकी भाँति काँप रहा था। उसे काँपता हुआ देखकर भगवान् केशवने गदा उठायी और उसे वेगपूर्वक कालनेमिके रथपर फेंक दिया। वह भयंकर एवं विशाल गदा कालनेमिके मस्तकपर जा गिरी। उसके आघातसे उस असुरका मस्तक चूर्ण हो गया, मुकुट पिस गया और शरीरके छिद्रोंसे रक्तकी धाराएँ बहने लगीं। उस समय वह ऐसा दीख रहा था मानो चूते हुए गेरु आदि धातुओंसे युक्त पर्वत हो । तत्पश्चात् वह मूच्छित होकर अपने टूटे हुए रथपर गिर पड़ा। उसके प्राणमात्र अवशेष थे। इस प्रकार रथके पिछले भाग में पड़े हुए उस दानवके प्रति चक्रायुधधारी एवं सामर्थ्यशाली शत्रुसूदन अच्युतने मुसकराते हुए यह बात कही-'असुर ! जाओ, इस समय तुम छोड़ दिये गये हो, अतः निर्भय होकर जीवन धारण करो। फिर थोड़े ही समयके बाद में ही तुम्हारा विनाश करूंगा।' भगवान् विष्णुके उस वचनको सुनकर कालनेमिका सारथि रथको लौटाकर कालनेमिको रणभूमिसे दूर हटा ले गया ।। 232 - 243 ॥

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मत्स्य पुराण
Index


  1. [अध्याय 1]मङ्गलाचरण, शौनक आदि मुनियोंका सूतजीसे पुराणविषयक प्रश्न, सूतद्वारा मत्स्यपुराणका वर्णनारम्भ, भगवान् विष्णुका मत्स्यरूपसे सूर्यनन्दन मनुको मोहित करना, तत्पश्चात् उन्हें आगामी प्रलयकालकी सूचना देना
  2. [अध्याय 2]मनुका मत्स्यभगवान्से युगान्तविषयक प्रश्न, मत्स्यका प्रलयके स्वरूपका वर्णन करके अन्तर्धान हो जाना, प्रलयकाल उपस्थित होनेपर मनुका जीवोंको नौकापर चढ़ाकर उसे महामत्स्यके सींगमें शेषनागकी रस्सीसे बाँधना एवं उनसे सृष्टि आदिके विषयमें विविध प्रश्न करना और मत्स्यभगवान्‌का उत्तर देना
  3. [अध्याय 3]मनुका मत्स्यभगवान् से ब्रह्माके चतुर्मुख होने तथा लोकोंकी सृष्टि करनेके विषयमें प्रश्न एवं मत्स्य भगवानद्वारा उत्तररूपमें ब्रह्मासे वेद, सरस्वती, पाँचवें मुख और मनु आदिकी उत्पत्तिका कथन
  4. [अध्याय 4]पुत्रीकी और बार-बार अवलोकन करनेसे ब्रह्मा दोषी क्यों नहीं हुए- एतद्विषयक मनुका प्रश्न, मत्स्यभगवान्का उत्तर तथा इसी प्रसङ्गमें आदिसृष्टिका वर्णन
  5. [अध्याय 5]दक्षकन्याओं की उत्पत्ति, कुमार कार्त्तिकेयका जन्म तथा दक्षकन्याओं द्वारा देवयोनियोंका प्रादुर्भाव
  6. [अध्याय 6]कश्यप-वंशका विस्तृत वर्णन
  7. [अध्याय 7]मरुतोंकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें दितिकी तपस्या, मदनद्वादशी व्रतका वर्णन, कश्यपद्वारा दितिको वरदान, गर्भिणी स्त्रियोंके लिये नियम तथा मरुतोंकी उत्पत्ति
  8. [अध्याय 8]प्रत्येक सर्गके अधिपतियोंका अभिषेचन तथा पृथुका राज्याभिषेक
  9. [अध्याय 9]मन्वन्तरोंके चौदह देवताओं और सप्तर्षियोंका विवरण
  10. [अध्याय 10]महाराज पृथुका चरित्र और पृथ्वी दोहनका वृत्तान्त
  11. [अध्याय 11]सूर्यवंश और चन्द्रवंशका वर्णन तथा इलाका वृत्तान्त
  12. [अध्याय 12]इलाका वृत्तान्त तथा इक्ष्वाकु वंशका वर्णन
  13. [अध्याय 13]पितृ-वंश-वर्णन तथा सतीके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें देवीके एक सौ आठ नामोंका विवरण
  14. [अध्याय 14]अच्छोदाका पितृलोकसे पतन तथा उसकी प्रार्थनापर पितरोंद्वारा उसका पुनरुद्धार
  15. [अध्याय 15]पितृवंशका वर्णन, पीवरीका वृत्तान्त तथा श्रद्ध-विधिका कथन
  16. [अध्याय 16]श्राद्धोंके विविध भेद, उनके करनेका समय तथा श्राद्धमें निमन्त्रित करनेयोग्य ब्राह्मणके लक्षण
  17. [अध्याय 17]साधारण एवं आभ्युदयिक श्राद्धकी विधिका विवरण
  18. [अध्याय 18]एकोदिए और सपिण्डीकरण श्राद्धकी विधि
  19. [अध्याय 19]श्राद्धों में पितरोंके लिये प्रदान किये गये हव्य-कव्यकी प्राप्तिका विवरण
  20. [अध्याय 20]महर्षि कौशिकके पुत्रोंका वृत्तान्त तथा पिपीलिकाकी कथा
