सूतजी कहते हैं-थियो। शंकरजीद्वारा उत्साहित किये जानेपर देवराज इन्द्र, सभी लोकपाल और गणपाल सब ओरसे उन असुरोंका वध करनेके लिये चले और आकाशकी ओर उछल पड़े। आकाशमें पहुँचकर वे पंखधारी पर्वतकी तरह शोभा पाने लगे। तत्पश्चात् वे शङ्ख और डंकेके निर्घोषके साथ-साथ ढोलों और नगाड़ोंको पीटते हुए त्रिपुरका विनाश करनेके लिये उसी प्रकार आगे बढ़ें, जैसे व्याधियाँ शरीरको नष्ट कर देती हैं। इतनेमें त्रिपुरवासी दानवोंने देवगणोंको आगे बढ़ते हुए देख लिया। फिर तो ये महाबली असुर 'शंकर (यहाँ भी) आ गये'- ऐसा कहकर प्रलयकालीन सागरोंकी तरह परम क्षुब्ध हो उठे। तब भयंकर रूपधारी दानव | देवताओंकी तुरहियोंका शब्द सुनकर नाना प्रकारके बाजे बजाते हुए बारंबार उच्च स्वरसे गर्जना करने लगे। तत्पश्चात् पुनः पराक्रम प्रकट करनेवाले वे दानव और देव परस्पर क्रुद्ध होकर एक-दूसरेपर प्रहार करने लगे। दोनों सेनाओंमें समानरूपसे सिंहनाद हो रहे थे। उनके शरीर कट-कटकर गिर रहे थे। फिर तो प्रहार करनेवालोंकी गर्जनाके साथ साथ अनुपम युद्ध छिड़ गया। उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो अनेकों सूर्य गिर रहे हैं, अग्नियाँ प्रज्वलित हो उठी हैं, विषधर सर्प फुफकार मार रहे हैं, पक्षी | आकाशमें चक्कर काट रहे हैं, पर्वत काँप रहे हैं, बादलगरज रहे हैं, सिंह जमुहाई ले रहे हैं, भयानक झंझावात चल रहा है और उछलती हुई लहरोंके समूहसे सागर क्षुब्ध हो उठा है। इस प्रकार महान् शूरवीर प्रमथ और महाबली दानव उसी प्रकार डटकर युद्ध कर रहे थे, जैसे महान् पर्वतोंसे टकरानेपर भी वज्र अटल रहता है॥ 1-10 ॥ जैसे आकाशमें वायुद्वारा प्रेरित किये जानेपर
प्रलयकालीन मेघोंकी गर्जना होती है, उसी तरह खींचे जाते हुए धनुषोंके भीषण शब्द हो रहे थे। युद्धभूमिमें दोनों औरके वीर परस्पर 'मत डरो, कहाँ भागकर जाओगे, अब तो तुम मेरे ही हो, शीघ्र प्रहार करो, मैं यहाँ खड़ा हूँ, आओ और अपना पुरुषार्थ दिखाओ, पकड़ लो, काट डालो, विदीर्ण कर दो, खा लो, मार डालो, फाड़ डालो'- ऐसा शब्द बोल रहे थे और पुनः शान्त होकर यमलोकके पथिक बन जाते थे। उनमेंसे कुछ वीर तलवारसे काट डाले गये थे, कुछ फरसोंसे छिन्न-भिन्न कर दिये गये थे, कुछ मुद्गरोंकी मारसे चूर्ण सरीखे हो गये थे, कुछ हाथके चपेटोंसे घायल कर दिये गये, कुछ पट्टिशों (पटों) के प्रहारसे मार डाले गये और कुछ फूलोंसे विदीर्ण कर दिये गये सरपतके फूलकी-सी कान्तिवाले दानव वनसहित पर्वतोंकी तरह भयंकर नाक और तिमिगिलोंसे भरे हुए समुद्र के जलमें गिर रहे थे। दानवोंके कवच आदिसे भलीभाँति बँधे हुए प्राणरहित शरीरोंके समुद्रमें गिरनेसे सजल जलधरकी गर्जनाके समान शब्द हो रहा था। उस शब्दसे तथा