सूतजी कहते हैं-ऋषिगण । तदनन्तर ( रणभूमिमें असुर सेनानी) ग्रसनको सम्मुख उपस्थित देखकर यमराज क्रोधसे क्षुब्ध हो उठे। उन्होंने ग्रसनके ऊपर अग्निके समान तेजस्वी वाणोंकी वर्षा प्रारम्भ कर दी। अत्यन्त पराक्रमी ग्रसन भी बहुसंख्यक बाणोंके प्रहारसे घायल होकर भयंकर धनुषको प्रत्यचा चढ़ाकर अत्यन्त भीषण पाँच सौ बाणोंसे यमराजको बींध डाला। उन | बाणोंके आघातसे ग्रसनके प्रबल पुरुषार्थका भलीभाँति विचार कर यमराज पुनः घोर बाणवृष्टिद्वारा ग्रसनको | पीड़ा पहुँचाने लगे। तब दानवेश्वर ग्रसनने गगनमण्डलमें फैलती हुई यमराजकी उस बाणवृष्टिको अपने वाणोंकी वर्षासे छिन्न-भिन्न कर दिया। इस प्रकार अपनी उस बाणवृष्टिको विफल हुई देखकर यमराज अपने बाणसमूहोंके विषयमें विचार करने लगे। तत्पश्चात् उन्होंने उस ग्रसनके रथपर बड़े वेगसे अपना भयंकर मुद्रर फेंका। उस मुद्ररको अपनी ओर आते देख दानवनन्दन ग्रसनने रथसे उछलकर ऊपर-ही-ऊपर | यमराजके उस मुद्गरको बायें हाथसे पकड़ लिया और उसी मुगरको लेकर क्रोधपूर्वक बड़े वेगसे यमराजके भैंसेपर दे मारा, जिसके आघातसे वह धराशायी हो गया। तब यमराज उस गिरते हुए भैंसेकी पीठसे उछलकर अलग हो गये। फिर तो उन्होंने भालेसे ग्रसनके मुखपर गहरी चोट पहुँचायी। तब भालेके प्रहारसे मूच्छित होकर ग्रसन भूतलपर गिर पड़ा। ग्रसनको धराशायी हुआ देखकर भयंकर पराक्रमी जम्भने भिन्दिपाल (ढेलवाँस) से यमराजके हृदयपर प्रहार किया। उस प्रहारसे घायल होकर यमराज मुखसे खून उगलने लगे ॥ 111 ॥ इस प्रकार यमराजको घायल हुआ देखकर धनेश्वर कुबेरने हाथमें गदा लेकर दस लाख यक्षोंके साथ क्रोधपूर्वक जम्भपर धावा किया।तब क्रोधपूर्वक कुबेरको आक्रमण करते देखकर दानवोंकी सेनासे घिरा हुआ बुद्धिमान् जम्भ प्रेमीद्वारा कही गयी मधुर वाणीकी तरह वचन बोला इतनेमें ही ग्रसनकी चेतना लौट आयी। फिर तो उसने यमराजपर ऐसी गदाका प्रहार किया, जो बड़ी वजनदार थी, जिसमें मणि और सुवर्ण जड़े हुए थे तथा जो शत्रुओंका विनाश करनेवाली थी। उस अप्रत्याशित गदाको अपनी ओर आती देखकर महिषवाहन यमराजने क्रोधपूर्वक उस गदाका प्रतिरोध करनेके लिये अपने उस दण्डको छोड़ दिया, जो संसारका विनाश करनेमें समर्थ और अत्यन्त भयंकर था तथा जिससे अग्निके समान लपटें निकल रही थीं। वह दण्ड आकाशमें गदासे टकराकर मेघकी सी गर्जना करने लगा। फिर तो दण्ड और गदामें दो पर्वतोंकी भाँति दुःसह संघर्ष छिड़ गया। उन दोनों अस्त्रोंके टक्करसे उत्पन्न हुए शब्दसे सारी दिशाएँ जड़ हो गर्यो और जगत् प्रलयके आगमनकी आशङ्कासे व्याकुल हो गया। क्षणमात्र पश्चात् शब्द शान्त हो गया और उन दोनोंके मध्य जलती हुई उल्काके समान प्रकाश होने लगा। उन दोनोंके संघर्षसे आकाशमण्डल अत्यन्त भयंकर दीख रहा था। तदनन्तर दण्डने गदाको तोड़-मरोड़कर ग्रसनके मस्तकपर ऐसा कठोर आघात किया, जैसे दुराचारीका अनिष्ट उसकी श्रीका नाश करके उसे समाप्त कर देता है। उस प्रहारसे व्याकुल हुए ग्रसनको सारी दिशाएँ अन्धकारमयी दिखायी देने लगी अर्थात् उसकी आँखों-तले अँधेरा छा गया। वह चेतनारहित होकर भूतलपर गिर पड़ा और उसका शरीर पृथ्वीकी धूलसे धूसरित हो गया। तत्पश्चात् दोनों सेनाओंमें भयंकर हाहाकार मच गया ॥ 12-21 ॥
तदनन्तर दो घड़ीके पश्चात् जब ग्रसनकी चेतना वापस लौटी तब उसने देखा कि उसका शरीर ध्वस्त हो गया है और उसके आभूषण तथा वस्त्र अस्त व्यस्त हो गये हैं। फिर तो वह भी ऐसा करनेवालेसे बदला चुकानेका विचार करने लगा। वह मन-ही-मन सोचने लगा- मुझ जैसे बली पुरुषके जीते-जी स्वामीके | परिभवके लक्षण दिखायी पड़ रहे हैं मेरे पराजित हो जानेपर मेरे आश्रित रहनेवाली सेनाएँ भी नष्ट हो | जायँगी। अयोग्य पुरुष ही स्वछन्दाचारी हो सकता है,किंतु जो पुरुष सैकड़ों बार योग्य घोषित किया जा चुका है, वह स्वच्छन्द नहीं हो सकता। (अर्थात् जिसकी जगत्में कोई प्रतिष्ठा नहीं है, वह स्वेच्छानुसार कार्य कर सकता है, किंतु जो सैकड़ों बार लब्धप्रतिष्ठ हो चुका है, उसे स्वामीके अधीन रहकर ही कार्य करना चाहिये।) ऐसा विचारकर महाबली ग्रसन वेगपूर्वक उठ खड़ा हुआ। उसका शरीर पर्वतके समान विशाल था। वह भयंकर विचारसे युक्त था और क्रोधवश दाँतोंसे होंठको दबाये हुए था। इस प्रकार वह शीघ्रतापूर्वक रथपर सवार हो हाथमें कालदण्डके सदृश मुद्रर लेकर रणभूमिमें यमराजके निकट आ पहुँचा। युद्धस्थलमें यमराजके सम्मुख आकर ग्रसनने उस भयानक मुगरको बड़े वेग से घुमाकर यमराजके मस्तकपर फेंक दिया। उस प्रकाशमान मुद्ररको आते हुए देखकर यमराजके नेत्र चकमका गये। तत्पश्चात् महाबली यमराजने अपने स्थानसे हटकर उस दुर्धर्ष मुद्ररको लक्ष्यसे वञ्चित कर दिया। यमराजके दूर हट जानेपर उस मुद्ररने यमराजके हजारों पराक्रमी एवं भयंकर कर्म करनेवाले किंकरोंको पीस डाला। तत्पश्चात् उस भयंकर किंकर-सेनाको मारी गयी देखकर यमराजको परम क्षोभ हुआ। तब वे नाना प्रकारके अस्त्रोंका प्रहार करनेके लिये उद्यत हो गये ॥ 22-30 3 ॥