  21. [अध्याय 21]ब्रह्मदत्तका वृत्तान्त तथा चार चक्रवाकोंकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22]श्राद्धके योग्य समय, स्थान (तीर्थ) तथा कुछ विशेष नियमोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23]चन्द्रमाकी उत्पत्ति, उनका दक्ष प्रजापतिकी कन्याओंके साथ विवाह, चन्द्रमाद्वारा राजसूय यज्ञका अनुष्ठान, उनकी तारापर आसक्ति, उनका भगवान् शङ्करके साथ युद्ध तथा ब्रह्माजीका बीच-बचाव करके युद्ध शान्त करना'
  24. [अध्याय 24]ताराके गर्भसे बुधकी उत्पत्ति, पुरूरवाका जन्म, पुरूरवा और उर्वशीकी कथा, नहुष-पुत्रोंके वर्णन-प्रसङ्गमें ययातिका वृत्तान्त
  25. [अध्याय 25]कचका शिष्यभावसे शुक्राचार्य और देवयानीकी सेवामें संलग्न होना और अनेक कष्ट सहनेके पश्चात्मृतसंजीविनी विद्या प्राप्त करना
  26. [अध्याय 26]देवयानीका कचसे पाणिग्रहणके लिये अनुरोध, कचकी अस्वीकृति तथा दोनोंका एक-दूसरेको शाप देना
  27. [अध्याय 27]देवयानी और शर्मिष्ठाका कलह, शर्मिष्ठाद्वारा कुऍमें गिरायी गयी देवयानीको ययातिका निकालना और देवयानीका शुक्राचार्यके साथ वार्तालाप
  28. [अध्याय 28]शुक्राचार्यद्वारा देवयानीको समझाना और देवयानीका असंतोष
  29. [अध्याय 29]शुक्राचार्यका नृपपको फटकारना तथा उसे छोड़कर जानेके लिये उद्यत होना और वृषपवकि आदेशसे शर्मिष्ठाका देवयानीकी दासी बनकर शुक्राचार्य तथा देवयानीको संतुष्ट करना
  30. [अध्याय 30]सखियोंसहित देवयानी और शर्मिष्ठाका वनविहार, राजा ययातिका आगमन, देवयानीके साथ बातचीत तथा विवाह
  31. [अध्याय 31]ययातिसे देवयानीको पुत्रप्राप्ति, ययाति और शर्मिष्ठाका एकान्त मिलन और उनसे एक पुत्रका जन्म
  32. [अध्याय 32]देवयानी और शर्मिष्ठाका संवाद, ययातिसे शर्मिष्ठाके पुत्र होनेकी बात जानकर देवयानीका रूठना और अपने पिताके पास जाना तथा शुक्राचार्यका ययातिको बूढ़े होनेका शाप देना
  33. [अध्याय 33]ययातिका अपने यदु आदि पुत्रोंसे अपनी युवावस्था देकर वृद्धावस्था लेनेके लिये आग्रह और उनके अस्वीकार करनेपर उन्हें शाप देना, फिर पूरुको जरावस्था देकर उसकी युवावस्था लेना तथा उसे वर प्रदान करना
  34. [अध्याय 34]राजा ययातिका विषय सेवन और वैराग्य तथा पूरुका राज्याभिषेक करके वनमें जाना
  35. [अध्याय 35]वनमें राजा ययातिकी तपस्या और उन्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति
  36. [अध्याय 36]इन्द्रके पूछनेपर ययातिका अपने पुत्र पुरुको दिये हुए उपदेशकी चर्चा करना
  37. [अध्याय 37]ययातिका स्वर्गसे पतन और अष्टकका उनसे प्रश्न करना
  38. [अध्याय 38]ययाति और अष्टकका संवाद
  39. [अध्याय 39]अष्टक और ययातिका संवाद
  40. [अध्याय 40]ययाति और अष्टकका आश्रमधर्मसम्बन्धी संवाद
  41. [अध्याय 41]अष्टक-ययाति-संवाद और ययातिद्वारा दूसरोंके दिये हुए पुण्यदानको अस्वीकार करना
  42. [अध्याय 42]राजा ययातिका वसुमान् और शिबिके प्रतिग्रहको अस्वीकार करना तथा अष्टक आदि चारों राजाओंके साथ स्वर्गमें जाना
  43. [अध्याय 43]ययाति-वंश-वर्णन, यदुवंशका वृत्तान्त तथा कार्तवीर्य अर्जुनकी कथा
  44. [अध्याय 44]कार्तवीर्यका आदित्यके तेजसे सम्पन्न होकर वृक्षोंको जलाना, महर्षि आपवद्वारा कार्तवीर्यको शाप और क्रोष्टुके वंशका वर्णन
  45. [अध्याय 45]वृष्णिवंशके वर्णन-प्रसङ्गमें स्यमन्तक मणिकी कथा
  46. [अध्याय 46]वृष्णिवंशका वर्णन
  47. [अध्याय 47]श्रीकृष्ण चरित्रका वर्णन, दैत्योंका इतिहास तथा देवासुर संग्रामके प्रसङ्गमें विभिन्न अवान्तर कथाएँ
  48. [अध्याय 48]तुर्वसु और झुके वंशका वर्णन, अनुके वंश-वर्णनमें बलिकी कथा और कर्णकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग
  49. [अध्याय 49]पूरु- वंशके वर्णन-प्रसङ्गमें भरत वंशकी कथा, भरद्वाजकी उत्पत्ति और उनके वंशका कथन, नीप - वंशका वर्णन तथा पौरवोंका इतिहास
  50. [अध्याय 50]पुरुवंशी नरेशोंका विस्तृत इतिहास
  51. [अध्याय 51]अग्नि- वंशका वर्णन तथा उनके भेदोपभेदका कथन