दानवोंके रुधिरकी गन्धसे मतवाले हुए मगर, नाक, तिमि और तिमिंगिल आदि जन्तु महासागरको क्षुब्ध कर रहे थे। वे भयंकर आकारवाले जलजन्तु परस्पर झगड़ते हुए दानवोंका रुधिर पान कर चक्कर काट रहे थे। यूथ-के-यूथ मगरमच्छ अन्य जल-जन्तुओंको खदेड़कर रथ, आयुध, अश्व, वस्त्र और आभूषणों सहित दैत्योंको निगल जाते थे। जिस प्रकार आकाशमें दानवों और प्रमथोंका युद्ध चल रहा था, उसी तरह समुद्रमें जलजन्तु (शवको खानेके लिये) परस्पर लड़ रहे थे ll 11-20 ॥
उस समय जैसे आकाशमें प्रमथगण दैत्योंके साथ युद्ध करते हुए चक्कर काट रहे थे, वैसे ही जलमें मगरमच्छ नाकोंके साथ झगड़ते हुए घूम रहे थे। जैसे देवता और दानव परस्पर एक-दूसरेके शरीरको काट रहे थे, वैसे ही मगरमच्छ और नाक भी एक-दूसरेके शरीरकोविदीर्ण कर चीत्कार कर रहे थे। देवताओं असुरों, नाकों और तिमिंगिलोंके घावों और मुखोंसे बहते हुए रुधिरसे समुद्रके उस प्रदेशका जल मुहूर्तमात्रके लिये रक्तयुक्त हो गया और वहाँ बाढ़ आ गयी। उस त्रिपुरका पूर्वद्वार अत्यन्त विशाल और काले मेघ तथा पर्वतके | समान कान्तिमान् था। महान् बलशाली इन्द्र देवताओंकी विशाल सेनाके साथ उस द्वारको अवरुद्ध कर खड़े थे। उसी प्रकार उदयकालीन सूर्य और सुवर्णके तुल्य रंगवाले शंकरजीके आत्मज स्कन्द त्रिपुरके उत्तरद्वारपर ऐसे चढ़े हुए थे मानो बढ़े हुए सूर्य अस्ताचलके शिखरोंपर चढ़ रहे हों। दण्डधारी यमराज और अपने श्रेष्ठ अस्त्र पाशको धारण किये हुए कुबेर ये दोनों देवता उस देवशत्रु मयके पुरके पश्चिमद्वारपर घेरा डाले हुए थे। दस हजार सूर्योकी-सी आभावाले दक्षके शत्रु त्रिनेत्रधारी भगवान् रुद्रदेव उस उद्दीष्ट देवरथपर आरूढ़ होकर शत्रु-नगरके दक्षिणद्वारको रोककर स्थित थे। उस त्रिपुरके फाटकों सहित स्वर्णनिर्मित ऊँचे-ऊंचे महलोंको, जो कैलास और चन्द्रमाके सदृश चमक रहे थे, प्रसन्न मुखवाले प्रमथोंने उसी प्रकार अवरुद्ध कर रखा था, जैसे उपलोंकी वर्षा करनेवाले मेघ ज्योतिर्गणोंको घेर लेते हैं। काले मेमकी-सी कान्तिवाले प्रमधगण दानवोंके | पर्वतमालाके सदृश ऊँची-ऊँची वेदिकाओंसे युक्त गृहोंको, जो लाल वर्णवाले तथा अशोक वृक्षों एवं अन्यान्य वनोंसे युक्त थे और जिनमें कोयलें कूक रही थीं, उखाड़ उखाड़कर लगातार समुद्रमें फेंक रहे थे और उच्च स्वरसे गर्जना कर रहे थे। गृहाँको उखाड़ते समय उनमें रहनेवाली स्त्रियाँ- 'हे नाथ! हा पिता! अरे पुत्र ! हाय भाई! हाय कान्त! हे प्रियतम!' आदि अनेक प्रकारके अनार्योचित शब्द बोल रही थीं।इस प्रकार जब उस पुरमें स्त्री, पुत्र तथा प्राणका विनाश करनेवाला अत्यन्त भीषण युद्ध होने लगा, तब सागरतुल्य वेगशाली महान् असुर और गणेश्वर क्रोधसे भर गये। फिर तो कुठार, शिलाखण्ड, त्रिशूल, श्रेष्ठ वज्र और कम्पन* (एक प्रकारका शस्त्र) आदिके प्रहारसे शरीर और गृहको विनष्ट करनेवाला अत्यन्त घोर युद्ध आरम्भ हो गया; क्योंकि दोनों सेनाओंमें सुदृढ़ वैर बँधा हुआ था। परस्पर एक दूसरेको लक्ष्य करके मर्दन, आक्रमण और प्रहार करनेवाले देवताओं और दानवोंका प्रलयकालमें सागरोंकी गर्जनाको भाँति भीषण शब्द होने लगा ॥ 21-32 ॥