उधर ग्रसनने उस सेनाको किकरोंसे व्याप्त देखकर | ऐसा समझा कि यमराजकी मायाद्वारा रचे गये ये हजारों यमराज ही हैं। फिर तो ग्रसन सेनाको रोककर उसपर अस्त्रोंको वृष्टि करने लगा। उस समय वह कल्पान्तके समय क्षुब्ध हुए भयंकर समुद्रकी भाँति क्रोधसे विह्वल हो उठा था उसने कुछ किंकरोंको त्रिशूलसे और कुछको सीधे जानेवाले बाणोंसे विदीर्ण कर दिया। कुछको गढ़के प्रहारसे और कुछको मुद्रोंकी वर्षा पीस डाला। कुछ भयंकर भालोंके प्रहारसे घायल कर दिये गये। दूसरे बहुत से उसकी बाहुओंपर लटके हुए थे। इधर किंकरोंमेंसे बहुत से लोग शिलाओंद्वारा | तथा अन्य कुछ लोग ऊँचे-ऊँचे वृक्षोंद्वारा ग्रसनपरप्रहार कर रहे थे। कुछ उसके शरीराङ्गोंमें दाँतोंसे काट रहे थे। दूसरे किंकर उसकी पीठपर मुक्केसे प्रहार कर रहे थे। इस प्रकार घोरकर्मा किंकरोंद्वारा पीछा किये जानेपर ग्रसन अत्यन्त क्रुद्ध हो गया। उसने अपने शरीरको भूतलपर गिराकर हजारों किंकरोंको उसके नीचे पीस डाला। फिर उठकर कुछ किंकरोंको मुक्कैसे पीटकर मौतके घाट उतार दिया। इस प्रकार किंकरोंके साथ युद्ध करनेसे ग्रसन थकावटसे चूर हो गया था। तब ग्रसनको थका हुआ तथा अपनी सेनाको मारी गयी | देखकर महिषवाहन यमराज हाथमें दण्ड लेकर आ पहुँचे। ग्रसनने सम्मुख आये हुए यमराजके वक्षःस्थलपर गदासे प्रहार किया। तब शत्रुसूदन यमराजने ग्रसनके उस प्रहारकी कुछ भी परवाह न कर उसके रथके अग्रभागमें जुते हुए बाघोंपर क्रोधपूर्वक दण्डसे प्रहार किया। उस दण्डप्रहारसे आधे बाघोंके मारे जानेपर वह रथ आधे बाघोंद्वारा ही खींचा जा रहा था ॥ 31-41 ।।
उस समय दैत्यराज ग्रसनका वह रथ पुरुषके संशयग्रस्त चित्तकी भाँति अस्थिर हो गया था। अतः दैत्यराज ग्रसन रथको छोड़कर भूतलपर आ गया और पैदल ही आगे बढ़कर यमराजको दोनों भुजाओंसे पकड़कर युद्ध करने लगा। तब यमराज भी शस्त्रोंको छोड़कर बाहुयुद्धमें प्रवृत्त हो गये। बलाभिमानी प्रसन यमराजके कमरबंदको पकड़कर उन्हें घूमते हुए दीपककी भाँति वेगपूर्वक घुमाने लगा। तब यमराज भी अपनी दोनों भुजाओंसे दैत्यके गलेको पकड़कर उसे वेगपूर्वक भूतलसे ऊपर खींचकर बड़ी देरतक घुमाते रहे। तत्पश्चात् वे दोनों परस्पर एक-दूसरेको पीड़ित करते हुए मुक्कोंसे प्रहार करने लगे। उस समय दैत्येन्द्र ग्रसनके विशालकाय होनेके कारण यमराजकी भुजाएँ शिथिल हो गयीं। तब वे उस दैत्यके कंधेपर अपना मुख रखकर विश्राम करनेकी | इच्छा करने लगे। यमराजको इस प्रकार थका हुआ देखकरग्रसन उन्हें बलपूर्वक पृथ्वीपर पटककर बारम्बार रगड़ने लगा और पैरोंकी ठोकरों और घूँसोंसे तबतक मारता रहा, जबतक यमराजके मुखसे बहुत-सा रक्त बहने लगा। तत्पश्चात् दानवराजने यमराजको प्राणहीन देखकर उन्हें छोड़ दिया। फिर गम्भीर गर्जना करनेवाला दैत्यराज ग्रसन विजयी होकर सिंहनाद करता हुआ अपनी सेनामें पहुँचकर पर्वतकी भाँति अटल होकर खड़ा हो गया । ll 42 - 49ई ॥
उधर क्रोधसे भरे हुए जम्भने अपने मर्मभेदी बाणोंद्वारा कुबेरके सारे मार्ग (दिशाएँ) अवरुद्ध कर दिये और उनकी सेनाको काटना आरम्भ किया। यह देखकर धनेश क्रोधसे भर उठे। उन्होंने युद्धभूमिमें अग्निके समान वर्चस्वी एक हजार बाणोंसे दानवराज जम्भके हृदयको बींध दिया। फिर सौ बाणोंसे सारथिको, दस बाणोंसे ध्वजको, पचहत्तर बाणोंसे उसके दोनों हाथोंको, दस बाणोंसे धनुषको एक बाणसे (उसके वाहन) सिंहको और दस तीखे बाणोंसे पुनः उस दानवराजको बींध दिया। इन सब बाणोंमें मोरके पंख लगे हुए थे तथा ये तेलमें डालकर साफ किये हुए और सीधे लक्ष्यवेध करनेवाले थे। धनेशके उस अत्यन्त दुष्कर कर्मको देखकर जम्भका मन कुछ भयभीत हो उठा। फिर उसने हृदयमें धैर्य धारण कर शत्रुओंके मर्मको विदीर्ण करनेवाले तीखे बाणोंको हाथमें लिया। उस समय दानवराज जम्भ क्रोधसे भरा हुआ था। उसने अपने धनुषको कानतक खींचकर तीखे बाणोंसे कुबेरके वक्षःस्थलको बाँध दिया। फिर उनके सारथिके हृदयपर एक सुदृढ़ बाणसे आघात किया और तेलमें सफाये हुए एक बाणसे उनकी प्रत्यञ्चाको काट दिया। तदनन्तर क्रूरकर्मा दानवराज जम्भने तीखे एवं मर्मभेदी दस भयंकर बाणोंसे कुबेरके वक्षःस्थलको पुनः घायल कर दिया। तब बुरी तरह घायल हुए कुबेर मूच्छित हो गये। क्षणमात्रके बाद कुबेरकी मूर्च्छा भंग हुई, तब उन्होंने धैर्य धारणकर अपने भयंकर धनुषको वेगपूर्वक खींचकर हजारों तीखे बाणोंकी वर्षा करते हुए दिशाओं, विदिशाओं, आकाश, पृथ्वी औरअसुरकी सेनाओंको ढक दिया। यहाँतक कि उस बाणवर्षासे सूर्यमण्डल भी आच्छादित हो गया ॥ 50–60 3 ॥