  52. [अध्याय 52]कर्मयोगकी महत्ता
  53. [अध्याय 53]पुराणोंकी नामावलि और उनका संक्षिप्त परिचय
  54. [अध्याय 54]नक्षत्र-पुरुष-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  55. [अध्याय 55]आदित्यशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  56. [अध्याय 56]श्रीकृष्णाष्टमी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  57. [अध्याय 57]रोहिणीचन्द्रशयन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  58. [अध्याय 58]तालाब, बगीचा, कुआं,बावली,पुष्करिणी तथा देव मन्दिर की प्रतिष्ठ आदिका विधान
  59. [अध्याय 59]वृक्ष लगानेकी विधि
  60. [अध्याय 60]सौभाग्यशयन-व्रत तथा जगद्धात्री सतीकी आराधना
  61. [अध्याय 61]अगस्त्य और वसिष्ठकी दिव्य उत्पत्ति, उर्वशी अप्सराका प्राकट्य और अगस्त्य के लिये अयं-प्रदान करनेकी विधि एवं माहात्म्य
  62. [अध्याय 62]अनन्ततृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  63. [अध्याय 63]रसकल्याणिनी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  64. [अध्याय 64]आर्द्रानन्दकरी तृतीया - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  65. [अध्याय 65]अक्षयतृतीया-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  66. [अध्याय 66]सारस्वत - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  67. [अध्याय 67]सूर्य-चन्द्र-ग्रहणके समय स्नानकी विधि और उसका माहात्म्य
  68. [अध्याय 68]सप्तमीस्त्रपन-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  69. [अध्याय 69]भीमद्वादशी व्रतका विधान
  70. [अध्याय 70]पण्यस्त्री व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  71. [अध्याय 71]अशून्यशयन (द्वितीया ) - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  72. [अध्याय 72]अङ्गारक- व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  73. [अध्याय 73]शुक्र और गुरुकी पूजा-विधि
  74. [अध्याय 74]कल्याणसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  75. [अध्याय 75]विशोकसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  76. [अध्याय 76]फलसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  77. [अध्याय 77]शर्करासप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  78. [अध्याय 78]कमलसप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  79. [अध्याय 79]मन्दारसप्तमी-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  80. [अध्याय 80]शुभ सप्तमी - व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  81. [अध्याय 81]विशोकद्वादशी व्रतकी विधि
  82. [अध्याय 82]गुड-धेनु के दान की विधि और उसकी महिमा
  83. [अध्याय 83]पर्वतदानके दस भेद, धान्यशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  84. [अध्याय 84]लवणाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  85. [अध्याय 85]गुडपर्वतके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  86. [अध्याय 86]सुवर्णाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  87. [अध्याय 87]तिलशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  88. [अध्याय 88]कार्पासाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  89. [अध्याय 89]घृताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  90. [अध्याय 90]रत्नाचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  91. [अध्याय 91]रजताचलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य
  92. [अध्याय 92]शर्कराशैलके दानकी विधि और उसका माहात्म्य तथा राजा धर्ममूर्तिके वृत्तान्त-प्रसङ्गमें लवणाचलदानका महत्त्व
  93. [अध्याय 93]शान्तिक एवं पौष्टिक कर्मों तथा नवग्रह शान्तिकी विधिका वर्णन *
