मत्स्यभगवान्ने कहा- रविनन्दन ! तदनन्तर परस्पर | विजयकी अभिलाषावाले देवताओं और दानवोंकी उन दोनों सेनाओंमें घमासान युद्ध होने लगा। नाना प्रकारके शस्त्रास्त्रोंसे लैस हुए दानवगण देवताओंके साथ युद्ध करते हुए एक-दूसरेसे भिड़ गये। उस समय वे ऐसा प्रतीत हो रहे थे मानो पर्वत पर्वतोंके साथ भिड़ गये हों। देवताओं और असुरोंके बीच छिड़ा हुआ वह युद्ध धर्म, अधर्म, दर्प और विनयसे युक्त होनेके कारण अत्यन्त अद्भुत लग रहा था। उस समय रथोंको पृथक् पृथक् आगे बढ़ाया जा रहा था, हाथियोंको उत्तेजित किया जा रहा था, चारों ओर सैनिक हाथमें तलवार लिये हुए आकाशमें उछल रहे थे, मुसल फेंके जा रहे थे, बाणोंकी वर्षा हो रही थी, धनुषका टंकार हो रहा था, मुहरगिराये जा रहे थे, इस प्रकार देवों और दानवोंसे व्याप्त हुए उस युद्धने भयंकर रूप धारण कर लिया है। वह युगान्तकालिक संवर्तक अग्निकी तरह जगत्को भयभीत करने लगा। दानवगण समरभूमिमें पृथक् पृथक् हाथोंसे फेंके गये परिधों और पर्वतोंसे इन्द्र आदि देवताओं पर प्रहार करने लगे। इस प्रकार रणभूमिमें विजयाभिलाषी बलवान् दानवोंद्वारा मारे जाते हुए उन देवताओंका मुख सूख गया और वे बड़ी कष्टपूर्ण स्थितिमें पड़ गये। दानवोंने उन्हें शूलोंसे बांध डाला, परिधोंकी चोटसे उनके मस्तक विदीर्ण तथा वक्षःस्थल चूर-चूर हो गये और उनके घावोंसे अविरल रक्त प्रवाहित होने लगा। असुरोंने देवताओंको बाणसमूहोंसे परिवेष्टित करके प्रयत्नहीन कर दिया। वे दानवी मायामें प्रविष्ट होकर किसी प्रकारकी भी चेष्टा करनेमें असमर्थ हो गये। देवताओंकी वह सेना प्राणरहितकी तरह विनष्ट हुई-सी दीख रही थी। असुरोंने उसे आयुध और प्रयत्नसे रहित कर दिया था ॥ 111 ॥
तदनन्तर सहस्रनेत्रधारी इन्द्र वज्रद्वारा दैत्योंके धनुषोंसे छूटे हुए भयंकर बाणोंको छिन्न-भिन्न करके दैत्योंकी भीषण सेनामें प्रविष्ट हुए। उन्होंने प्रधान प्रधान दैत्योंका वध करके दानवोंकी उस विशाल सेनाको तामस अस्त्रसमूहके प्रयोगसे अन्धकारमय बना दिया। इस प्रकार इन्द्रके पराक्रमसे घोर अन्धकारसे घिरे हुए वे दानव परस्पर एक दूसरेको तथा देवताओंके वाहनोंको भी नहीं पहचान पाते थे। इधर दानवी मायाके पाशसे मुक्त हुए श्रेष्ठ देवगण प्रयत्न करके दैत्येन्द्रोंके अन्धकारमय शरीरोंको काटकर गिराने लगे। उस नील कान्तिवाले अन्धकारसे घिरे हुए वे दानवगण मूच्छित होकर धराशायी होते हुए ऐसे लग रहे थे मानो कटे हुए पंखवाले पर्वत हों। दैत्येन्द्रोंको वह सेना समुद्रमें अन्धकारकी तरह एकत्र हो गयी और देवताओंद्वारा मारे जाते हुए दानव अन्धकारमय से हो गये। यह देखकर मय दानवने इन्द्रकी उस तामसी मायाको नष्ट करते हुए अपनी महान् राक्षसी मायाका सृजन किया। वह और्व नामक अग्निसे उत्पन्न हुई और प्रलयकालीन (भयंकर) प्रकाशको प्रकट कर रही थी। मयद्वारा रची गयी उस मायाने सम्पूर्ण देवताओंको जलाना आरम्भ किया। इधर सूर्यके समान तेजस्वी | शरीरवाले दैत्यगण युद्धस्थलमें तुरंत उठ खड़े हुए।इस प्रकार और्वी मायाके सम्पर्कसे जलते हुए देवगण शीतल किरणोंवाले एवं जलप्रदाता इन्द्रकी शरणमें गये। और्व अग्निसे जलनेके कारण देवताओंकी चेतना नष्ट हो रही थी तब संतप्त हुए देवगणोंने शरणकी इच्छासे वज्रभारी इन्द्रके पास जाकर उन्हें सूचित किया ॥ 12–21 ॥