तब शीघ्रतापूर्वक बाण संधान करनेवाले जम्भने भी युद्धस्थलमें परम पुरुषार्थ प्रकट करके कुबेरके एक-एक बाणको बहुसंख्यक बाणोंसे काट गिराया। दानवेन्द्रके उस | कर्मको देखकर धनेश अत्यन्त कुपित हो उठे तब वे नाना प्रकारके बाणोंकी वृष्टि करके उसकी सेनाका विध्वंस करने लगे। कुबेरके दुष्कर कर्मको देखकर दानवराज जम्भने लौहनिर्मित एवं स्वर्णजटित भयंकर मुगरको लेकर कुबेरके अनुचर हजारों यक्षोंको चकनाचूर कर दिया। दैत्यद्वारा मारे जाते हुए वे सभी यक्ष भयंकर चीत्कार करते हुए कुबेर के रथको घेरकर खड़े हो गये। उन यक्षोंको दुःखी देखकर कुबेरने अपना भीषण त्रिशूल हाथमें लिया और उससे शीघ्र ही हजारों दैत्योंको मौतके हवाले कर दिया। इस प्रकार दैत्योंका विनाश होते देखकर दानवराज जम्भ क्रोधसे भर गया और उसने देवताओंका मर्दन करनेवाले तेज धारसे युक्त फरसेसे कुबेरके महान् रथको उसी प्रकार तिल-तिल करके काट डाला, जैसे चूहा रेशमी वस्त्रको कुतर डालता है। इससे कुबेर परम क्रुद्ध हो उठे, तब उन्होंने पैदल ही अपनी उस भयंकर गदाको, जो बड़े-बड़े युद्धोंमें गर्वीले शत्रुओंका विनाश करनेवाली, सभी प्राणियोंके लिये अधृष्य, बहुत वर्षोंसे पूजित, नाना प्रकारके चन्दनोंके अनुलेपसे युक्त, दिव्य पुष्पोंसे सुवासित, निर्मल लौहकी बनी हुई, वजनदार, अमोघ और स्वर्णभूषित थी, हाथमें लेकर जम्भके मस्तकको लक्ष्य बनाकर छोड़ दिया ॥ 61-71 ॥
विद्युत्समूहसे विभूषित-जैसी उस गदाको अपनी ओर आती देखकर दैत्यराज जम्भ उसको नष्ट करनेके लिये बाणोंकी वृष्टि करने लगा। यद्यपि प्रचण्ड पराक्रमी जम्भ स्वर्णनिर्मित बाजूबन्दोंद्वारा विभूषित भुजाओंसे चक्रों, कुणपों, भालों, भुशुण्डियों और पट्टिशोंका प्रहारकर रहा था तथापि चमकती हुई वह भयंकर गदा उन सभी आयुधोंको विफल कर जम्भके वक्षःस्थलपर उसी प्रकार गिरी, मानो पर्वतकी कन्दरामें विशाल उल्का आ गिरी हो। उस गदाके आघातसे अत्यन्त घायल हुआ जम्भ रथके कूवरपर गिर पड़ा। उसके शरीर के छिद्रोंसे खूनको धारा बहने लगी, जिससे वह चेतनारहित हो गया ॥ 72-75 ।।
जम्भको मरा हुआ समझकर भयंकर गर्जना करनेवाला क्रोधी कुजम्भ कुबेरके वाक्यसे अत्यन्त कुपित हो उठा। उसने यक्षराजके चारों ओर बाणोंका जाल बिछा दिया। तदनन्तर बलवान् यक्षराजने तीखे अर्धचन्द्र बाणोंके प्रहारसे उस बाणजालको छिन्न-भिन्न कर दिया और वे उस दैत्यपर बाणोंकी वृष्टि करने लगे; परन्तु दैत्यराज कुजम्भने अपने तीखे बाणोंसे उस बाणवृष्टिको काट दिया। उस बाणवृष्टिको विफल हुई देखकर धनेशने अपनी उस दुर्धर्ष शक्तिको हाथमें उठाया, जिसमें स्वर्णनिर्मित घंटियोंके शब्द हो रहे थे। उन्होंने अपने रत्ननिर्मित बाजूबंद के कान्तिसमूहले सुशोभित हाथसे उस शक्तिको आजमाकर वेगपूर्वक कुजम्भके ऊपर छोड़ दिया। उस शक्तिने कुजम्भके दारुण हृदयको उसी प्रकार विदीर्ण कर दिया, जैसे निर्धन पुरुषकी अभिलषित धनाशा नष्ट हो जाती है। इस प्रकार वह | शक्ति उसके हृदयको विदीर्ण करके भूतलपर जा गिरी, जिससे भयंकर आकृतिवाला वह दानव दो घड़ीतक मूच्छित पड़ा रहा। (मूर्च्छा भङ्ग होनेपर) उस दैत्यने एक लम्बे एवं तेज मुखवाले पट्टिशको हाथमें लिया। उसने उस पट्टिशसे कुबेरके स्तनोंके मध्यभागको इस प्रकार विदीर्ण कर दिया जैसे दुर्जन पुरुष अपने मर्मभेदी कठोर वाक्यसे सत्पुरुषके हृदयको विदीर्ण कर देता है। उस पट्टिशके आघातसे धनेश मूच्छित हो गये और रथके पिछले भागमें बूढ़े बैलकी तरह लुढ़क पड़े ।। 76 - 85 ॥
उन नरवाहन कुबेरको मूर्च्छित हुआ देखकर निर्ऋतिदेवने हाथमें तलवार लेकर निशाचरोंकी सेनाके | साथ वेगपूर्वक भयंकर पराक्रमी कुजम्भपर आक्रमणकिया। तब दुर्धर्ष राक्षसेश्वर निर्ऋतिको आक्रमण करते देख कुजम्भने उन राक्षसेन्द्रका वध करनेके लिये अपनी सेनाओंको ललकारा। भल्ल आदि नाना प्रकारके अस्त्रोंको धारण करनेसे भयंकर रूपवाली उस सेनाको आगे बढ़ते देखकर आभूषणोंकी कान्तिसे उद्भासित होते हुए निर्ऋतिदेव रथसे वेगपूर्वक कूद पड़े और गोली कान्तिवाले म्यानसे तलवार खींचकर उससे शत्रुओंके विचित्र आकारवाले मुखोंको कमल पुष्पकी तरह काटने लगे। उस समय दाँतोंसे होंठको चबाने एवं भौहें चढ़ी होनेके कारण उनका मुख भयंकर दीख रहा था और प्रचण्ड क्रोधके कारण उनके नेत्र लाल हो गये थे। इस प्रकार लम्बी भुजाओंवाले निर्ऋति रणभूमि में आगे-पीछे, ऊपर-नीचे चारों ओर घूम-घूमकर उस विशाल तलवारसे दानवोंको टुकड़े-टुकड़े कर रहे थे। इस प्रकार अपनी सेनाको समाप्तप्राय देखकर कुजम्भने कुबेरको छोड़कर राक्षसेश्वर निर्ऋतिपर धावा बोल दिया ll 86 - 92 ॥