  94. [अध्याय 94]नवग्रहोंके स्वरूपका वर्णन
  95. [अध्याय 95]माहेश्वर-व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  96. [अध्याय 96]सर्वफलत्याग- व्रतका विधान और उसका माहात्म्य
  97. [अध्याय 97]आदित्यवार-कल्पका विधान और माहात्म्य
  98. [अध्याय 98]संक्रान्ति व्रतके उद्यापनकी विधि
  99. [अध्याय 99]विभूतिद्वादशी व्रतकी विधि और उसका माहात्म्य
  100. [अध्याय 100]विभूतिद्वादशी* के प्रसङ्गमें राजा पुष्पवाहनका वृत्तान्त
  101. [अध्याय 101]साठ व्रतोंका विधान और माहात्म्य
  102. [अध्याय 102]स्नान और तर्पणकी विधि
  103. [अध्याय 103]युधिष्ठिरकी चिन्ता, उनकी महर्षि मार्कण्डेयसे भेंट और महर्षिद्वारा प्रयाग-माहात्म्यका उपक्रम
  104. [अध्याय 104]प्रयाग-माहात्म्य-प्रसङ्गमें प्रयाग क्षेत्रके विविध तीर्थस्थानोंका वर्णन
  105. [अध्याय 105]प्रयागमें मरनेवालोंकी गति और गो-दानका महत्त्व
  106. [अध्याय 106]प्रयाग माहात्म्य वर्णन-प्रसङ्गमें वहांके विविध तीर्थोंका वर्णन
  107. [अध्याय 107]प्रयाग स्थित विविध तीर्थोका वर्णन
  108. [अध्याय 108]प्रयागमें अनशन-व्रत तथा एक मासतकके निवास ( कल्पवास) का महत्त्व
  109. [अध्याय 109]अन्य तीर्थोकी अपेक्षा प्रयागकी महत्ताका वर्णन
  110. [अध्याय 110]जगत्के समस्त पवित्र तीर्थोंका प्रयागमें निवास
  111. [अध्याय 111]प्रयाग में ब्रह्मा, विष्णु और शिवके निवासका वर्णन
  112. [अध्याय 112]भगवान् वासुदेवद्वारा प्रयागके माहात्म्यका वर्णन
  113. [अध्याय 113]भूगोलका विस्तृत वर्णन
  114. [अध्याय 114]भारतवर्ष, किम्पुरुषवर्ष तथा हरिवर्षका वर्णन
  115. [अध्याय 115]राजा पुरूरवाके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  116. [अध्याय 116]ऐरावती नदीका वर्णन
  117. [अध्याय 117]हिमालयकी अद्भुत छटाका वर्णन
  118. [अध्याय 118]हिमालयकी अनोखी शोभा तथा अत्रि - आश्रमका वर्णन
  119. [अध्याय 119]आश्रमस्थ विवरमें पुरूरवा * का प्रवेश, आश्रमकी शोभाका वर्णन तथा पुरूरवाकी तपस्या
  120. [अध्याय 120]राजा पुरूरवाकी तपस्या, गन्धवों और अप्सराओंकी क्रीडा, महर्षि अत्रिका आगमन तथा राजाको वरप्राप्त
  121. [अध्याय 121]कैलास पर्वतका वर्णन, गङ्गाकी सात धाराओंका वृत्तान्त तथा जम्बूद्वीपका विवरण
  122. [अध्याय 122]शाकद्वीप, कुशद्वीप, क्रौञ्चद्वीप और शाल्मलद्वीपका वर्णन
  123. [अध्याय 123]गोमेदकद्वीप और पुष्करद्वीपका वर्णन
  124. [अध्याय 124]सूर्य और चन्द्रमाको गतिका वर्णन
  125. [अध्याय 125]सूर्यकी गति और उनके रथका वर्णन
  126. [अध्याय 126]सूर्य रथ पर प्रत्येक मासमें भिन्न-भिन्न देवताओंका अधिरोहण तथा चन्द्रमाकी विचित्र गति
  127. [अध्याय 127]ग्रहोंके रथका वर्णन और ध्रुवकी प्रशंसा
  128. [अध्याय 128]देव-गृहों तथा सूर्य-चन्द्रमाकी गतिका वर्णन
  129. [अध्याय 129]त्रिपुर- निर्माणका वर्णन
  130. [अध्याय 130]दानवश्रेष्ठ मयद्वारा त्रिपुरकी रचना
  131. [अध्याय 131]त्रिपुरमें दैत्योंका सुखपूर्वक निवास, मयका स्वप्न-दर्शन और दैत्योंका अत्याचार
  132. [अध्याय 132]त्रिपुरवासी दैत्योंका अत्याचार, देवताओंका ब्रह्माकी शरणमें जाना और ब्रह्मासहित शिवजीके पास जाकर उनकी स्तुति करना
  133. [अध्याय 133]त्रिपुर- विध्वंसार्थ शिवजीके विचित्र रथका निर्माण और देवताओंके साथ उनका युद्धके लिये प्रस्थान
  134. [अध्याय 134]देवताओं सहित शङ्करजीका त्रिपुरपर आक्रमण, त्रिपुरमें देवर्षि नारदका आगमन तथा युद्धार्थ असुरोंकी तैयारी
  135. [अध्याय 135]शङ्करजीकी आज्ञा इन्द्रका त्रिपुरपर आक्रमण, दोनों सेनाओंमें भीषण संग्राम, विद्युन्मालीका वध, देवताओंकी विजय और दानवोंका युद्ध विमुख होकर त्रिपुरमें प्रवेश
  136. [अध्याय 136]मयका चिन्तित होकर अद्भुत बावलीका निर्माण करना, नन्दिकेश्वर और तारकासुरका भीषण युद्ध तथा प्रमथगणोंकी मारसे विमुख होकर दानवोंका त्रिपुर-प्रवेश