इस प्रकार अपनी सेनाको मायाद्वारा संतप्त होती तथा दानवद्वारा मारी जाती देखकर देवराज इन्द्रके पूछनेपर वरुणने इस प्रकार कहा- 'इन्द्र ! ऊर्व एक ब्रह्मर्षिके पुत्र हैं वे पहलेसे ही तेजस्वी और गुणोंमें ब्रह्माके समान थे। उन्होंने अत्यन्त कठोर तप किया था। जब उनकी तपस्यासे सारा जगत् सूर्यकी भाँति संतप्त हो उठा, तब उनके निकट देवर्षियोंसहित दिव्य महर्षिगण उपस्थित हुए। उसी समय वहाँ दानवेश्वर हिरण्यकशिपु दानव भी पहुँचा। तब ब्रह्मर्षियोंने सर्वप्रथम उन परम तेजस्वी ऊर्व ऋषिको सूचना दी और फिर इस प्रकार धर्मयुक्त कहा- 'ऐश्वर्यशाली ऊर्व ऋषियोंके वंशोंमें इस संतान परम्पराकी जड़ कट चुकी है। एकमात्र आप शेष हैं, सो भी संतानहीन हैं। दूसरा कोई गोत्रकी वृद्धि करनेवाला विद्यमान है नहीं और आप ब्रह्मचर्य व्रतको धारणकर क्लेश सहन करते हुए तपमें ही लगे हुए हैं। भावितात्मा मुनियों तथा ब्राह्मणोंके बहुत-से गोत्र संततिके बिना केवल एक व्यक्तितक ही सीमित रह गये हैं। इस प्रकार मूलके नष्ट हो जानेपर हमलोगोंको पुनः पुत्रोत्पत्तिका कोई कारण नहीं दीख रहा है। आप तो तपस्याके प्रभावसे श्रेष्ठ और प्रजापतिके समान तेजस्वी हो गये हैं, अतः वंश-प्राप्तिके लिये प्रयत्न कीजिये और अपने द्वारा अपनी वृद्धि कीजिये। आपने धर्मोपार्जन तो कर ही लिया है, इसलिये अब दूसरे शरीरको रचना कीजिये अर्थात् संतानोत्पत्तिके लिये प्रयत्नशील होइये ॥ 22-30 ॥
मुनियोंद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर ऊर्व ऋषिके मर्मस्थानोंपर विशेष आघात पहुँचा, तब उन्होंने उन ऋषियोंकी निन्दा करते हुए इस प्रकार कहा 'ब्राह्मणकुलोत्पन्न जंगली फल मूलका आहार करते हुए आर्य कर्मके सेवनमें निरत आत्मदर्शी ब्राह्मणका भलीभाँति आचरण किया गया ब्रह्मचर्य ब्रह्मको भी विचलित कर सकता है। जो गृहस्थाश्रममें निवास करनेवाले हैं, उन लोगोंके लिये अन्य तीन वृत्तियाँ बतलायी गयी हैं, परंतु वनमें आश्रम बनाकर निवास करनेवाले हमलोगोंके लिये यहीं वृत्ति उत्तम है।जो लोग केवल जल पीकर, वायुका आहार कर, दाँतोंसे ही ओखलीका काम लेकर, पत्थरपर कुटे हुए पदार्थोंको खाकर, दस या पाँच स्थानोंपर अग्नि जलाकर उनके मध्यमें बैठकर तपस्या करनेवाले हैं तथा सुदुष्कर व्रतोंका पालन करते हुए तपस्यामें निरत हैं, वे लोग भी ब्रह्मचर्यको प्रधान मानकर परम गतिको प्राप्त होते हैं। परलोकमें ब्रह्मचर्यके महत्त्वको जाननेवाले लोग ऐसा कहते हैं कि ब्रह्मचर्य पालनसे ब्राह्मणको ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति होती है ब्रह्मचर्यमें धैर्य स्थित है, ब्रह्मचर्यमें तप स्थित है तथा जो ब्राह्मण ब्रह्मचर्यमें स्थित रहते हैं, वे मानो स्वर्गमें स्थित हैं लोकमें योगके बिना सिद्धि और सिद्धिके बिना यशकी प्राप्ति नहीं हो सकती तथा यशः प्राप्तिका मूल कारण परम तप ब्रह्मचर्यके बिना नहीं हो सकता। जो इन्द्रियसमूह और पञ्चमहाभूतोंको वशमें करके ब्रह्मचर्यका पालन करता है, उसके लिये इससे बढ़कर और कौन सा तप हो सकता है? अर्थात् कोई नहीं ॥ 31- 40 ।।