इधर जब जम्भकी मूर्च्छा भंग हुई, तब उसने कुबेरके अनुचर हजारों यक्षोंको जीते जी पकड़कर पाशोंसे बाँध लिया तथा दानवोंने उनके अनेकों प्रकारके मूर्तिमान् रत्नों वाहनों और हजारों दिव्य विमानोंको अपने अधीन कर लिया। उधर जब कुबेरकी चेतना लौटी तब उस दशाको देखकर क्रोधवश उनके नेत्र लाल हो गये और वे लम्बी एवं गरम साँस लेने लगे। तत्पश्चात् उन्होंने दिव्य गारुडास्त्रका ध्यान करके उस बाणका धनुषपर संधान किया और फिर उस शत्रुनाशक बाणको दानवोंकी सेनापर छोड़ दिया। पहले तो उनके धनुषसे धुएँकी पङ्कियाँ प्रकट हुई। तदनन्तर उससे जलती हुई करोड़ों चिनगारियाँ निकलने लगीं। तत्पश्चात् उस अस्त्रने आकाशको चारों ओरसे लपटोंसे व्याप्त कर दिया। फिर वह नाना प्रकारके रूपोंमें फैलकर दुर्निवार हो गया। उस समय अन्धकारसे आच्छादित होनेके कारण सारा जगत् रूपरहित-सा दिखायी पड़ने लगा। तब आकाशमण्डलमें स्थित देवगण उस उत्कृष्ट तेजकी प्रशंसा करने लगे।यह देखकर परम पराक्रमी दानवराज जम्भ सिंहनाद करता हुआ पैदल ही वेगपूर्वक कुबेरपर चढ़ दौड़ा ॥ 93 100 ॥ इस प्रकार उस दैत्यको अपनी ओर आता हुआ देखकर कुबेर घबरा उठे और रणभूमिसे भाग खड़े हुए। भागते समय उनका रत्नजटित उद्दीप्त मुकुट इस प्रकार भूतलपर गिर पड़ा मानो आकाशसे सूर्यका बिम्ब गिर पढ़ा हो 'रणभूमिसे स्वामीके पलायन कर जानेपर उनके आभूषणोंके समक्ष उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए वीरोंका संग्रामके मुहानेपर मर जाना उचित है। ऐसा निश्चयकर दुर्धर्ष यक्ष हाथोंमें नाना प्रकारके शस्त्रास्त्र धारणकर युद्धकी अभिलाषासे युक्त हो उस मुकुटको घेरकर खड़े हो गये; क्योंकि कुबेरके अनुचर वे वीरवर यक्ष स्वाभिमानके धनी थे। तदनन्तर उन्हें इस प्रकार युद्धोन्मुख देखकर प्रचण्ड पुरुषार्थी दानवराज जम्भ अमर्षसे भर गया। तब उसने पर्वतकी-सी गम्भीर एवं भयंकर आकारवाली भुशुण्डि लेकर उससे मुकुटके रक्षक निशाचरोंको पीस डाला। इस प्रकार उनका संहार कर उस देवशत्रु दानवने उस मुकुटको अपने रथपर रख लिया। तत्पश्चात् सिंहके समान पराक्रमी दैत्येन्द्र जम्ध युद्धभूमिमें कुबेरको जीतकर सैनिकोंके सभी आभूषणों, सम्पत्तियों तथा मूर्तिमान् रनोंको लेकर अपनी सेनाकी ओर चला गया। इधर कुबेर बाल बिखेरे हुए दीनभावसे देवराज इन्द्रके निकट चले गये ll 101-108 ।।
उधर असुरनन्दन राक्षसेश्वर निर्ऋति अपनी अमोघ राक्षसी मायाका आश्रय लेकर कुजम्भके साथ भिड़े हुए थे। उन्होंने जगत्को अन्धकारमय बनाकर राजकुम्भको मोहमें डाल दिया। उससे दानवोंकी सेनामें किसीको कुछ सूझ नहीं पड़ता था। वे एक पगसे दूसरे पगतक भी चलने में | असमर्थ हो गये थे तब उन्होंने अनेकों अस्त्रोंकी वर्षा करकेघने कुहासेके अन्धकारसे व्याकुल हुए वाहनोंवाली दानवोंकी उस विशाल सेनाका संहार कर दिया। इस प्रकार दैत्योंके मारे जाने एवं कुजम्भके किंकर्तव्यविमूढ हो जानेपर प्रलयकालीन मेघके समान शरीरवाले दानवेन्द्र महिषने उल्कासमूहसे सुशोभित सावित्र नामक अवको प्रकट किया। उस प्रतापशाली सावित्र नामक परमास्त्रके प्रकट होते ही सारा निविड़ अन्धकार नष्ट हो गया। तत्पश्चात् उस अस्त्रसे चिनगारियाँ निकलने लगीं, जिन्होंने सम्पूर्ण अन्धकारको नष्ट कर दिया। उस समय सारा जगत् शरद् ऋतुमें खिले हुए लाल कमलसमूहोंसे व्याप्त निर्मल सरोवरकी भाँति शोभा पाने लगा। इस प्रकार अन्धकारके नष्ट हो जानेपर जब दैत्येन्द्रोंको पुनः नेत्रज्योति प्राप्त हो गयी, तब वे क्रूर मनसे देवसेनाओंके साथ अद्भुत संग्राम करने लगे। क्रोधसे भरे हुए दैत्य शस्त्रोंका प्रहार तो कर ही रहे थे, साथ ही उन्होंने भुजंगास्त्रका भी प्रयोग किया ॥ 109-116ई ॥
तदनन्तर कुजम्भने अपना भयंकर धनुष और सर्प विषके समान विषैले बाणोंको लेकर शीघ्र ही राक्षसराजकी सेनापर धावा किया। तब अनुचरोंसहित राक्षसेन्द्र निर्ऋतिने उस दैत्यको आक्रमण करते देखकर उसे विषैले सर्पोके समान भीषण एवं तीखे बाणोंसे बींध दिया। उस समय वे इतनी फुर्तीसे बाण चला रहे थे कि बाणका लेना, संधान करना और छोड़ना दीख ही नहीं पड़ता था । विचित्र कर्म करनेवाले राक्षसेश्वरने बड़ी फुर्तीसे अपने | बागद्वारा उस देवद्रोही दैत्यके बागसमूहको काट दिया और एक अत्यन्त तेज बाणसे उसके ध्वजको भी काट गिराया। साथ ही एक भाला मारकर उसके सारथिको भी रथपर बैठनेके स्थानसे नीचे गिरा दिया। युद्धस्थलमें राक्षसेश्वरके उस कर्मको देखकर कुजग्भके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये, तब उस दानवने वेगपूर्वक रथसे कूदकर शरत्कालीन आकाशकी भाँति निर्मल तलवार और उदयकालीन चन्द्रमाके समान दस चिह्नोंसे सुशोभित ढाल हाथमें उठा लिया। फिर तो वह दैत्य रणभूमिमें बड़े पराक्रमसे राक्षसेश्वरकी ओर झपटा। उसे निकट आया हुआ देखकर राक्षसेश्वरने उसके हृदयपर मुदरसे प्रहार किया। उस प्रहारसे कुजम्भ क्षतिग्रस्त होकर विक्षुब्ध हो उठा। उस समय वह धैर्यशाली दानव निश्चेष्ट होकर पर्वतकी | तरह खड़ा रह गया। दो घड़ीके बाद आश्वस्त होनेपरअत्यन्त दुर्जय दानवेश्वरने रथपर आरूढ़ हो बायें हाथसे राक्षसेश्वरको पकड़ लिया। तब क्रोधसे भरा हुआ दैत्य कुजम्भ निर्ऋतिके बालोंको पकड़कर और घुटनोंसे दबाकर खड़ा हो गया तथा तलवारसे उनका सिर काट लेनेके लिये उद्यत हो गया। इसी बीच जलेश वरुणदेवने शीघ्र ही अपने पाशसे दानवेन्द्रकी दोनों भुजाओंको बाँध दिया। इस प्रकार दोनों भुजाओंके बंध जानेपर दैत्यका पुरुषार्थ विफल कर दिया गया । ll 117- 128 ॥