  137. [अध्याय 137]वापी शोषणसे मयको चिन्ता, मय आदि दानवोंका त्रिपुरसहित समुद्रमें प्रवेश तथा शंकरजीका इन्द्रको युद्ध करनेका आदेश
  138. [अध्याय 138]देवताओं और दानवोंमें घमासान युद्ध तथा तारकासुरका वध
  139. [अध्याय 139]दानवराज मयका दानवोंको समझा-बुझाकर त्रिपुरकी रक्षामें नियुक्त करना तथा त्रिपुरकौमुदीका वर्णन
  140. [अध्याय 140]देवताओं और दानवोंका भीषण संग्राम, नन्दीश्वरद्वारा विद्युन्मालीका वध, मयका पलायन तथा शङ्करजीकी त्रिपुरपर विजय
  141. [अध्याय 141]पुरूरवाका सूर्य-चन्द्रके साथ समागम और पितृतर्पण, पर्वसंधिका वर्णन तथा श्राद्धभोजी पितरोंका निरूपण
  142. [अध्याय 142]युगोंकी काल-गणना तथा त्रेतायुगका वर्णन
  143. [अध्याय 143]यज्ञकी प्रवृत्ति तथा विधिका वर्णन
  144. [अध्याय 144]द्वापर और कलियुगकी प्रवृत्ति तथा उनके स्वभावका वर्णन, राजा प्रमतिका वृत्तान्त तथा पुनः कृतयुगके प्रारम्भका वर्णन
  145. [अध्याय 145]युगानुसार प्राणियोंको शरीर स्थिति एवं वर्ण-व्यवस्थाका वर्णन, श्रौतस्मार्त, धर्म, तप, यज्ञ, क्षमा, शम, दया आदि गुणोंका लक्षण, चातुर्होत्र की विधि तथा पाँच प्रकारके ऋषियोंका वर्णन
  146. [अध्याय 146]वज्राङ्गकी उत्पत्ति, उसके द्वारा इन्द्रका बन्धन, ब्रह्मा और कश्यपद्वारा समझाये जानेपर इन्द्रको बन्धनमुक्त करना, वज्राङ्गका विवाह, तप तथा ब्रह्माद्वारा वरदान
  147. [अध्याय 147]ब्रह्माके वरदानसे तारकासुरकी उत्पत्ति और उसका राज्याभिषेक
  148. [अध्याय 148]तारकासुरकी तपस्या और ब्रह्माद्वारा उसे वरदानप्राप्ति, देवासुर संग्रामकी तैयारी तथा दोनों दलोंकी सेनाओंका वर्णन
  149. [अध्याय 149]देवासुर संग्रामका प्रारम्भ
  150. [अध्याय 150]देवताओं और असुरोंकी सेनाओंमें अपनी-अपनी जोड़ीके साथ घमासान युद्ध, देवताओंके विकल होनेपर भगवान् विष्णुका युद्धभूमिमें आगमन और कालनेमिको परास्त कर उसे जीवित छोड़ देना
  151. [अध्याय 151]भगवान् विष्णुपर दानवोंका सामूहिक आक्रमण, भगवान् विष्णुका अद्भुत युद्ध-कौशल और उनके द्वारा दानव सेनापति ग्रसनकी मृत्यु
  152. [अध्याय 152]भगवान् विष्णुका मधन आदि दैत्योंके साथ भीषण संग्राम और अन्तमें घायल होकर युद्धसे पलायन
  153. [अध्याय 153]भगवान् विष्णु और इन्द्रका परस्पर उत्साहवर्धक वार्तालाप, देवताओंद्वारा पुनः सैन्ध-संगठन, इन्द्रका असुरोंके साथ भीषण युद्ध, गजासुर और जम्भासुरकी मृत्यु तारकासुरका घोर संग्राम और उसके द्वारा भगवान् विष्णुसहित देवताओंका बंदी बनाया जाना
  154. [अध्याय 154]तारकके आदेश से देवताओंकी बन्धन-मुक्ति, देवताओंका ब्रह्माके पास जाना और अपनी विपत्तिगाथा सुनाना, ब्रह्माद्वारा तारक-वधके उपायका वर्णन, रात्रिदेवीका प्रसङ्ग, उनका पार्वतीरूपमें जन्म, काम दहन और रतिकी प्रार्थना, पार्वतीकी तपस्या, शिवपार्वती विवाह तथा पार्वतीका वीरकको पुत्ररूपमें स्वीकार करना *
  155. [अध्याय 155]भगवान् शिवद्वारा पार्वतीके वर्णपर आक्षेप, पार्वतीका वीरकको अन्तःपुरका रक्षक नियुक्त कर पुनः तपश्चर्याके लिये प्रस्थान
  156. [अध्याय 156]कुसुमामोदिनी और पार्वतीकी गुप्त मन्त्रणा, पार्वतीका तपस्यायें निरत होना आदि दैत्यका पार्वतीरूपमें शंकरके पास जाना और मृत्युको प्राप्त होना तथा पार्वतीद्वारा वीरकको शाप
  157. [अध्याय 157]पार्वतीद्वारा वीरकको शाप, ब्रह्माका पार्वती तथा एकानंशाको वरदान, एकानंशाका विन्ध्याचलके लिये प्रस्थान, पार्वतीका भवनद्वारपर पहुँचना और वीरकद्वारा रोका जाना
  158. [अध्याय 158]वीरकद्वारा पार्वतीकी स्तुति, पार्वती और शंकरका पुनः समागम, अग्निको शाप, कृत्तिकाओंकी प्रतिज्ञा और स्कन्दकी उत्पत्ति