'योगाभ्यासके बिना जटा धारण करना, संकल्पके बिना व्रताचरण और ब्रह्मचर्य हीन दशामें नियमोंका पालन- ये तीनों दम्भ कहे जाते हैं कहाँ खो, कहाँ स्त्री-संयोग और कहाँ स्त्री-पुरुषका भाव-परिवर्तन ? परंतु इन सबके अभाव में ही ब्रह्माने इस सृष्टिको मनसे उत्पन्न को है और सारी प्रजाएँ भी मनसे ही प्रादुर्भूत हुई हैं। इसलिये आत्मज्ञानी आपलोगोंमें यदि तपस्याका बल है। तो प्रजापतिके कर्मानुसार आपलोग भी मानसिक पुत्रोंकी सृष्टि कीजिये। तपस्वियोंको मानसिक संकल्पद्वारा योनिका निर्माण कर उसमें आधान करना चाहिये। उनके लिये स्त्री-संयोग, बीज और व्रत आदिका विधान नहीं है। आपलोगोंने मेरे सामने निर्भय होकर जो यह धर्म और अर्थसे होने वचन कहा है, यह सत्पुरुषोंद्वारा अत्यन्त गति है मेरे विचारसे तो यह अज्ञानियोंकी उति-जैसा है। मैं अपने इस उद्दीस अन्तरात्मावाले शरीरको मनोमय करके स्त्री-संयोगके बिना ही अपने शरीरसे पुत्रकी सृष्टि करूँगा। इस प्रकार मेरा आत्मा इस वन्य (वानप्रस्थ) विधिके अनुसार प्रजाओंको जला देनेवाले दूसरे आत्मा (पुत्र) को उत्पन्न करेगा। तत्पश्चात् अर्वने तपस्यायें संलग्न होकर अपनी जधिको अग्निमें डालकर पुत्रकी उत्पत्तिके लिये एक कुशसे अरणि-मन्थन किया। तब सहसा उनकी जाँघका भेदन कर इन्धनरहित होनेपर भी ज्वालाओंसे युक्त | अग्नि जगत्को जला देनेकी इच्छासे पुत्ररूपमें प्रकट हुआ।इस प्रकार ऊर्वकी जाँघका भेदन कर वह और्व नामक विनाशकारी अग्नि उत्पन्न हुआ, जो परम क्रोधी और तीनों लोकोंको जला डालना चाहता था। उत्पन्न होते ही उसने मन्द स्वरमें पितासे कहा- 'तात! मुझे भूख कष्ट दे रही है, अतः मुझे छोड़िये मैं जगत्को खा जाऊंगा।' ऐसा कहकर वह विनाशकारी और्व अग्नि स्वर्गतक पहुँचनेवाली कलाओंसे युक्त हो दसों दिशाओंमें फैलकर समस्त प्राणियोंको भस्म करते हुए बढ़ने लगा। इसी बीच ब्रह्मा ऊर्व मुनिके निकट आये और उन्हें आदर देते हुए बोले- 'विप्रवर! तुम मेरी बात तो सुनो। अपने पुत्रको मना कर दो, जगत्पर दया तो करो। मैं तुम्हारे इस पुत्रको उत्तम स्थान प्रदान करूँगा। वक्ताओंमें श्रेष्ठ पुत्र ! मेरी यह बात एकदम सच है' ॥ 41-54 ॥
ऊर्व बोले- भगवन्! आज मैं धन्य हो गया। आपने मुझपर महान् अनुग्रह किया, जो मेरे पुत्रके लिये इस प्रकारकी बुद्धि दे रहे हैं। यह आपका मुझपर परम अनुग्रह है। किंतु प्रातः काल होनेपर जब वह पुत्र मेरे पास आयेगा तब मैं उसे किन पदार्थोंसे तृप्त करूँगा, जिससे उसे सुख प्राप्त हो सकेगा? इसका निवासस्थान कहाँ होगा? और इसका भोजन किस प्रकारका होगा ? (मुझे आशा है कि आप इस महान तेजस्वीके पराक्रमके अनुरूप ही सब विधान करेंगे ॥ 55-57 ॥