उस समय वे गणेश्वर और असुरश्रेष्ठ घावोंसे | निरन्तर रक्तकी धारा बहाते हुए, बारंबार गरजते हुए और भयंकर शब्द बोलते हुए युद्ध कर रहे थे। उस पुरमें स्वर्ण और स्फटिक मणिकी ईंटोंसे बने हुए जो चित्र विचित्र मार्ग थे, वे दो ही घड़ीमें रुधिरयुक्त कीचड़से भर दिये गये। जो सुखपूर्वक चलनेयोग्य थे, वे कटे हुए मस्तकों, पादों और पैरोंसे व्याप्त हो जानेके कारण दुर्गम हो गये। तब तारकासुर क्रोधसे आँखें तरेरता हुआ वृक्ष और पर्वत हाथमें लेकर युद्धस्थलमें आ पहुँचा। वह उस समय अद्भुत पराक्रमी शंकरद्वारा अवरुद्ध किये गये दक्षिणद्वारकी रक्षा करना चाहता था। महान् पराक्रमी एवं अद्भुत सत्त्वशाली तारकासुर अपनी इन्द्रियोंके गर्वसे उन्मत्त होकर परकोटोंपर चढ़े हुए भूतगणोंको काटकर वहाँ विचरण करने लगा। पुनः नगरसे बाहर निकलकर उसने घोर गर्जना की। पर्वतकी-सी आभावाला दैत्येन्द्र तारक मतवाले हाथीकी तरह शीघ्र ही शंकरजीके रथको पकड़ लेना चाहता था, परंतु प्रमथोंद्वारा इस प्रकार रोक दिया गया, जैसे बढ़ते हुए समुद्रको उसका तट रोक देता है। उस समय शेषनाग, ब्रह्मा तथा सुन्दर धनुष धारण करनेवाले और पर्वतपर शयन करनेवाले त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकर युद्धस्थलमें तारकासुरके आ जानेसे उसी प्रकार क्षुब्ध | हो गये, जैसे वायुके वेगसे सागर उद्वेलित हो उठते हैं।आकाशस्थित रथपर बैठे हुए बलसम्पन्न शेषनाग, शंकर और ब्रह्माने विशेष क्षुब्ध होकर पृथक् पृथक् तारकासुरके शरीरकी संधियोंको बींध दिया और वे घोर गर्जना करने लगे। उस समय हाथमें धनुष-बाण लिये हुए भगवान् शंकर अपना एक पैर ऋग्वेदरूप घोड़ेकी तथा दूसरा पैर नन्दीश्वरकी पीठपर रखकर त्रिपुरोंके परस्पर सम्मिलनकी प्रतीक्षा करते हुए खड़े हो गये। उस समय शंकरजीके पैर रखनेसे उन त्रिशूलधारी के भारसे पीड़ित हुए अश्वके स्तन और वृषभके दाँत टूटकर गिर पड़े। तभीसे घोड़ोंके स्तन और गो-वंशके (ऊपरी जबड़ेके) दाँत गुप्त हो गये। इसी कारण वे दिखायी नहीं पड़ते। उसी समय जिसके नेत्रोंके अन्तर्भाग भयंकर और लाल थे, उस भीषण नेत्रोंवाले तारकासुरको भगवान् रुद्रके निकट आते देखकर कुलको आनन्दित करनेवाले नन्दीने रोक दिया तथा उन्होंने अपने तीखे कुठारसे उस दानवेश्वरके शरीरको इस प्रकार छील डाला, जैसे गन्धकी इच्छावाला (अथवा इत्र बनानेवाला) बढ़ई चन्दन-वृक्षको छाँट देता है। कुठारके आघातसे आहत हुए शूरवीर तारकासुरने पर्वतीय सिंहकी तरह क्रुद्ध होकर म्यानसे तलवार खींचकर गणेश्वर नन्दीपर आक्रमण किया। तब नन्दीश्वरने यज्ञोपवीत मार्गले (अर्थात् जनेऊ पहनने की जगह बाएं कंधेसे लेकर दाहिने कटितटतक) तिरछे रूपमें तारकासुरके शरीरको विदीर्ण कर दिया और भयंकर गर्जना की। फिर तो वहाँ तारकासुरके मारे जानेपर गणेश्वरोंके भयंकर सिंहनाद गूंज उठे और उनके शङ्खोंक भीषण शब्द होने लगे 33 – 46 ।।
तब प्रमथगणोंके सिंहनाद और उनके बाजके भीषण शब्दको सुनकर बगलमें ही स्थित मयदानवने महान बलशाली विद्युन्मालीसे पूछा- 'विद्युन्मालिन्। बताओ तो सही, अनेकों मुखोंवाले प्रमथगणोंका सागरकी गर्जनाके समान यह भयंकर सिंहनाद क्यों सुनायी पड़ रहा है? ये गणेश्वर क्यों गजराज से गरजते हुए इतने उत्साहसे युद्ध कर रहे हैं?' इस प्रकार मयके वचनरूपी अङ्कुश पीड़ित हुआ किरणमाली सूर्यकी तरह तेजस्वी शत्रुदमन विद्युन्माली, जो तुरंत ही देवताओंके युद्धके मुहानेसे लौटकर आया था, अत्यन्त दुःखके साथ मयसे इस | प्रकार बोला- 'धैर्यशाली राजन्! जो यम, वरुण, महेन्द्र और रुद्रके समान पराक्रमी, आपकी कीर्तिका निधिस्वरूप, | समस्त युद्धोंके मुहानेपर पर्वतराजकी भाँति डटा रहनेवाला|और युद्धभूमिमें शत्रुओंके लिये संतापदायक था, वह तारक गणेश्वरोंद्वारा निहत हो गया। सूर्य एवं प्रज्वलित अग्निके समान भयंकर विशाल नेत्रोंवाले तारकको मारा गया सुनकर हर्षके कारण सभी प्रमथोंके शरीर पुलकित और नेत्र उत्फुल्ल हो गये हैं और वे बादलोंकी तरह गर्जना कर रहे हैं।' अपने मित्र विद्युन्मालीके इस तत्त्वपूर्ण वचनको सुनकर कज्जलगिरिके सदृश शरीरवाला स्वर्णमालाधारी मय रणके मुहानेपर विद्युन्मालीसे इस प्रकार बोला- 'विद्युन्मालिन् ! अब हमलोगोंके लिये अवहेलना (प्रमाद)-पूर्वक समय बिताना ठीक नहीं है। मैं अपने पराक्रमसे पुन: इस त्रिपुरको आपत्तिरहित बनाऊँगा।' फिर तो मिली और त्रिपुराधिपति मय दोनोंने क्रुद्ध होकर महासुरोंकी विशाल सेनाके साथ गणेश्वरोंको मारना आरम्भ किया। उस समय त्रिपुरमें विद्युन्माली और मय जिस-जिस मार्गसे निकलते थे, वे मार्ग प्रमथोंके घायल होकर भाग जानेसे शून्य हो जाते थे। तब यम और वरुणके मृदङ्गघोष और ढोल, नगारे एवं धनुषकी प्रत्यञ्चाके निनादके साथ-साथ ताली बजाते और सिंहनाद करते हुए सभी देवगण शङ्करजीकी पूजा करके उन्हें घेरकर खड़े हो गये। सूर्यके समान तेजस्वी उन महात्मा देवगणोंद्वारा पूजित होते हुए तथा सत्यपरायण तपस्वियोंद्वारा स्तुति किये जाते हुए भगवान् शङ्कर अस्ताचलके शिखर पर पहुंचे हुए सूर्यकी भाँति सुशोभित हो रहे थे ll 047-57॥