  159. [अध्याय 159]स्कन्दकी उत्पत्ति, उनका नामकरण, उनसे देवताओंकी प्रार्थना और उनके द्वारा देवताओंको आश्वासन, तारकके पास देवदूतद्वारा संदेश भेजा जाना और सिद्धोंद्वारा कुमारकी स्तुति
  160. [अध्याय 160]तारकासुर और कुमारका भीषण युद्ध तथा कुमारद्वारा तारकका वध
  161. [अध्याय 161]हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरप्राप्ति, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, विष्णुद्वारा देवताओंको अभयदान, भगवान् विष्णुका नृसिंहरूप धारण करके हिरण्यकशिपुकी विचित्र सभायें प्रवेश
  162. [अध्याय 162]प्रह्लादद्वारा भगवान् नरसिंहका स्वरूप वर्णन तथा नरसिंह और दानवोंका भीषण युद्ध
  163. [अध्याय 163]नरसिंह और हिरण्यकशिपुका भीषण युद्ध, दैत्योंको उत्पातदर्शन, हिरण्यकशिपुका अत्याचार, नरसिंहद्वारा हिरण्यकशिपुका वध तथा ब्रह्मद्वारा नरसिंहकी स्तुति
  164. [अध्याय 164]पद्मोद्भवके प्रसङ्गमें मनुद्वारा भगवान् विष्णुसे सृष्टिसम्बन्धी विविध प्रश्न और भगवान्‌का उत्तर
  165. [अध्याय 165]चारों युगोंकी व्यवस्थाका वर्णन
  166. [अध्याय 166]महाप्रलयका वर्णन
  167. [अध्याय 167]भगवान् विष्णुका एकार्णवके जलमें शयन, मार्कण्डेयको आश्चर्य तथा भगवान् विष्णु और मार्कण्डेयका संवाद
  168. [अध्याय 168]पञ्चमहाभूतों का प्राकट्य तथा नारायणकी नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  169. [अध्याय 169]नाभिकमलसे ब्रह्माका प्रादुर्भाव तथा उस कमलका साङ्गोपाङ्ग वर्णन
  170. [अध्याय 170]मधु-कैटभकी उत्पत्ति, उनका ब्रह्माके साथ वार्तालाप और भगवानद्वारा बध
  171. [अध्याय 171]ब्रह्माके मानस पुत्रोंकी उत्पत्ति, दक्षकी बारह कन्याओंका वृत्तान्त, ब्रह्माद्वारा सृष्टिका विकास तथा विविध
  172. [अध्याय 172]तारकामय-संग्रामकी भूमिका एवं भगवान् विष्णुका महासमुद्रके रूपमें वर्णन, तारकादि असुरोंके अत्याचारसे दुःखी होकर देवताओंकी भगवान् विष्णुसे प्रार्थना और भगवान्का उन्हें आश्वासन
  173. [अध्याय 173]दैत्यों और दानवोंकी युद्धार्थ तैयारी
  174. [अध्याय 174]देवताओंका युद्धार्थ अभियान
  175. [अध्याय 175]देवताओं और दानवोंका घमासान युद्ध, मयकी तामसी माया, और्वाग्निकी उत्पत्ति और महर्षि द्वारा हिरण्यकशिपुको उसकी प्राप्ति
  176. [अध्याय 176]चन्द्रमाकी सहायतासे वरुणद्वारा और्वाग्नि- मायाका प्रशमन, मयद्वारा शैली-मायाका प्राकट्य, भगवान् विष्णुके आदेश से अग्नि और वायुद्वारा उस मायाका निवारण तथा कालनेमिका रणभूमिमें आगमन
  177. [अध्याय 177]देवताओं और दैत्योंकी सेनाओंकी अद्भुत मुठभेड़, कालनेमिका भीषण पराक्रम और उसकी देवसेनापर विजय
  178. [अध्याय 178]कालनेमि और भगवान् विष्णुका रोषपूर्वक वार्तालाप और भीषण युद्ध, विष्णुके चक्रके द्वारा कालनेमिका वध और देवताओंको पुनः निज पदकी प्राप्ति
  179. [अध्याय 179]शिवजीके साथ अन्धकासुरका युद्ध, शिवजीद्वारा मातृकाओंकी सृष्टि, शिवजीके हाथों अन्धककी मृत्यु और उसे गणेशत्वकी प्राप्ति, मातृकाओंकी विध्वंसलीला तथा विष्णुनिर्मित देवियोंद्वारा उनका अवरोध
  180. [अध्याय 180]वाराणसी माहात्म्यके प्रसङ्गमें हरिकेश यक्षकी तपस्या, अविमुक्तकी शोभा और उसका माहात्म्य तथा हरिकेशको शिवजीद्वारा वरप्राप्ति
  181. [अध्याय 181]अविमुक्तक्षेत्र (वाराणसी) का माहात्म्य
  182. [अध्याय 182]अविमुक्त-माहात्म्य
  183. [अध्याय 183]अविमुक्तमाहात्म्यके प्रसङ्गमें शिव-पार्वतीका प्रश्नोत्तर
  184. [अध्याय 184]काशीकी महिमाका वर्णन
  185. [अध्याय 185]वाराणसी माहात्य
  186. [अध्याय 186]नर्मदा माहात्म्यका उपक्रम
  187. [अध्याय 187]नर्मदामाहात्यके प्रसङ्गमें पुनः त्रिपुराख्यान
  188. [अध्याय 188]त्रिपुर- दाहका वृत्तान्त
  189. [अध्याय 189]नर्मदा-कावेरी संगमका माहात्म्य
  190. [अध्याय 190]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थ