तदनन्तर पाशधारी वरुणने दयाको तिलाञ्जलि देकर उस दैत्यपर गदासे प्रहार किया। उस गदाघातसे घायल होकर कुजम्भ (मुख, नाक, कान आदि) छिद्रोंसे रक्त वमन करने लगा। उस समय उसका रूप ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो विद्युत्समूहोंसे आच्छादित मेघ हो । कुजम्भको ऐसी दशामें पड़ा देखकर तीक्ष्ण दाढ़ोंसे युक्त एवं विकराल मुखवाला महिषासुर अपने गहरे मुखको फैलाकर वरुण और निर्ऋति- इन दोनों देवताओंको निगल जानेका प्रयास करने लगा। तब वे दोनों देव उस दैत्यके क्रूर अभिप्रायको समझकर भयभीत हो गये और बड़ी शीघ्रतासे महिषासुरके रथ मार्गको छोड़कर हट गये। फिर भयसे व्याकुल होकर दोनों बड़े वेगसे दो भिन्न दिशाओंकी और भाग चले। उनमें निर्ऋतिने तो तुरंत ही भागकर इन्द्रकी शरण ग्रहण की। उधर कुपित महिषासुरने वरुणका पीछा किया। इस प्रकार वरुणको मौतके मुखमें पड़ा हुआ देखकर शोतरश्मि चन्द्रमाने अपने सोमास्त्रको प्रकट किया, जो हिमसमूहसे व्याप्त होनेके कारण अत्यन्त दुःसह था। उसी समय चन्द्रमाने अपने दूसरे अनुपम अस्त्र वायव्यास्त्रका भी प्रादुर्भाव किया। चन्द्रमाद्वारा छोड़े गये उस वायव्यास्त्र एवं सूखे हिमास्त्रसे सभी दानव व्यथित हो उठे। वे शीतसे जर्जर हो गये और उनका पुरुषार्थ जाता रहा। चन्द्रमाद्वारा चलाये गये अस्त्रोंसे महान् हिमराशिके गिरनेसे समस्त दानव न तो एक पग चल सकते थे और न अन ही उठाने में समर्थ थेll ll 129 - 137 ll
इस प्रकार चारों ओर असुर सैनिकोंके शरीर शोतसे ठिठुर गये। शीतसे काँपते हुए मुखवाला महिष भी प्रयत्नहीन हो गया। वह अपने दोनों हाथोंसे दोनों काँखोंको दबाकर नीचे मुख किये हुए बैठ गया। इस प्रकार चन्द्रमासे | पराजित हुए वे सभी दैत्य बदला चुकानेमें असमर्थ हो गये।तब वे युद्धकी अभिलाषाको दूर छोड़कर जीवनकी रक्षाके लिये खड़े रहे। इसी बीच क्रोधसे उद्दीत हुए कालनेमिने दैत्योंको ललकारते हुए कहा- 'भो भो शृङ्गारसे सुसज्जित शूरवीरो! तुम सभी शस्त्रास्त्रके पारगामी | विद्वान् हो। तुमलोगोंमेंसे एक-एक भी अपनी भुजाओंसे सारे जगत्को तौल सकता है तथा प्रत्येक व्यक्ति सम्पूर्ण चराचर जगत्को निगल जानेमें समर्थ है। सब-के-सब प्रबल पराक्रमी देवता एक साथ मिलकर भी यत्नपूर्वक तुमलोगोंमेंसे किसी एककी सोलहवीं कलाकी समता नहीं कर सकते। फिर भी तुमलोग समरभूमिमें देवताओंसे पराजित होकर क्यों भागे जा रहे हो? ठहरो! ऐसा करना शूरवीरोंके लिये, विशेषतया दैत्यवंशियोंके लिये उचित नहीं है। सारे संसारका संहार करनेमें समर्थ हमलोगोंका राजा तारकासुर यहाँ उपस्थित नहीं है। वह क्रुद्ध होकर इस युद्धसे भागे हुए लोगोंके प्राणोंका हरण कर लेगा' ।। 138 - 144 3 ॥
उस समय शीतके प्रभावसे उन दैत्योंकी श्रवणशक्ति और वाक् चातुरी नष्ट हो गयी थी, वे मूक हो गये थे तथा उनके दाँत कटकटा रहे थे। महासुर कालनेमिने उन दैत्योंको इस प्रकार शीतद्वारा व्यथित और चेतनारहित देखकर इस कार्यको कालद्वारा प्रेरित माना। फिर तो उसने आसुरी मायाका आश्रय लेकर अपने विशाल शरीरका विस्तार किया और उससे आकाशमण्डल, दिशाओं और विदिशाओंको व्याप्त कर लिया। फिर उस दानवेन्द्रने अपने शरीरमें दस हजार सूर्योका निर्माण किया। उसने मायाके बलसे दसों दिशाओंको प्रचण्ड अग्निसे पूर्ण कर दिया, जिससे क्षणमात्रमें सारी त्रिलोकी अग्निको लपटोंसे व्याप्त हो गयी। उस ज्वालासमूहसे चन्द्रमा शान्त हो गये। तदनन्तर कालनेमिकी मायासे दानवेन्द्रोंकी वह सेना क्रमशः शीतरूपी दुर्दिनके नष्ट हो जानेपर शोभा पाने लगी। इस प्रकार दानवोंकी सेनाको चेतनायुक्त | देखकर जगत्के एकमात्र नेत्रस्वरूप सूर्य क्रोधसे तिलमिला उठे, तब उन्होंने अरुणसे कहा ।। 145 - 151 ।।