ब्रह्माने कहा- विप्रवर समुद्रमें स्थित बड़वाके मुखमें इसका निवास होगा और मेरे उत्पत्तिस्थानभूत जलको यह सुखपूर्वक पान करेगा। जहाँ मैं जलमय हविका पान करता हुआ नियत रूपसे निवास करता हूँ, वही हवि और वही स्थान मैं तुम्हारे पुत्रके लिये भी दे रहा हूँ। पुत्र ! तत्पश्चात् युगान्तके समय यह और मैं दोनों एक साथ होकर पुत्रहीन प्राणियोंको पितृ-ऋणसे मुक्त करते हुए विचरण करेंगे। इस प्रकार मैंने इस अग्निको जलभक्षी तथा अन्तकालमें देवता, असुर और राक्षसोंसहित समस्त प्राणियोंको दग्ध कर देनेवाला बना दिया। यह सुनकर ऊर्वने 'एवमस्तु—ऐसा ही हो' कहकर ब्रह्म-वाणीका अनुमोदन किया। तदुपरान्त ज्वालामण्डलसे घिरा हुआ वह अग्नि अपनी कान्तिको पिता ऊर्वमें निहित कर समुद्रके मुखमें प्रविष्ट हो गया। इसके बाद ब्रह्मा ब्रह्मलोकको चले गये और वहाँ उपस्थित सभी महर्षि और्व अग्निकी प्रभाका महत्त्व जानकर अपने अपने स्थानको चले गये ll 58- 63 llतदनन्तर उस महान् अद्भुत प्रसङ्गको देखकर हिरण्यकशिपु ऊर्व मुनिको साङ्ग प्रणाम उच्चार इस प्रकार बोला- 'भगवन् । यह तो अत्यन्त अद्भुत घटना घटित हुई। सारा जगत् इसका साक्षी है। मुनिश्रेष्ठ। आपकी तपस्यासे पितामह ब्रह्मा संतुष्ट हो गये हैं। महाव्रत। आप ऐसा समझिये कि मैं आपका तथा आपके पुत्रका भृत्य हैं, अतः यहाँ जो कुछ कार्य हो, उसके लिये मुझे आज्ञा दीजिये। मुझे अपना शरणागत समझिये। मैं आपकी ही आराधनामें निरत हूँ। मुनिश्रेष्ठ। इसपर भी यदि मैं कष्ट पाता हूँ तो यह आपकी ही पराजय होगी । ll 64-67 ॥
ऊर्वने कहा- सुव्रत। यदि मैं तुम्हारे गुरुके रूपमें स्थित हूँ तो मैं धन्य हो गया। तुमने मुझपर महान् अनुग्रह किया। अब तुम्हें मेरी इस तपस्याके बलसे जगत् में किसी प्रकारका भय नहीं है। इसके लिये तुम मेरे पुत्रद्वारा निर्मित उसी मायाको ग्रहण करो, जो इन्धनरहित होनेपर भी अग्निमयी और अग्नियोंद्वारा भी दुर्धर्ष है शत्रुओंका निग्रह करते समय यह माया तुम्हारे निजी वंशके वशमें रहेगी। यह आत्मपक्षका संरक्षण और विपक्षका विनाश करेगी। यह सुनकर दानवेश्वर हिरण्यकशिपुने 'एवमस्तु ऐसा ही हो' यों कहकर उस मायाको ग्रहणकर मुनिश्रेष्ठ ऊर्वको प्रणाम किया और वह कृतार्थ होकर प्रसन्नतापूर्वक स्वर्गको चला गया। (वरुण कहते हैं-) यह वही माया है, जो असह्य और देवताओंके लिये भी दुर्गम्य है। इसे पूर्वकालमें ऊर्वके पुत्र और्व अग्निने निर्मित किया था। उस हिरण्यकशिपु दैत्यके मर जानेपर निःसंदेह यह माया शक्तिहीन हो जायगी; क्योंकि यह जिसके तेजसे उत्पन्न हुई थी, उन ऊर्व ऋषिने इसे पहले ही ऐसा शाप दे रखा है। अतः शक्र ! यदि आप इसका विनाश करके सबको सुखी करना चाहते हैं तो जलके उत्पत्तिस्थान चन्द्रमाको मुझे सखारूपमें प्रदान कीजिये जल-जन्तुओंसे घिरा हुआ मैं उनके साथ रहकर आपकी कृपासे इस मायाको नष्ट कर डालूँगा- इसमें संशय नहीं है ll 68-75 ॥