  191. [अध्याय 191]नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका माहात्म्य
  192. [अध्याय 192]शुक्लतीर्थका माहाल्य
  193. [अध्याय 193]नर्मदामाहात्म्य-प्रसङ्गमें कपिलादि विविध तीर्थोंका माहात्म्य, भृगुतीर्थका माहात्स्य, भृगुमुनिको तपस्या, शिव-पार्वतीका उनके समक्ष प्रकट होना, भृगुद्वारा उनकी स्तुति और शिवजीद्वारा भृगुको वर प्रदान
  194. [अध्याय 194]नर्मदातटवर्ती तीर्थोका माहात्म्य
  195. [अध्याय 195]गोत्रप्रवर-निरूपण-प्रसङ्गमें भृगुवंशकी परम्पराका विवरण
  196. [अध्याय 196]प्रवरानुकीर्तनमें महर्षि अङ्गिराके वंशका वर्णन
  197. [अध्याय 197]महर्षि अत्रिके वंशका वर्णन
  198. [अध्याय 198]प्रवरानुकौर्तन में महर्षिं विश्चामित्र के वंशका वर्णन
  199. [अध्याय 199]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि कश्यपके वंशका वर्णन
  200. [अध्याय 200]गोत्रप्रवर-कीर्तनमें महर्षि वसिष्ठकी शाखाका कथन
  201. [अध्याय 201]प्रवरानुकीर्तन महर्षि पराशरके वंशका वर्णन
  202. [अध्याय 202]गोत्रप्रवरकीर्तनमें महर्षि अगस्त्य, पुलह, पुलस्त्य और क्रतुकी शाखाओंका वर्णन
  203. [अध्याय 203]प्रवरकीर्तनमें धर्मके वंशका वर्णन
  204. [अध्याय 204]श्राद्धकल्प – पितृगाथा-कीर्तन
  205. [अध्याय 205]धेनु-दान-विधि
  206. [अध्याय 206]कृष्णमृगचर्मके दानकी विधि और उसका माहाय्य
  207. [अध्याय 207]उत्सर्ग किये जानेवाले वृषके लक्षण, वृषोत्सर्गका विधान और उसका महत्त्व
  208. [अध्याय 208]सावित्री और सत्यवान्‌का चरित्र
  209. [अध्याय 209]सत्यवान्का सावित्रीको वनकी शोभा दिखाना
  210. [अध्याय 210]यमराजका सत्यवान के प्राणको बाँधना तथा सावित्री और यमराजका वार्तालाप
  211. [अध्याय 211]सावित्रीको यमराजसे द्वितीय वरदानकी प्राप्ति
  212. [अध्याय 212]यमराज - सावित्री-संवाद तथा यमराजद्वारा सावित्रीको तृतीय वरदानकी प्राप्ति
  213. [अध्याय 213]सावित्रीकी विजय और सत्यवान्की बन्धन मुक्ति
  214. [अध्याय 214]सत्यवान्‌को जीवनलाभ तथा पत्नीसहित राजाको नेत्रज्योति एवं राज्यकी प्राप्ति
  215. [अध्याय 215]राजाका कर्तव्य, राजकर्मचारियोंके लक्षण तथा राजधर्मका निरूपण
  216. [अध्याय 216]राजकर्मचारियोंके धर्मका वर्णन
  217. [अध्याय 217]दुर्ग-निर्माणकी विधि तथा राजाद्वारा दुर्गमें संग्रहणीय उपकरणोंका विवरण
  218. [अध्याय 218]दुर्गमें संग्राह्य ओषधियोंका वर्णन
  219. [अध्याय 219]विषयुक्त पदार्थोके लक्षण एवं उससे राजाके बचने के उपाय
  220. [अध्याय 220]राजधर्म एवं सामान्य नीतिका वर्णन
  221. [अध्याय 221]दैव और पुरुषार्थका वर्णन
  222. [अध्याय 222]साम-नीतिका वर्णन
  223. [अध्याय 223]नीति चतुष्टयीके अन्तर्गत भेद नीतिका वर्णन
  224. [अध्याय 224]दान-नीतिकी प्रशंसा
  225. [अध्याय 225]दण्डनीतिका वर्णन
  226. [अध्याय 226]सामान्य राजनीतिका निरूपण
  227. [अध्याय 227]दण्डनीतिका निरूपण
  228. [अध्याय 228]अद्भुत शान्तिका वर्णन
  229. [अध्याय 229]उत्पातोंके भेद तथा कतिपय ऋतुस्वभावजन्य शुभदायक अद्भुतोका वर्णन
  230. [अध्याय 230]अद्भुत उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  231. [अध्याय 231]अग्निसम्बन्धी उत्पातके लक्षण तथा उनकी शान्तिके उपाय
  232. [अध्याय 232]वृक्षजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  233. [अध्याय 233]वृष्टिजन्य उत्पातके लक्षण और उनकी शान्तिके उपाय
  234. [अध्याय 234]जलाशयजनित विकृतियाँ और उनकी शान्तिके उपाय
  235. [अध्याय 235]प्रसवजनित विकारका वर्णन और उसकी शान्ति
  236. [अध्याय 236]उपस्कर - विकृतिके लक्षण और उनकी शान्ति
  237. [अध्याय 237]पशु-पक्षी सम्बन्धी उत्पात और उनकी शान्ति
  238. [अध्याय 238]राजाकी मृत्यु तथा देशके विनाशसूचक लक्षण और उनकी शान्ति
  239. [अध्याय 239]ग्रहयागका विधान