सूर्य बोले- अरुण मेरे रथको शीघ्र यहाँ ले चलो जहाँ कालनेमिका रथ खड़ा है वहाँ (मेरा उसके साथ) शूरवीरोंवर विनाश करनेवाला भीषण संग्राम होगा। जिनके बलपर हमलोग निर्भर थे, वे चन्द्रदेव तो इस बुद्धमें परास्त | हो गये। इस प्रकार कहे जानेपर गरुडके अग्रज अरुणनेक्षेत कलंगियोंसे विभूषित एवं प्रयत्नपूर्वक वशमें किये गये अधोंसे जुते हुए रथको आगे बढ़ाया। तत्पश्चात् जगत्को उद्भासित करनेवाले महाभाग भगवान् सूर्यने अपना विशाल धनुष तथा सर्पकी-सी कान्तिवाले दो दिव्य वाणको हाथमें लिया। उनमेंसे एक बाणको संचारास्त्रसे संयुक्त करके चलाया तथा दूसरेको इन्द्रजालसे युक्त करके छोड़ दिया। संचारास्त्रके प्रयोगसे क्षणमात्रमें ही लोगोंके रूपोंका परिवर्तन हो गया। देवता दानवोंके और दानव देवताओंके रूपमें बदल गये। फिर तो दानव देवताओंको आत्मीय मानकर दैत्योंपर ही फुर्तीसे प्रहार करने लगे। प्रलयकालमें कृतान्तके समान क्रोधसे भरा हुआ कालनेमि किन्होंको तीखी तलवारसे, किन्होंको बाणोंकी वृष्टिसे, किन्हींको भयंकर गदाओंसे और किन्होंको भीषण कुठारोंसे मार गिराया तथा किन्होंके मस्तकों, भुजाओं और सारथिसहित रथोंको धराशायी कर दिया। उस प्रचण्ड वेगशाली दैत्यने किन्हींको रथके वेगपूर्वक धक्केसे पीस दिया तथा किन्होंको क्रोधपूर्वक कठोर मुक्केके प्रहारसे यमलोकका पथिक बना दिया ।। 152 - 160 ॥
उस समय देवताओंसे पराजित हुए बहुत-से दैत्योंको अपने रूपकी प्राप्ति हो चुकी थी, परंतु क्रोधसे भरा हुआ कालनेमि उनके रूपको नहीं जानता था इस प्रकार रणभूमिमें अपने पक्षके उन दैत्योंको मारा गया देखकर दानवराज नेमि दैत्यने कालनेमिसे कहा- 'कालनेमि ! मैं नेमि नामक असुर हूँ, देवता नहीं हूँ। तुम मुझे पहचानो । मायासे मोहित होनेके कारण तुमने युद्धस्थलमें बहुत से प्रचण्ड पराक्रमी दैत्योंका सफाया कर दिया है। देवताओंने इस युद्धमें दस लाख दुर्जय दैत्योंको मौतके घाट उतार दिया है। इसलिये अब तुम शीघ्रतापूर्वक सभी अस्त्रोंके निवारण करनेवाले ब्रह्मास्त्रका प्रयोग करो।' इस प्रकार नेमिद्वारा समझाये जानेपर दैत्यराज कालनेमिका चित्त सम्भ्रमके कारण व्याकुल हो गया, तब उसने बाणको ब्रह्मास्त्र से अभिमन्त्रित करके धनुषपर संधान किया तथा उस सुरकण्टक दैत्येन्द्रने स्वयं उसे छोड़ भी दिया। फिर तो उस अस्त्रके तेजसे चराचरसहित त्रिलोकी व्याप्त हो गयी। देवताओंको सारी सेना भयभीत हो गयी तथा युद्धभूमिमें संचारास्त्र स्वयं शान्त हो गया। उस अस्त्रके विफल हो जानेपर सूर्यका तेज नष्ट हो गया, तब उन्होंने महेन्द्रजालका आश्रय लेकर अपने | शरीरको करोड़ों रूपोंमें प्रकट किया । ll 161- 168 ॥उन रूपोंसे निकलती हुई किरणोंके गिरनेसे तीनों लोक आक्रान्त हो गये। उससे मज्जा और रक्तसे रहित दानवोंकी सेना संतप्त हो उठी। तत्पश्चात् सामर्थ्यशाली सूर्यदेवने चारों ओर अग्निकी अत्यन्त घोर वृष्टि की और दानवेन्द्रोंके नेत्रोंको अंधा कर दिया। हाथियोंकी मज्जाएँ गल गयीं और वे चुपचाप धराशायी हो गये। धूपसे पीड़ित हुए थोड़े लम्बी साँस खीचने लगे। प्याससे व्याकुल हुए रथी भी इधर-उधर पानीकी खोज करते हुए छायादार वृक्षों और पर्वतोंकी गुफाओंकी शरण लेने लगे। उस समय दावाग्नि प्रज्वलित हो उठी, जिसकी भयंकर ज्वालाने वृक्षोंको जलाकर भस्म कर दिया। जलाभिलाषी लोग सामने ही हिलोरें लेते हुए जलसे भरे हुए जलाशयको देखकर सामने स्थित रहनेपर भी दावाग्निसे पीड़ित होनेके कारण प्राप्त नहीं कर सकते थे, अतः जल न पाकर मुख फैलाये हुए भूतलपर गिरकर चेतनारहित हो जाते थे। भूतलपर जगह-जगह मरे हुए दैत्येश्वर दिखायी पड़ते थे। कहीं-कहीं टूटे हुए रथ तथा मरे हुए हाथी और घोड़े पड़े हुए थे। कहीं कुछ लोग बैठकर रक्त उगल रहे थे और कुछ दौड़ लगा रहे थे, जिनके शरीरसे रक्त, मज्जा और चर्बी टपक रही थी। कहीं हजारोंकी संख्यामें मरे हुए दानव दीख रहे थे। दानवेन्द्रोंके उस महान् विनाशके उपस्थित होनेपर कालनेमि क्रोधसे विह्वल हो उठा। प्रचण्ड क्रोधके कारण उसके नेत्र लाल हो गये। उसकी शरीरकान्ति प्रलयकालीन मेघके समान हो गयी। वह उमड़ते हुए सैकड़ों जलाशयोंके सदृश उछल पड़ा और गम्भीररूपसे ताल ठोंककर एवं सिंहनाद करके जगत्के प्राणियोंके हृदयोंको कम्पित कर दिया। फिर उसने आकाशमण्डलको आच्छादित कर सूर्यकी मायाको नष्ट कर दिया। तदनन्तर दानवेन्द्रकी सेनापर शीतल जलकी वर्षा होने लगी। दैत्यगण उस वृष्टिका अनुभव कर क्रमशः उसी प्रकार समाश्वस्त हो गये, जैसे भूतलपर सूखते हुए बीजाङ्कुर जलकी वृष्टिसे हरे-भरे हो जाते हैं । ll 169 - 180 ।।