  240. [अध्याय 240]राजाओंकी विजयार्थ यात्राका विधान
  241. [अध्याय 241]अङ्गस्फुरणके शुभाशुभ फल
  242. [अध्याय 242]शुभाशुभ स्वप्नोंके लक्षण
  243. [अध्याय 243]शुभाशुभ शकुनोंका निरूपण
  244. [अध्याय 244]वामन-प्रादुर्भाव-प्रसङ्गमें श्रीभगवान्द्वारा अदितिको वरदान
  245. [अध्याय 245]बलिद्वारा विष्णुकी निन्दापर प्रह्लादका उन्हें शाप, बलिका अनुनय, ब्रह्माजीद्वारा वामनभगवान्‌का स्तवन, भगवान् वामनका देवताओंको आश्वासन तथा उनका बलिके यज्ञके लिये प्रस्थान
  246. [अध्याय 246]बलि-शुक्र- संवाद, वामनका बलिके यज्ञमें पदार्पण, बलिद्वारा उन्हें तीन डग पृथ्वीका दान, वामनद्वारा बलिका बन्धन और वर प्रदान
  247. [अध्याय 247]अर्जुनके वाराहावतारविषयक प्रश्न करनेपर शौनकजी द्वारा भगवत्स्वरूपका वर्णन
  248. [अध्याय 248]वराहभगवान्का प्रादुर्भाव, हिरण्याक्षद्वारा रसातलमें ले जायी गयी पृथ्वीदेवीद्वारा यज्ञवराहका भगवानद्वारा उनका उद्धारस्तवन और
  249. [अध्याय 249]अमृत-प्राप्तिके लिये समुद्र मन्थनका उपक्रम और वारुणी (मदिरा) का प्रादुर्भाव
  250. [अध्याय 250]अमृतार्थ समुद्र मन्धन करते समय चन्द्रमासे लेकर विपतकका प्रादुर्भाव
  251. [अध्याय 251]अमृतका प्राकट्य, मोहिनीरूपधारी भगवान् विष्णुद्वारा देवताओंका अमृत पान तथा देवासुरसंग्राम
  252. [अध्याय 252]वास्तुके प्रादुर्भावकी कथा
  253. [अध्याय 253]वास्तु चक्रका वर्णन
  254. [अध्याय 254]वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत राजप्रासाद आदिकी निर्माण-विधि
  255. [अध्याय 255]वास्तुविषयक वेधका विवरण
  256. [अध्याय 256]वास्तुप्रकरणमें गृह निर्माणविधि
  257. [अध्याय 257]गृहनिर्माण (वास्तुकार्य ) में ग्राह्य काष्ठ
  258. [अध्याय 258]देव-प्रतिमाका प्रमाण-निरूपण
  259. [अध्याय 259]प्रतिमाओंके लक्षण, मान, आकार आदिका कथन
  260. [अध्याय 260]विविध देवताओंकी प्रतिमाओंका वर्णन
  261. [अध्याय 261]सूर्यादि विभिन्न देवताओंकी प्रतिमाके स्वरूप, प्रतिष्ठा और पूजा आदिकी विधि
  262. [अध्याय 262]पीठिकाओंके भेद, लक्षण और फल
  263. [अध्याय 263]शिवलिङ्गके निर्माणकी विधि
  264. [अध्याय 264]प्रतिमा-प्रतिष्ठा के प्रसङ्गमें यज्ञाङ्गरूप कुण्डादिके निर्माणकी विधि
  265. [अध्याय 265]प्रतिमाके अधिवासन आदिकी विधि
  266. [अध्याय 266]प्रतिमा प्रतिष्ठाकी विधि
  267. [अध्याय 267]देव (प्रतिमा) - प्रतिष्ठा के अङ्गभूत अभिषेक-स्नानका निरूपण
  268. [अध्याय 268]वास्तु शान्तिकी विधि
  269. [अध्याय 269]प्रासादोंके भेद और उनके निर्माणकी विधि
  270. [अध्याय 270]प्रासाद संलग्न मण्डपोंके नाम, स्वरूप, भेद और उनके निर्माणकी विधि
  271. [अध्याय 271]राजवंशानुकीर्तन *
  272. [अध्याय 272]कलियुगके प्रद्योतवंशी आदि राजाओं का वर्णन
  273. [अध्याय 273]आन्ध्रवंशीय शकवंशीय एवं यवनादि राजाओंका संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण
  274. [अध्याय 274]षोडश दानान्तर्गत तुलादानका वर्णन
  275. [अध्याय 275]हिरण्यगर्भदानकी विधि
  276. [अध्याय 276]ब्रह्माण्डदानकी विधि
  277. [अध्याय 277]कल्पपादप-दान-विधि
  278. [अध्याय 278]गोसहस्त्र दानकी विधि
  279. [अध्याय 279]कामधेनु दानकी विधि
  280. [अध्याय 280]हिरण्याश्व - दानकी विधि
  281. [अध्याय 281]हिरण्याश्वरथ दानकी विधि
  282. [अध्याय 282]हेमहस्तिरथ-दानकी विधि
  283. [अध्याय 283]पञ्चाङ्गल (हल) प्रदानकी विधि
  284. [अध्याय 284]हेमधरा (सुवर्णमयी पृथ्वी) दानकी विधि
  285. [अध्याय 285]विश्वचक्रदानकी विधि
  286. [अध्याय 286]कनककल्पलतादानकी विधि
  287. [अध्याय 287]सप्तसागर दानकी विधि
  288. [अध्याय 288]रत्नधेनुदानकी विधि
  289. [अध्याय 289]महाभूतघट-दानकी विधि
  290. [अध्याय 290]कल्पानुकीर्तन
  291. [अध्याय 291]मत्स्यपुराणकी अनुक्रमणिका