तत्पश्चात् दुर्जय एवं महान् असुर कालनेमि मेयरूप होकर देवताओंकी सेनाओंपर भीषण शस्त्रवृष्टि करने लगा। प्रचण्ड पराक्रमी दैत्येन्द्रोंकी उस बाणवर्षासे पीड़ित हुए देवगणोंको शीतसे पीड़ित | गौओंकी तरह कोई आश्रयस्थान नहीं दीख रहा था।वे अस्त्र छोड़कर अपने-अपने हाथियों और घोड़ोंकी पीठॉपर चिपककर छिप गये। कहीं-कहीं भयभीत हुए देवगण रथोंमें लुक-छिप रहे थे। कुछ अन्य देवताओंके शरीर भयसे सिकुड़ गये थे, वे भयवश अपने हाथसे मुखको ढके हुए दसों दिशाओंमें इधर-उधर भाग-दौड़ कर रहे थे। इस प्रकार उस देव-विनाशक भीषण-संग्राममें शस्योंके आघातसे जिनकी संधियाँ -भिन्न हो गयी थीं, भुजाएँ कट गयी थी, मस्तक विदीर्ण हो गये थे तथा जंघा और जानु कट गये थे, ऐसे सैनिक, टूटे हुए हरसेवाले रथ और चूर-चूर हुए ध्वजाओंकी कतारें भूतलपर पड़ी हुई दीख रही थीं। जिनके शरीरोंसे बहते हुए रक्तसे गड्ढे भर जाते थे, ऐसे विदीर्ण अङ्गवाले घोड़ों और पर्वत सदृश विशालकाय गजराजोंसे पटी हुई वह रणभूमि विकृत और बीभत्स दिखायी पड़ रही थी। इस प्रकार उस युद्धमें महाबली महासुर कालनेमि दैत्यने दो ही घड़ीमें एक लाख गन्धर्वो, पाँच लाख यक्षों, साठ हजार राक्षसों, तीन लाख वेगशाली किंनरों और सात लाख प्रधान प्रधान पिशाचोंको कालके हवाले कर दिया। इनके | अतिरिक्त उसने निर्भय होकर अन्य देवजातियोंके असंख्य | वीरोंका संहार किया तथा अश्वविद्यानिपुण कालनेमिने विचित्र ढंगले अबेकि प्रहारसे करोड़ों देवताओंको यमलोकका पथिक बना दिया ।। 181 - 191 ॥
उस समय इस प्रकारकी भयंकर पराजय और | देवताओंका संहार उपस्थित होनेपर चित्र-विचित्र अस्त्र और उबल कवचसे सुसज्जित हो दोनों देवता अश्विनीकुमार क्रोधमें भरे हुए समरभूमिमें आगे बढ़े और कृतान्त एवं अग्निके समान पराक्रमी उस दैत्यपर प्रहार करने लगे। उस भगवनी आकृतिले भयंकर असुरको भूमि सम्मुख | पाकर एक-एकने तीखे अग्रभागवाले साठ-साठ बाणोंसे उसके मर्मस्थानोंपर आघात किया। उन दोनों अश्विनीकुमारोंके बाण प्रहारसे उसका चित्त कुछ दुःखी हो गया। फिर उसने आठ अरोंवाले चक्रको हाथमें लिया, जो तेलसे सफाया हुआ तथा रणमें अन्तकके समान विकराल था। उसने उस चक्रसे के रथके कुवरको कार गिराया। तत्पश्चात् उस दैत्यने धनुष और सर्पके समान जहरीले बाणोंको उठाया और आकाशमण्डलको बाणोंसे आच्छादित करके| उन दोनों देववैद्योंके मस्तकोंपर बाणवृष्टि प्रारम्भ की। तब उन दोनों देवोंने भी अपने तीखे अस्त्रोंसे उस दैत्यके बाणोंके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। उन दोनोंके उस कर्मको देखकर आश्चर्यचकित हुआ कालनेमि कुद्ध हो उठा। फिर तो उसने बड़े क्रोधसे अपने भयंकर मुद्गरको, जिसका सर्वाङ्गभाग लोहेका बना हुआ था तथा कालदण्डके समान अत्यन्त भीषण था, हाथमें लिया और बड़े वेगसे घुमाकर उसे अश्विनीकुमारोंके रथपर फेंक दिया। आकाशमार्गसे उस मुद्गरको अपनी ओर आते देखकर दोनों अश्विनीकुमार अपने-अपने रथको छोड़कर बड़े वेगसे भूतलपर कूद पड़े। तब स्वर्णसमूहसे सुसज्जित एवं पर्वतके समान विशाल उस मुद्गरने उन दोनों रथोंको चूर-चूर करके पृथ्वीको विदीर्ण कर दिया। उसके उस कर्मको देखकर विचित्र ढंगसे युद्ध करनेवाले देववैद्य अश्विनीकुमारोंने दानवेन्द्रोंको विमुख करनेवाले वज्रास्त्रका प्रयोग किया। फिर तो अत्यन्त भीषण वज्रमयी वृष्टि होने लगी । 192 - 202 ॥ उस समय दैत्येन्द्र कालनेमि भयंकर वज्र प्रहारोंसे आच्छादित हो उठा। क्षणमात्रमें ही सभी सैनिकोंके देखते-देखते उसके रथ, ध्वज, धनुष, चक्र और स्वर्णनिर्मित कवचके तिलके समान टुकड़े-टुकड़े हो गये। अश्विनीकुमारोंद्वारा किये गये उस दुष्कर कर्मको देखकर भयंकर पराक्रमी एवं महाबली दानवेन्द्र कालनेमिने उस युद्धके मुहानेपर नारायणास्त्रका प्रयोग किया और उस | अस्त्रके तेजसे वज्रास्त्रको शान्त कर दिया। उस वज्रास्त्रके शान्त हो जानेके बाद कालनेमि दोनों अश्विनीकुमारोंको जीते-जी पकड़ लेनेका प्रयत्न करने लगा। तब वे दोनों अश्विनीकुमार भयभीत होकर पैदल ही रणभूमिसे भागकर इन्द्रके रथके निकट जा पहुँचे। उस समय उनके शरीर काँप रहे थे और उन्होंने अस्त्रका भी त्याग कर दिया था। उस समय महाबली एवं क्रूर स्वभाववाला दैत्यराज कालनेमि भी दैत्योंकी सेनाके साथ अश्विनीकुमारोंका पीछा करते हुए इन्द्रके रथके निकट पहुँचा। उसे देखकर सभी प्राणी विह्वल हो गये और सबके मनमें भय छा गया। | दैत्यराज कालनेमिके उस क्रूर कर्मको देखकर सभी प्राणियोंनेमहेन्द्रकी पराजय मान ली, जो सम्पूर्ण लोकोंका विनाश करनेवाली थी। उस समय प्रधान प्रधान पर्वत विचलित हो उठे, आकाशमण्डलसे उल्काएँ गिरने लगीं, दसों दिशाओंमें बादल गरजने लगे और महासागरोंमें ज्वार उठने लगा । ll 203-210॥
उस समय पञ्चभूतोंके उस विकारको देखकर | शेषशय्यापर शयन करते हुए भगवान् गरुडध्वज योगनिद्राका त्याग कर सहसा जाग पड़े। लक्ष्मी अपने दोनों हाथोंसे जिनके चरणकमलोंकी निरन्तर सेवा करती रहती हैं, जिनके शरीरकी कान्ति शरत्कालीन आकाश एवं नीले कमल सी सुन्दर है, जिनका वक्षःस्थल कौस्तुभ मणिसे उद्भासित होता रहता है, जो चमकीले बाजूबंदसे प्रकाशित होते रहते हैं, उन सर्वव्यापी भगवान्ने देवताओंकी अस्त व्यस्तताका विचार कर गरुडका आह्वान किया। बुलाते ही हाथीके समान विशाल शरीरवाले गरुडके उपस्थित होनेपर भगवान् उनपर सवार होकर स्वयं देवताओंके निकट गये, उस समय उनके नाना प्रकारके दिव्यास्त्रोंका प्रचण्ड प्रकाश फैल रहा था। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि नूतन मेघकी सौ कान्तिवाले एवं उत्कट पुरुषार्थी दानवेन्द्रोंद्वारा खदेड़े जाते हुए देवराज इन्द्र उसी प्रकार भाग रहे हैं, जैसे भयंकर अभाग्यसे युक्त विस्तृत परिवारसे घिरा हुआ पुरुष कष्ट पाता है। फिर तो उस सुन्दर अवसरपर भगवान्ने तुरंत ही इन्द्रकी रक्षाके लिये निर्मल कर्म किया। उस समय दैत्योंको आकाशमें एक ज्योतिर्मण्डल दिखायी पड़ा, जो उदयाचलपर स्थित उष्ण कान्तिवाले सूर्यके समान चमक रहा था। तब दानवगण उस तेजके प्रभावको जाननेके इच्छुक हो उठे। इतनेमें ही उन्हें प्रलयकालीन अग्निकी भाँति भयंकर गरुड दीख पड़े। तत्पश्चात् गरुडपर बैठे हुए मेघसमूहकी सी कान्तिवाले अविनाशी भगवान् अच्युतका दर्शन हुआ। उन्हें देखकर असुरेन्द्रोंका मन हर्षसे परिपूर्ण हो गया (और वे कहने लगे) 'यही तो देवताओंका सर्वस्व है। इसे जीत लेनेपर देवताओंको पराजित हुआ ही समझना चाहिये। यही वह दैत्यसमूहका विनाश करनेवाला शत्रुसूदन केशव है। इसीका आश्रय ग्रहण कर देवगण लोकोंमें यज्ञ-भागके भोक्ता बने हुए हैं' ॥ 211 - 221 ॥
ऐसा कहकर कालनेमि प्रभृति दस महारथी दैत्य तथा वे सभी दानव युद्धस्थलमें आते हुए भगवान् विष्णुको चारों ओरसे घेरकर उनपर विविध प्रकारके अस्त्रोंसे प्रहार करने लगे।उस समय कालनेमिने भगवान् जनार्दनको साठ वाणोंसे, निमिने सौ बाणोंसे, मथनने असी बाणोंसे, जम्भकने सत्तर और शुम्भने दस बाणोंसे बींध दिया। शेष सभी प्रयत्नशील दैत्येधरोंसे एक-एकने रणभूमिमें गरुडसहित भगवान् विष्णुको दस-दस बाणोंसे चोटें पहुँचायें। तब उनके उस कर्मको सहन न कर दानवोंके विनाशक भगवान् विष्णुने एक-एक दानवको सीधे चोट करनेवाले छः-छः बाणोंसे घायल कर दिया। यह देखकर कालनेमिके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये। तब उसने पुनः कानतक खींचकर छोड़े गये तीन बाणोंसे भगवान् विष्णुके हृदयपर चोट की तपाये हुए सुवर्णकी सी कान्तिवाले कालनेमिके वे वाण विष्णुके हृदयपर उसी प्रकार शोभित हो रहे थे मानो फैलती हुई कान्तिवाले कौस्तुभ मणिको उद्दीत किरणें हों उन बागोंके आघातसे कुछ कष्टका अनुभव कर श्रीहरिने अपना मुद्रर उठाया और उसे लगातार वेगपूर्वक घुमाकर उस दानवपर फेंक दिया। वह मुद्रर अभी उसके निकटतम पहुँचा भी न था कि क्रोधसे भरे हुए दानवराजने अपने हाथकी फुर्ती दिखलाते हुए आकाशमार्गमें ही सैकड़ों बाणोंके प्रहारसे उसे तिल-तिल करके काट डाला। यह देखकर विशेषरूपसे | कुपित हुए भगवान् विष्णुने भयंकर भाला हाथमें लिया और | उससे उस दैत्यके हृदयपर गहरी चोट पहुँचायी (जिसके आघातसे वह मूच्छित हो गया) ।। 222-231 ।।
क्षणभरके पश्चात् जब उसकी चेतना लौटी, तव महासुर कालनेमिने तीखे अग्रभागवाली शक्ति हाथमें ली, जिसमें स्वर्णनिर्मित क्षुद्र घंटिकाएँ बज रही थीं। उस शक्तिसे दैत्य कालनेमिने भगवान् विष्णुकी बाय भुजाको विदीर्ण कर दिया। शक्तिके आघातसे घायल हुई भगवान् विष्णुकी भुजा रक्त बहाती हुई ऐसी शोभा पा रही थी। मानो पद्मरागमणिके बने हुए बाजूबंदसे विभूषित की गयी हो। तब कुपित हुए भगवान् विष्णुने विशाल धनुष और सतरह तीखे एवं मर्मभेदी बाणोंको हाथमें लिया। उनमेंसे उन्होंने नौ बाणोंसे उस दैत्यके हृदयको, चार बाणोंसे उसके सारथिको, एक बाणसे ध्वजको, दो वाणोंसे प्रत्यञ्चासहित धनुषको और एक वाणसे उसकी दाहिनी भुजाको बींध दिया। उस समय भगवान् विष्णुके बाणोंसे उस दैत्यका हृदय गम्भीररूपसे घायल हो गया था, उससे रक्तकी मोटी धाराएँ निकल रही | थीं, उसका मन पीडासे व्याकुल हो गया था और| वह झंझावातसे झकझोरे हुए पलाश-वृक्षकी भाँति काँप रहा था। उसे काँपता हुआ देखकर भगवान् केशवने गदा उठायी और उसे वेगपूर्वक कालनेमिके रथपर फेंक दिया। वह भयंकर एवं विशाल गदा कालनेमिके मस्तकपर जा गिरी। उसके आघातसे उस असुरका मस्तक चूर्ण हो गया, मुकुट पिस गया और शरीरके छिद्रोंसे रक्तकी धाराएँ बहने लगीं। उस समय वह ऐसा दीख रहा था मानो चूते हुए गेरु आदि धातुओंसे युक्त पर्वत हो । तत्पश्चात् वह मूच्छित होकर अपने टूटे हुए रथपर गिर पड़ा। उसके प्राणमात्र अवशेष थे। इस प्रकार रथके पिछले भाग में पड़े हुए उस दानवके प्रति चक्रायुधधारी एवं सामर्थ्यशाली शत्रुसूदन अच्युतने मुसकराते हुए यह बात कही-'असुर ! जाओ, इस समय तुम छोड़ दिये गये हो, अतः निर्भय होकर जीवन धारण करो। फिर थोड़े ही समयके बाद में ही तुम्हारा विनाश करूंगा।' भगवान् विष्णुके उस वचनको सुनकर कालनेमिका सारथि रथको लौटाकर कालनेमिको रणभूमिसे दूर हटा ले गया ।। 232 - 243 ॥